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अस्तित्व और अहिंसा
दुःख का अभाव है ? दुःख का अभाव सुख है, यह आंशिक सचाई ही हो सकती है ।
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सुख : भावात्मक परिभाषा
नीतिशास्त्री सिजविक ने सुख की परिभाषा की - वांछनीयता की अनुभूति का नाम सुख है । जो अनुभूति वांछनीय है, वह सुख हैं । यह भावात्मक परिभाषा है । हमें जो जो वांछनीय अनुभूतियां होती हैं, उन्हीं के बारे में हम चाहते हैं— पुनः ऐसा ही हो । यह हमारा सुख पक्ष है । ऐसी ही परिभाषा नैयायिक और वैशेषिक दर्शन में प्राप्त होती है - ' अनुकूल वेदनीयं सुखम्, प्रतिकूल वेदनीयं दुःखम्' जो अनुकूल वेदनीय है, वह सुख है । जो प्रतिकूल वेदनीय है, वह दुःख है ।
वस्तुतः सुख-दुःख की परिभाषा करते समय हमें चेतना को अनेक स्तरों में बांट लेना चाहिए। ऐसा किए बिना सुख को समग्रता से परिभाषित नहीं किया जा सकता । एक सुख है इन्द्रिय संवेदना का पांच इन्द्रियां हैं । उनके अनुकूल विषय मिलते हैं तो सुख होता है । इन्द्रिय संवेदन के आधार पर—अनुकूलं वेदनीयं सुखं – यह परिभाषा घटित हो सकती है किन्तु मानसिक एवं भावात्मक स्तर पर यह परिभाषा घटित नहीं हो सकती । सुखदुःख की बहुत सारी परिभाषाएं इन्द्रिय और मन के स्तर पर की गई, भावनात्मक स्तर पर उसकी बहुत कम परिभाषाएं की गई । इंद्रिय संवेदन और सुख
हम इन्द्रिय स्तर की बात करें । एक आदमी अपने वातानुकूलित मकान में बैठा है । वह भोजन कर रहा है । उसकी थाली में रुचिकर पदार्थ परोसे हुए हैं । पत्नी पंखा झल रही है । सारा वातावरण अनुकूल है । खाते समय अनुकूल इन्द्रिय संवेदन हो रहा है, बड़े सुख का अनुभव हो रहा है । उसी समय एक फोन आया-पच्चास लाख का घाटा लग गया है । अव क्या होगा ? वे ही रुचिकर पदार्थ सामने हैं, सुख-सुविधा के साधन भी वे ही हैं, किन्तु इन्द्रिय संवेदन का सुख समाप्त हो गया । मन पर एक गहरा आघात लगा । जो पदार्थ, जो खाना सुख दे रहा था, वह जहर के समान लगने लगा । यह कैसे हुआ
?
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जिस स्तर पर सुख का संवेदन था, दूसरा स्तर आते ही वह संवेदन समाप्त हो गया, दुःख का स्रोत फूट पड़ा व्यक्ति अपने दुःख से मूढ बन गया । घाटा कहीं लगा था किन्तु अपने भीतर मूर्च्छा थी, दुःख था । प्रकट हुआ, व्यक्ति अपने ही दुःख से मूढ बना, सुख के स्थान पर दुःख का साम्राज्य हो गया ।
वह
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