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अस्तित्व और अहिंसा मन की शान्ति कभी भंग नहीं होती। सत्य पवित्र होता है, उसमें कोई कुटिलता या कलुषता नहीं हो सकती ।।
सार की जो कसौटियां हैं, वे सत्य में उपलब्ध है । सत्य, संयम या ऋजुता के सिवाय ये कसौटियां कहीं प्राप्त नहीं होतीं इसीलिए महावीर ने कहा--सत्य लोक में सारभूत है । यह वाक्य बहुत सुन्दर लगता है। एक शब्द है-सत्यमेव जयते । यह धारणा व्यवहार में फिट नहीं बैठ रही है । वर्तमान धारणा है--सफल वह होता है जो झूठ बोलना जानता है। जहां सार का प्रश्न है वहां सत्य ही सार है, इसका कोई विकल्प नहीं है। इसमें कोई संदेह नहीं है। सार है तो सत्य है। असत्य कभी सार नहीं बन सकता । भोग और त्याग की प्रकृति
__ सत्य का मतलब है संयम । आचार्यों ने भोग और त्याग-दोनों की मीमांसा की। उनकी प्रकृति के अंतर का विश्लेषण किया । उन्होंने कहासंयम का जैसे-जैसे सेवन करोगे, सरसता बढ़ती चली जाएगी। भोगों का जैसे-जैसे सेवन करोगे, विरसता बढ़ती जाएगी। इक्षु बहुत सरस होता है । उसका सेवन करें, वह नीरस होता चला जाएगा। एक क्षण ऐसा आएगा, वह रसहीन हो जाएगा । सत्य प्रारम्भ में कम सरस लग सकता है किन्तु जैसेजैसे उस का सेवन करते हैं, आनन्द बढ़ता चला जाता है। संस्कृत का यह श्लोक इसी भावना से प्रभावित है--
इक्षवद विरसाः प्रान्तेः, सेविताः स्युः परे रसाः ।
सेवितस्तु रसः शान्तः, सरसः स्यात् परं परम् ॥ नौ अक्षरों की गहराई
भोग की प्रकृति है-वह पहले अच्छा लगता है किन्तु बाद में नीरस लगने लग जाता है। त्याग की प्रकृति है-वह पहले रूखा लगता है किन्तु धीरे-धीरे सरस बनता चला जाता है । यह भोग और त्याग की कसौटी है। जिस व्यक्ति ने सत्य की कसौटी को नहीं आंका, वह सचाई को समझ नहीं सकता । वह अपने आपको ही नहीं, दूसरों को भी धोखा देता है। सत्य और संयम के बिना पवित्रता संभव नहीं है। 'सच्चं लोयम्मि सारभयं'-इन नौ अक्षरों में जो गहराई है, वह अमाप्य है। यदि हम इन नौ अक्षरों का विश्व के समस्त भोज्य पदार्थों के संदर्भ में मनन करते चले जाएं तो हम उस गहराई में पहुंचते हैं, जहां विश्व का एक नया नक्शा सामने आता है, यथार्थता सामने आती है। सार: सार का आभास
हम इस सचाई का अनुभव करें। इस दुनिया में सत्य, संयम और
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