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प्रवचन ३ |
| संकलिका
• जंबुदीवेणं भंते ! दीवे इमीसे ओसप्पिणीए दुस्सम-दुस्समाए....
समाणुभावेण य णं खर-फरुस-धूलि-मइला दुन्विसहा वाउला भयंकरा वाया संवट्टगा य वाहिति...... समयलुक्खयाए य णं अहियं चंदा सीयं मोच्छति । अहियं सूरिया तवइस्संति। अदुत्तरं च णं अभिक्खणं बहवे अरसमेहा, विरसमेहा, असणिमेहाअविवणिज्जादगा वाहिरोगवेदणोदीरणा-परिणामसलिला..... "वेयड्ढगिरिवज्जे विरावेहिति, सलिलबिलगड्ढ-दुग्ग विसमनिण्णुन्नायाइं च गंगासन्धुवज्जाई समीकरेहिति । . . . .
[भगवई ७/११७-१२३]] ० एस खलु गंथे, एस खलु मोहे , एस खलु मारे, एस खलु णिरए।
[आयारो १/१०७] ० तं परिणाय मेहावी इयाणि नो जमहं पुव्वमकासी पमाएणं ।
[आयारो १/७०] ० सुपर ईगो है संयम
ईगो है असंयम ० अहिंसा और पर्यावरण ० पर्यावरण विज्ञान : भोगोपभोग संयम ० अतिरिक्त दोहन : परिणाम ० असंतुलन : कारण है असंयम • छठे आरे-कालखंड में विश्व-स्थिति ० महत्वपूर्ण अवधारणाएं - धर्म का सूत्र : वर्तमान सन्दर्भ
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