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दोहरी मूर्खता
१४३ देता है, वह दूसरी मूर्खता को भी छोड़ देता है । नरूरी है निग्रह
पहली बात है संयम, आत्मनियंत्रण का अभ्यास, इन्द्रिय-निग्रह का अभ्यास जो व्यक्ति संयम, नियंत्रण या निग्रह का अभ्यास नहीं करता, उसकी मूर्खता कभी मिटती नहीं है । अत्यन्त आवश्यक है निग्रह । इसमें हठयोग बहत उपयोगी बनता है। हमारे योग के आचार्यों ने योग को कई भागों में बांट दिया-हठयोग, राजयोग, मंत्रयोग, लययोग, कर्मयोग आदि । कई बातों में जिद्दी होना भी जरूरी है। जो आदमी थोड़ा जिद्दी नहीं होता, वह जीवन में कभी सफल नहीं होता। आग्रह का होना भी जरूरी है। हम किसी भी बात को ऐकान्तिक दृष्टि से न लें। महावीर चरम कोटि के अनाग्रही थे तो परम कोटि के आग्रही थे। अनेकान्त को हम सत्याग्रही कह सकते हैं। जब आचार्य भिक्षु ने सत्य एवं साधना के लिए अभिनिष्क्रमण किया तब अनेक व्यक्तियों ने कहा-भीखणजी ! ऐसा मत करो। रोटी-पानी नहीं मिलेगा, स्थान नहीं मिलेगा। आचार्य भिक्षु ने अपना निश्चय नहीं बदला। वे अपने आग्रह पर अड़े रहे। जिसमें संयम का, आत्म नियंत्रण का आग्रह नहीं होता, वह कोई बड़ा काम नहीं कर सकता। जिसका शरीर के प्रति मोह नहीं है, इन्द्रियों के प्रति मोह नहीं है, जो दुःखों से नहीं डरता, वही व्यक्ति सत्य या संयम का आग्रह रख सकता है। जिसमें संयम का आग्रह होता है, वही व्यक्ति अच्छा और नया काम कर सकता है। संयम का अर्थ है-कष्ट सहन करने का आग्रह । जिसमें यह तितिक्षा है, द्वन्द्वों को सहन करने की क्षमता है, वह बाल-भाव से मुक्त हो सकता है। चित्तशुद्धि : बंध
दूसरी बात है--चित्तशुद्धि । हम चित्त को पवित्र बनाएं। कोई भी अच्छा कार्य चित्तशुद्धि के बिना संभव नहीं है। जिस व्यक्ति का चित्त कलुषित रहता है, मलिन रहता है, वह बड़ा काम नहीं कर सकता।
तीसरी बात है, बंध । जो व्यक्ति यह जानता है—मैं बंध रहा हूं, बेड़ियां डाली जा रही है, वह बाल-भाव से बच सकता है। मोह-माया की बेड़ियां प्रतिदिन हमारे हाथों में डल रही है, इस बंधन के प्रति जागरूक बनें तो मूर्खता की दिशा में हमारे चरण नहीं बढ़ेंगे।
चौथी बात है कर्म रस । बंधन के विपाक के प्रति जागरूक बनें । दुःख आए, कष्ट आए तो यह चिन्तन करना चाहिए—मैंने किसी को दुःख दिया होगा, संकट में डाला होगा, जिसके कारण कर्म का यह विपाक आया है।
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