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भोगवादी युग में भोगातीत चेतना का विकास
मन का काम है सोचना, चिन्तन करना । वह अपना काम करता है । हमें अपना सर्वे करना चाहिए, अपना आत्मावलोकन करना चाहिए। हम आत्म-निरीक्षण करें-चौबीस घंटों में मन किस विषय पर ज्यादा सोचता है ? जागृत अवस्था में किस विषय पर ज्यादा सोचता है ? नींद की अवस्था में किस विषय पर ज्यादा सोचता है? सामान्यतः एक व्यक्ति छहः-सात घंटे सोता है। वह सतरह-अठारह घंटे जागृत अवस्था में रहता है। हम नींद की बात छोड़ भी दें, जागृत अवस्था का सर्वेक्षण करें---मन मुख्यतः किस विषय पर केन्द्रित रहता है ? यह प्रश्न अपने आपको जगाने वाला प्रश्न हो सकता है। यह प्रश्न व्यक्ति को यह बोध दे सकता है कि वह किस दिशा में जा
चिन्तन : केन्द्र और परिधि
महावीर ने कहा-मनुष्य भोग के बारे में सबसे अधिक चिन्तन करता है। व्यक्ति ऑफिस में बैठा है। चाय पीने का समय होता है। उसका मन चाय में उलझ जाता है। भोजन का समय होता है, मन भोजन में उलझ जाता है । कभी टी.वी. देखने का समय हो जाता है और कभी अखबार पढ़ने का समय । व्यक्ति इन सबमें अपने आपको उलझाता चला जाता है। पांचों इन्द्रियों के विषय उसके सामने घूमते रहते हैं। जब वह इन्द्रियों की दौड़ से थक जाता है तब मन की दौड़ शुरू हो जाती है।
'भोगामेव अणुसोयंति' यह कितनी अनुभव भरी वाणी है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं-मनुष्य में सबसे ज्यादा तनाव है कामना का। इसका निष्कर्ष भी यही है-मनुष्य सबसे ज्यादा चिन्तन भोग का करता है । वह पैसा कमाता है भोग के लिए। और भी जो कुछ करता है, भोग के लिए करता है। केन्द्र में है भोग । केन्द्र में है काम और कामना । उसकी परिधि में हमारा सारा चिन्तन चलता है । ऐसा लगता है---भोग मनुष्य की एक प्रकृति बन गया है। भोग : प्राचीन अवधारणा
____ आज के युग को भोगवादी युग कहा जाता है। क्या अतीत बहुत त्यागवादी रहा है ? यह कहना बड़ा मुश्किल है कि अतीत के युग में भोग नहीं था, भोग करने वाले नहीं थे, कोरा वैराग्य था, त्याग था। ऐसा होना सम्भव भी
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