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अस्तित्व और अहिंसा
हैं और आत्मा भी अमूर्त है। आकाश भी वस्तु है, आत्मा भी वस्तु है । फर्क डालने वाला एक तत्त्व है, एक विशेष गुण है--चेतना। वह आत्मा में है, आकाश में नहीं है । हम भेद करने वाली एक रेखा के आधार पर शेष बातों को भुला देते हैं। समतावाद
अहिंसा की चेतना को जगाने के लिए इन दोनों सूत्रों-समतावाद और एकात्मवाद ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। भेद नय की दृष्टि से विचार करें तो कहा जाएगा—आत्मा और पुद्गल में भेद है। भेद नय की दृष्टि से यह भी कहा जाएगा–प्रत्येक व्यक्ति की आत्मा स्वतंत्र है। जितने व्यक्ति हैं, प्राणी हैं, उतनी ही आत्माएं हैं। प्रत्येक आत्मा का अलग अस्तित्व मानें तो समतावाद फलित होगा। प्रत्येक आत्मा स्वतन्त्र है, इसका अर्थ है-जैसी मेरी आत्मा है वैसी ही दूसरे मनुष्य की आत्मा है, वैसी ही पशु की आत्मा है, पेड़-पौधों की आत्मा है। जैसी एक प्राणी की आत्मा है वैसी ही अन्य प्राणियों की आत्मा है। सबकी आत्मा समान है। यह है समतावाद या आत्मतुलावाद । प्रत्येक आत्मा को अपनी आत्मा के समान समझो, किसी को मत सताओ। यह अभेद प्रधान नय की दृष्टि से समानता की बात प्रस्तुत होती है। विचित्र प्रयोग
। भगवान महावीर ने किसी एक नय से ही तत्त्व का प्रतिपादन नहीं किया । यदि नैगम नय की दृष्टि से विचार करें तो आत्मा समान है। यदि संग्रह नय की दृष्टि से विचार करें तो फलित होगा-आत्मा एक है। यह अभेद प्रधान दृष्टि है । इसका अर्थ है-तू किसे मारना चाहता है ? जिसे तू मारना चाहता है, वह तू ही है। यह अभेद का प्रयोग भी बहुत व्यावहारिक प्रयोग है । कुछ साधकों ने संकल्पशक्ति के आधार पर अभेद के विवित्र प्रयोग किए हैं । एक पादरी ईसामसीह की मूर्ति के सामने खड़ा हो जाता है। वह यह संकल्प करता है-मैं स्वयं ईसा हूं। हाथ सूली पर चढ़ाया जा रहा है, हाथ से खून बहता जा रहा है । वह संकल्प में एकात्म हो जाता है, अभेद सध जाता है, हाथ खून से सन जाता है । सम्मोहन : अभेद
सम्मोहन में भी अभेद का प्रयोग होता है। वस्तु के साथ अभेद स्थापित कर लिया जाता है। किसी व्यक्ति को सम्मोहित किया गया। उसके हाथ में बर्फ का एक टुकड़ा रखा गया। प्रशिक्षक ने सम्मोहित व्यक्ति को सुझाव दिया-देखो ! तुम्हारे हाथ पर अंगारा रखा गया है। अब फफोला होने वाला है । प्रशिक्षक उस वस्तु के साथ व्यक्ति की चेतना का इतना अभेद
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