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वह तू ही है
आचार्य तुलसी सरदारशहर में विराज रहे थे । कलकत्ता से एक बंगाली संन्यासी आया । वह वेदान्त को मानने वाला था । उसने आते ही कहा - आचार्यजी ! आप भी अद्वैतवादी हैं और हम भी अद्वैतवादी हैं । हमारे में और आपमें फर्क क्या है ? जैन भी अद्वैतवादी और वेदान्त भी अद्वैतवादी । हम मानते हैं-आत्मा एक है, ब्रह्म एक है । आप कहते हैं- एगे आया । फर्क कहां है ? अद्वैतवाद आपको भी मान्य है, हमें भी मान्य है । आचार्यश्री ने कहा इस बात को किसने अस्वीकार किया ? हम संग्रह नय को ते हैं। उसके अनुसार समूचा संसार एक है-सतोऽविशेषात् — कोई भेद ही नहीं है ।
अद्वैत का सिद्धान्त
अद्वैतवाद का सिद्धान्त जैन दर्शन को संग्रह नय के आधार पर मान्य है | साधना के आधार पर भी यह सिद्धांत मान्य है । एक वचन है तुमंस नाम सच्चेव जं हंतव्वं ति चाहता है, वह तू ही है। यह अद्वैत की बात है,
भगवान महावीर का मन्नसि जिसे तू मारना एकात्मकता की बात है ।
अहिंसा के क्षेत्र में, साधना के क्षेत्र में, भगवान महावीर ने अद्वैत का प्रतिपादन किया । जैन दर्शन अनेकान्तवादी है । अनेकान्तवाद केवल दर्शन के क्षेत्र में ही नहीं, साधना के क्षेत्र में भी लागू होता है । इस तथ्य पर विचार करने से दो बाद फलित होते हैं— एकात्मवाद और समतावाद । एक है भेदक तत्त्व
प्रत्येक वस्तु में सामान्य जौर विशेष -- दोनों गुण होते हैं, भेद और अभेद - दोनों होते हैं । एक ओर हमारी आत्मा है, दूसरी ओर एक पुस्तक है । दोनों में फर्क क्या है ? बहुत थोड़ा-सा अन्तर है । अन्तर डालने वाला तत्त्व एक ही है किन्तु जोड़ने वाले तत्त्व बहुत ज्यादा हैं। भट्ट अकलंक ने लिखाचेतना की दृष्टि से आत्मा आत्मा है, शेष गुणों की दृष्टि से वह अनात्मा है । प्रमेयत्वादिभिः धर्मैः अचिदात्मा चिदात्मकः । ज्ञानदर्शनतस्तस्माद्, चेतनाऽचेतनात्मकः ॥
पुस्तक में चेतना की शक्ति नहीं है और आत्मा
में ज्ञान की शक्ति है, चेतना की शक्ति है । आत्मा और पुद्गल में इतना सा भेद है। पुद्गल मूर्त है और आत्मा अमूर्त है । हम आकाश की दृष्टि से देखें । आकाश भी अमूर्त
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