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प्रवचन १८
संकलिका
• जे कोहदंसी से माणदंसी...... जे तिरियदंसी से दुःखदंसी।
(आयारो ३३८३) • से मेहावी अभिनिवट्टेज्जा कोहं च, माणं च, मायं च,
लोहं च, पेज्ज च, दोसं च, मोहं च, गम्भं च, जम्मं च, मारं च, नरगं च, तिरियं च, दुक्खं च।
(आयारो ३८४) ० दुःख : चार प्रकार
सहज-भूख-प्यास आदि से होने वाला दुःख नैमित्तिक-सर्दी, गर्मी आदि से होने वाला दुःख देहज-रोग आदि से होने वाला दुःख
मानसिक-संयोग-वियोग से होने वाला दुःख ० लौकिक आदमी की पहुंच ० पहुंच आत्मविद् की ० दुःख का एक चक्र
जन्म, रोग, बुढ़ापा और मृत्यु ० चिकित्सालक्षण की नहीं, लक्ष्य की
रोग की नहीं, रोगी की ० शरीर-केन्द्रित है दुःख की परिभाषा ० दुःख के मूल चक्र को पकड़े • रोटी-पानी की समस्या जटिल क्यों है ? • समस्या का मूल है लोभ ।
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