________________
दुख का चक्र
संसार में दुःख का चक्र चलता है । दुःख का कोई एक रूप नहीं होता । लौकिक आदमी का दुःख पदार्थ के अभाव से जुड़ा होता है। रोटी, कपड़ा, मकान, धन, परिवार, जायदाद आदि के अभाव या कमी को व्यक्ति कष्ट मानता है। शरीर को कोई कष्ट होता है तो व्यक्ति मानता है-दुःख है। शरीर और पदार्थ के आस-पास दुःख का एक चक्र चल रहा है। जो आत्मविद् है, आत्मा और धर्म के मर्म को जानता है, उसे शरीर का दुःख दुःख लगता ही नहीं । उसे शरीर का दुःख दुःखरूप लगता तो तपस्या की सूची इतनी लंबी नहीं होती। भोजन न करना एक लौकिक आदमी के लिए दुःख हो सकता है लेकिन एक आत्मविद् के लिए वह दुःख नहीं है। दुःख के प्रकार नयचक्र में दुःख के चार भेद बतलाए गए हैं---
सहजं खुधाईजाद, गहमित्तं सीदवादमादीहि ।
रोगादिया अ देहज, अणिट्ठजोए तु माणसियं ॥ सहज दुःख---भूख, प्यास आदि से होने वाला दुःख । नैमित्तिक दुःख–सर्दी, गर्मी, हवा आदि से होने वाला दुःख । देहज दुःख---रोग आदि से होने वाला दुःख । मानसिक दुःख-इष्ट-अनिष्ट के वियोग-संयोग से होने वाला दुःख ।
लौकिक आदमी की पहुंच शारीरिक और मानसिक दुःख से आगे नही है । उसकी दृष्टि में शारीरिक दुःख ही प्रधान होता है लेकिन आत्मविद् के दृष्टि में यह दुःख नहीं है। उसकी दृष्टि में मुख्य दुःख है क्रोध आदि कषायों क समुद्भव
लोकानां देहजं दुःखं, प्रधानं दृश्यते मतम् ।
दुःखमात्मविदां मुख्यं, क्रोधादीनां समुद्भवः ॥ इलाज किसका
आज की चिकित्सा पद्धति भी शारीरिक और मानसिक चिकित्सा पर केन्द्रित है । जो आत्मज्ञ है, वह शारीरिक और मानसिक दुःख को दुःख नह मानता । उसकी दृष्टि में दुःख का चक्र कोई दूसरा है। एक आदमी के पैर में कांटा चुभ गया, वह डॉक्टर के पास गया । डॉक्टर ने पैर के इलाज के बजार आंख' में दवा डाली । रोगी ने इसका रहस्य जानना चाहा। डॉक्टर ने कहा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org