SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 123
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दुःख का चक्र १०५ तुम्हारी आंख की ज्योति कम है, ठीक से दिखाई नहीं देता इसलिए कांटा चुभ गया । आंखें ठीक होंगी, देखकर चलोगे तो कांटा नहीं चुभेगा। हम इसे इस भाषा में समझे । लौकिक आदमी कांटे का इलाज करेगा, आंख का इलाज नहीं करेगा। आत्मविद् आंख का इलाज करेगा, कांटे चुभने के मूल कारण को मिटाएगा । आंख ठीक है तो कांटे कम चुभेंगे । आंख ठीक नहीं है तो कांटे चुभते ही रहेंगे । लक्षण की नहीं, लक्ष्य की चिकित्सा व्यक्ति क्रोध करता है। आत्मविद् सोचेगा-क्रोध उत्पन्न हुआ है इसका अर्थ है-----मैं बीमार हो गया। जैसे रोग होने पर चिन्ता हो जाती है, व्यक्ति दवाओं का अंबार लगा लेता है वैसे ही क्रोध आने पर जो व्यक्ति चिन्तित हो जाए और उसका मन क्रोध का शमन करने वाली दवाओं का प्रयोग करने लग जाए तो मानना चाहिए-उस व्यक्ति ने धर्म को समझा है, आत्मा को समझा है। उसके लिए क्रोध का आना दुःख है। उसके लिए शेष सारे दुःख कुछ नहीं हैं। सर्दी आती है, कष्ट होता है। सर्दी चली जाती है, शीतजन्य कष्ट समाप्त हो जाता है । यह ऋतुचक्र से उत्पन्न होने वाला कष्ट है किन्तु दुःख का जो शाश्वत चक्र है, वह कभी नहीं बदलता। महावीर ने दुःख का एक चक्र बतलाया-जन्म, रोग, बुढ़ापा और मृत्यु । वस्तुतः यह दुःख चक्र का मूल बिन्दु नहीं है। इसीलिए इस बात पर बल दिया गया—कांटे पर ध्यान मत दो, कांटा क्यों चुभा, इस पर ध्यान दो । एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति की तरह लक्षण की चिकित्सा मत करो, लक्ष्य की चिकित्सा करो । घुटने में दर्द है तो घुटने की चिकित्सा मत करो। जिस शरीर में घटना है, उस शरीर की चिकित्सा करें, इसका तात्पर्य हैरोग की नहीं, रोगी की चिकित्सा करें। अगर रोगी ठीक है तो रोग अपने आप ठीक हो जाएगा । अगर रोगी ठीक नहीं है तो चिकित्सा करने पर घुटने का दर्द तो समाप्त हो सकता है किन्तु उसके साथ दूसरा दर्द उभर भी सकता है । इसीलिए कहा गया---रोगी चिकित्सा का केन्द्र-बिन्दु होना चाहिए । दुःखचक्र : मूल स्वरूप भगवान महावीर ने दुःखचक्र का मूल स्वरूप प्रस्तुत कियाजे कोहदंसी से माणदंसी जो क्रोध को देखता है, वह मान को देखता है । जो माणदंसी से मायदंसी जो मान को देखता है, वह माया को देखता है। ने मायदंसी से लोभदंसी जो माया को देखता है, वह लोभ को देखता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003086
Book TitleAstittva aur Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy