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________________ अपरिग्रहः परमो धर्मः ६१ वह बिन्दु उपलब्ध होता है। यदि हम विधायक रूप में आर्थिक समानता की बात करेंगे तो इस समस्या का समाधान नहीं होगा। हम निषेध के द्वारा इस समस्या को समाधान दे सकते हैं। कहीं-कहीं निषेध बहुत काम का होता है। सब जगह विधायक बात सफल नहीं होती। अहिंसा की व्याख्या विधायक रूप में करें तो बड़ी उलझने हैं। अपरिग्रह की व्याख्या भी विधायक रूप में करें तो उलझने कम नहीं हैं। हमें निषेध से चलना होगा। किसी को मत मारो', एक गृहस्थ के लिए यह अहिंसा को सबसे अच्छी परिभाषा हो सकती है। 'इच्छा का परिमाण करो', एक गृहस्थ के लिये यह अपरिग्रह की सबसे अच्छी परिभाषा हो सकती है। गृहस्थ का अपरिग्रह मुनि का अपरिग्रह नहीं है । गृहस्थ के लिए है-इच्छा-परिमाण । इच्छा. परिग्रह और आरंभ . महावीर बहुत गहराई में जाने वाले व्यक्ति थे। उन्होंने यह नहीं कहा---पदार्थ का परिमाण करो, पदार्थ की सीमा करो। उन्होंने यह भी नहीं कहा-इतना धन मत रखो। महावीर ने कहा-इच्छा का परिमाण करो। इच्छा, परिग्रह और आरंभ का एक चक्र है । इच्छा अल्प होगी तो प.रेग्रह और आरंभ अल्प होगा। जब तक इच्छा को नहीं पकड़ेंगे तब तक न व्यक्तिगत स्वामित्व के सीमाकरण की बात सफल होगी, न ट्रस्टी शप की बात सफल होगी। इन दोनों सूत्रों की सफलता तभी संभव है, जब इनकी पृष्ठभूमे में इच्छा के सीमाकरण का सूत्र हो । इच्छा को ज्यादा बढ़ाना अच्छा नहीं है, यह बात समझ में आने पर ही अमरग्रह का सिद्धान्त समझ में आ सकता है । भीतर में इच्छा प्रबल है तो बाहर का उपदेश बहुत काम नहीं देगा। भीतर इच्छा का ऐसा ज्वार उठता है, बाहरी उपदेश कहीं धरा रह जात है, आदमी ज्यादा परिग्रह जुटाने में लग जाता है। जब तक यह द्वन्द्व नह मिटेगा, तब तक समस्या का समाधान नहीं होगा। महावीर ने कहाइच्छा कम नहीं है, परिग्रह और संग्रह ज्यादा है। इस अवस्था में न तप है सकता है, न संयम हो सकता है । इच्छा तप, नियम और संयम-सबकं समाप्त कर देती है। उलझा हुआ प्रश्न आज भी परिग्रह और अपरिग्रह का प्रश्न, आर्थिक समानता औ विषमता का प्रश्न बहुत उलझा हुआ है। यदि धर्म इस समस्या का समाधा नहीं दे सकता है तो शायद दूसरा कोई भी इस समस्या का समाधान देने । समर्थ नहीं है। यदि धर्म इस समस्या का समाधान नहीं देता है तो व अपने कर्तव्य कहां तक निर्वाह करता है, यह भी एक प्रश्न है। आर्थि समस्या को समाधान देना बहुत जटिल है। अहिंसक समाज रचना का प्रश् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003086
Book TitleAstittva aur Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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