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________________ जब निष्क्रमण अपना अर्थ खो देता है प्रश्न है श्रद्धा का जीवन एक प्रवाह है । उसकी धारा सदा एकरूप नहीं बहती। जीवन आदि से अंत तक एकरूप बना रहे, धार अविरल बहती रहे, यह बहुत कठिन है। जीवन में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं, सघनता-विरलता आती रहती है। व्यक्ति किसी कार्य को प्रारंभ करता है। कोई अवरोध आता है तो कार्य रुक जाता है। मन का वेग प्रबल बनता है, व्यक्ति किसी कार्य को प्रारंभ कर देता है। मन का वेग शिथिल होता है, कार्य रुक जाता है। जिस श्रद्धा से कार्य प्रारंभ होता है क्या उसी श्रद्धा से उसका निर्वाह होता है ? एक व्यक्ति मुनि बनता है, श्रावक बनता है। एक व्यक्ति त्याग-प्रत्याख्यान लेता है, जप और ध्यान का प्रयोग शुरू करता है । व्यक्ति जिस संकल्प और श्रद्धा के साथ कार्य प्रारंभ करता है, उसी संकल्प और श्रद्धा के साथ कार्य को संपादित करता है तो वह सफल हो जाता है। यदि वह श्रद्धा और संकल्प एकरूप नहीं रहता है तो सफलता संदिग्ध बन जाती है। बहुत कठिन है श्रद्धा का सातत्य । हम जीवन के हर कार्य की मीमांसा करें तो पता चलेगा कि जिस श्रद्धा के साथ कार्य का प्रारंभ होता है, उसमें क्षीणता आने लग जाती है, शिथिलता आ जाती है। जरूरी है श्रद्धा का सातत्य सफलता के लिए श्रद्धा का सातत्य जरूरी है । समस्या यह है कि जिस भावना से काम शुरू करते हैं, पांच दिन बाद उस भावना में कमी आ जाती है । दस दिन या महीना बीत जाए तो वह भावना बहुत कमजोर रह जाती है। कार्य की सफलता में यह बड़ी बाधा है। सफलता का सूत्र है-जिस श्रद्धा के साथ कार्य शुरू किया है, उसमें श्लथता न आए, श्रद्धा का वेग निरंतर एक जैसा बना रहे । महावीर ने मुनि को संबोध देते हुए कहा--तुमने जो अभिनिष्क्रमण किया है, घर छोड़कर मुनित्व को स्वीकार किया है यदि श्रद्धा कमजोर हो गई तो तुम्हारा निष्क्रमण दुःनिष्क्रमण बन जाएगा। यदि श्रद्धा में शिथिलता आ गई तो मुनि बनने का कोई सार नहीं मिल पाएगा। हम दशवकालिक सूत्र को देखें, आचारांग को देखें, मुनि को बार-बार यह संबोध दिया गया है कि जिस श्रद्धा से तुमने अभिनिष्क्रमण किया है, संयम-पथ को स्वीकार किया है तुम उसी श्रद्धा से आधार की सम्यक् अनुपालना करो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003086
Book TitleAstittva aur Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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