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स्वाभाविक है प्रवृत्ति
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जैन धर्म का मुख्य तत्त्व है संवर, निवृत्ति । प्रवृत्ति में तो आदमी जीता ही है । शरीर को स्थिर कैसे किया जाए, यह सीखना होगा । कैसे मौन रहें, कैसे मन को एकाग्र करें, यह सीखना होगा । हमें यह मान लेना चाहिए, प्रवृत्ति जीवन का स्वाभाविक धर्म है किन्तु निवृत्ति प्रयत्न और अभ्याससाध्य धर्म है | क्या क्रोध करना सीखने का कोई विद्यालय है ? क्या क्रोध का प्रशिक्षण देने वाला प्रशिक्षण केन्द्र है उसके लिए कोई प्रशिक्षण केन्द्र नहीं है किन्तु क्रोध करना सब जानते हैं, क्षमा करना नहीं । क्षमा का विकास प्रशिक्षण के बिना सम्भव नहीं है जितने विधायक भाव हैं, उनके लिए प्रशिक्षण जरूरी है । जितने निषेधात्मक भाव हैं, वे प्रकृति से अपने आप प्रस्फुटित हो जाते हैं। गेहूं, चावल, मक्का, बाजरा आदि को पाने के लिए बीज बोना पड़ता है । ये सब बिना बीज बोए उपलब्ध नहीं होते । घास का बीज नहीं बोया जाता । फिर भी उससे खेत भर जाता है । विधायक भाव और निषेधात्मक भाव के सम्बन्ध में यही बात है । विधायक भावों के विकास के लिए तपना होता है किन्तु निषेधात्मक भाव स्वतः उभर पाते हैं । उनके लिए सोचना ही नहीं पड़ता ।
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साधक तत्त्व है अलोभ
इस सारे संदर्भ में एस अकम्मा जागति-पासति इस सूत्र का मूल्यांकन करें। हम मात्र बौद्धिक ज्ञान तक ही सीमित न रहें, साक्षात्कार का अभ्यास करें | महावीर कहते हैं—जानो-देखो। हम जानें, देखें पर आंख से नहीं, मस्तिष्क से नहीं । चेतना से जाने, चेतना से देखें । भगवान ने अलोभ के लिए जो सूत्र दिया, उसका निष्कर्ष है—अगर ज्ञाता द्रष्टा होना है तो अलोभ बनना होगा। सबसे कठिन काम है अलोभ होना । जब तक व्यक्ति अलोभ नहीं बनेगा, केवलज्ञान के निकट नहीं पहुंच पाएगा । क्रोध, मान, माया-ये सब मिट गए पर लोभ नहीं मिटा तो बाधा बनी रहती है । अन्तिम बाधा है। लोभ | सबसे बड़ा साधक तत्त्व है अलोभ । अलोभ की साधना तभी सध सकती है जब शरीर के प्रति निर्ममत्व की भावना जागे । अकर्मा की साधना महत्त्वपूर्ण साधना है । हम यत्किंचित् मात्रा में शरीर के लोभ को कम करने का प्रयत्न करें, भेद-विज्ञान के विकास का प्रयत्न करें, अपने आप 'जानाति -- पश्यति' का रहस्य हमारे सामने स्पष्ट उभर आएगा ।
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