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अस्तित्व और अहिंसा
है-जो अकर्मा है, वह जानता-देखता है । अकर्मा होने की साधना अलोभ और अपरिग्रह की साधना है। कायोत्सर्ग : मूल सूत्र
कायोत्सर्ग का मूल सूत्र है-निर्ममत्व, शरीर की ममता को छोड़ना, भेद-विज्ञान का अनुभव करना । 'मैं चेतना हूं, शरीर नहीं हूं'। 'शरीर अलग है, आत्मा अलग है।' यह पार्थक्य-बोध जितना साफ होता है उतना ही अच्छा कायोत्सर्ग माना जाता है । इसी निर्ममत्व चेतना का नाम है अकर्मा और इसी अवस्था में आंतरिक ज्ञान का या साक्षात् ज्ञान का विकास होता है। इसके बिना प्रत्यक्ष जानने की स्थिति बनती नहीं, क्योंकि शरीर के प्रति प्रगाढ़ मूर्छा बनी रहती है, ममत्व बना रहता है। शरीर के प्रति आदमी इतना जागरूक रहता है कि कहीं उसको आंच न आ जाए। प्रवृत्त : निवृत्ति
एक समस्या यह भी है---धर्म करने के लिए, आत्म निरीक्षण करने या अपने बारे में सोचने के लिए व्यक्ति को अवकाश नहीं होता । अक्सर लोग कहते हैं---महाराज क्या करें, समय नहीं मिलता। यह एक बड़ी उलझन भरी समस्या है । क्या कायोत्सर्ग निकम्मा काम है ? व्यक्ति सचाई को नहीं समझ पा रहा है इसीलिए वह समय न होने का बहाना बना लेता है । जैसे काम करना एक बड़ी कला है वैसे हो निकम्मा होना भी एक बड़ी कला है पर बहुत से लोग इस निकम्मा होने की कला को जानते नहीं हैं। जब तक आदमी निकम्मा नहीं होता तब तक यह सिकम्मापन--सक्रिय जीवन भी ज्यादा चलता नहीं है । अच्छा जीवन जीने के लिए निकम्मा होने की कला को भी सीखना जरूरी है। जरदर्शन : निवृत्तिवाद
प्रवृत्तिवाद और निवृत्तिवाद----ये दो बहुत महत्वपूर्ण सूत्र हैं। जीवन चलाने के लिए प्रवृत्ति का चक्र आवश्यक है पर निवृत्ति भी कम मूल्यवान् नहीं है । जितना प्रवृत्ति का चक्र आवश्यक है उतना ही आवश्यक है निवृत्ति का चक्र । आचार्यश्री पटना विश्वविद्यालय में पधारे। स्वागतकर्ता थे राष्ट्रकवि श्री रामधारीसिंह 'दिनकर' । श्री दिनकर ने कहा---'आचार्यजी ! जैन दर्शन ने एक बड़ा तत्त्व-दर्शन दिया है निवृत्तिवाद का। आज के इस प्रवृत्तिबहल युग में आदमी मानसिक तनाव और संक्लेश से पिसा जा रहा है। इसी प्रवृत्ति चक्र ने अणु-युग को जन्म दिया है। अब यदि आदमी पीछे नहीं लौटेगा तो सर्वनाश उसके सामने खड़ा है। उन्होंने प्रार्थना के स्वर में कहाआवार्य जी ! आप लोगों को अब निवृत्ति का मार्ग दिखाएं ।
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