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अस्तित्व और अहिंसा
आचार्य श्री ने कहा --- इतनी-सी बात के लिए शास्त्रार्थ करना चाहते हैं | आप यह मान लीजिए— मैं हारा और आप जीत गए। आप बाजार में जाकर मेरी ओर से कह सकते हैं – आचार्य तुलसी हार गए, हम जीत गए । आचार्यश्री का यह उत्तर मुनकर वे स्तब्ध रह गए। "मैं हार गया" यह बात कोई अवधूत व्यक्ति ही कह सकता है, सामान्य व्यक्ति नहीं कह सकता ।
नया द्वार उद्घाटित हो
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हमारी सामान्य दुनिया से अलग है अवधूतों की दुनिया । अवधूत कां मतलब है - शरीर को इस प्रकार प्रकंपित करना, जिससे जमा हुआ मल निकल जाए, कुछ नए द्वार उद्घाटित हो जाए । प्रेक्षाध्यान का एक प्रयोग है अन्तर्यात्रा | यह चेतना के ऊर्ध्वारोहण का प्रयोग है । चेतना को ऊपर कैसे ले जाया जाए ? इस बात को जानना जरूरी है। जब तक चेतना के ऊर्ध्वारोहण के मार्ग का ज्ञान नहीं होता, ऊर्ध्वारोहण का प्रयत्न सफल नहीं होता । जब तक इड़ा और पिंगला में चेतना का प्रवाह होता है तब तक ग्राह्य और ग्राहक का भाव बना रहता है । जब चेतना का प्रवाह सुषुम्ना में होता है, ग्राह्य-ग्राहक भाव समाप्त हो जाता है, एक नया दरवाजा खुलता है । उस अवस्था में समता की चेतना जागती है, मध्यस्थता की चेतना जागती है ।
अवधूत बनने की प्रक्रिया
आचारांग में कहा गया— जो निर्जरापेक्षी है, उसे मध्यस्थ होना होगा । यदि दाएं या बाएं चेतना का प्रवाह रहेगा तो हम कभी इधर झुक जाएंगे, कभी उधर झुक जाएंगे । जो मध्यस्थ है, उसकी चेतना का प्रवाह सुषुम्ना में होगा । यह मेरूदंड का स्थान, रीढ़ की हड्डी का स्थान, केवल स्वास्थ्य के लिए ही महत्त्वपूर्ण नहीं है, किन्तु चेतना को ऊपर ले जाने का, अंतर्मुखी बनने का सबसे सुन्दर साधन है । यह अंतर्यात्रा का प्रयोग अवधूत बनने की प्रक्रिया है । जब व्यक्ति इस भूमिका पर आरोहण करता है, अवधूत बनता है तब उसके भीतर समता की चेतना जाग जाती है ।
प्रज्ञा : समता
आचारांग सूत्र में अवधूत के लिए दो शब्द प्रयुक्त हुए हैं—समाहियाणं पण्णाणमंताणं - अवधूत वह है, जो समाहित है, प्रज्ञावान है । जो बुद्धिमान नहीं किन्तु प्रज्ञावान् है । बुद्धि के साथ तर्क जुड़ा हुआ है । हमने तर्कों का जाल - सा बिछा रखा है। ऐसा लगता है—हम प्रज्ञा का दरवाजा खोलना ही नहीं चाहते । प्रज्ञावान वह है, जो समाहित है, बुद्धि से परे की चेतना में जीता है । प्रज्ञा और समता - दोनों अलग-अलग नहीं है । प्रज्ञा और समाधि भी अलग-अलग नहीं है ।
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