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अस्तित्व और अहिंसा
बढ़ाकर पूरे मानव समाज को संकट में डाल दिया है। अर्थशास्त्र का सूत्र है-इच्छा को बढ़ाते चले जाओ। आज इस गलत सूत्र के परिणाम स्वरूप हिंसा बढ़ रही है, पर्यावरण का सन्तुलन विनष्ट हो रहा है । आवश्यकता की पूर्ति करना जरूरी है, इस बात को उचित माना जा सकता है, किन्तु कृत्रिम आवश्यकताओं को पैदा करना और उनकी पूर्ति करते चले जाना युक्ति-संगत नहीं है । आवश्यकता की उत्पत्ति और उसकी पूर्ति का एक चक्र है । उस चक्र का कहीं अन्त नहीं होता। इस सचाई से साधारण लोग भी परिचित रहे हैं। राजस्थानी का प्रसिद्ध दोहा है
तन की तृष्णा तनिक है, तीन पाव के सेर ।
मन की तृष्णा अनन्त है, गिलै मेर का मेर ॥ प्रश्न आवश्यकता का
वर्तमान जगत् में जिस सचाई का प्रतिपादन किया जा रहा है, उससे यह सचाई भिन्न है। आवश्यकता की पूर्ति को अनुचित नहीं माना जा सकता, किन्तु प्रश्न है-मनुष्य की शारीरिक आवश्यकताएं कितनी हैं ? वे बहुत सीमित हैं। यदि आवश्यकता के आधार पर चला जाता तो दुनिया के सामने पर्यावरण का संकट पैदा नहीं होता, पर्यावरण की समस्या से विश्व संत्रस्त नहीं होता । व्यक्ति ने तन की तृष्णा के स्थान पर मन की तृष्णा को बिठा दिया । जब मन की तृष्णा जाग जाती है तब आवश्यकताएं बढ़ती चली जाती हैं। तृष्णा और इच्छा का कोई अन्त नहीं है, कोई सीमा नहीं है। महावीर ने कहा-"इच्छा हु आगाससमा अंणतिया"-इच्छा आकाश के समान अनंत है। जब इच्छा अनंत और असीम बन जाती है तब विनाश अवश्यंभावी बन जाता है। विराम कहां होगा?
आज विश्व विनाश के कगार पर खड़ा है। इसका कारण है अर्थशास्त्र का अनसोचा-अनसमझा सिद्धान्त । अर्थशास्त्र का अभिमत है-जितनी इच्छा बढ़ेगी, उतना ही उत्पादन बढ़ेगा, जितना उत्पादन बढ़ेगा, उतनी ही समृद्धि बढ़ेगी। इस सिद्धान्त ने सचमुच विनाश को निमंत्रण दे दिया है। अगर अर्थशास्त्र का यह सिद्धांत नहीं होता तो इकोलॉजी के विकास की जरूरत ही नहीं होती। आज सष्टि-सन्तुलन के लिए प्रयत्न किए जा रहे हैं। लोग चाहते हैं---सृष्टि का सन्तुलन न गड़बड़ाए। किन्तु जब तक अर्थशास्त्र का यह सिद्धान्त व्यक्ति के जीवन-व्यवहार को संचालित कर रहा है तब तक सृष्टि-सन्तुलन की चिन्ता को समाधान नहीं मिलेगा। सृष्टि-सन्तुलन के लिए, पर्यावरण के लिए अर्थशास्त्र की वर्तमान अवधारणाओं को बदलना होगा। उन्हें बदले बिना इन समस्याओं को समाहित नहीं किया जा सकता।
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