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अस्तित्व और अहिंसा
नहीं करोगे तो बन्धते चले जाओगे, गांठें घुलती चली जाएंगी, तुम गांठमय बन जाओगे ।' धर्म का यह प्रतिपादन अतीन्द्रिय चेतना के आधार पर हुआ है ।
धर्म का मूल आधार है -अतीन्द्रिय चेतना | जब तक व्यक्ति इन्द्रिय चेतना के स्तर पर जीता है, उसे धर्म की जरूरत ही महसूस नहीं होती, धर्म का जीवन में कोई विशेष अर्थ नहीं होता । जैसे ही इन्द्रियों से परे जाने की बात समझ में आती है, धर्म की बात समझ में आने लग जाती है । शब्द, रस, रूप, गंध और स्पर्श --इनसे ऊपर उठने का नाम है धर्म । इन सबमें आसक्त होने का नाम है अधर्म । धर्म को अनिन्द्रिय स्तर पर ही जाना जा सकता है ।
मेरा धर्म
इस कथन में भी एक रहस्य का
आणाए मामगं धम्मं- - इस सूक्त में एक शब्द है - मामगं । यह शब्द उलझाने वाला है । प्रश्न हो सकता है - 'मेरा धर्म' यह अधिकार कहां से आया ? हवा, पानी, सूर्य, चन्द्रमा आदि पर किसी का भी अधिकार नहीं होता । महावीर ने 'मेरा धर्म' कैसे कहा ? छिपा है । हम समझें - धर्म क्या है ? धर्म विधि-विधान, जो निश्चित किया गया है । सार्वभौम है पर उस सत्य को पाने के लिए की गई हैं । महावीर ने 'मामक' शब्द का आत्मा को पाने के लिए मैंने जो मार्ग, जो पद्धति निश्चित की है वह मेरी खोज है । इसका तात्पर्य है आत्मा को पाने का जो जागतिक नियम मैंने खोजा है, उसे समझो । महावीर ने अपनी साधना से, अपने श्रम से जो नियम खोजे हैं, वे महावीर के अपने अवदान हैं ।
अर्थ है - एक कानून, एक सत्य व्यापक है, अनन्त और अपनी-अपनी पद्धतियां निर्धारित प्रयोग किया है, उसका अर्थ है
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आज्ञा : मूल अर्थ
हम आज्ञा को अधिकांशतः नियामक भाषा में ही समझते हैं । वस्तुतः आज्ञा का मूल अर्थ है जानना । आज्ञा की परिभाषा की गई—आ समन्तात् ज्ञायन्ते अतीन्द्रियाः पदार्थाः येन सा आज्ञा जिससे अतीन्द्रिय पदार्थ को जाना जाता है, उसका नाम है आज्ञा । भगवान महावीर श्रद्धा के नहीं, ज्ञान के महान् समर्थक थे । श्रद्धा का मतलब है घनीभूत इच्छा । ज्ञान के बिना श्रद्धा कहां से आएगी ? पहले ज्ञान, फिर श्रद्धा । हम वस्तु को यथार्थ रूप में जानें । जानने के बाद आचरण का प्रश्न प्रस्तुत होता है, अनुशीलन और अनुपालन का प्रश्न प्रस्तुत होता है । महावीर ने कहा – पहले जानो - कर्म को जानो, जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष को जानो, नव पदार्थों को जानो । नव पदार्थ को जाने बिना धर्म की बात को नहीं
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