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आणाए मामगं धम्मं
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समझा जा सकता। हम षड्द्रव्य को जानेंगे तो सम्यग् दर्शन हो जाएगा किन्तु सम्यग् आचरण की बात समझ में नहीं आएगी। धर्म को जानना है तो नव-पदार्थ को जानना ही होगा ।
अस्तित्ववाद : उपयोगितावाद
नव-पदार्थ साधना का मार्ग है, षड्-द्रव्य अस्तित्व का मार्ग है | दर्शन के ये दो अंग होते हैं---अस्तित्ववाद और उपयोगितावाद । अस्तित्ववाद को जानने का अर्थ है-जीव है, अजीव है, आकाश और पुद्गल है, यह जान लेना । जो उपयोगितावादी है, उसे जानना होगा— कौन-सा द्रव्य, कौन-सा तत्त्व मेरे लाभ का है ? उससे कैसे लाभ प्राप्त कर सकता हूं ? यह हिताहित विवेक की प्रक्रिया, अनुशीलन और आसेवन की प्रक्रिया उपयोगितावादी दृष्टिकोण से फलित होती है ।
अल्बर्ट आईंस्टीन ने कहा- -'मैं रोज सौ बार अपने आपको इस भावना से भावित करता हूं-तू देख ! तेरा जीवन कितने लोगों के श्रम से NET है | इसलिए तू श्रम कर, निकम्मा मत बैठ । अगर तूने श्रम नहीं किया तो तू उन सबके प्रति कृतघ्न बन जाएगा ।' हम भी जानें- कितने ज्ञात और अज्ञात तत्त्वों के श्रम से हमारा जीवन बना है । उनके श्रम के प्रति कृतघ्न न बनें ।
धर्म है संवर
इस सचाई को जानें - यह जीवन क्या है ? अपने जीवन की परिभाषा को समझना एक गहन दर्शन है । हम स्वयं को जानें, अपने जीवन को जानें, जीवन की परिभाषा को जानें, जीवन के धर्म को जानें। इस सबको जानकर जो धर्म-दर्शन प्रस्तुत किया, उसे एक
महावीर ने शब्द में कहें तो
वह है संवर संयम । आत्मा का संवर करो, संयम करो, यही धर्म है । इस
यही हमारा कर्त्तव्य है, क्योंकि
धर्म को समझकर हम आज्ञा का पालन करें । कर्तव्य आज्ञा के बिना फलित नहीं होता । जब कर्तव्य चेतना जागती है, गुरु का आदेश हित-अहित की बात समझ में आ जाती है । कर्तव्य की चेतना को जगाने का सूत्र है-आज्ञा का जागरण । आज्ञा जागृत होगी तो धर्म समझ में आएगा, संयम और संवर की सार्थकता समझ में आएगी, 'आणाए मामगं धम्मं' इस सूक्त का रहस्य उपलब्ध हो जाएगा ।
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