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आणाए मामगं धम्म प्रत्यक्ष बहुत कम है। अज्ञात के महासमुद्र में एक छोटा-सा टापू है प्रत्यक्ष । अज्ञात अनन्त है । उसे जानने के लिए आज्ञा-आगम की जरूरत है। आदमी बहुत पढ़ा लिखा हो जाए, विद्वान् बन जाए तो भी उसका ज्ञान बहुत अल्प होता है। अनन्त अतीत, अनन्त भविष्य और वर्तमान का सारा परिपाक उससे अज्ञात ही होता है। जो ज्ञात है, वह बहुत स्वल्प है। जो अज्ञात है, वह असीम है । अज्ञात को जानने का माध्यम है-आगम-अतीन्द्रिय अनुभव। विधि निषेध : आज्ञा
प्रत्येक व्यक्ति वह कार्य करना चाहता है, जिससे उसका हित साधन हो, अहित न हो । हित-सिद्धि और अहित से बचने का सूत्र है आज्ञा । आज्ञा का एक अर्थ है--विधि-निषेधों को जानो। धर्म के सन्दर्भ में कहा गयाप्रमाद मत करो। प्रमाद करने से हित टूटता है, अहित घटित होता है। यह निर्देश आज्ञा है। चिकित्सा शास्त्र कहता है-हित भोजन करो, अहित भोजन मत करो। मित भोजन करो, बहुत मत खाओ। यह आयुर्वेद की आज्ञा
नियंत्रण : आज्ञा
आज्ञा का एक अर्थ है—नियंत्रण। न शास्त्र, न अतीन्द्रिय अनुभव किन्तु नियंता का आदेश- यह मत करो, यह करो। यह अनुशासनात्मक भाषा आज्ञा है । परिभाषा की गई-क्रोधादिभयजनितेच्छा आज्ञा । क्रोध और भय पैदा करने वाली इच्छा का नाम है आज्ञा । भय बिनु प्रीति न होय यह अनुभव-शून्य बात नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति विवेक और ज्ञान सम्पन्न नहीं होता । मनुष्य की अनेक कोटियां हैं। ऐसे लोग भी हैं, जिनका मस्तिष्क विकसित नहीं है । उनके विवेक को जगाने के लिए भय की जरूरत होती है। अनुशासनात्मक भाषा व्यक्ति में एक भय पैदा करती है और वह भय व्यक्ति को बुरे मार्ग से बचाने में उपयोगी बनता है। धर्म का मूल आधार
__ आज्ञा के ये तीन अर्थ-अतीन्द्रिय ज्ञान, मार्गदर्शन और नियंत्रण, आणाए मामगं धम्म-इस सूक्त को नया सन्दर्भ देते हैं। इस सूक्त का परंपरागत अर्थ है—मेरा धर्म मेरी आज्ञा में है। तुम मेरे धर्म को जानकर मेरी आज्ञा का पालन करो। जब तक जानोगे नहीं, मेरे धर्म का पालन कैसे करोगे ? महावीर का सारा धर्म ज्ञान पर टिका हुआ है, अन्ध-विश्वास पर टिका हुआ नही है। महावीर ने आत्मा को देखा, तब कहा--धर्म जरूरी है। अगर आत्मा को नहीं देखते तो धर्म की जरूरत नहीं होती। उन्होंने आत्मा और कर्म को देखने के बाद यह उपदेश दिया-'धर्म जरूरी है, यदि धर्म
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