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________________ शाश्वत धर्म ११७ दिया जाए और एक ही विषय पर उनके विचार को जाना जाए तो दस प्रकार के विचार प्रस्तुत हो जाते हैं । भेद का होना, यह बुद्धि का धर्म है, प्रकृति है । जहां बौद्धिकता है, वहां भेद हुए बिना नहीं रहता । अनुभव में कोई भेद नहीं होता। यदि हजार व्यक्तियों को अलग-अलग स्थानों पर बिठा दिया जाए तो भी अनुभव के क्षेत्र में वे सब समान होंगे। एक लाडनूं में है, एक लंदन में है, एक मास्को और वाशिंगटन में है, एक मेरूपर्वत पर है और एक देवलोक में है । स्थान-भेद होने पर भी इनके अनुभव में कोई भेद नहीं होगा । अनुभव का ज्ञान सबका एक समान, एक जैसा होगा। आत्म-साक्षात्कार का स्वर हम दूसरा संदर्भ लें। ज्ञान दो प्रकार का होता है—प्रत्यक्ष और परोक्ष । परोक्ष ज्ञान भिन्न-भिन्न होता है किन्तु प्रत्यक्ष ज्ञान प्रत्येक व्यक्ति का एक समान होगा। जैन आचार्यों ने इन्द्रियों को बहुत महत्त्व नहीं दिया क्योंकि वे परोक्ष हैं । हम इन्द्रियों का बहुत भरोसा करते हैं, आंख का बहुत भरोसा करते हैं कि तु वे प्रत्यक्ष नहीं हैं, परोक्ष हैं । इसीलिए बहुत बार धोखा हो जाता है। परोक्ष आखिर परोक्ष ही है। उसका अधिक भरोसा नहीं किया जा सकता। प्रत्यक्ष है आत्मज्ञान–अतीन्द्रिय ज्ञान । इस सार्वभौम धर्म का प्रतिपादन उन व्यक्तियों ने किया, जिन्हें आत्मज्ञान प्राप्त था, जिनकी अतीन्द्रिय चेतना जागत थी। उन्होंने अपने साक्षात् ज्ञान के द्वारा पूरे जगत् को जाना, जीव और अजीव को जाना, सूक्ष्म और स्थूल-सब पदार्थों को जाना । सबके स्वभाव का अनुभव किया। अपनी आत्मा को जाना और आत्म-तुला से सब प्राणियों को तौला । अपने अनुभव को इस भाषा में अभिव्यक्ति दी-'सव्वे पाणा ण हंतव्वा' । यह बुद्धि का स्वर नहीं है, आत्म-साक्षात्कार से निकला हुआ स्वर है-किसी प्राणी को मत मारो। यह शाश्वत धर्म है, देश और काल से प्रतिबद्ध नहीं है। आत्मा और धर्म ___सम्प्रदाय देश और काल से प्रतिबद्ध होता है। प्राचीनता और नवीनता का जो प्रश्न आज प्रस्तुत है, वह धर्म के साथ नहीं, संप्रदाय के साथ जुड़ा हुआ है । कौनसा संप्रदाय पुराना है और कौनसा नया ? प्रश्न यह भी है-नए और पुराने का मूल्य क्या है ? जो इस शाश्वत स्वर का उच्चारण करने वाला है, वह नया भी अच्छा है, पुराना भी अच्छा है। हम धर्म और सम्प्रदाय के बारे में नए-पुराने की चर्चा करते हैं, यह हमारी बहुत बड़ी भूल है। ___ शाश्वत धर्म है आत्म-साक्षात्कार । आत्मा को छोड़कर धर्म की बात नहीं की जा सकती। आत्मा है तो धर्म है। आत्मा नहीं है तो धर्म नहीं है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003086
Book TitleAstittva aur Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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