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________________ लोकविचय : आत्मालोचन अपनी वृत्तियों को आती है। कभी मन में उद्वेग, आवेश और दुःख पैदा हो जाता है तो कभी रति और सुख पैदा हो जाता है। अरति और रति-दोनों के बीच में जीवन की नौका को खेया जा रहा है परन्तु जो वीर होता है, वह अरति और रति--दोनों को नहीं सहता, उनका रेचन कर देता है। महत्वपूर्ण बात है रेचन करना । जो दुःख या सुख आए, उसका आलोचन करें और तत्काल रेचन कर दें । मन में कोई बात आए, उसे तत्काल निकाल दें। मन में कोई बात आ सकती है क्योंकि सब दरवाजे-आंख, कान, नाक आदि खुले हैं किन्तु उसे मन में जमा लेना समस्या है। अतिथि को भोजन करके वापस जाना होता है । अतिथि आ सकता है किन्तु लंबे समय तक ठहर नहीं सकता। इसी प्रकार जो बात आए, उसे टिकाएं नहीं, उसका रेचन करते चले जाएं । रति और अरति-दोनों का रेचन करें, आत्मालोचन के द्वारा, आत्मनिरीक्षण के द्वारा। विकास का सूत्र जो व्यक्ति आत्मालोचन और आत्मनिरीक्षण करना नहीं जानता, वह बुराइयों के लिए अपने घर के सारे दरवाजे खोल देता है, अपने घर को कबाड़खाना बना देता है । होना यह चाहिये ---हम संग्रह न करें, काम में लें और रेचन कर दें। आज संग्रह की वृत्ति इतनी प्रबल है कि आदमी वृत्तियों का संग्रह भी क्यों नहीं करेगा ? सबसे अच्छी वृत्ति है रेचन की वृत्ति । लोगों ने अपने मन में भी एक कबाड़खाना बना रखा है। दस वर्ष पूर्व की बात को भी वे मन से नहीं निकाल पाते, उसकी गांठ बनाए रखते हैं । व्यक्ति के मन में अनेक मनोग्रन्थियां बनी हुई हैं। वह उन्हें भूल नहीं पाता, उनका रेचन नहीं कर पाता इसीलिए वह दुःखी बना हुआ है। __हम अपनी आलोचना करना सीखें, प्रतिलेखना करना सीखें। मेरा एक भी दिन ऐसा न जाता होगा, जिस दिन मैंने अपना प्रतिलेखन न किया हो । मेरे त्रिकोस में जो सुविधा है, उसे मैं आत्म-प्रतिलेखन का ही परिणाम मानता हूं। विकास के लिए आत्मालोचन करना बहुत जरूरी है। जो आत्मालोचन करना नहीं जानते, वे रूढ़ परंपरा को ही निभाते चले जाते हैं, नया कुछ नहीं कर पाते । विकास का सूत्र है आत्मालोचन की वृत्ति का होना । अगर यह एक वृत्ति आ जाए तो शायद लोक विचय की वृत्ति का विकास हो जाए। लोकविचय की वृत्ति के विकास से अनेक समस्याओं का समाधान सहज संभव बन जाता है । खतरनाक वृत्ति समस्या यह है, हमारा अधिकांश समय दूसरों के बारे में सोचने में ही बीतता है। हम अपने बारे में सोचते ही नहीं हैं। महावीर ने कहा--जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003086
Book TitleAstittva aur Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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