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________________ १६६ अस्तित्व और अहिंसा जाने कितने व्यक्तियों की जीवन नौका को डुबोया है। महावीर निरन्तर चलते रहे, चलते रहे। उनका पुरुषार्थ कभी सोया नहीं, इसीलिए उनका निष्क्रमण सफल हो गया। पराक्रम की लौ इतना प्रकाश देती है कि व्यक्ति कभी बुझता नहीं है । जहां सुस्ती आती है, शिथिलता आती है, वहां बनने वाला काम भी नहीं बन पाता। पुरुषार्थ के बिना कुछ भी सधता नहीं है । हम इतिहास को देखें। जिन व्यक्तियों ने पुरुषार्थ और पराक्रम का जीवन जिया है, वे अपने जीवन में बहुत सफल बने हैं। हम महावीर को पढ़ें, आचार्य भिक्षु को पढ़ें, आचार्य तुलसी को देखें। इन सबकी सफलता का रहस्य है पुरुषार्थ । आचार्य भिक्षु के बारे में जो साहित्य लिखा गया, उसमें यह बात बहुत मुख्यता से प्रस्तुत की गई-आचार्य भिक्षु अतुल पराक्रमी थे। कहा जाता है-सितत्तर वर्ष की अवस्था तक निरन्तर पुरुषार्थ चलता रहा। आचार्य भिक्षु का अंतिम चातुर्मास सिरियारी में था। जीवन के सांध्यकाल में भी वे पंचमी दूर जाते थे, गोचरी भी करते थे, प्रतिक्रमण भी खड़े-खड़े किया करते थे। उनका यह पुरुषार्थ तेरापंथ के विकास का आधार बन गया। अप्रमाद : वीतरागता पुरुषार्थ जागता है तो अंतरात्मा जाग उठती है। पुरुषार्थ सोता है तो अंतरात्मा मो जाती है। यह सोना, आराम करना बड़ा खतरनाक होता है। इस अवस्था में सातवां गुणस्थान-अप्रमत्त गुणस्थान आना कठिन हो जाता है। निष्क्रमण का लक्ष्य है.-वीतराग होना। क्या अप्रमाद वीतरागता नहीं है ? अप्रमाद और वीतरागता में क्या अन्तर है ? सातवें गुणस्थान को पाना एक मुनि के हाथ में है। वह जब चाहे सातवें गुणस्थान में जा सकता है । व्यक्ति की आंख कमजोर है। चश्मा लगाया और पढ़ने की स्थिति बन गई। यही बात अप्रमाद की है। अप्रमाद की उपलब्धि व्यक्ति के हाथ में है। बाधा है जिजीविषा ___ कुछ लोग आगे बढ़ जाते हैं किन्तु थोड़ा-सा कष्ट का स्पर्श होता है, पुनः लौट आते हैं। शायद यह जीवन का मोह, जिजीविषा साधना में सबसे बड़ी बाधा है। आदमी में जीवन का इतना प्रबल मोह है कि वह मरने की बात सोच नहीं सकता। सत्य यह है—जो व्यक्ति मरने की तैयारी को अपने सामने नहीं रखता, उसका निष्क्रमण अच्छा नहीं होता। सफल धार्मिक और सफल मुनि वही हो सकता है, जो सदा मरने की तैयारी रखता है। जो मौत से नहीं डरता, उसका संकल्प ही दृढ़ रह सकता है । मौत से डरने वाले व्यक्ति का संकल्प डगमगा जाता है। यह जीवन की आकांक्षा सबने बड़ी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003086
Book TitleAstittva aur Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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