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अस्तित्व और अहिसा
मौत होना अच्छा है। जहां अज्ञानी लोग होते हैं वहां ज्ञानी लोग मौन हो जाते हैं।
ज्ञानिनां पर्षदि प्रायो, मौनमज्ञानिनो वरम् ।।
अज्ञानिनां समक्षे तु, ज्ञानी भवति मौनभाक् ॥ जहां व्यक्ति का अपना अज्ञान होता है, वहां उसके लिए मौन ही श्रेयस्कर है। जहां विवाद बढ़ता हो, वहां मौन अत्यन्त शोभित होता है।
अज्ञा स्वस्य यत्रास्ति, तत्र मौनं हि शोभनम् ।
विवादो वर्धते यत्र, मौनं तत्रातिशोभनम् ॥ संकल्प की दिशा
कहां बोले और कहां मौन करें ? इसका विवेक होना जरूरी है । महावीर ने स्वर्ण सूत्र दिया--सब जगह बोलने का प्रयत्न मत करो, मौन रहो, मौन रहना सीखो। आजकल कुछ लोग ऐसा मौन भी करते हैं, जिसकी कोई विशेष सार्थकता नहीं लगती। अनेक ब्यक्ति यह संकल्प करते हैं ---मैं एक घंटा मौन करूंगा। किन्तु वे इस संकल्प को तब पूरा करते हैं जब उन्हें सोना होता है। व्यक्ति सोते समय मौन का संकल्प करता है, मौन भी हो जाता है और नींद भी ले ली जाती है। यह बुरी बात नहीं है, एक स्वाभाविक वात है किन्तु इससे संकल्प की सार्थकता प्रमाणित नहीं होती । वस्तुतः वहां मौन की सार्थकता है जहां विग्रह का प्रसंग है, कलह बढ़ने का प्रसंग है, लड़ाई-झगड़े का प्रसंग है, क्रोध, आवेश या उत्तेजना का प्रसंग है। ऐसे अवसरों पर मौन करने से ही मौन का अभिप्राय सिद्ध होता है। महावीर ने मौन का जो सूत्र दिया, उसका संदर्भ यही है। यदि हम उत्तेजनात्मक प्रसंगों में मौन रहना सीख जाएं तो वातावरण शान्त होगा, उसमें मिठास होगा, स्निग्धता और सरसता होगी। प्रश्न मौत की सार्थकता का
'तब मौन हो जाएं'- हम इस महावीर वाणी के हृदय को पकड़ें। हम मौन तब करें, जब आवेश की स्थिति हो। हम मौन को समय के साथ नहीं, प्रसंग के साथ जोड़ें। यदि हम इस तथ्य पर ध्यान दें तो मौन की सार्थकता स्वतः प्रमाणित हो जाए। हम यह सोचें-कलह का प्रसंग कब आता है ? भोजन का समय इसका एक उदाहरण बन सकता है । भोजन का समय प्रायः कलह का समय होता है। यदि भोजन में थोड़ा सा अन्तर रह जाता है, उसके स्वाद में फर्क आ जाता है, भोजन थोड़ा कच्चा रह जाता है
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