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अस्तित्व और अहिंसा
यह स्थूल बात है। जैसे-जैसे स्थूल से सूक्ष्म की ओर हमारा प्रयाण होगा वैसे-वैसे द्वैत समाप्त होता चला जाएगा, अद्वैत सामने आता चला जाएगा। आधुनिक युग के वैज्ञानिकों ने एटम पर जो प्रयोग किए हैं, जिस सूक्ष्मता में आज के वैज्ञानिक गए हैं, उससे ऐसा लगता है सब जगह चेतना ही चेतना है । वे इस भाषा में बोलते हैं कि अद्वैत बड़ा सत्य है। सब जगह आत्मा ही आत्मा है। अद्वैत की मूल खोज इसलिए हुई थी कि विश्व का, सृष्टि का मूल कारण क्या है ? इसी मूल कारण की खोज का नाम है अद्वैतवाद । सृष्टि : मूल कारण
कुछ दार्शनिकों का निष्कर्ष रहा—स ष्टि का मूल कारण है चैतन्य । चैतन्य के कारण सारा विश्व पैदा हुआ है। यह चैतन्य-अद्वैतवाद है। विश्व के मूल कारण के संदर्भ में और भी अनेक खोजें हुई। कुछ दार्शनिकों का निष्कर्ष था---सारा विश्व जड़ में से निकला है। यह जड़ अद्वैतवाद है।
__ अद्वैत और द्वैत का मूल अर्थ है--कारण की खोज । संसार का कारण क्या है ? विश्व का यह सारा जो विस्तार हुआ है, उसका मूल कारण क्या है ? आचार्य हेमचंद्र ने महावीर की स्तुति में लिखा--
अपर्ययं वस्तु समस्यमानमद्रव्यमेतच्च विविच्यमानम् ।
आदेशभेदोदितसप्तभंगमदीदृशस्त्वं बुधरूपवेद्यम् ॥
जब हम वस्तु की अभेद रूप से मीमांसा करते हैं तब द्रव्य बन जाती है, पर्याय नहीं रहती। जब हम उसके भेदात्मक स्वरूप का विश्लेषण करते हैं तब उसके पर्याय ही सामने आते हैं, मूल द्रव्य नहीं। सप्तभंगी के द्वारा वस्तु की विवक्षा के जो दृष्टिकोण बतलाए हैं, वे विद्वानों के लिए भी ज्ञातव्य हैं। अद्वैत कोरा दर्शन नहीं है
___ अद्वैत कोरा दर्शन नहीं है, साधना का बहुत बड़ा प्रयोग है। प्रमाणशास्त्र की एक चतुष्टयी है-प्रमाता, प्रमेय, प्रमिति और प्रमाण । योग साधना में ध्यान शास्त्र की भी एक चतुष्टयी है-ध्याता, ध्येय, ध्यान और ध्यान-फल । एक होता है ध्याता-ध्यान करने वाला । एक है ध्यान । एक है ध्येय और एक है ध्यान का फल । जब तक यह भेद बना रहता है, तब तक व्यक्ति अच्छा ध्यानी नहीं बन पाता। जब अद्वैत सधता है, ध्याता और ध्येय--एक बन जाते हैं। जब यह अद्वैत सध जाता है तभी समाधि की अवस्था प्राप्त होती है, अद्वैत को साधे बिना ध्याता और ध्येय की दूरी बनी रहेगी, कभी मिट नहीं पाएगी।
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