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आचारांग का समग्र अनुशीलन
शब्द और तर्क जाल में उलझा है दर्शन
कठिनाई यह हुई - मध्यकाल में हजार-पंद्रह सौ वर्षों का समय ऐसा ताकि प्रायोगिक दर्शन, ध्यान-साधना की बात छूट गई, दर्शन कोरा शब्दों में उलझकर रह गया । दार्शनिक शब्द और तर्क में उलझ गए, मूल बात को छोड़ दिया गया । आज जरूरत है --दर्शन के साथ प्रायोगिक दर्शन को जोड़ा जाए। अभी एक नई सोसायटी बनाई गई है— इन्टरनेशनल सोसायटी फॉर इण्डियन फिलोसॉफी । उससे अन्तर्राष्ट्रीय जगत् के बड़े-बड़े विद्वान् जुड़े हैं । हमने सुझाव दिया है— दर्शन केवल चर्चा के स्तर पर रहा तो वह बहुत लाभप्रद बन पाएगा, ऐसा नहीं लगता । दर्शन के साथ जीवन की समस्याओं को कैसे प्रायोगिक ढंग से जोड़ा जाए ? यदि इस क्षेत्र में कुछ काम किया तो दर्शन का नया रूप प्रस्तुत हो सकता है, वह जनता का दर्शन बन सकता है । दर्शन की चर्चा मात्र से किसी लाभ की संभावना नहीं की जा सकती । शाब्दिक चर्चा का परिणाम कभी बहुत सार्थक नहीं होता ।
मार्मिक प्रसंग
गांव में एक मुनि आए । जनता ने मुनि का प्रवचन सुना । मुनि ने अद्वैतवाद की व्याख्या की। लोग प्रभावित हुए। मुनि से एक भाई ने माला फेरने का संकल्प लिया। मुनि ने कहा- सोऽहं सोऽहं का जप किया करो । भाई ने सोsहं का जप करना शुरू कर दिया । कुछ दिन बीते । दूसरी संप्रदाय के मुनि आए । वे भक्ति-संप्रदाय के साधु थे। उस भाई ने मुनि से धर्मचर्चा की। मुनि ने पूछा --- माला फेरते हो ?
हां, सोऽहं का जप करता हूं ।
मुनि ने कहा- यह गलत बात है । तुम इसके पीछे एक 'दा' लगा दो । अब से दासोsहं, दासोऽहं का जप किया करो ।
भाई ने मुनि की बात को स्वीकार कर लिया। वह 'दासोऽहं' का जप करने लगा ।
कुछ मास बीते । वे अद्वैतवादी संत पुनः उसी गांव में आए। वह भाई मुनि के दर्शनार्थ आया । मुनि ने पूछा – जप चल रहा है ? भाई ने कहा- हां। महाराज ! चल तो रहा है, पर एक संन्यासी ने उसमें सुधार कर दिया। पहले सोऽह सोऽहं का जप करता था । अब मैं दासोsहं, दासोऽहं का जप करता हूं ।
अरे ! तुमने अनर्थ कर दिया। हम किसके दास हैं ? हम तो स्वयं
प्रभु हैं। खैर ! अब तुम इस गलती को सुधार लो । उस संत की बात भी
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