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अस्तित्व और अहिंसा
समाहित हो जाते हैं। इनमें पांच स्थावर काय के जाव सूक्ष्म हैं। हमें आंखों से ऐसे जीव दिखाई नहीं देते। चलने फिरने वाले जीव त्रस हैं। वे स्थूल जीव हैं । उनका आंखों से पता चल जाता है। महावीर ने सूक्ष्म जीवों के अस्तित्व का विस्तृत विवेचन किया है । उन्होंने सूक्ष्म जीवों के अस्तित्व की स्वीकृति मार्मिक भाषा में प्रस्तुत कीसे बेमि--णेव सयं लोगं अब्भाइक्खेज्जा, णेव अत्ताणं अब्भाइक्खेज्जा।
जे लोगं अब्भाइक्खइ, से अत्ताणं अब्भाइक्खइ ।
जे अत्ताणं अब्भाइक्खइ से लोगं अब्भाइक्खइ ।
मैं कहता हूं----व्यक्ति न लोक के अस्तित्व को अस्वीकार करे और न अपनी आत्मा के अस्तित्व को अस्वीकार करे ।
जो लोक के अस्तित्व को अस्वीकार करता है, वह अपनी आत्मा के अस्तित्व को अस्वीकार करता है।
जो अपनी आत्मा के अस्तित्व को अस्वीकार करता है, वह लोक के अस्तित्व को अस्वीकार करता है ।
अपने अस्तित्व की स्वीकृति लोक की स्वीकृति है, अन्य जीवों के अस्तित्व की स्वीकृति है। लोक की अस्वीकृति सूक्ष्म जीवों के अस्तित्व की अस्वीकृति है, अपने अस्तित्व की अस्वीकृति है । प्रश्न मौलिकता का
पश्चिमी विद्वानों ने प्रश्न उपस्थित किया-यह आदिमकाल का ज्ञान है। महावीर की स्वतन्त्र प्रस्थापना नहीं है। आदिम लोगों ने इन भूतों को माना था और महावीर ने इनको जीव के रूप में स्वीकार कर लिया । वस्तुतः यह कथन सही नहीं है । पृथ्वी हमारे सामने है, हम उसे देख सकते हैं। पानी भी हम देख सकते हैं। वायु का स्पर्श हो रहा है। आग को हम देख रहे हैं और वनस्पति को भी हम देख ही रहे हैं। इन्हें भूत मानने में कोई कठिनाई नहीं थी। इनमें जीव है, यही नहीं किन्तु ये स्वयं जीव हैं । यह महावीर की मौलिक स्वीकृति है। पानी में जीव है यह अलग बात है, पानी स्वयं जीव है, यह अलग पात है। मिट्टी में जीव होन। अलग बात है और मिट्टी स्वयं जीव है, यह अलग बात है।
जैनागमों में दो शब्द प्रयुक्त हुए हैं. पुढवी जीवा, पुढवीनिस्सिया जीवा । पृथ्वीकायिक जीव और पृथ्वी-नि श्रत जीव, पृथ्वी के आश्रय में रहने वाले जीव । सब जीवनिकायों के लिए ये शब्द व्यवहृत हुए हैं। इन सबको जीव मानना भगवान महावीर के अतिशय ज्ञान का एक स्वयंभू साक्ष्य है। यह अलौकिक बात है कि चारों तरफ जीव ही जीव हैं। पूछा जाएजीव कहां है ? कहा जाएगा----सारा लोक जीवों से भरा पड़ा है। व्यक्ति वे
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