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अस्तित्व और अहिंसा
संवेदनशीलता के कारण आपसी संबंधों में तनाव और संघर्ष के स्फुलिंग उछलते रहते हैं।
भगवान महावीर ने आत्म-तुला के सिद्धान्त का व्यवहार के संदर्भ में प्रतिपादन किया । जैन श्रावक की आचार-संहिता आत्म-तुला के सिद्धान्त का व्यावहारिक रूप है। श्रावक की आचार-संहिता का एक नियम है—मैं अपने आश्रित प्राणी की आजीविका का विच्छेद नहीं करूंगा। चाहे वह नौकर है, कर्मचारी है या पशु है। जो आश्रित है, वह उसकी आजीविका का विच्छेद नहीं कर सकता ।। शोषण-परिहार का सिद्धांत
आज शोषण की समस्या गंभीर है। यह स्वर उभर रहा हैशोषण नहीं होना चाहिए, श्रम का उचित मूल्य मिलना चाहिए। यदि हम अतीत को पढ़ें तो हमारा निष्कर्ष होगा-शोषण का विरोध सबसे पहले भगवान महावीर ने किया। महावीर ने कहा—किसी के भक्तपान का विच्छेद मत करो। जो व्यक्ति जिसे पाने का हकदार है, उसे तुम मत छीनो। वह श्रम करता है और तुम उसका हक छीन लेते हो, यह न्याय नहीं है। शोषण के परिहार का महत्वपूर्ण सिद्धान्त है आत्म-तुला का सिद्धान्त । किसी की आजीविका मत छीनो, किसी का शोषण मत करो। यदि इस सिद्धान्त पर अमल होता तो हड़ताले नहीं होती, मिलें बंद नहीं होती। अहिंसा के माध्यम से मानवीय चेतना को जगाने का जितना काम महावीर ने किया, उतना किसी ने किया या नहीं, यह भी अनुसंधान का विषय है । भाचारांग सूत्र में अहिंसक समाज-रचना के सूत्र भरे पड़े हैं । क्रान्ति सूत्र है आचारांग । उसका एक सूत्र है-आदमी तराजू के एक पल्ले में अपने को विठाए, दूसरे पल्ले में सामने वाले प्राणी को बिठाए और दोनों को समदृष्टि से तोले, आत्म-तुला की अन्वेषणा करे । महावीर के शब्दों में यही सच्ची खोज और अन्वेषणा है।
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