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आचार-शास्त्र
जैनागमों को चार भागों में विभक्त किया गया है-द्रव्यानुयोग, चरणकरणानुयोग, धर्मकथानुयोग और गणितानुयोग । द्रव्यानुयोग द्रव्य की मीमांसा है, चरणकरणानुयोग आचार की मीमांसा है। गणितानुयोग उन दोनों के लिए अनिवार्य है । धर्मकथानुयोग में रूपक, कथानक, दृष्टान्त आदि के द्वारा धर्म का स्वरूप प्रतिपादित किया गया है। आचारांग सूत्र चरणकरणानुयोग का एक अंग है। द्वादशांगी का पहला अंग है--आचारांग । उसका नाम है-ब्रह्मचर्य-ब्रह्म की चर्या । ब्रह्मचर्य और आचार-दोनों पर्यायवाची शब्द हैं । हम आचार पर विचार करें। प्रश्न है-आचार क्या है ?
आचार का संबंध
चार शब्द बहुत प्रचलित हैं-अध्यात्म, धर्म, आचार और नैतिकता। हम अध्यात्म को परिभाषित करें। जो चैतन्य प्रधान साधना है या चैतन्यानुभूति प्रधान साधना है, वह है-अध्यात्म । उसमें आन्तरिक चैतन्य पर अधिक ध्यान केन्द्रित किया जाता है, बाहर के नियम-उपनियम गौण होते हैं। धर्म है संयम प्रधान साधना । जो निग्रह प्रधान होता है, वह है धर्म । आचार का सम्बन्ध धर्म और अध्यात्म-दोनों से है। अध्यात्म की क्रियान्विति भी आचार है और धर्म की क्रियान्विति भी आचार है। किन्तु आचार स्वनिष्ठ होता है। आचार का संबंध किसी दूसरे से नहीं होता । नैतिकता आचार का ही एक प्रकार है। दूसरे के प्रति हमारा जो सम्यक् आचरण है, उसे नैतिकता कहा जाता है । दूसरों के साथ हमारा जो व्यवहार है, उससे नैतिकता जुड़ी हुई है।
जो समाजाभिमुखी धर्म की साधना है, वह धर्म का आचार या नैतिकता बन जाती है। मिलावट न करना धर्म है, वह आचार भी है, नैतिकता भी है। क्योंकि वह स्वगत आचार नहीं है। मिलावट न करना, इसमें सामाजिक संदर्भ भी जुड़ा हुआ है। कटु वचन न बोलना अपना संयम है, अपना धर्म है किन्तु वह नैतिकता भी है। अपनी इन्द्रियों का संयम करना स्वनिष्ठ है । इसमें दूसरे का कोई संबंध नहीं है। एक व्यक्ति मिठाई नहीं खाता है तो यह उसका अपना संयम है, किसी दूसरे का नहीं है। अपना निग्रह और अपनी साधना अपना आचार है। किसी के प्रति संबंध का जो
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