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अस्तित्व और अहिंसा
आदमी दूसरे आदमी की हत्या कर देता है। आदमी आदमी के प्रति संवेदनशील नहीं है, करुणाशील नहीं है। इसे हम विलास और क्रूरता कहें, भीतर की अतृप्ति या असंतोष कहें। जब तक भीतर से तृप्त होने की बात समझ में नहीं आएगी, विलास और क्रूरता की समस्या समाहित नहीं हो पाएगी। विराट से प्रीति
व्यक्ति के भीतर एक अतृप्त चाह बनी रहती है। वह सोचता हैआज यह नहीं हुआ, आज अमुक चीज नहीं मिली, ऐसा नहीं हुआ, वैसा नहीं हुआ। इन बातों का मन पर जो एक बोझ बन जाता है, उसका उतरना जरूरी है । हम इस चिन्ता का भार न ढोएं, प्रमत्त और आर्त न बनें, अपनी चेतना और अपनी आत्मा से प्रीति करना सीखें। जिस व्यक्ति में यह प्रीति जागती है, उसके जीवन में धर्म उतरता है, असंतोष संतोष में बदल जाता है, विलास और क्रूरता के भाव विलीन हो जाते हैं। वह व्यक्ति सदा आनन्द का जीवन जीता है। राजस्थान की प्रसिद्ध कहावत है.---'सदा दीवाली संत के, आठों पहर आनन्द ।' अपने आपसे प्रीति करने वाला आठों पहर आनन्द का जीवन जीता है, उसे कोई अपेक्षा नहीं रहती। अपने आपसे प्रेम करने वाला व्यक्ति ही प्रेम को विराट रूप दे सकता है। अपने आपसे प्रीति ही विराट से प्रीति है और यही अपने कल्याण का, मनुष्य मात्र के कल्याण का भार्ग है।
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