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अपरिग्रहः परमो धर्मः
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का प्रश्न जुड़ा होता तो गरीब और अमीर के बीच इतना अंतर नहीं होता, समाज को नए ढंग से सोचने का मौका मिलता, अर्थ और परिग्रह की समस्या भयंकर नहीं बनती । हम भारत के बड़े शहरों को देखें । एक ओर आसमान को छूती अट्टालिकाएं खड़ी हैं तो दूसरी ओर ऐसी झुग्गी-झोंपड़ियों की कतारें लगी हैं, जिनको देखकर आदमी का मन वितृष्णा से भर जाता है । जटिल है परिग्रह की समस्या
क्या यह अंतर मिट सकता है ? क्या इस स्थिति में आर्थिक समानता की बात सफल हो सकती है ? हम देखते हैं, एक ओर अनेक संभ्रांत व्यक्ति शादी-ब्याह में लाखों-करोड़ों रुपये खर्च कर देते हैं, दूसरी ओर लाखों-करोड़ों लोग भूख से पीड़ित हैं । यह कितनी भयानक स्थिति है । कहां इच्छापरिमाण की बात और कहां अपरिग्रह की बात । अपरिग्रह की बात करने में भी संकोच होता है । हिन्दुस्तान में सैकड़ों उद्योगपति हैं, हजारों-लाखों व्यापारी हैं । उनमें बहुत सारे ऐसे हैं, जिन्होंने अपने जीवन में इच्छा-परिमाण या भोगोपभोग के संयम का स्वर सुना ही नहीं होगा । वे एक ही बात जानते हैं -- खूब कमाना, खूब भोगना और शादी-ब्याह में खुले हाथ लुटाना । हिंसा से भी अधिक जटिल है परिग्रह की समस्या । वर्तमान समस्या को देखते हुए अपरिग्रह पर अधिक बल देना जरूरी है । 'अहिंसा परमो धर्मः' के साथ-साथ 'अपरिग्रह: परमो धर्म:' इस घोष का प्रबल होना जरूरी है । अहिंसा और अपरिग्रह का एक जोड़ा है, उसे काट दिया गया । उसे वापस जोड़कर ही हम समाधान की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं । जिस दिन 'अहिंसा परमो धर्म:' के साथ 'अपरिग्रह परमो धर्मः' का स्वर बुलन्द होगा, आर्थिक समस्या को एक समाधान उपलब्ध हो जाएगा ।
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