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यह संसार है
विकास का आधार
मनुष्य की प्रवृत्ति के पीछे अनेक प्रेरणाएं और भावनात्मक उत्तेजनाएं हैं । उनमें सबसे बड़ी प्रेरणा है लोभ । कषाय के चार प्रकार हैं--क्रोध, मान, माया और लोभ । इनमें लोभ का परिवार सबसे बड़ा है। दसवें गुणस्थान तक उसका अस्तित्व बना रहता है । इसका अर्थ है - वह साधना की अग्रिम भूमिका तक अपना पंजा फैलाये हुए है । क्रोध, मान, माया -- ये लोभ के ही चमचे हैं | अगर लोभ प्रबल है तो क्रोध भी ज्यादा आएगा, अहंकार भी ज्यादा बढ़ेगा, माया भी विस्तार पाएगी । जितने कषाय हैं, हमारी प्रवृत्ति की प्रेरणाएं हैं, उन्हें एक शब्द --- लोभ में समेटा जा सकता है । लोभ ने मनुष्य में बड़ी क्रूरता पैदा की है । दूसरे प्राणियों को भी इसने क्रूर बनाया है । सौंदर्य की लालसा, प्रसाधन, साज-सज्जा, आरामतलबी — इन सबके मूल में लोभ ही है । इन वृत्तियों ने इस संसार को बहुत भद्दा बना दिया है ।
यह संसार त्रसप्राणी है और त्रसप्राणी संसार है । कहना चाहिएइस संसार का, इस लौकिक व्यवस्था का विकास गति से हुआ है । अगर गति नहीं होती तो विकास नहीं होता । अगर द्विपद, चतुष्पद प्राणी नहीं होते, सरीसृप नहीं होते, पक्षी नहीं होते, विश्व में केवल स्थावर प्राणी ही होते, जंगल, पहाड़ और तालाब ही होते तो सृष्टि - विकास का कोई क्रम नहीं होता । जो जहां है, वह वहीं रहता । न घोड़ागाड़ी होती, न रथ होता, प्राचीन सभ्यता भी नहीं होती । वर्तमान युग में भी न वायुयान होते, न रेल और बसें होतीं । संसार पर वनस्पति जगत् का एक मात्र साम्राज्य होता ।
विकास की प्रक्रिया : मूल तत्त्व
विकास की प्रक्रिया का मूल आधार है गति । दूसरी भाषा में सजीव विकास की प्रक्रिया के मूल तत्त्व हैं। स्थावर - सृष्टि से हम त्रस - सृष्टि पर आएं । स्थावर पेड़ बढ़ जाते हैं, वनस्पति बढ़ जाती है पर नया निर्माण कुछ भी नहीं होता । हमारी गति ही सारे नव निर्माण का आधार बनी है | पांच स्थावर के बाद छट्ठा स्थान है त्रसजगत् का । उसी को भगवान महावीर ने संसार कहा है- - एस संसारेति पवच्चई । संसार का मतलब ही गतिशील होना है। स्थिरता का नाम संसार नहीं है ।
हमारा यह संसार त्रसजीवी है । इसीने मकान बनाए हैं, कपड़े बनाए
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