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________________ अस्तित्व और अहिंसा मस्तिष्क में । आचारवान वह है, जो मूढ-भाव और अविरति के शस्त्र से दूर रहता है. अशस्त्रं काममाचारः, शस्त्रं भावो विमोहितः । शस्त्रं चाविरतिस्तस्माद, दूरमाचारवान् मतः ॥ सुकरात ने कहा--ज्ञान परम शुभ है। यदि जैन दृष्टिकोण से पूछा जाए----परम शुभ क्या है ? कहा जाएगा-आचार परम शुभ है। आचार के पांच प्रकार हैं--ज्ञान आचार, दर्शन आचार, चारित्र आचार, तप आचार और वीर्य आचार । ज्ञान भी एक आचार है। ज्ञान है दृष्ट का अन्तर्बोध । किन्तु कोई भी ज्ञान जब तक आचरण में नहीं आएगा तब तक वह ज्ञान अपने आपमें ही प्रतिष्ठित रहेगा। ज्ञान के लिए विनम्र व्यवहार करना भी ज्ञान का आचार है। जहां ज्ञान और ज्ञानी के प्रति बहुमान नहीं है वहां ज्ञान का आचार नहीं है। सम्यग् दर्शन का भी अपना आचार है। चारित्र का भी अपना आचार है । समिति-गुप्तियां चारित्र के आचार हैं। तप और वीर्य का भी अपना आचार है। महावीर ने आचार का इतना व्यापक दर्शन दिया, जिसमें कोई भी तत्व बाकी नहीं बचा। जितना शुभ है, वह इस आचार में समाविष्ट है। सर्वांगीणदृष्टि से विचार करें तो कहा जाएगा, जीवन के जितने भी शुभ पक्ष हैं, वे सारे के सारे आचार में समाविष्ट होते हैं। पाप का कारण आचार के संदर्भ में अनेक प्रश्न उभरते हैं—आचार कैसा हो ? क्यों हो ? उसके हेतु क्या हैं ? अमरीकी दार्शनिक जोनेथन एडवर्ड स ने प्रश्न उठाया-पाप का कारण क्या है ? उन्होंने लिखा---मनुष्य प्रकृति से अच्छा नहीं है। वह अच्छा काम करने एवं बुराई का वर्जन करने में असमर्थ है । यह उसकी प्रकृति है। हम आचारांग के संदर्भ में विचार करें-पाप का कारण क्या है ? दुराचार और अनाचार का कारण क्या है ? आचारंग के आधार पर इसका उत्तर होगा-व्यक्ति का यह चिन्तन-मैंने किया है, मैं करता हूं और मैं करूंगा-पाप का कारण है। महावीर की भाषा में यह क्रियावाद है। आत्मा और पुद्गल का योग होना अनाचार का मूल हेतु है। अगर यह योग नहीं होता तो आदमी कोई पाप नहीं करता। अगर आत्मा आत्मा होती और पुद्गल पुद्गल होता तो कोई आश्रव नहीं होता, कर्म का बंध नहीं होता और पाप भी नहीं होता। पाप क्यों होता है ? क्योंकि आत्मा पुद्गल से मिला हुआ है इसीलिए आत्मा औपपातिक है, वह जन्म और मरण के चक्र में चल रहा है। वह पुद्गल से बंधा हुआ है । पुद्गल का योग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003086
Book TitleAstittva aur Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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