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द्रष्टा का व्यवहार
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हूं ? कैसा लग रहा हूं ? लोग मुझे क्या कहेंगे? द्रष्टा की भूमिका पर पहुंच जाने पर ये सारी बातें समाप्त हो जाती हैं।
अध्यात्म का सूत्र
सामान्यतः हम मन की बहुत चिन्ता करते हैं इसीलिए द्रष्टा नहीं बन पाते । वस्तुतः मन की उतनी चिन्ता नहीं करनी चाहिए जितनी कि हम कर रहे हैं। हमारा उद्देश्य होना चाहिये द्रष्टा बनने का। कौन व्यक्ति क्या कहेगा ? अमुक व्यक्ति मेरे बारे में क्या सोचेगा? दुनिया क्या कहेगी ? आदि आदि कल्पनाएं द्रष्टा की भूमिका उपलब्ध होने पर कमजोर पड़ जाएंगी। अनेक व्यक्ति इस डर से अच्छा कार्य नहीं करते । वे सोचते हैंइस कार्य को करेंगे तो दूसरे व्यक्ति क्या कहेंगे? इस आशंका से अच्छे कार्य का प्रारम्भ ही नहीं कर पाते। भोक्ता या भोगने वाला व्यक्ति ही इस मनोवृत्ति से ग्रस्त होता है । अध्यात्म द्रष्टा होने का सूत्र है । अध्यात्म का सूत्र है-घटनाओं, परिस्थितियों को जानों किन्तु उनमें मत बहो, उन्हें मत भोगो। जितना भोक्ता-भाव कम होगा उतना ही ज्यादा धर्म जीवन में उतरेगा। जितना भोक्ता-भाव ज्यादा होगा, उतना ही जीवन में धर्म कम उतरेगा। व्यवहार का स्रोत
बहुत कठिन है मन से परे होना। सामान्य आदमी मन को बहुत मानकर चलता है। वह ध्यान करेगा तो भी मन के स्तर पर करेगा। ध्यान का प्रारम्भ मन के स्तर पर हो सकता है किन्तु आखिर मन से परे पहुंचना है । जब तक व्यक्ति मन को साथ लिए चलेगा तब तक वह परिस्थितियों को भोगता रहेगा। मनोविज्ञान के अनुसार हमारी प्रवृत्ति और व्यवहार का एक स्रोत है--वंशानुक्रम । जैसा वंशानुक्रम होता है, जैसी शरीर की रचना होती है, मनुष्य का आचरण और व्यवहार भी वैसा ही होता है। बड़ा कारण है जीन । जैसा जीन होता है, वैसी ही शारीरिक और मस्तिष्कीय रचना होती है और वैसा ही व्यवहार होता है।
व्यवहार का दूसरा स्रोत है परिवेश । जैसा वातावरण या परिवेश मिलता है, व्यक्ति वैसा बन जाता है । मनोविज्ञान में इन दो तत्त्वों के सन्दर्भ में ही मनुष्य के व्यवहार की व्याख्या की गई। तीसरी बात, जो मुख्य थी, उसे छोड़ दिया गया । वंशानुक्रम भी कारण बनता है, परिवेश भी कारण बनता है किन्तु व्यक्ति के अस्तित्व को बिलकुल नकार दिया गया। यदि आत्मवादी दर्शन होता तो तीन बाते सामने आतीं—आत्मा की अपनी क्षमता, वंशानुक्रम और परिवेश ।
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