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अस्तित्व और अहिंसा
में मूल्यांकन की दृष्टियां उपलब्ध हैं । हम सही मूल्यांकन करें । मूल्यांकन सही होगा तो अपने घर के भीतर रहने का सूत्र हस्तगत हो जाएगा ।
दुःख का कारण
भीतर कौन ? बाहर कौन ? इस प्रश्न को अनेक कोणों से समझा जा सकता है। इस एक प्रश्न के अनेक उत्तर हैं। एक उत्तर दिया गया- -जो व्यक्ति दुःख को आरंभ मूलक मानता है, वह अपने घर के भीतर है । जो व्यक्ति दुःख को दूसरों द्वारा दिया हुआ मानता है, परकृत मानता है, वह अपने घर के बाहर है ।
दुःख का मूल कारण है— आरम्भ । दूसरा आदमी दुःख नहीं देता, अपना किया हुआ आरंभ दुःख देता है । आजकल आरंभ का अर्थ किया जाता है— काम को शुरू करना, प्रवृत्ति करना किन्तु आरंभ का अर्थ हैजितना हिंसा मूलक काम है, घरेलू काम है, वह आरंभ है । व्यक्ति जब-जब आरंभ करता है, दुःख को बांध लेता है, दुख: के विपाक को निमन्त्रण दे देता है ।
दोष से घिरे हुए हैं आरंभ
गीता में भी यही कहा गया है
सर्वारंभाः हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः ।
जितने आरंभ है, वे सब दोष से घिरे हुए हैं। आग जली, धुआ पैदा हुआ, दोष शुरू हो गया । यदि आग नहीं जलती तो धुंआ नहीं होता । यदि आरंभ नहीं होता तो दुःख नहीं होता ।
दुःख के संचय के कारण है आरंभ | यह बात समझ में आए तो व्यक्ति अपने भीतर चला जाए। जब तक यह दृष्टिकोण नहीं बनता है, दुःख की खोज बाहर ही बाहर चलती है, व्यक्ति भीतर नहीं आ पाता, बाहर ही बाहर "भटकता रहता है । जो केवल बाहर रहता है, वह बाहर में ही फंसता चला जाता है । एक समाधान है— जो वंचना करता है, ठगाई करता है, वह बाहर --ही बाहर रहता है, भीतर नहीं जा सकता । वही व्यक्ति भीतर जा सकता है, जो अवंचक है, ऋजु है, जो ठगाई और वंचना नहीं करता ।
निर्वेद
समाधान का एक सूत्र है - जो दृष्ट में आसक्त होता है, वह बाहर रहता है । जो दृष्ट में आसक्त नहीं बनता, वह भीतर चला जाता है । जो अदृष्ट के पास चला जाता है, वह भीतर रहता है ।
महत्वपूर्ण सूत्र है — दृष्ट से वैराग्य करो ।
निर्वेद है पदार्थ को काम में लेना किन्तु पदार्थ के साथ नहीं जुड़ना । पदार्थ को जान लेना किन्तु भोगना
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