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________________ द्रष्टा का व्यवहार ७५ मिटाने के लिए दवा ले सकता है किन्तु वर्ण और कांति बढ़ाने के लिए नहीं । यह मुनि के लिए निर्देश है । इसका अर्थ है-वह द्रष्टा रहे, भोक्ता न बने । यह एक भेद-रेखा खींचने वाला सूत्र है । महावीर ने यह कभी नहीं कहातुम कपड़े मत पहनो । साधना में जैसे सुविधा हो, चाहो तो कपडा पहनो, न चाहो तो मत पहनो । मुनि चाहे तो भोजन करे, चाहे तो उपवास करे । अनिवार्य है एक दिन उपवास करना, संवत्सरी को उपवास करना, और कोई अनिवार्यता नहीं, किंतु वह जो करे, उसे द्रष्टा-भाव से करे, जागरूकता से करे। आत्मा की भूमिका का स्पर्श करें द्रष्टा होने का मतलब है-व्यवहार अलौकिक बन जाए, लोकोत्तर बन जाए । लोकोत्तर व्यवहार होगा तो अध्यवसाय शुद्ध होगा, जागरूकता से परिपूर्ण होगा । लौकिक व्यवहार के साथ अध्यवसाय नहीं जुड़ेगा, केवल घटना जुड़ेगी। जहां घटना मुख्य बन जाती है, वहां द्रष्टा-भाव नहीं रहता । मूल बात है हमारी दृष्टि सही बने, ज्ञाता-द्रष्टा की चेतना जाये, हम केवल घटना पर न अटकें। घटना के आधार पर निर्णय लेना लौकिक चेतना का कार्य है । हम उससे आगे बढ़ें, लोकोत्तर चेतनो को जगाएं, जहां सामान्य, असामान्य और विशिष्ट--तीनों व्यक्तित्व नीचे रह जाते हैं । ज्ञाता-द्रष्टा का व्यवहार आत्मा की भूमिका पर चला जाता है। इस सारी चर्चा का निष्कर्ष है-केवल वंशानुक्रम या सामाजिक वातावरण के आधार पर ही सारे निर्णय न लें, इन दोनों के साथ आत्मा को जोड़ें । आत्मा को जानकर निर्णय लें। आत्मा क्या कहती है ? आत्मा का निर्णय क्या है ? भीतर का अध्यवसाय क्या है ? इन अध्यवसायों के साथ चलें तो अध्यात्म को एक नया आलोक मिलेगा, नई दष्टि मिलेगी। व्यवहार बदलेगा, व्यवहार जीवित होगा, व्यवहार में जितना असामंजस्य का क्रम चलता है, वह सारा समाप्त होगा। भोक्ता-भाव से द्रष्टा-भाव की दिशा में प्रस्थान सम्भव बन जाएगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003086
Book TitleAstittva aur Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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