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वह पाप कैसे करेगा?
चारित्र, जहां कलम और कदम-दो नहीं, एक बन जाते हैं । समत्वदर्शी बनो
सब जीव समान हैं, इस बात को दोहराया जाता है। भगवान् महावीर ने कहा-समत्वपाठी नहीं, समत्वदर्शी बनो। आचारांग सूत्र में पढ़ने की बात को नहीं, देखने की बात को महत्व दिया गया है। पढ़ना और देखना-दो बात है, एक नहीं । आचारांग सूत्र में बार-बार यह उल्लेख मिलता है—पश्य ! पश्य ! देखो ! देखो ! हमारी आंख खुली है पर दिखता नहीं है । देखने और पढ़ने की शक्ति बिलकुल अलग-अलग है। हमारे मस्तिष्क में अरबों कोशिकाएं हैं, वे सब अलग-अलग काम करती हैं इसीलिए दृकशक्ति–देखने की शक्ति पर बल दिया गया—देखना सीखो, समत्वदर्शी बनो। विषमता का लक्षण
महाभारत का एक श्लोक है
योन्यथा सन्तमात्मानमन्यथा प्रतिपद्यते ।
किं तेन न कृतं पापं, चौरेणात्मापहारिणा ॥
जो जैसा है, वह अपने आपको वैसा नहीं दिखाता, दूसरे प्रकार का दिखाता है । ऐसे अपनी आत्मा का अपहरण करने वाले चोर ने कौनसा पाप नहीं किया ?
हम जैसे हैं, वैसा ही अपने आपको दिखाएं । जो है, उसे न दिखाना, जो नहीं है, उसे दिखाना विषमता का लक्षण है। समता को न देखना, विषमता को देखना सबसे बड़ा पाप है। जहां समत्वदर्शिता नहीं आती है, वहां कितने ही पाप होते रहते हैं। यदि सब जीवों के प्रति समानता की अनुभूति नहीं हुई, दूसरे प्राणी को कष्ट देने में अपने कष्ट की अनुभूति नहीं हुई तो व्यक्ति पाप से बच नहीं सकता। जब व्यक्ति समत्व की अनुभूति कर लेता है, पाप के बारे में सोच ही नहीं सकता । दर्शन की स्थिति
दर्शन का मतलब है साक्षात्कार, अनुभूति । जब एकाग्रता का बिन्दु बहुत गहरा होता है तब दर्शन, अनुभूति या साक्षात्कार की बात होती है। जब तक मन चंचल है तब तक दर्शन नहीं होता। जब दर्शन या साक्षात्कार होता है तब अनुभूति में तादात्म्य हो जाता है, द्वैत नहीं रहता। अद्वैत का होना, तादात्म्य की अनुभूति का होना महत्वपूर्ण घटना है। इस स्थिति में समरसता आएगी, ध्याता और ध्येय-दोनों में एकात्मता आ जाएगी। यह है दर्शन की स्थिति । अधूरे मन से कोई काम नहीं बनता। वही चित्रकार मुर्गे का जीवन्त चित्र बना सकता है, जिसने मुर्गे के साथ ऐकात्म्य साधा है। मुर्गे
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