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लोकविचय : आत्मालोचन अपनी वत्तियों का
अपनी वृत्तियों को देखने की प्रवृत्ति बहुत कम होती है। वृत्तियों को अपना काम करने का मौका तब मिलता है, जब मालिक जागृत नहीं होता है । मालिक सोया रहता है तो चोर को भी चोरी करने का अच्छा मौका मिल जाता है । वृत्तियों के साथ भी ऐसा ही हो रहा है। मालिक उन्हें देखता नहीं है, उनकी ओर ध्यान नहीं दे पाता है इसलिए वे समय-असमय आ जाती हैं । व्यक्ति कभी नहीं पूछता-तुम कौन हो ? कहां से आई हो ? क्यों आई हो ? क्या करना चाहती हो ? व्यक्ति उनसे कभी संपर्क करना ही नहीं चाहता । उसने वृत्तियों को खुली छूट दे रखी है और वे उसका पूरा उपयोग कर लेती हैं। यह समस्या का कारण है इसीलिए एक शब्द के द्वारा यह निर्देश दिया गया-लोक का विचय करो। लोक यानी शरीर । लोक यानी कषाय । अपनी काषायिक वृत्तियों का विचय करो, आलोचन करो, उन्हें देखो, उपेक्षा मत करो। आलोचना के बिना सचाई का पता नहीं चलता । जो आलोचना करता है, वह हर बात को खोज लेता है। विचित्र विषय
. अभी कुछ दिनों पूर्व गुजरात समाचार में एक लेख छपा। लेखक है सुधीर देसाई । प्रसंग बना-शंकराचार्य की बारहवीं शताब्दी मनाई जा रही थी । इस सन्दर्भ में अहमदाबाद में एक आयोजन था, जिसमें श्री देसाई को अपना शोध पत्र पढना था , विषय बड़ा विचित्र था। आद्य शंकराचार्य और मंडनमिश्र के बीच शास्त्रार्थ हुआ। शास्त्रार्थ की मध्यस्थता कर रही थी मंडन मिश्र की पत्नी उभय भारती । श्रीमती मिश्र ने एक तरीका निकाला। उसने शंकराचार्य और मंडनमिश्र-दोनों के गले में फूलों की माला पहना दी। कसौटी थी-जसकी माला पहले कुम्हला जाएगी, वह हारा हुआ माना जाएगा। जिसकी माला नहीं कुम्हलाएगी, उसे जीता हुआ माना जाएगा। शास्त्रार्थ शुरू हो गया । परिणाम यह आया-मंडनमिश्र की माला कुम्हला गई । शंकराचार्य जीत गए, मंडनमिश्र हार गए । शोधप्रबंध का विषय था'क्या यह कोई चमत्कार है ?'
सामान्य व्यक्ति कहेगा-शंकराचार्य तांत्रिक थे, मांत्रिक थे, ज्ञानी थे। उन्होंने चमत्कार किया इसलिए माला नहीं कुम्हलाई किन्तु जो नियम को जानता है, आलोचक है, वह तथ्य की खोज करता है, कभी चमत्कार को नहीं मानता।
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