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अतृप्ति : उत्सुकता
विलास असंतोष को पैदा करता है और असंतोष को उभारने में बाहरी बातें बहुत काम करती हैं । हमारी दुनिया में इतना कोलाहल है कि वह आदमी को विचलित कर देता है। जो अपने आपसे प्रेम नहीं करता, बाहरी कोलाहल में जीता है, वह कभी तृप्त नहीं हो पाता । कोई भी घटना घटती है, व्यक्ति का ध्यान उस ओर चला जाता है । यह चंचलता का एक लक्षण है । व्यक्ति की अतृप्ति हो उत्सुकता पैदा करती है। बाहरी घटना या कोलाहल उसका एक कारण बन जाता है । जिस व्यक्ति में अतृप्ति नहीं मिटती, जो कोलाहल सुनता रहता है, वह विलास और प्रदर्शन से मुक्ति नहीं पा सकता, अपने आपसे प्रेम नहीं कर सकता । संतोष है स्वयं से प्रीति
धर्म को जीना है तो दो बातें अपनानी M सीखें, बाहरी कोलाहल को सुनना बंद उपजना चाहिए। संतोष यदि है तो वह
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यदि हमें सुख पाना है, होंगी -- हम अपने साथ प्रेम करना करें । यह निर्णय अपने भीतर से अपने भीतर ही है, और कहीं नहीं है । जिस दिन संतोष प्रकट होता है, विलास की भावना समाप्त हो जाती है बहुत लोग जिज्ञासा करते हैंसंतोष क्या है ? किसे कहते हैं संतोष ? संतोष का मतलब है - अपने आपसे प्रेम करना । हम अपने साथ प्रीति करें, सम्पूर्ण प्रोति करें सम्यक् प्रीति करें, अपने ही इष्ट के साथ प्रीति करें । अर्हत्, मुनि, आचार्य – ये सब अपने ही भीतर हैं, इसलिए अपने आपसे प्रेम करना सीखें। वह संतोषी व्यक्ति है, जो अपने आप से प्रेम करता है । वह कभी संतुष्ट नहीं होता, जो बाहरी पदार्थों से संतुष्ट होने का प्रयत्न करता है । संतोष ही परम सुख है और वह है अपने आपसे प्रीति । असंतोष परम दुःख है और वह है बाह्य पदार्थों में तृप्ति की खोज
अस्तित्व और अहिंसा
असंतोष : अन्तर की पीड़ा
असंतोषः बहिः कक्षा, संतोषः प्रीतिरात्मनि । संतोषः परमं सौख्यं, असंतोषोऽसुखं परम् ॥
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भगवान् महावीर ने कहा- दो प्रकार के आदमी धर्म का आचरण
नहीं कर सकते । एक वे, जो आर्त्त हैं, दूसरे वे जो प्रमत्त हैं । आर्त्त यानी पीड़ित । असंतोष अपने अन्तर की पीड़ा है, जिसे हम अनुभव नहीं कर रहे हैं । असंतोष एक ज्वाला है, एक आग है, जो अपने भीतर सुलग रही है । वह एक वेदना है, एक व्यथा है, जो अपने भीतर है। आर्त्त का एक अर्थ है पीड़ित । अभावग्रस्त उसका दूसरा अर्थ हो सकता है । जितनी भीतर में पीड़ा अधिक है, उतना ही अभाव अधिक होला है । जितनी भीतर में पीड़ा कम है,
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