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________________ ३८ अस्तित्व और अहिंसा अनुसंधान है । एक, दो या पांच बार देखना सतत संधान नहीं होता। सतत संधान का अर्थ है-- जब तक किसी वस्तु के नियम का पता नहीं चले, तब तक उसे देखते चले जाना । यदि हमें एक श्लोक के हृदय को समझना है तो उसे एक-दो बार पढ़कर ही नहीं समझा जा सकता। हम उस श्लोक को पढ़ें, पढ़ते चले जाएं और तब तक पढ़ते रहें जब तक कि वह श्लोक अपना अर्थ स्वयं प्रकट न कर दे। जब श्लोक अपना अर्थ प्रस्तुत करेगा तब हम उसके हृदय तक पहुंचने में सफल होंगे। बहुत महत्वपूर्ण सूत्र है-तुला का अन्वेषण करो, खोजते चले जाओ। जब तक चलनी में पानी न जम जाए, नियम का पता न लग जाए तब तक खोजते चले जाओ। आज यह नियम ज्ञात है--जहां-जहां धुआं है, वहां-वहां अग्नि होगी। यह अकाट्य नियम है पर जहां अग्नि है, वहां धुआं होगा, यह जरूरी नहीं है। अग्नि धुएं के बिना भी हो सकती है पर धुआं अग्नि के बिना नहीं होता । यह एक सामान्य नियम लगता है लेकिन इस नियम का पता लगाने में न जाने कितनी पीढ़ियां खपी हैं, न जाने कितने विद्वानों को खपना पड़ा है। जरूरी है सतत प्रयत्न ज्ञान-प्राप्ति के लिए सतत प्रयत्न करना होता है। इसके बिना ज्ञान की प्राप्ति सभव नही है। ज्ञान-प्राप्ति के लिए सबसे पहले निरीक्षण करना होता है। हम जैसे-जैसे निरीक्षण करेंगे, वैसे-वैसे तथ्यों का पता लगने लगेगा। तथ्यों का निरीक्षण करना बहुत जरूरी है। हम एक कपड़ा हाथ में लें और उसका निरीक्षण करते चले जाएं तो कुछ क्षणों के बाद कपड़े का रंग बदलने लगेगा। जब हमारा निरीक्षण उस पर सघन रूप से केन्द्रित होगा तब कपड़ा अपनी गाथा कहने लगेगा-मैं क्या हूं, मैं किससे बना हूं और मैं कैसा हूं, आदि आदि सारी बातें कपड़ा कह देगा, जिसे सुनकर हम आश्चर्य करेंगे । धन्वंतरि और लुकमान ने पौधों के गुण-धर्म का पता कैसे लगाया ? बे पौधे के पास जाकर बैठ जाते, उसका सघन निरीक्षण करते और उससे पूछते----बताओ ! तुम्हारा नाम क्या है ? तुम्हारा गुण-धर्म क्या है ? तुम्हारा उपयोग क्या है ? निरीक्षण करते करते एक क्षण ऐसा आता, पौधा अपने आप सब कुछ कह देता-मेरा यह नाम है, मेरा यह गुण-धर्म है, मैं अमुक बीमारी के लिए उपयोगी हूं, आदि आदि। बिना प्रयोगशाला के ये सारे अन्वेषण किए गए, जो पूरी तरह सफल रहे । परीक्षण की फलश्रुति आज प्रयोगशाला में वैज्ञानिक बैठता है, परीक्षण, निरीक्षण और प्रयोग करता चला जाता है। ऐसा करते-करते वह तथ्य और नियम को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003086
Book TitleAstittva aur Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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