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अवधूत दर्शन
अवधूतों की दुनिया
एक नई दुनिया, जिससे हम परिचित नहीं हैं, वह है अवधूतों को दुनिया । लोग भूतों से परिचित हैं पर अवधूतों से परिचित नहीं हैं। अवधूत विचित्र मनुष्य होते हैं। आचारांग में कहा गया-खणं जाणाहि पंडिए क्षण को जानो। इस वाक्य को हम जानते हैं किन्तु इसके पीछे जो साधना की एक पूरी पद्धति रही है, उसे हम नहीं जानते। ऐसा लगता है-शब्दों के साथ जो गुरु-परम्परा जुड़ी हुई थी, वह छुट गई। क्षण शब्द सामान्य नहीं है। बौद्ध तंत्रों में इसका बहुत बड़ा वर्णन मिलता है। क्षण, विचित्रविमर्श, विमर्श आदि-आदि पद्धतियों के द्वारा उसका विश्लेषण किया गया है। आज यह स्थिति है-नैष्कर्म्य की पद्धति छूट गई यानी अवधूत की साधना विस्मृत हो गई। कापालिकों में औषड़ संप्रदाय चलता है। यह औघड़ शब्द अवधूत से बना है। औघड़ वह होता है, जिसकी प्रज्ञा जाग जाती है। केवल प्रज्ञा का ही नहीं, समता का पूरा दर्शन अवधूत शब्द में समाया हुआ
प्रश्ग सुख का
बौद्धतंत्र में तीन शब्द आते हैं ललना, रसना और अवधति । शैव तंत्र में तीन शब्द प्रयुक्त हुए हैं-इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना । इस हृदय को सबने पकड़ा-जब तक चेतना ऊपर की ओर नहीं जाएगी चेतना का ऊर्ध्वारोहण नहीं होगा तब तक सुख का अनुभव नहीं होगा। चेतना के नीचे जाने का अर्थ है सुख के दरवाजे का बंद होना । जैन आगम में कहा गयाएक वर्ष का दीक्षित मुनि सर्वार्थसिद्ध के देवताओं के सुखों को लांघ जाता है। एक वर्ष के दीक्षित मुनि को जितना सुख प्राप्त होता है, उतना सुख सर्वार्थसिद्ध के देवताओं को भी उपलब्ध नहीं होता । सर्वार्थसिद्ध के देवताओं को विराट् सुख उपलब्ध हैं। एक मनुष्य को उसका करोड़वां हिस्सा भी प्राप्त नहीं है । उस सुख से भी अधिक सुख मिलता है एक वर्ष के दीक्षित मुनि को। महापथ : महावीथी
प्रश्न होता है-यह सुख कहां से आया ? देवताओं को बहुत सारी सिद्धियां प्राप्त हैं, विशाल वैभव और समृद्धि प्राप्त है पर एक मुनि के पास
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