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साधना कब और कहां ?
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का समर्थन करते हैं। कुछ लोगों का अभिमत रहा—यह साधना नहीं, पलायन है। हिमालय में चले जाना पलायन करना है। पलायन करने से क्या होगा ? यह पलायनवादी मनोवृत्ति अच्छी नहीं है। एक साधक को दुनिया से पलायन नहीं करना चाहिए किन्तु जनता के बीच रहकर साधना करनी चाहिए। साधना है आत्मदर्शन
भगवान महावीर के सामने भी यही प्रश्न आया-साधना कहां हो सकती है ? धर्म की आराधना कहां करें ? साधना गांव में करें या वन में ? पहाड़ों में करें या गुफाओं में ? साधना के लिए कौन-सा स्थान उपयुक्त है ? महावीर ने विचित्र उत्तर दिया-साधना न गांव में हो सकती है, न वन में हो सकती है। वस्तुतः यह प्रश्न उन लोगों के मन में उठता है, जो अनात्मदर्शी हैं, जिन्होंने आत्मा को देखा नहीं है, जाना नहीं है। अनात्मदर्शी व्यक्ति ही यह बात करेगा–साधना जंगल में अच्छी होती है, गुफा में अच्छी होती है। जिस व्यक्ति ने अपने आपको देखा है, अपनी आत्मा का साक्षात्कार किया है, उसके सामने गांव या जंगल का प्रश्न ही प्रस्तुत नहीं होता। उसके सामने केवल साधना का ही प्रश्न रहता है । जहां आत्म-दर्शन है, वहीं साधना है। आत्म-दर्शन करने वाला व्यक्ति दस हजार की भीड़ में बैठा है या कोलाहल के बीच बैठा है, चाहे वह एकांत में हिमालय की गुफा में बैठा है, उसकी शान्ति और साधना में कोई अन्तर नहीं आता। अनात्मदर्शी व्यक्ति की मनःस्थिति
एक अनात्मदर्शी व्यक्ति को कुछ लिखना है तो वह पहले एकांत स्थान की खोज करेगा। यदि एकान्त स्थान होता है तो वह कुछ लिख लेता है। थोडा-सा भी कोलाहल होता है, उसका ध्यान बंट जाता है, मन उदविग्न हो जाता है । वह सोचता है-वातावरण ठीक नहीं है, विचार ही नहीं आ रहा है, डिस्टर्बेन्स बहुत हैं । उसका ध्यान लेखन से हट जाता है। वह चाहते हुए भी लिख नहीं पाता । यदि इस प्रकार ध्यान भंग होता रहे तो इस दुनियां में एकांत मिलेगा कहां? यह बात समझ में आ सकती है-जो व्यक्ति नया नया है, उसके लिए निमित्तों पर ध्यान देना जरूरी है किन्तु सदा एकांत ही एकांत का प्रश्न आता रहे तो साधना की निष्पत्ति क्या हुई ? जो व्यक्ति यही सोचता रहता है ---मुझे एकांत में बैठना है, एकांत में ध्यान करना है, उसने शायद महावीर की साधना के मर्म को समझा नहीं है। साधना-दर्शन
___ महावीर का साधना-दर्शन यह है—व्यक्ति अधिक अधिक से अपने भीतर जाने का अभ्यास करे, अपनी आत्मा को देखने का अभ्यास करे । जो
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