Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व. पूज्य गुरुदेव श्री जोरावरमलजीमहाराज की स्मृति में आयोजित संयोजक एवं प्रधान सम्पादक युवाचार्य श्री मधुकर मुनि प्रज्ञापना सूत्र 1 * (मूल-अनुवाद-विवेचन-टिप्पण-परिशिष्ट-युवत ) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अर्ह जिनागम-ग्रन्थमाला : ग्रन्थाङ्क २७ [परमश्रद्धेय गुरुदेव पूज्य श्रीजोरावरमलजी महाराज की पुण्य-स्मृति में आयोजित] श्री श्यामार्यवाचकसंकलित चतुर्थ उपाङ्ग । प्रज्ञापनासूत्र [तृतीय खण्ड, पद २३-३६] [मूलपाठ, हिन्दी अनुवाद, विवेचन, परिशिष्ट युक्त ] * प्रेरणा (स्व.) उपप्रवर्तक शासनसेवी स्वामी श्री ब्रजलालजी महाराज * आद्यसंयोजक तथा प्रधान सम्पादक : (स्व.) युवाचार्य श्री मिश्रीमलजी महाराज मधुकर' * अनुवादक-सम्पादक: श्री ज्ञानमुनिजी महाराज [स्व. जैनधर्मदिवाकर आचार्य श्रीआत्मारामजी म. के सुशिष्य] * प्रकाशक: श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर (राजस्थान) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनागम-ग्रन्थमाला : ग्रन्थाङ्क - २७ निर्देशन साध्वी श्री उमरावकुंवर जी म. सा. 'अर्चना' सम्पादक मण्डल अनुयोग प्रवर्त्तक मुनि श्री कन्हैयालाल जी 'कमल' आचार्य श्री देवेन्द्रमुनि शास्त्री श्री रतनमुनि सम्प्रेरक मुनि श्री विनयकुमार 'भीम' तृतीय संस्करण वीर निर्वाण सं० २५२९ विक्रम सं० २०५९ ई. सन् अगस्त, २००२ प्रकाशक श्री आगमप्रकाशन समिति ब्रज- मधुकर स्मृति भवन पीपलिया बाजार, ब्यावर ( राजस्थान ) - ३०५९०१ दूरभाष : २५००८७ मुद्रक श्रीमती विमलेश जैन अजन्ता पेपर कन्वर्टर्स लक्ष्मी चौक, अजमेर - ३०५००१ कम्प्यूटराइज्ड टाइप सैटिंग कम्प्यूटर्स कायस्थ मोहल्ला, अजमेर - दूरभाष: २६२८७४१ मूल्य - ९०/- रुपये Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युवाचार्य श्री मधुकर मुनिजी म. खा. A SUTT Jan ॐ महामंत्र णमो अरिहंताणं, णमो सिध्दाणं, णमो आयरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोएसव्व साहूणं, एसो पंच णमोक्कारो' सव्वपावपणासणो ॥ मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं ॥ Page #5 --------------------------------------------------------------------------  Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Published on the Holy Remembrance occasion of Rev. Guru Shri Joravarmalji Maharaj Fourth Upanga | PANNAVANĂ SUTTAM] (Original Text, Hindi Version, Notes, Annotation and Appendices etc.) Inspiring Soul Up-pravartaka Shasansevi (Late) Swami Shri Brijlalji Maharaj Convener & Founder Editor (Late) Yuvacharya Shri Mishrimalji Maharaj 'Madhukar' Translator & Annotator Shri Jnan Muni Publishers Shri Agam Prakashan Samiti Beawar (Raj.) Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jinagam Granthmala Publication No. 27 Direction Sadhvi Shri Umravkunwarji 'Archana' Board of Editors Anuyogapravartaka Muni Shri Kanhaiyalalji 'Kamal' Acharya Shri Devendra Muni Shastri Shri Ratan Muni Promotor Munishri Vinayakumar 'Bhima' Third Edition Vir-Nirvana Samvat 2529 Vikram Samvat 2059, Aug, 2002 Publishers Shri Agam Prakashan Samiti Brij-Madhukar Smriti Bhawan, Piplia Bazar, Beawar (Raj.) - 305 901 Phone 250087 Printers Smt. Vimlesh Jain Ajanta Paper Converters Laxmi Chowk, Ajmer - 305 001 Laser Type Setting by: Baba Computers Ajmer Phone - 2628741 Price: 90/ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण जिन्होंने अर्द्धशताब्दी से भी अधिक काल तक आदर्श संयम की आराधना कर अपना जीवन सार्थक बनाया, जो श्रुत की आराधना में निरन्तर निरत रहे और अपनी अगाध तत्त्व जिज्ञासा की पूर्ति के लिए सौराष्ट्र से राजस्थान तक पधारे, . जो सौराष्ट्र के जैन-जनमानस में अद्यापि बसे हुए हैं, . जिन्होंने जिनशासन की अपने उत्तम आचार एवं धर्मदेशना द्वारा बहुमूल्य सेवा की, उन परमतपस्वी स्व. माणकचन्द्रजी स्वामी के कर-कमलों में, सादर सविनय समर्पित [प्रथम संस्करण से] Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-प्रदाता श्रीमान् चंपालालजी सा० हिंगड़ (संक्षिप्त जीवन-परिचय) अजमेर का उपनगर दौराई ग्राम किसी जमाने में देवपुरी के नाम से विश्रुत था। वहां के प्रसिद्ध सेठ श्रीमान् सुवालालजी सा. हिंगड़ ने प्रबल पुरुषार्थ से व्यापार धंधे में अपार सम्पत्ति अर्जित की। आपके पूर्वजों ने भी अनेक अनुकरणीय कार्य किये जिसके परिणामस्वरूप दौराई ग्राम हिंगड़ों का कहलाया। . सेठ सुवालालजी की धर्मपत्नी श्रीमती शृंगारदेवी बड़ी साहसिक एवं बुद्धिशालिनी महिला थीं। इनके विवाह के समय की घटना है - श्रीमती शृंगारदेवी के विवाह के समय बारातियों की संख्या अधिक देख उनके पिता श्रीमान् सुगनचंदजी रांका (मसूदा निवासी) ने आगन्तुक बारातियों की अच्छी व्यवस्था हेतु शृंगारदेवी के ससुरश्री से तीन सौ रुपये उधार लिए। इस बात की जानकारी शृंगारदेवी को होते ही उन्होंने संकल्प कर लिया कि मैं जीवन पर्यन्त कभी पीहर नहीं जाऊंगी क्योंकि मेरे पिताजी ने मुझे तीन सौ रुपयों में बेच दिया है। उन्होंने अपनी इस प्रतिज्ञा को जीवन के अन्तिम क्षण तक निभाया। इसी प्रकार साहसी महिला श्रृंगारदेवी के जीवन संबंधी अनेक प्रसंग हैं। इन्हीं की कुक्षि से श्रीमान चंपालालजी का जन्म हुआ। आप नौ भाई-बहिनों में से सबसे छोटे थे। पिता की ज्योति पुत्र में चमकती है, यह पूर्ण सत्य तो नहीं है, किन्तु अर्द्ध-सत्य अवश्य है। श्री चंपालालजी में तो यह सत्य उतरा और पूरी तरह उतरा। आप प्रारम्भ से ही प्रतिभाशाली तथा पढ़ने में तीव्र बुद्धि वाले थे। आपने प्रारम्भिक शिक्षा अजमेर-सराधना में प्राप्त की, तत्पश्चात् उच्च शिक्षा ब्यावर गुरुकुल में रहकर प्राप्त की। साथ ही आपने अपनी प्रखर प्रज्ञा के द्वारा उच्च शिक्षा के साथ अध्यात्म में विशेष रुचि होने से ब्यावर निवासी श्री पूनमचंदजी सा. खिंवेसरा के पास सामायिक प्रतिक्रमण, पच्चीस बोल आदि का भी अध्ययन किया। "होनहार विरवान के होत चीकने पात" की उक्ति के अनुसार आप बचपन से ही सुसंस्कारी थे। उनकी विशिष्ट योग्यता का आकलन करते हुए उन्हीं के पारिवारिक जन कहा करते थे - चंपक! छोटी सी आय में ही आर्थिक औद्योगिक. शैक्षणिक एवं आध्यात्मिक आदि विभिन्न प्रकार की विकास योजना में व्यस्त हो गया। आप में उदारता, धैर्य, साहस, कठोर कार्य करने की क्षमता, स्वजन-परिजन के प्रति आत्मिक भाव, धार्मिक संस्कार आदि विशिष्ट गुण जन्मजात थे। कतिपय प्रसंग प्रस्तुत हैं एक बार का प्रसंग है। गांव के पटेल भूरालालजी के बैल चोर लेकर भाग गये। पटेल के साथ गांव के लोगों ने भी शोर मचाया किन्तु चोरों का सामना किसी ने नहीं किया। भयंकर बरसात की अंधेरी रात में चंपालालजी को मालूम हुआ तो बिना कहे-सने मकान की तीसरी मंजिल से कांटों को बाड में छलांग लगा कर चोरों का पीछा किया। गांव के पहले ७ कि०मी० की दूरी पर जाकर चोरों को परास्त कर बैलों को छडाकर पटेल के हवाले किया। दया के तो वे सागर ही थे। जब कभी रास्ते चलते कोई गरीब असहाय मिल जाता तो तत्काल उसके दुःख दूर करने का प्रयास करते। आपका विवाह संवत् १९९० की माघ शुक्ला सप्तमी को अपने बड़े भाई की साली एवं श्रीमान् जगन्नाथसिंहजी एवं अनूपादेवी की सुपुत्री उमाजी (अलोल बाई) के साथ बहुत संघर्षों के बाद हुआ। बात की बात में डेढ़ वर्ष निकल गया। संवत् १९९२ चैत्र शुक्ला तृतीया को आपका आकस्मिक निधन हो गया। आखिरी समय में न जाने किसकी प्रेरणा रही कि सात महिने पहले ही पांचों विगय का त्याग कर दिया था। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुशबू हवाएं ले उड़ीं, वक्त रंग ले गया। दास्तां गुल ने कही, क्या से क्या ये हो गया। अंत में इतना ही लिखना है कि जिस दिन आपका निधन हुआ उससे पूर्व रात को ग्यारह बजे तक गाना बजाना चलता रहा। क्योंकि दूसरे दिन मुकलावा (गौना) के लिए उमाजी (महासतीजी श्री उमरावकुंवरजी म.सा. "अर्चना") को लेने दादिया ग्राम जाना था किन्तु विधि की अमिट रेखा को कौन मिटा सका? ऐसा सोए कि फिर नहीं उठे। खुशी के साथ दुनिया में हजारों गम भी होते हैं। जहाँ बजती हैं शहनाइयां वहां मातम भी होते हैं। इस हादसे में उनके वियोग में पांच आदमी, पांच गायें, दो भैंसें, दो कुत्ते भी मृत्यु को प्राप्त हुए। परिणामस्वरूप सारे चौखले में हाहाकार मच गया। इससे सात महीने पहिले पीहर रहकर उमाजी (वर्तमान में श्री अर्चना जी म.सा.) को ससुराल लाया गया। जैसे ही इस घटना को जाना तत्काल संयम लेने का संकल्प कर लिया और मिगसर शुक्ला ११ नोखा चांदवतों में पूर्व प्रवर्तक श्री हजारीमलजी म.सा. के कर-कमलों द्वारा पिताश्री जगन्नाथजी के साथ में दीक्षा ग्रहण की। श्रमण संघ में श्रमणी वर्ग में आपश्री का नाम अग्रणी है। स्व. पं. युवाचार्य श्री मधुकर जी म.सा की संस्थाओं का संचालन आपश्री के दिशा निर्देशन में सुचारुरूपेण चल रहा है। महासतीजी श्रीजी को इस बात का गर्व है कि संसार पक्ष के सभी सम्बन्धियों का स्नेह मिला, सत्य के पथ पर बढ़ने की प्रेरणा मिली। फिर पं. श्री हजारीमलजी म.सा., स्वामीजी श्री ब्रजलालजी म.सा. एवं पं. युवाचार्य श्री मधुकर मुनिजी म.सा. की अनंत कृपा प्राप्त हुई। परिणामस्वरूप जो भी कुछ पारमार्थिक और साधना के क्षेत्र में कार्य हो रहे हैं यह सब गुरुजनों की कृपा, स्नेह एवं आत्मीयजन तथा गुरुभक्तों का ही सहयोग है। उन्हीं की पुण्य स्मृति में प्रज्ञापना सूत्र का तृतीय भाग प्रकाशित होने जा रहा है। महासतीजी की प्रेरणा से दानदाता उन्हीं के आत्मीय बन्धु ज्ञानचंद बिनायकिया मंत्री श्री आगम प्रकाणन समिति, ब्यावर Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय आगम बत्तीसी के समस्त ग्रंथों को उपलब्ध कराने की भावना से चतुर्थ उपांग श्री प्रज्ञापना सूत्र के अंतिम भाग (तृतीय खण्ड) का यह तृतीय संस्करण प्रस्तुत करते हुए अतीव प्रमोद का अनुभव हो रहा है। . प्रज्ञापनासूत्र विशालकाय आगम है और तात्त्विक विवेचनाओं से भरपूर है। इसलिए इसे एक जिल्द में प्रकाशित किया जाना सम्भव नहीं था, अतः प्रथम खण्ड में १ से ९, द्वितीय खण्ड में १० से २२ और तृतीय खण्ड में २३ से ३६ पद, इस प्रकार तीन खंडों में प्रकाशित किया गया है। चर्चाओं से भरपूर श्री व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती) सूत्र के चारों खंडों के तृतीय संस्करण का मुद्रण भी हो रहा है। आशा है यह विशालकाय सूत्र ग्रन्थ भी पाठकों के पठन-पाठन के लिए उपयोगी सिद्ध होगा। प्रज्ञापना सूत्र का अनुवाद एवं सम्पादन जैन भूषण पं. रत्न मनि श्री ज्ञानमनि जी म.सा. ने किया है। मनिराज के अमूल्य सहयोग के लिए समिति अत्यन्त आभारी है। - अंत में जिन महानुभावों का समिति को जिस किसी भी रूप में प्रत्यक्ष परोक्ष सहयोग प्राप्त होता है, हम उन सभी के प्रति हार्दिक आभार व्यक्त करते हैं। सागरमल बेताला रतनचंद मोदी सरदारमल चौरडिया कार्यवाहक अध्यक्ष महामन्त्री श्री आगमप्रकाशन समिति, ब्यावर ( राजस्थान ) ज्ञानचंद बिनायकिया .. मन्त्री अध्यक्ष Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद प्राथमिक प्रथम उद्देशक प्रथम उद्देशक में प्रतिपाद्य विषयों की संग्रहणी काथा प्रथम : कतिप्रकृतिद्वार द्वितीय : कह बंधतिद्वार तृतीय : कतिस्थानबंधद्वार चतुर्थ : कतिप्रकृति वेदनद्वार पंचम : कतिविध अनुभवद्वार द्वितीय उद्देशक मूल और उत्तर प्रकृतियों के भेद-प्रभेदों की प्ररूपणा एकेन्द्रिय जीवों में ज्ञानावरणीयादि कर्मों की बंधस्थिति की प्ररूपणा द्वीन्द्रिय जीवों में ज्ञानावरणीयादि कर्मों की बंधस्थिति की प्ररूपणा त्रीन्द्रिय जीवों में ज्ञानावरणीयादि कर्मों की बंधस्थिति की प्ररूपणा चतुरिन्द्रिय जीवों में ज्ञानावरणीयादि कर्मों की बंधस्थिति की प्ररूपणा असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में ज्ञानावरणीयादि कर्मों की बंधस्थिति की प्ररूपणा संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में ज्ञानावरणीयादि कर्मों की बंधस्थिति की प्ररूपणा कर्मों के जघन्य स्थितिबन्धकों की प्ररूपणा कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति के बन्धकों की प्ररूपणा चौवीसवाँ कर्मबन्ध पद ज्ञानावरणीय कर्मबन्ध के समय अन्य कर्मप्रकृतियों के बंध की प्ररूपणा दर्शनावरणीय कर्मबंध के समय अन्य कर्मप्रकृतियों के बंध की प्ररूपणा वेदनीय कर्मबंध के समय अन्य कर्मप्रकृतियों के बंध की प्ररूपणा मोहनीय आदि कर्मबंध के समय अन्य कर्मप्रकृतियों के बंध की प्ररूपणा पच्चीसवां कर्मबंध-वेदपद ज्ञानावरणीयादि कर्मबंध के समय कर्मप्रकृति का निरूपण Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ १०४ १०९ ११० छब्बीसवां कर्मबंध-वेदपद ज्ञानावरणीयादि कर्मों के वेदन के समय अन्य कर्मप्रकृतियों के बन्ध का निरूपण वेदनीयकर्म के वेदन के समय-समय अन्य कर्मप्रकृतियों के बन्ध की प्ररूपणा आयुष्यादि कर्मवेदन के समय कर्मप्रकृतियों के बंध की प्ररूपणा सत्ताईसवां कर्मबंध-वेदपद ज्ञानावरणीयादि कर्मों के वेदन के साथ अन्य कर्मप्रकृतियों के वेदन का निरूपण अट्ठाईसवां कर्मबंध-वेदपद प्राथमिक प्रथम उद्देशक प्रथम उद्देशक में उल्लिखित ग्यारह द्वार चौवीस दण्डकों में प्रथम सचित्ताहार द्वार नैरयिकों में आहारार्थी आदि द्वितीय से अष्टम द्वार पर्यन्त भवनपतियों के सम्बन्ध में आहारार्थी आदि सात द्वार एकेन्द्रियों में आहारार्थी आदि सात द्वार विकलेन्द्रियों में आहारार्थी आदि सात द्वार पंचेन्द्रिय तिर्यंचों, मनुष्यों, ज्योतिष्कों एवं वाणव्यन्तरों में आहारार्थी आदि सात द्वार वैमानिक देवों में आहारादि सात द्वारों को प्ररूपणा एकेन्द्रियशरीरादिद्वार लोमाहारद्वार मनोभक्षीद्वार द्वितीय उद्देशक द्वितीय उद्देशक के द्वारों की संग्रहणी गाथा प्रथम-आहारद्वार द्वितीय-भव्यद्वार तृतीय-संज्ञीद्वार चतुर्थ-लेश्याद्वार पंचम-दृष्टिद्वार छठा-संयतद्वार सातवाँ-कषायद्वार आठवाँ-ज्ञानद्वार नौवाँ-योगद्वार दसवाँ-उपयोगद्वार ग्यारहवाँ-वेदद्वार ११२ । ११५ ११६ १२२ १२४ १२४ १२७ १२७ १३५ १३७ १३९ १४० १४३ १४३ १४४ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४५ १४६ १४९ १५३ १५६ १६० १६३ १६६ बारहवाँ-शरीरद्वार तेरहवाँ-पर्याप्तिद्वार उनतीसवाँ उपयोगपद प्राथमिक जीव आदि में उपयोग के भेद-प्रभेदों की प्ररूपणा जीव आदि में साकारोपयुक्तता-अनाकारोपयुक्तता-निरूपण तीसवाँ पश्यत्तापद जीव एवं चौवीस दण्डकों में पश्यत्ता के भेद-प्रभेदों की प्ररूपणा जीव एवं चौवीस दण्डकों में साकारपश्यत्ता और अनाकारपश्यत्ता केवली में एक समय में दोनों उपयोगों का निषेध इकतीसवाँ संज्ञिपद प्राथमिक जीव एवं चौवीस दण्डकों में संज्ञी आदि की प्ररूपणा बत्तीसवाँ संयतपद प्राथमिक जीवों एवं चौवीस दण्डकों में संयत आदि की प्ररूपणा तेतीसवाँ अवधिपद प्राथमिक तेतीसवें पद के अधिकारों की प्ररूपणा अवधिभेदद्वार अवधिविषयद्वार अवधिज्ञान का संस्थान आभ्यन्तर-बाह्य अवधिद्वार देशावधि-सर्वावधिद्वार अवधिक्षय-वृद्धि आदि द्वार चौतीसवां परिचारणापद प्राथमिक चौतीसवें पद का अर्थाधिकार-प्ररूपण अनन्तराहारद्वार आहाराभोगताद्वार १७५ १७६ १७९ १८१ १८१ १८२ १८७ १८९ १९५ १९९ १९९ २०१ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ २०५ २०६ २०६ २१० २१३ . २१५ २१६ २१८ २१८ २१९ २२० २२१ २२२ पुद्गलज्ञानद्वार अध्यवसायद्वार सम्यक्त्वाभिगमद्वार परिचारणाद्वार अल्पबहुत्वद्वार . पैंतीसवां वेदनापद प्राथमिक पैंतीसवें पद का अर्थाधिकार-प्ररूपण शीतादि वेदनाद्वार द्रव्यादि वेदनाद्वार शारीरादि वेदनाद्वार सातादि वेदनाद्वार दुःखादि वेदनाद्वार आभ्युपगमिकी और औपक्रमिकी वेदना निदा-अनिदा वेदना छत्तीसवाँ समुद्घातपद प्राथमिक समुद्घात के भेदों की प्ररूपणा समुद्घात के काल की प्ररूपणा चौवीस दण्डकों में समुद्घात-संख्या चौवीस दण्डकों में एकत्व रूप से अतीतादि-समुद्घातप्ररूपणा चौवीस दण्डकों में बहुत्व की अपेक्षा अतीत-अनागत समुद्घात चौवीस दण्डकों की चौवीस दण्डक-पर्यायों में एकत्व की अपेक्षा अतीतादि समुद्घात चौवीस दण्डकों की चौवीस दण्डक-पर्यायों में बहत्व की अपेक्षा अतीतादि समुद्घात विविध समुद्घात-समवहत-असमवहत जीवादि का अल्पबहुत्व चौवीस दण्डकों में छाद्मस्थिक समुद्घातप्ररूपणा वेदना एवं कषाय समुद्घात से समवहत जीवादि के क्षेत्र, काल एवं क्रिया की प्ररूपणा मारणान्तिकसमुद्घात में समवहत जीवादि के क्षेत्र, काल एवं क्रिया की प्ररूपणा वैक्रियसमुद्घात से समवहत जीवादि के क्षेत्र, काल एवं क्रिया की प्ररूपणा तैजससमुद्घात-समवहत जीवादि के क्षेत्र, काल एवं क्रिया की प्ररूपणा आहारकसमुद्घात-समवहत जीवादि के क्षेत्र, काल एवं क्रिया की प्ररूपणा केवलिसमुद्घात-समवहत अनगार के निर्जीर्ण अंतिम पुद्गलों की लोकव्यापिता केवलिसमुद्घात का प्रयोजन केवलिसमुद्घात के पश्चात् योगनिरोध आदि की प्रक्रिया सिद्धों के स्वरूप का निरूपण २२५ २२७ २२९ २२९ २३१ २३४ २५० २५५ २६७ २६९ २७२ २७४ २७७ २७८ २८० २८२ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिसामजवायग-विरइयं चउत्थं उवंगं पण्णवणासुत्तं [तइयखंडो] श्रीमत्-श्यामार्यवाचक-विरचित ___ चतुर्थ उपाङ्ग प्रज्ञापनासूत्र [तृतीय खण्ड] Page #17 --------------------------------------------------------------------------  Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * तेवीसइमओ सत्तावीसइमपज्जंताई पयाई तेईसवें पद से सत्ताईस पद पर्यन्त प्राथमिक ये प्रज्ञापनासूत्र के तेईसवें से सत्ताईसवें पद तक पांच पद हैं । इनके नाम क्रमशः इस प्रकार हैं - (२३) कर्मप्रकृतिपद, (२४) कर्मबन्धपद, (२५) कर्मबन्ध-वेदपद, (२६) कर्मवेद-बन्धपद और (२७) कर्मवेद-वेदकपद। ये पांचों पद कर्मसिद्धान्त के प्रतिपादक हैं और एक-दूसरे के परस्पर संलग्न हैं। जैनदर्शन तार्किक और वैज्ञानिक पृष्ठभूमि पर आधारित है। जैनदर्शन में प्रत्येक आत्मा को निश्चयदृष्टि से परमात्मतुल्य माना गया है, फिर वह आत्मा पृथ्वी, जल या वनस्पतिगत हो या कीट-पतंग-पशु-पक्षी-मानवादि रूप हो, तात्त्विक दृष्टि से समान है। प्रश्न हो सकता है, जब तत्त्वतः सभी जीव (आत्मा) समान हैं, तब उनमें परस्पर वैषम्य क्यों? एक धनी, एक निर्धन, एक छोटा, एक विशालकाय, एक बुद्धिमान् दूसरा मंदबुद्धि, एक सुखी, एक दुःखी, इत्यादि विषमताएँ क्यों ? इस प्रश्न के उत्तर में कर्मसिद्धान्त का जन्म हुआ। कर्माधीन होकर ही जीव विभिन्न प्रकार के शरीर, इन्द्रिय, गति, जाति, अंगोपांग आदि की न्यूनाधिकता वाले हैं। आत्मगुणों के विकास की न्यूनाधिकता का कारण भी कर्म ही है। कर्मसिद्धान्त से तीन प्रयोजन मुख्य रूप से फलित होते हैं(१) वैदिकधर्म की ईश्वर-सम्बन्धी मान्यता के भ्रान्त अंश को दूर करना॥ (२) बौद्धधर्म के एकान्त क्षणिकवाद को युक्तिविहीन बताना । (३) आत्मा को जडतत्त्व से भिन्न स्वतंत्र चेतन के रूप में प्रतिष्ठापित करना । भगवान् महावीरकालीन भारतवर्ष में जैन, बौद्ध और वैदिक, ये तीन धर्म की मुख्य धाराएँ थीं। वेदानुगामी कतिपय में ईश्वर को सर्वशक्तिमान् सर्वज्ञ मानते हुए भी उसे जगत् का कर्ता-हर्ता-धर्ता माना जाता था। कर्म जड होने से ईश्वर की प्रेरणा के बिना अपना फल भुगवा नहीं सकते, अत: जीवन को अच्छे-बुरे कर्मों का फल भुगवाने वाला ईश्वर ही है। जीव चाहे जितनी उच्चकोटि का हो, वह ईश्वर हो नहीं सकता। जीव जीव ही रहेगा, ईश्वर नहीं होगा। जीव का विकास ईश्वर की इच्छा या अनुग्रह के बिना नहीं हो सकता। इस प्रकार कई दर्शन तो जीव को ईश्वर के हाथ की कठपुतली मानने लगे थे। इस प्रकार के भ्रान्तिपूर्ण विश्वास में चार बड़ी भूलें थीं- (१) कृतकृत्य ईश्वर का निष्प्रयोजन सृष्टि के प्रपंच में पड़ना और रागद्वेषयुक्त बनना। (२) आत्मा की स्वतंत्रता और शक्ति का दब जाना। (३) कर्म की शक्ति की अनभिज्ञता और (४) जप, तप, संयम-व्रत्तादि की साधना की व्यर्थता। इन भूलों का परिमार्जन करने और संसार को वस्तुस्थिति से अवगत कराने हेतु भगवान महावीर ने वाणी से ही नहीं अपने कर्म-क्षय के कार्यों से कर्म-सिद्धान्त की यथार्थता क प्रतिपादन किया। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * तथागत बुद्ध कर्म और उसके विपाक को मानते थे, किन्तु उनके क्षणिकवाद के सिद्धान्त से कर्मविपाक की उपपत्ति कथमपि नहीं हो सकती है। स्वकत कर्म का स्वयं फलभोग तथा परकत कर्म के फलभोग का स्व में अभाव तभी घटित हो सकता है, जबकि आत्मा को न तो एकान्तनित्य माना जाए और न ही एकान्त-क्षणिक। कुछ नास्तिक दर्शनवादी पुनर्जन्म, परलोक को मानते ही नहीं थे। उनके मतानुसार शुभ तथा अशुभ कर्म का शुभ एवं अशुभ फल घटित ही नहीं होता। तब फिर अध्यात्मसाधन का अर्थ क्या है ? इस प्रश्न के यथार्थरूप से समाधान के लिए भगवान् महावीर ने कर्मसिद्धान्त का प्रतिपादन किया। क्योंकि कर्म न हों तो जन्म-जन्मान्तर तथा इहलोकपरलोक का सम्बन्ध घट ही नहीं सकता। जो लोग यह कहते हैं, जीव अज्ञानी है, वह स्वकृत कर्म के दुःखद फल को स्वयं भोगने में असमर्थ हे, इसलिए कर्मफल भुगवाने वाला ईश्वर है, ऐसा मानना चाहिए। वे कर्म की विशिष्ट शक्ति से अनभिज्ञ हैं। यदि कर्मफलप्राप्ति में दूसरे को सहायक माना जाएगा तो स्वकृत कर्म निरर्थक हो जाएंगे तथा जीव के स्वकृत पुरुषार्थ की हानि भी होगी और उसमें सत्कार्यों में प्रवृत्ति असत्कार्यों से निवृत्ति के लिए उत्साह नहीं जागेगा। यही कारण है कि भगवान् महावीर ने प्रस्तुत २३वें कर्मप्रकृतिपद में ईश्वर या किसी भी शक्ति को सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति या विनाशकर्ता और कर्मफलप्रदाता के रूप में न मानकर स्वयं जीव को ही कर्मबन्ध करने, कर्मफल का वेदन करने तथा स्वकृत कर्मों तथा कर्मक्षय का फल भोगने का अधिकारी बताया है। जीव अनादिकाल से स्वकृत कर्मों के वश होकर विविध गतियों, योनियों आदि में भ्रमण कर रहा है। जीव अपने ही शुभाशुभ कर्मों के साथ परभव में जाता है, स्वतः सुखदुःखादि पाता है। कुछ दार्शनिक कर्मसिद्धान्त पर एक आक्षेप यह करते हैं कि प्रस्तुत २३वें पद के अनुसार समस्त जीवों के साथ कर्म. सदा से लगे हुए हैं और कर्म एवं आत्मा का अनादि सम्बन्ध है, तो फिर कर्म का सर्वथा नाश कदापि नहीं हो सकेगा। लेकिन कर्मसिद्धान्त के बारे में ऐसा एकान्त सार्वकालिक नियम नहीं है। इसी कारण आगे चलकर २३वें पद के दूसरे उद्देशक में स्पष्ट बताया गया है कि जितने भी कर्म हैं, सबकी एक कालमर्यादा है। वह काल परिपूर्ण होने पर उस कर्म का क्षय हो जाता है। स्वर्ण और मिट्टी का, दूध और घी का प्रवाहरूप से अनादि-सम्बन्ध होते हुए भी प्रयत्न-विशेष से वे पृथक्-पृथक् होते देखे जाते हैं। उसी प्रकार आत्मा और कर्म का प्रवाहरूप से अनादि-सम्बन्ध होने पर भी, व्यक्तिशः अनादि-सम्बन्ध नहीं है। आत्मा और कर्म के अनादि-सम्बन्ध का भी अन्त होता है। पूर्वबद्ध कर्मस्थितिपूर्ण होने पर वह आत्मा से पृथक् हो जाता है। नवीन कर्मों का बन्ध होता रहता है। इस प्रकार प्रवाहरूप से कर्म के अनादि होने पर भी तप, संयम, व्रत आदि के द्वारा कर्मों का प्रवाह एक दिन नष्ट हो जाता है और आत्मा सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाता है। पूर्वकथन से स्पष्ट हो जाता है कि आत्मा का अस्तित्व अनादिकालीन है और कर्मबन्ध होता रहता है। ऐसी स्थिति में सहज ही एक प्रश्न उठता है कि आत्मा पहले है या कर्म? यदि आत्मा पहले है तो कर्म का बन्ध उसके साथ जबसे हुआ तबसे उसे 'सादि' मानना पड़ेगा। जैनदर्शन का समाधान है कि कर्म व्यक्ति की अपेक्षा से सादि है और प्रवाह की अपेक्षा से अनादि है। परन्तु कर्म का प्रवाह कब तक चलेगा? सर्वज्ञ के सिवाय कोई नहीं जानता और न ही बता सकता है, क्योंकि भूतकाल के समान भविष्यकाल भी अनन्त है। कुछ व्यक्ति शंका कर सकते हैं कि सभी जीव आत्मामय हैं और आत्मा का लक्षण ज्ञान है, तब फिर सभी जीवों को एक Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * समान ज्ञान क्यों नहीं होता? इसका उत्तर यही है कि आत्मा वस्तुतः ज्ञानमय है, किन्तु उस पर कर्मों का आवरण पड़ा हुआ है और उस आवरण के कारण ही आत्मारूपी सूर्य का ज्ञानगुणरूप प्रकाश कर्मरूपी मेघों से ढंका हुआ है। बादल हटते ही जैसे सूर्य का प्रकाश प्रकट हो जाता है, वैसे ही कर्मों का आवरण दूर होते ही आत्मा के ज्ञानादि गुण अधिकाधिक प्रकट होने लगते हैं। इस पर से एक प्रश्न फिर समुद्भूत होता है कि कर्म बलवान् है या आत्मा? बाह्यदृष्टि से कर्म शक्तिशाली प्रतीत होते हैं, क्योंकि कर्म के वशवर्ती होकर आत्मा नाना योनियों में जन्म-मरण के चक्कर काटती रहती है, परन्तु अन्तर्दृष्टि से देखा जाए तो आत्मा की शक्ति असीम (अनन्त) है । वह जैसे अपनी परिणति से कर्मों का आस्रव एवं बन्ध करती है, वैसे ही कर्मों का क्षय करने की क्षमता भी रखती है। कर्म चाहे जितने शक्तिशाली क्यों न प्रतीत हों, लेकिन आत्मा उससे भी अधिक शक्तिसम्पन्न है। कठोरतम पाषाणों की चट्टानों को मुलायम पानी टुकड़े-टुकड़े कर देता है। वैसे ही आत्मा की अनन्त शक्ति कर्मों को चूर-चूर कर देती है। इसके लिए कर्म और आत्मा की पृथक्-पृथक् शक्तियों को पहिचानने के लिए दोनों के लक्षणों को जान लेना आवश्यक है। आत्मा अपने-आप में (निश्चय) रूप में ज्ञान, दर्शन, आनन्द एवं शक्तिमय (वीर्यमय) है। कर्मों के आवरण के कारण उसके ये गुण दबे हुए हैं। कर्मों का आवरण सर्वथा हटते ही चेतना पूर्णरूप से प्रकट हो जाती है, आत्मा परमात्मा बन जाती है। कर्म का लक्षण है - मिथ्यात्व आदि पांच कारणे से जीव के द्वारा जो किया जाता है। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग, इन पांचों में से किसी के भी निमित्त से आत्मा में एक प्रकार का अचेतन द्रव्य आता है, जिसे अन्य दर्शनों में अदृश्य, अविद्या, माया, प्रकृति, संस्कार आदि विविध नामों से पुकारा जाता है, अत: वह कर्म ही हैं, जो राग-द्वेष का निमित्त पकार आत्मा के साथ बंध जाता है और समय पाकर वह (कर्म) सुख-दुःख रूप फल देने लगता है। कर्म के मुख्यतया दो भेद हैं-भावकर्म और द्रव्यकर्म । जीव के साथ राग-द्वेष रूप भावों का निमित्त पाकर अचेतन कर्मद्रव्य आत्मा की ओर आकृष्ट होता है, उन भावों का नाम भावकर्म है तथा वह अचेतन कर्मद्रव्य जब आत्मा के साथ क्षीर-नीरवत् एक होकर सम्बद्ध हो जाता है, तब वह द्रव्यकर्म कहलाता है। यद्यपि जैनदर्शन में भावकर्मबन्ध के मुख्यतया मिथ्यात्वादि पांच कारण एवं संक्षेप में कषाय और योग ये दो कारण बतलाए हैं, तथापि तेईसवें पद के प्रथम उद्देशक में राग और द्वेष को ही भावकर्मबन्ध का कारण बतलाया है। चार कषायों को इन्हीं दो के अन्तर्गत कर दिया गया है। कोई भी मानसिक या वैचारिक प्रवृत्ति हो, या तो वह राग (आसक्तिरूप) या वह द्वेष (घृणा या क्रोधादि) रूप होगी। अतः रागमूलक या द्वेषमूलक प्रवृत्ति को ही भावकर्मबन्ध का कारण माना गया है। प्राणी जान सके या नहीं, पर उसकी राग-द्वेषात्मक वासना के कारण अव्यक्तरूप से भावकर्म द्रव्यकर्म रूप में श्लिष्ट होते रहते हैं। कर्म की बंधकता (कर्मलेप पैदा करने की शक्ति) भी रागद्वेष के सम्बन्ध से ही है। रागद्वेषजनित मानसिक प्रवृत्ति के अनुसार क्रोधादिकषायवश शारीरिक, वाचिक क्रिया होती है, वही द्रव्यकर्मोपार्जन का कारण बनती है। जो क्रिया कषायजनित होती है, उससे होने वाला कर्मबन्ध विशेष बलवान् होता है, किन्तु कषायरहित क्रिया से होने वाला कर्मबन्ध निर्बल और अल्पस्थितिक होता है। वह थोड़े-से प्रयत्न एवं समय में नष्ट किया जा सकता है। वस्तुतः जब प्राणी मन-वचन-काया से प्रवृत्ति करता है, तब चारों ओर से तद्योग्य कर्मपुद्गलपरमाणुओं का ग्रहण होता है। इन्हीं गृहीत पुद्गल-परमाणु-समूह का कर्मरूप में आत्मा के साथ बद्ध होना द्रव्यकर्म कहलाता है। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६] वस्तुतः जिसने जैसा कर्म किया है, उसके अनुसार वैसी वैसी उसकी मति और परिणति होती रहती है। पूर्वबद्ध कर्म उदय में आता है तो आत्मा की परिणति को प्रभावित करता है और उसी के अनुसार नवीन कर्मबन्ध होता रहता है। यह चक्र अनादिकाल से ( प्रवाहरूप से चला आ रहा है। - आत्मा निश्चयदृष्टि से ज्ञान दर्शनमय शुद्ध होने पर भी अपनी कषायात्मक वैकारिक प्रवृत्ति या क्रिया द्वारा ऐसे संस्कारों (भावकर्मों) का आकर्षण करती रहती है और कर्मपुद्गलों को भी तदनुसार ग्रहण करती रहती है। इस ग्रहण करने की प्रक्रिया में मन-वचन-काय का परिस्पन्दन सहयोगी बनता है। कषाय या रागद्वेष की तीव्रता मन्दता के अनुसार ही जीव को उन-उन कर्मों का बन्ध होता है तथा बन्धे हुए कर्मों के अनुसार ही तत्काल या कालान्तर में सुख-दुःख-रूप शुभाशुभ फल प्राप्त होता रहता है। किन्तु जब यह आत्मा अपनी विशिष्ट ज्ञानादि शक्ति से समस्त कर्मों से रहित होकर पूर्णरूप से • कर्ममुक्त हो जाती है तब पुनः कर्म आत्मा के साथ सम्बद्ध नहीं होते और न अपना फल देते हैं। कर्मसिद्धान्तानुसार एक बात स्पष्ट है कि आत्मा ही अपने पूर्वकृत कर्मों के अनुसार वैसे स्वभाव और परिस्थिति का निर्माण करती है, जिसका प्रभाव बाह्य सामग्री पर पड़ता है और तदनुसार परिणमन होता है, तदनुसार ही कर्मफल स्वतः प्राप्त होता है। कर्म के परिपाक का जब समय आता है, तब उसके उदयकाल में जैसी द्रव्य, क्षेत्र काल और भाव की सामग्री होती है, वैसा ही उसका तीव्र, मन्द, मध्यम फल प्राप्त होता है। इस फलप्राप्ति का प्रदाता कोई अन्य नहीं है । कर्मफल प्रदाता दूसरे को माना जाए तो स्वयंकृत कर्म निरर्थक हो जाएंगे तथा जीव के स्व-पुरुषार्थ की भी हानि होगी। फिर तो सत्कार्यों में प्रवृत्ति और असत्कार्यों से निवृत्ति के लिए न तो उत्साह जाग्रत होगा, न पुरुषार्थ ही । इस दृष्टि से २३वें से २७वें पद तक कर्मसिद्धान्त के सम्बन्ध में उद्भूत होने वाले विविध प्रश्नों का समाधान किया गया है। कर्मबन्ध के चार प्रकारों की दृष्टि ये यहां यथार्थ एवं स्पष्ट समाधान किया गया है। द्रव्यकर्मों के बन्ध को प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, प्रदेशबन्ध और अनुभावबन्ध, इन चार प्रकारों में वर्गीकृत किया गया है। . बद्ध कर्मपरमाणुओं का आत्मा के ज्ञानादि गुणों के आवरण के रूप में परिणत होना, उन कर्मपुद्गलों में विभिन्न प्रकार के स्वभाव उत्पन्न होना, प्रकृतिबन्ध है। कर्मविपाक (कर्मफल) के काल की अवधि ( जघन्य उत्कृष्ट कालमर्यादा) उत्पन्न होना स्थितिबन्ध है। गृहीत पुद्गल परमाणुओं के समूह का कर्मरूप में आत्मप्रदेशों के साथ न्यूनाधिक रूप में बद्ध होना- प्रदेशबन्ध है । इसमें भिन्न-भिन्न स्वभाव वाले कर्मपरमाणुओं (कर्मप्रदेशों) की संख्या का निर्धारण होता है और कर्मरूप में गृहीत पद्गलपरमाणुओं के फल देने की शक्ति की तीव्रता - मन्दता आदि अनुभाग (रस) बन्ध है। कर्म के सम्बन्ध में समुद्भूत होने वाले कुछ प्रश्नों का प्रादुर्भाव होना स्वाभाविक है, जिनका समाधान इन पदों में दिया गया है। मूलकर्म कितने हैं? उनके उत्तर-भेद कितने हैं ? आत्मा का कर्मों के साथ बन्ध कैसे और किन-किन कारणों से होता है ? कर्मों में फल देने की शक्ति कैसे पैदा हो जाती है ? कौन-सा कर्म कम से कम और अधिक से अधिक कितने समय तक आत्मा के साथ लगा रहता है ? आत्मा के साथ लगा हुआ कर्म कितने समय तक फल देने में असमर्थ रहता है ? विपाक का नियत समय भी बदला जा सकता है या नहीं ? यदि हाँ, तो कैसे, किन आत्मपरिणामों से ? एक कर्म के बन्ध के समय दूसरे किन कर्मों का बन्ध या वेदन हो सकता है ? किस कर्म के वेदन के समय किन-किन कर्मों का वेदन होता है ? इस प्रकार बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ता आदि अवस्थाओं की अपेक्षा से उत्पन्न होने वाले नाना प्रश्नों का सयुक्तिक विशद वर्णन किया गया है। सर्वप्रथम तेईसवें 'कर्म-प्रकृति-पद' के प्रथम उद्देशक में पांच द्वारों के माध्यम से कर्म सिद्धान्त की चर्चा की गई है। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम द्वार में मूल-कर्म-प्रकृति की संख्या और चौबीस दण्डकवर्ती जीवों में उनके सद्भाव की प्ररूपणा है। दूसरे द्वार में बताया गया है कि समुच्चय जीव तथा चौबीस दण्डकवर्ती जीव किस प्रकार आठ कर्मों को बाँधते हैं ? तीसरे द्वार में बताया गया है कि ज्ञानावरणीयादि आठ कर्मों को एक या अनेक समुच्चय जीव तथा चौबीस दण्डकवर्ती जीव, राग और द्वेष (जिनके अन्तर्गत क्रोधादि चार कषायों का समावेश हो जाता है), इन दो कारणों से बांधते हैं। चौथे द्वार में यह बताया गया है कि समुच्चय जीव या चौबीस दण्डकवर्ती जीव एकत्व एवं बहत्व की अपेक्षा से, ज्ञानावरणीयादि आठ कर्मों में किन-किन कर्मों का वेदन करता है ? इसके पश्चात् पंचम कतिविध-अनुभाव द्वार में विस्तृत रूप से बताया गया है कि जीव के द्वारा बद्ध, स्पृष्ट, बद्ध-स्पृष्ट, संचित, चित, उपचित, आपाक-प्राप्त, विपाक-प्राप्त, फलप्राप्त, उदय-प्राप्त, कृत निष्पादित, परिणामित, स्वत: या परतः उदीरित, उभयतः उदीरणा किये जाते हुए गति, स्थिति और भव की अपेक्षा से ज्ञानावरणीयादि किस-किस कर्म के कितने-कितने विपाक या फल हैं ? तेईसवें पद के द्वितीय उद्देशक में सर्वप्रथम अष्ट कर्मों की मूल और उत्तर-प्रकृतियों के भेद-प्रभेदों का निरूपण किया गया है। तदन्तर ज्ञानावरणीयादि आठों कर्मों की (भेद-प्रभेदसहित) स्थिति का निरूपण किया गया है। इसके पश्चात् यह निरूपण किया गया है कि एकेन्द्रिय से लेकर संज्ञी-असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक के जीव ज्ञानावरणीयादि आठ कमों में से किस कर्म का कितने काल का बन्ध करते हैं ? तथा ज्ञानावरणीय आदि आठों कर्मों की जघन्य स्थिति और उत्कृष्ट स्थिति को बांधने वाले कौन-कौन जीव हैं? चौबीसवें 'कर्मबन्ध-पद' में बताया गया है कि चौबीस दण्डकवर्ती जीव ज्ञानावरणीय आदि किसी एक कर्म को बांधता हुआ, अन्य किन-किन कर्मों को बांधता है, अर्थात् कितने अन्य कर्मों को बांधता है ? पच्चीसवें कर्मबन्ध-वेदपद में बताया गया है कि जीव आठ कर्मों में से किसी एक कर्म को बांधता हुआ, अन्य किनकिन कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है ? छब्बीसवें कर्मवेद-बन्धपद में कहा गया है कि जीव आठ कर्मों में से किसी एक कर्म को वेदता हुआ, अन्य कितने कर्मों का बन्ध करता है? सत्ताईसवें कर्मवेद-वेदकपद' में कहा गया है कि जीव किसी एक कर्म के वेदन के साथ किन अन्य कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है? प्रस्तुत पांचों पदों के निरूपण द्वारा शास्त्रकार ने स्पष्ट ध्वनित कर दिया है कि जीव कर्म करने और फल भोगने में, नये कर्म बांधने तथा समभावपूर्वक कर्मफल भोगने में स्वतंत्र है तथा कर्म-सिद्धान्त के प्रतिपादन का उद्देश्य देवगति या अमुक प्रकार के शरीरादि की उपलब्धि करना नहीं है । अपितु कर्मों से सदा-सर्वदा के लिए मुक्ति पाना, जन्म-मरण से छुटकारा पाना ही उसका लक्ष्य है। इसी में आत्मा के पुरुषार्थ की पूर्णता है तथा यही आत्मा के शुद्ध, सिद्ध-बुद्धमुक्तस्वरूप की उपलब्धि है। इस चतुर्थ पुरुषार्थ-मोक्ष के लिए पुण्यरूप या पापरूप दोनों प्रकार के कर्म त्याज्य हैं। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र एवं सम्यक्तप ही मोक्ष-पुरुषार्थ के परम साधन हैं जो कर्मक्षय के लिए नितान्त आवश्यक हैं। आत्मा अपने पुरुषार्थ के द्वारा क्रमशः कर्मनिर्जरा करता हुआ आत्मा की विशुद्धतापूर्वक सर्वथा कर्मक्षय कर सकता है। यही तथ्य शास्त्रकार के द्वारा ध्वनित किया गया है। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेवीसइमं कम्मपगडिपयं तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद पढमो उद्देसओ : प्रथम उद्देशक प्रथम उद्देशक में प्रतिपाद्य विषयों की संग्रहणीगाथा १६६४. कति पगडी १ कह बंधइ २ कतिहि व ठाणेहि बंधए जीवो ३। कति वेदेइ य पयडी ४ अणुभावो कतिविहो कस्स ५ ॥ २१७॥ [१६६४ गाथार्थ-] (१) (कर्म-) प्रकृतियाँ कितनी हैं, (२) किस प्रकार बंधती हैं ?, (३) जीव कितने स्थानों से (कर्म) बांधता है ?, (४) कितनी (कर्म-) प्रकृतियों का वेदन करता है?, (५) किस (कर्म) का अनुभाव (अनुभाग) कितने प्रकार का होता है ? ॥ २१७॥ विवेचन-विविध पहलुओं से कर्मबन्धादि परिणाम-निरूपक पांच द्वार- (१) प्रथमद्वारकर्मप्रकृतियों की संख्या का निरूपण करने वाला, (२) द्वितीयद्वार-कर्मबन्धन के प्रकार का निरूपक, (३) तृतीयद्वार-कर्म बांधने के स्थानों का निरूपक, (४) चतुर्थद्वार-वेदन की जानेवाली कर्मप्रकृतियों की गणना और (५) पंचमद्वार-विविध कर्मों के विभिन्न अनुभावों का निरूपण करने वाला। प्रथम : कति-प्रकृतिद्वार १६६५. कति णं भंते ! कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! अट्ट कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ। तं जहा- णाणावरणिज १ दरिसणावरणिजं २ वेदणिजं ३ मोहणिजं ४ आउयं ५ णामं ६ गोयं ७ अंतराइयं ८। [१६६५ प्र.] भगवन् ! कर्मप्रकृतियाँ कितनी कही हैं ? [१६६५ उ.] गौतम ! कर्मप्रकृतियाँ आठ कही हैं, वे इस प्रकार - १. ज्ञानावरणीय, २. दर्शनावरणीय, ३. वेदनीय, ४. मोहनीय, ५. आयु, ६. नाम, ७. गोत्र और ८. अन्तराय। १६६६. णेरइयाणं भंते ! कति कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! एवं चेव। एवं वेमाणियाणं। [१६६६ प्र.] भगवन् ! नैरयिकों के कितनी कर्मप्रकृतियाँ कही हैं ? _ [१६६६ उ.] गौतम ! इसी प्रकार पूर्ववत् आठ कर्मप्रकृतियाँ कही हैं और (नारकों के ही समान) वैमानिक तक (आठ कर्मप्रकृतियाँ समझनी चाहिए)। १. प्रज्ञापना, प्रमेयबोधिनी टीका, भा. ५, १५७-१५८ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रज्ञापनासूत्र ] विवेचन - (१) कति - प्रकृतिद्वार - आठ कर्मप्रकृतियाँ और चौवीस दण्डकों में उनका सद्भावमूल कर्मप्रकृतियाँ आठ प्रसिद्ध हैं। नारक से लेकर वैमानिक तक समस्त संसारी जीवों के भी आठ ही कर्मप्रकृतियाँ हुई हैं। आठ कर्मप्रकृतियों का स्वरूप - ( १ ) ज्ञानावरणीय जो कर्म आत्मा के ज्ञानगुण को आच्छादित करे । सामान्य- विशेषात्मक वस्तु विशेष अंश का ग्रहण करना ज्ञान है। उसे जो आवृत करे, वह ज्ञानावरणीय है । (२) दर्शनावरणीय पदार्थ के विशेषधर्म को ग्रहण न करके सामान्य धर्म को ग्रहण करना 'दर्शन' है। जो आत्मा के दर्शनगुण को आच्छादित करे, वह दर्शनावरणीय है । ( ३ ) वेदनीय जिस कर्म के कारण आत्मा सुख-दुःख का अनुभव करे। (४) मोहनीय • जो कर्म आत्मा को मूढ सत्-असत् के विवेक से शून्य बनाता । (५) आयुकर्म – जो कर्म जीव को किसी न किसी भव में स्थित रखता है। (६) नामकर्म जो कर्म जीव के गतिपरिणाम आदि उत्पन्न करता है । ( ७ ) गोत्रकर्म - जिस कर्म के कारण जीव उच्च अथवा नीच कहलाता है अथवा जिस कर्म के उदय से जीव प्रतिष्ठित कुल अथवा नीच अप्रतिष्ठित में जन्म लेता है। कुल (८) अन्तरायकर्म – जो कर्म जीव के और दानादि के बीच में व्यवधान अथवा विघ्न डालता है, अथवा जो कर्म दानादि करने के लिए उद्यत जीव के लिये विघ्न उपस्थित करता है ।' द्वितीय : कह बंधइ (किस प्रकार बंध करता है ) द्वार - - — - १. - - [९ - १६६७. कहण्णं भंते ! जीवे अट्ठ कम्मपगडीओ बंधइ ? गोयमा ! णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं दरिसणावरणिज्जं कम्मं णियच्छति, दरिसणावरणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं दंसणमोहणिज्जं कम्मं णियच्छति, दंसणमोहणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं मिच्छत्तं णियच्छति, मिच्छत्तेणं उदिण्णेणं गोयमा ! एवं खलु जीवे अट्ठ कम्मपगडीओ बंधइ । [१६६७ प्र.] भगवन्! जीव आठ कर्मप्रकृतियों को किस प्रकार बांधता है ? [ १६६७ उ.] गौतम ! ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से (जीव) दर्शनावरणीय कर्म को निश्चय ही प्राप्त करता है, दर्शनावरणीय कर्म के उदय से (जीव) दर्शनमोहनीय कर्म को प्राप्त करता है। दर्शनमोहनीय कर्म के उदय से मिथ्यात्व को निश्चय ही प्राप्त करता है और हे गौतम! इस प्रकार मिथ्यात्व के उदय होने पर जीव निश्चय ही आठ कर्मप्रकृतियों को बांधता है । १६६८. कहण्णं भंते ! णेरइए अट्ठ कम्मपगडीओ बंधइ ? गोयमा ! एवं चेव । एवं जाव वेमाणिए । [१६६८ प्र.] भगवन् ! नारक आठ कर्मप्रकृतियों को किस प्रकार बांधता है ? [ १६६८ उ.] गौतम ! इसी प्रकार ( पूर्वोक्त कथनवत्) जानना चाहिए। इसी प्रकार (असुरकुमार से लेकर) वैमानिकपर्यन्त ( समझना चाहिए।) प्रज्ञापना, प्रमेयबोधिनी टीका भाग ५, पृ. १६१ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] [तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद] १६६९. कहण्णं भंते ? जीवा अट्ट कम्मपगडीओ बंधति ? गोयमा ! एवं चेव एवं जाव वेमाणिया। [१६६९ प्र.] भगवन्! बहुत-से जीव आठ कर्मप्रकृतियाँ किस प्रकार बाँधते हैं ? [१६६९ उ.] गौतम ! पूर्ववत् जानना। इसी प्रकार बहुत-से वैमानिकों तक (समझना चाहिए ।) विवेचन- समुच्चय जीव और चौबीस दण्डक में एकत्व-बहुत्व की विवक्षा से अष्टकर्मबन्ध के कारण- प्रस्तुत द्वितीय द्वार में जीव अष्टकर्मबन्ध किस प्रकार करता है ? इसका स्पष्टीकरण करते हुए बताया गया है कि ज्ञानावरण का उदय होने पर दर्शनावरणीय कर्म का आगमन होता है अर्थात् जीव दर्शनावरणीय कर्म को उदय से वेदता है। दर्शनावरणीय के उदय से दर्शनमोह का और दर्शनमोह के उदय से मिथ्यात्व का और मिथ्यात्व के उदीर्ण होने पर आठों कर्मों का आगमन होता है अर्थात् जीव मिथ्यात्व के उदय से आठ कर्मप्रकृतियों का बंध करता है। सभी जीवों में आठ कर्मों के बन्ध (या आगमन) या यही क्रम है। इन चारों सूत्रों का तात्पर्य यह है कि कर्म से कर्म आता-बंधता है। स्पष्टीकरण-आचार्य मलयगिरि ने इस सूत्र में प्रयुक्त खलु' शब्द का प्रायः' अर्थ करके इस सूत्रचतुष्टय को 'प्रायिक' माना है। इसका आशय यह है कि कोई-कोई सम्यग्दृष्टि भी आठ कर्मप्रकृतियों का बन्ध करता है। केवल सूक्ष्म-सम्परायगुणस्थानवर्ती संयत आदि आठ कर्मों का बंध नहीं करते। ज्ञातव्य-यहां ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के बन्ध के कारणों में केवल मिथ्यात्व को ही मूल कारण बताया है, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग को नहीं, किन्तु पारम्परिक कारणों में अविरति, प्रमाद और कषाय का भी समावेश हो जाता है। क्योंकि जीव ज्ञानावरणादि कर्म बांधता है, उसके (सू. १६७० में) मुख्यतया दो कारण बताए गए हैं-राग और द्वेष । राग में माया और लोभ का तथा द्वेष में क्रोध और मान का समावेश हो जाता है। तृतीयद्वार : कति-स्थान-बन्धद्वार १६७०. जीवे णं भंते ! णाणावरणिज्जं कम्मं कतिहिं ठाणेहिं बंधइ ? गोयमा ! दोहिं ठाणेहिं । तं जहा-रागेण य दोसेण य। रागे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-माया य लोभे य। दोसे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा–कोहे य माणे य। इच्चेतेहिं चउहि ठाणेहिं वीरिओवग्गहिएहिं एवं खलु जीवे णाणावरणिनं कम्मं बंधइ । १. (क) पण्णवणासुत्तं भाग २ (२३वें पद का विचार), पृ. १३१ __(ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका, भाग ५, पृ. १६६ २. (क) प्रज्ञापना मलयगिरि वृत्ति, पत्र ४५४ (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा. ५, पृ. १६४ ३. (क) पण्णवणासुत्तं. (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. १, पृ. ३६२, सू. १६७०, पृ. ३६४ तथा पण्णवणासुत्तं भा. २ पृ. १३१ (ख) 'मिथ्यात्व-अविरति-प्रमाद-कषाय-योगा-बन्धहेतवः'। - तत्त्वार्थसूत्र (ग) रागो य दोसो विय कम्मबीयं। - उत्तराध्यनसूत्र Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र] [११ [१६७० प्र.] भगवान् ! जीव कितने स्थानों – कारणों से ज्ञानावरणीयकर्म बांधता है ? [१६७० उ.] गौतम ? वह दो कारणों (स्थानों) से ज्ञानावरणीय-कर्मबन्ध करता है, यथा – राग से और द्वेष से। राग दो प्रकार का है, यथा - माया और लोभ । द्वेष भी दो प्रकार का कहा है, यथा – क्रोध और मान । इस प्रकार वीर्य से उपार्जित चार स्थानों (कारणों) से जीव ज्ञानावरणीय कर्म बांधता है। १६७१. एवं णेरइए जाव वेमाणिए। [१६७१] नैरयिक (से लेकर) वैमानिक पर्यन्त इसी प्रकार (कहना चाहिए)। १६७२. जीवा णं भंते ! णाणावरणिजं कम्मं कतिहिं ठाणेहिं बंधंति ? गोयमा! दोहिं ठाणेहिं, एवं चेव। [१६७२ प्र.] भगवन् ! बहुत जीव कितने कारणों से ज्ञानावरणीय कर्म बांधते हैं ? [१६७२ उ.] गौतम ! पूर्वोक्त दो कारणों से (बांधते हैं।) तथा उन दो के भी पूर्ववत् चार प्रकार समझने चाहिए। १६७३. एवं णेरइया जाव वेमाणिया। [१६७३] इसी प्रकार बहुत से नैरयिकों (से लेकर) यावत् वैमानिकों तक समझना चाहिए । १६७४. [१] एवं दंसणावरणिज्जं जाव अंतराइयं। ___ [१६७४-१] इसी प्रकार दर्शनावरणीय (से लेकर) अन्तरायकर्म तक कर्मबन्ध के ये ही कारण समझने चाहिए। [२] एवं एते एगत्त-पोहत्तिया सोलस दंडगा । [१६७४-२] इस प्रकार एकत्व (एकवचन) और बहुत्व (बहुवचन) की विवक्षा से ये सोलह दण्डक होते विवेचन-कितने कारणों से कर्मबन्ध होता है? – द्वितीय द्वार में कर्मप्रकृतियों के बन्ध का क्रम तथा उनके बहिरंग कारण बताये गए हैं, जबकि इस तृतीय द्वार में कर्मबन्ध के अन्तरंग कारणों पर विचार किया गया है। __राग-द्वेष एवं कषाय का स्वरूप-जो प्रीतिरूप हो, उसे राग और जो अप्रीतिरूप हो, उसे द्वेष कहते हैं। राग दो प्रकार का है-माया और लोभ । चूंकि ये दोनों प्रीतिरूप हैं, इसलिए राग में समाविष्ट हैं, जबकि क्रोध और मान ये दोनों अप्रीतिरूप हैं, इसलिये इनका समावेश द्वेष में हो जाता है। कोध तो अप्रीतिरूप है ही, मान भी दूसरे के गुणों के प्रति असहिष्णुतारूप होने से अप्रीतिरूप है। १. पण्णवणासुत्तं भाग २ (२३वें पद पर विचार) पृ. १२५ २. प्रज्ञापना प्रमेयबोधिनी टीका, पृ. १६९ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२] [ तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद] निष्कर्ष-(मूलपाठ के अनुसार) जीव अपने वीर्य से उपार्जित पूर्वोक्त (दो और) चार कारणों से ज्ञानावरणीय तथा शेष सात कर्मों का बंध करता है | करते हैं।' चतुर्थद्वार : कति-प्रकृतिवेदन-द्वार १६७५. जीवे णं भंते! णाणावरणिजं कम्मं वेदेइ ? गोयमा ! अत्थेगइए वेदेइ, अत्थेगइए णो वेदेइ । [१६७५ प्र.] भगवन् ! क्या जीव ज्ञानावरणीय कर्म का वेदन करता है ? [१६७५ उ.] गौतम ! कोई जीव (ज्ञानावरणीय कर्म का) वेदन करता है और कोई नहीं करता है। १६७६. [१] णेरइए णं भत्ते! णाणावरणिज कम्मं वेदेइ ? गोयमा ! णियमा वेदेइ। [१६७६-१ प्र.] भगवन् ! क्या नारक ज्ञानावरणीयकर्म का वेदन करता (भोगता) है ? [१६७६-१ उ.] गौतम! वह नियम से वेदन करता है। [२] एवं जाव वेमाणिए। णवरं मणूसे जहा जीवे (सु. १६७५)। [१६७६-२] (असुरकुमार से लेकर) वैमानिकपर्यन्त इसी प्रकार जानना चाहिए, किन्तु मनुष्य के विषय में (सू. १६७५ में उक्त) जीव में समान वक्तव्यता समझनी चाहिए। १६७७ [१] जीवा णं भत्ते! णाणावरणिज कम्मं वेदेति ? गोयमा ! एवं चेव। [१६७७-१ प्र.] भगवन् ! क्या बहुत जीव ज्ञानावरणीयकर्म का वेदन (अनुभव) करते हैं ? [१६७७-१ उ.] गौतम ! पूर्ववत् सभी कथन जानना चाहिये। [२] एवं जाव वेमाणिया। [१६७७-२] इसी प्रकार (बहुत से नैरयिकों से लेकर) वैमानिकों तक कहना चाहिए। १६७८.[१] एवं जहा णाणावरणिजं तहा दंसणावरणि मोहणिजं अंतराइयं च। [१६७८-१] जिस प्रकार ज्ञानावरणीय के सम्बन्ध में कथन किया गया है, उसी प्रकार दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तरायकर्म के वेदन के विषय में समझना चाहिए। [२] वेदणिजाऽऽउंय-णाम-गोयाइं एवं चेव। णवरं मणूसे वि णियमा वेदेति। [१६७८-२] वेदनीय, आयु, नाम और गोत्रकर्म के जीव द्वारा वेदन के विषय में भी इसी प्रकार जानना चाहिए, किन्तु मनुष्य (इन चारों कर्मों का) वेदन नियम से करता है। १. वही प्रज्ञापना प्रमेयबोधिनी टीका पृ. १६९ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रज्ञापनासूत्र ] [१३ [३] एवं एते एगत्त- पोहत्तिया सोलस दंडगा । [१६७८-३] इस प्रकार एकत्व और बहुत्व की विवक्षा से ये सोलह दण्डक होते हैं। विवचेन - समुच्चयजीव द्वारा किन कर्मों का वेदन होता है, किनका नहीं ? जिस जीव के घातिकर्मों का क्षय नहीं हुआ है, वह ज्ञानावरणीयादि चार घातिकर्मों का वेदन करता है, किन्तु जिसने घातिकर्मों का क्षय कर डाला है, वह इन चारों कर्मों का वेदन नहीं करता है। मनुष्य को छोड़कर नैरयिक से लेकर वैमानिक तक कोई भी जीव घातिकर्मों का क्षय करने में समर्थ नहीं होते, इसलिए वे ज्ञानावरणीयादि आठ कर्मों का वेदन करते हैं, मनुष्यों में जिनके चार घातिकर्मों का क्षय हो चुका है, वे ज्ञानावरणीयादि चार कर्मों का वेदन नहीं करते, और जिनके चार घातिकर्मों का क्षय नहीं हुआ है, वे उनका वेदन करते हैं । किन्तु वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र, इन चार अघाति कर्मों का शेष जीवों की तरह मनुष्य भी वेदन करता है, क्योंकि ये चार अघातिकर्म मनुष्य में चौदहवें गुणस्थान के अन्त तक बने रहते हैं । समुच्चय जीवों के कथन की अपेक्षा से संसारीजीव इन चार अघातिकर्मों का वेदन करते हैं, किन्तु मुक्त जीव वेदन नहीं करते। - पंचमद्वार: कतिविध - अनुभावद्वार १६७९. णाणावरणिजस्स णं भंते! कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स पुट्ठस्स बद्ध- फास - पुट्ठस्स संचितस्स चियस्स उवचितस्स आवागपत्तस्स विवागपत्तस्स फलपत्तस्स उदयपत्तस्स जीवेणं कडस्स जीवेणं णिव्वत्तियस्स जीवेणं परिणामियस्स सयं वा उदिण्णस्स परेण वा उदीरियस्स तदुभएण वा उदीरिजमाणस्स गतिं पप्प ठितिं पप्प भवं पप्प पोग्गलं पप्प पोग्गलपरिणामं पप्प कतिविहे अणुभावे पण्णत्ते ? गोयमा ! णाणावरणिज्जस्स णं कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पोग्गलपरिणामं पप्प दसविहे अणुभावेपण्णत्ते । तं जहा सोयावरणे १ सोयविण्णाणावरणे २ णेत्तावरणे ३ णेत्तविण्णाणावरणे ४ घाणावरणे ५ घाणविण्णाणावरणे ६ रसावरणे ७ रसविण्णाणावरणे ८ फासावरणे ९ फासविण्णाणावरणे १० जं वेदेइ पोग्गलं वा पोग्गले वा पोग्गलपरिणामं वा वीससा वा पोग्गलाणं परिणामं, तेसिं वा उदएणं जाणियव्वं ण जाणइ, जाणिउकामे विण याणइ, जाणित्ता विण याणइ, उच्छण्णणाणी यावि भवइ णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं । एस णं गोयमा ! णाणावरणिजे कम्मे । एस णं गोयमा ! णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पोग्गलपरिणामं पप्प दसविहे अणुभावे पण्णत्ते १ । [१६७९ प्र.] भगवन् ! जीव के द्वारा बद्ध (बांधे गये), स्पृष्ट, बद्ध और स्पृष्ट किये हुए, संचित, चित्त और उपचित किये हुए, किञ्चित् पाक को प्राप्त, विपाक को प्राप्त, फल को प्राप्त तथा उदय प्राप्त, जीव के द्वारा कृत, जीव के द्वारा निष्पादित, जीव के द्वारा परिणामित, स्वयं के द्वारा उदीर्ण ( उदय को प्राप्त), दूसरे के द्वारा उदीरित (उदीरणा - प्राप्त) या दोनों के द्वारा उदीरणा प्राप्त, ज्ञानावरणीयकर्म का, गति को प्राप्त करके, स्थिति को प्राप्त करके, भव को, पुद्गल को तथा पुद्गल परिणाम को प्राप्त करके कितने प्रकार का अनुभाव (फल) कहा गया है ? [ १६७९ उ.] गौतम! जीव के द्वारा बद्ध यावत् पुद्गल - परिणाम को प्राप्त ज्ञानावरणीयकर्म का दस प्रकार का १. (क) प्रज्ञापना, प्रमेयबोधिनी टीका भा. ५, पृ. १७५-७६ (ख) पण्णवणासुत्तं भा. २, पृ. १३१ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४] [तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद] अनुभाव कहा गया है यथा-(१) श्रोत्रावरण, (२) श्रोत्रविज्ञानावरण, (३) नेत्रावरण, (४) नेत्रविज्ञानावरण, (५) घ्राणावरण, (६) घ्राणविज्ञानावरण, (७) रसावरण, (८) रसविज्ञानावरण, (९) स्पर्शावरण और (१०) स्पर्शविज्ञानावरण। ज्ञानावरणीयकर्म के उदय से जो पुद्गल को अथवा पुद्गलों को या पुद्गल-परिणाम को अथवा स्वभाव से पुद्गलों को वेदता है, उनके उदय से जानने योग्य को नहीं जानता, जानने का इच्छुक होकर भी नहीं जानता, जानकर भी नहीं जानता अथवा तिरोहित ज्ञान वाला होता है। गौतम! यह है ज्ञानावरणीय कर्म। हे गौतम! जीव के द्वारा बद्ध यावत् पदगल-परिणाम को प्राप्त करके ज्ञानावरणीयकर्म का दस प्रकार का यह अनुभाव कहा गया है॥१॥ १६८०. दरिसणावरणिज्जस्स णं भन्ते! कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पोग्गलपरिणामं पप्प कतिविहे अणुभावे पण्णत्ते? गोयमा! दरिसणावरणिजस्स णं कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पोग्गलपरिणामं पप्प णवविहे अणुभावे पण्णत्ते। तं जहा-णिद्दा १ णिहाणिद्दा २ पयला ३ पयलापयला ४ थीणगिद्दी ५ चक्खुदंसंणावरणे ६ अचक्खुदंसणावरणे ७ ओहिदंसणावरणे ८ केवलदसणावरणे ९। जं वेदेइ पोग्गलं वा पोग्गले वा पोग्गलपरिणामं वा वीससा वा पोग्गलाणं परिणाम, तेसिं वा उदएणं पासियव्वं ण पासइ, पासिउकामे विण पासइ, पासित्ता वि ण पासइ, उच्छन्नदसणी यावि, भवइ, दरिसणावरणिजस्स कम्मस्स उदएणं। एस णं गोयमा! दरिसणावरणिजे कम्मे। एस णं गोयमा! दरिसणावरणिजस्स कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पोग्गलपरिणामं पप्प णवविहे अणुभावे पण्णत्ते २। [१६८० प्र.] भगवन् ! जीव के द्वारा बद्ध यावत् पुद्गल-परिणाम को प्राप्त करके दर्शनावरणीय कर्म का कितने प्रकार का अनुभाव कहा गया है ? । [१६८० उ.] गौतम! जीव के द्वारा बद्ध यावत् पुद्गल-परिणाम को प्राप्त दर्शनावरणीय कर्म का नौ प्रकार का अनुभाव कहा गया है, यथा -१. निद्रा, २. निद्रा-निद्रा, ३. प्रचला, ४. प्रचला-प्रचला तथा ५. स्त्यानर्द्धि एवं ६. चक्षुदर्शनावरण, ७. अचक्षुदर्शनावरण, ८. अवधिदर्शनावरण और ९. केवलदर्शनावरण । दर्शनावरण के उदय से जो पुद्गल या पुद्गलों को अथवा पुद्गल-परिणाम को या स्वभाव से पुद्गलों के परिणाम को वेदता है, अथवा उनके उदय से देखने योग्य को नहीं देखता, देखना चाहते हुए भी नहीं देखता, देखकर भी नहीं देखता अथवा तिरोहित दर्शन वाला भी हो जाता है। गौतम ! यह है दर्शनावरणीय कर्म। हे गौतम! जीव के द्वारा बद्ध यावत् पुद्गल-परिणाम को पाकर दर्शनावरणीय कर्म का नौ प्रकार का अनुभाव कहा गया है ॥२॥ १६८१.[१] सायावेदणिजस्स णं भंते! कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पोग्गलपरिणामं पप्प कतिविहे अणुभावे पण्णत्ते? गोयमा! सायावेदणिजस्स णं कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव अट्ठविहे अणुभावे पण्णत्ते। तं जहामणुण्णा सद्दा १ मणुण्णा रूवा २ मणुण्णा गंधा ३ मणुण्णा रसा ४ मणुण्णा फासा ५ मणोसुहता ६ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रज्ञापनासूत्र ] [१५ वइसुहया ७ कायसुहया ८ । जं वेएइ पोग्गलं वा पोग्गले वा पोग्गलपरिणामं वा वीससा वा पोग्गलाणं परिणामं, तेसिं वा उदएणं सायावेदणिज्जं कम्मं वेदेइ । एस णं गोयमा ! सायावेदणिज्जे कम्मे । एस णं गोयमा ! सायावेयणिज्जस्स जाव अट्ठविहे अणुभावे पण्णत्ते । [१६८१-१ प्र.] भगवन्! जीव के द्वारा बद्ध यावत् पुद्गल-परिणाम को पाकर सातावेदनीय-कर्म का कि प्रकार का अनुभाव कहा गया है ? [१६८१ - १ उ.] गौतम! जीव के द्वारा बद्ध सातावेदनीय कर्म का यावत् आठ प्रकार का अनुभाव कहा गया है, यथा - १. मनोज्ञशब्द, २. मनोज्ञारूप, ३. मनोज्ञगन्ध, ४. मनोज्ञरस, ५. मनोज्ञस्पर्श, ६. मन का सौख्य, ७. वचन का सौख्य और ८. काया का सौख्य । जिस पुद्गल का अथवा पुद्गलों का अथवा पुद्गल - परिणाम का या स्वभाव से पुद्गलों के परिणाम का वेदन किया जाता है, अथवा उनके उदय से सातावेदनीयकर्म को वेदा जाता है । गौतम ! यह है सातावेदनीयकर्म और हे गौतम! यह (जीव के द्वारा बद्ध) सातावेदनीयकर्म का यावत् आठ प्रकार का अनुभाव कहा गया है। [२] असातावेयणिज्जस्स णं भंते! कम्मस्स जीवेणं० तहेव पुच्छा उत्तरं च । नवरं अमणुण्णा सद्दा जाव कायदुहया। एस णं गोयमा ! असायावेदणिजस्स जाव अट्ठविहे अणुभावे पण्णत्ते ३ । [१६८१ १-२ प्र.] भगवन्! जीव के द्वारा बद्ध यावत असातावेदनीयकर्म का कितने प्रकार का अनुभाव कहा गया है ? इत्यादि प्रश्न पूर्ववत् । [१६८१ १-२ उ.] इसका उत्तर भी पूर्ववत् (सातावेदनीयकर्मसम्बन्धी कथन के समान) जानना किन्तु (अष्टविध अनुभाव के नामोल्लेख में) 'मनोज्ञ' के बदले सर्वत्र 'अमनोज्ञ' (तथा सुख के स्थान पर सर्वत्र दुःख) यावत् काया क दुःख जानना । हे गौतम! इस प्रकार असातावेदनीयकर्म का यह अष्टविध अनुभाव कहा गया है ॥ ३ ॥ १६८२. मोहणिज्जस्स णं भंते! कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव कतिविहे अणुभावे पण्णत्ते ? गोयमा ! मोहणिज्जस्स णं कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पंचविहे अणुभावे पण्णत्ते । तं जहासम्मत्तवेयणिजे १ मिच्छत्तवेयणिज्जे २ सम्मामिच्छत्तवेयणिज्जे ३ कसायवेयणिज्जे ४ णोकसायवेयणिजं ५। जं वेदेइ पोग्गलं वा पोग्गले वा पोग्गलपरिणामं वा वीससा वा पोग्गलाणं परिणामं, तेसिं वा उद मोहणिज्जं कम्मं वेदे । एस णं गोयमा ! मोहणिजे कम्मे । एस णं गोयमा ! मोहणिज्जस्स कम्मस्स जा पंचविहे अणुभावे पण्णत्ते । [१६८२ प्र.] भगवन्! जीव के द्वारा बद्ध... .. यावत् मोहनीयकर्म का कितने प्रकार का अनुभाव कहा गया है [१६८२ उ.] गौतम ! जीव के द्वारा बद्ध यावत् मोहनीयकर्म का पाँच प्रकार का अनुभाव कहा गया है। यथा१. सम्यक्त्व - वेदनीय, २. मिथ्यात्व - वेदनीय, ३. सम्यग् - मिथ्यात्व - वेदनीय, ४. कषाय - वेदनीय और ५. ने कषाय- वेदनीय । जिस पुद्गल का अथवा पुद्गलों का या पुद्गल परिणाम का या स्वभाव से पुद्गलों के परिणाम का अथ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६] [ तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद] उनके उदय से मोहनीयकर्म का वेदन किया जाता है। गौतम! यह है- मोहनीयकर्म और हे गौतम! यह मोहनीयकर्म का यावत् पंचविध अनुभाव कहा गया है ॥ ४॥ १६८३. आउअस्स णं भत्ते! कम्मस्स जीवेणं० तहेव पुच्छा। गोयमा! आउअस्स णं कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव चउव्विहे अणुभावे पण्णत्ते। तं जहा–णेरइयाउए १ तिरियाउए २ मणुयाउए ३ देवाउए ४। जं वेएइ पोग्गलं वा पोग्गले वा पोग्गलपरिणाम वा वीससा वा पोग्गलाणं परिणाम, तेसिं वा उदएणं आउयं कम्मं वेदेइ । एस णं गोयमा! आउए कम्मे। एस णं गोयमा! आउअस्स कम्मस्स जाव चउव्विहे पण्णत्ते ५। [१६८३ प्र.] भगवन् ! जीव के द्वारा बद्ध......यावत् आयुष्यकर्म का कितने प्रकार का अनुभाव कहा गया है? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न। . [१६८३ उ.] गौतम! जीव के द्वारा बद्ध यावत् आयुष्यकर्म का चार प्रकार का अनुभाव कहा गया है, यथा१. नारकायु, २. तिर्यंचायु, ३. मनुष्यायु और ४. देवायु। जिस पुद्गल अथवा पुद्गलों का, पुद्गल-परिणाम का अथवा स्वभाव से पुद्गलों के परिणाम का या उनके उदय से आयुष्यकर्म का वेदन किया जाता है, गौतम! यह है- आयुष्यकर्म और यह आयुष्यकर्म का यावत् चार प्रकार का अनुभाव कहा गया है ॥५॥ १६८४. [१] सुभणामस्स णं भंते! कम्मस्स जीवेणं० पुच्छा। गोयमा! सुभणामस्स णं कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव चोद्दसविहे अणुभावे पण्णत्ते । तं जहां – इट्ठा सद्दा १ इट्ठा रूवा २ इट्ठा गंधा ३ इट्ठा रसा ४ इट्ठा फासा ५ इट्ठा गती ६ इट्ठा ठिती ७ इट्टे लावणे ८ इट्ठा जसोकित्ती ९ इट्टे उट्ठाण-कम्म-बल-विरिय-पुरिसक्कार-परक्कमे १० इट्ठस्सरया ११ कंतस्सरया १२ पियस्सरया १३ मणुण्णस्सरया १४। तं वेएइ पोग्गलं वा पोग्गले वा पोग्गल-परिणाम वा वीससा वा पोग्गलाणं परिणाम, तेसिं वा उदएणं सुभणामं कम्मं वेदेइ। एस णं गोयमा! सुभनामे कम्मे। एस णं गोयमा! सुभणामस्स कम्मस्स जाव चोद्दसविहे अणुभावे पण्णत्ते। । [१६८४-१ प्र.] भगवन् ! जीव के द्वारा बद्ध यावत् शुभ नामकर्म का कितने प्रकार का अनुभाव कहा गया है ? इत्यादि प्रश्न। [१६८४-१ उ.] गौतम! जीव के द्वारा बद्ध यावत् शुभ नामकर्म का चौदह प्रकार अनुभाव कहा गया है। यथा - (१) इष्ट शब्द, (२) इष्ट रूप, (३) इष्ट गन्ध, (४) इष्ट रस, (५) इष्ट स्पर्श, (६) इष्ट गति, (७) इष्ट स्थिति, (८) इष्ट लावण्य, (९) इष्ट यशोकीर्ति, (१०) इष्ट उत्थान कर्म-बल-वीर्य-पुरुषकार-पराक्रम, (११) इष्ट-स्वरता, (१२) कान्त-स्वरता, (१३) प्रिय-स्वरता और (१४) मनोज्ञ-स्वरता। . जो पुद्गल अथवा पुद्गलों का या पुद्गल-परिणाम का अथवा स्वभाव से पुद्गलों के परिणाम का वेदन किया जाता है अथवा उनके उदय से शुभनामकर्म को वेदा जाता है, गौतम! यह है शुभनामकर्म तथा गौतम! यह Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१७ [प्रज्ञापनासूत्र] शुभनामकर्म का यावत् चौदह प्रकार का अनुभाव कहा गया है। [२] दुहणामस्स णं भंते! ० पुच्छा। गोयमा! एवं चेव। णवरं अणिट्ठा सहा १ जाव हीणस्सरया ११ दीणस्सरया १२ अणिट्ठस्सरया १३ अकंतस्सरया १४। चं वेदेड सेसं तं चेव जाव चोहसविहे अणुभावे पण्णत्ते ६। [१६८४-२ प्र.] भगवन्! अशुभनामकर्म का जीव के द्वारा बद्ध यावत् कितने प्रकार का अनुभाव कहा गया है ? इत्यादि पृच्छा। __ [१६८४-२ उ.] गौतम! पूर्ववत् अशुभनामकर्म का अनुभाव भी चौदह प्रकार का कहा गया है, (किन्तु वह है इससे विपरीत), यथा-अनिष्ट शब्द आदि यावत् (११) हीन-स्वरता (१२) दीन-स्वरता, (१३) अनिष्ट-स्वरता और (१४) अकान्त-स्वरता। जो पुद्गल आदि का वेदन किया जाता है यावत् अथवा उनके उदय से दुःख (अशुभ) नामकर्म को वेदा जाता है। शेष सब पूर्ववत्, यावत् चौदह प्रकार का अनुभाव कहा गया है॥६॥ ___१६८५. [१] उच्चागोयस्स णं भंते ! कम्मस्स जीवेणं ० पुच्छा। गोयमा ! उच्चागोयस्स णं कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव अट्ठविहे अणुभावे पण्णत्ते। तं जहा - जातिविसिट्ठया १ कुलविसिट्ठया २ बलविसिट्ठया 3 रूवविसिट्ठया ४ तवविसिट्ठया ५ सुयविसिट्ठया ६ लाभविसिट्ठया ७ इस्सरियविसिट्ठया ८ । जं वेदेइ पोग्गलं वा पोग्गले वा पोग्गल - परिणामं वा वीससा वा पोग्गलाणं परिणाम, तेसिं वा उदएणं जाव अट्टविहे अणुभावे पण्णत्ते। [१६८५-१ प्र.] भगवन् ! जीव के द्वारा बद्ध यावत् उच्चगोत्रकर्म का कितने प्रकार का अनुभाव कहा गया है? इत्यादि पूर्ववत् प्रशन। _[१६८५- १ उ.] गौतम ! जीव के द्वारा बद्ध यावत् उच्चगोत्रकर्म का आठ प्रकार का अनुभाव कहा गया है, यथा – (१) जाति- विशिष्टता, (२) कुल-विशिष्टता, (३) बल - विशिष्टता, (४) रूप -विशिष्टता , (५) तप - विशिष्टता, (६) श्रुत -विशिष्टता, (७) लाभ - विशिष्टता और (८) ऐश्वर्य - विशिष्टता। जो पुद्गल अथवा पुद्गलों का, पुद्गल - परिणाम का या स्वभाव से पुद्गलों के परिणाम का वेदन किया जाता है अथवा उनके उदय से उच्चगोत्रकर्म को वेदा जाता है , यावत् यही उच्चगोत्रकर्म है , जिसका उपर्युक्त आठ प्रकार का अनुभाव कहा गया है। [२] णीयगोयस्स णं भंते! ० पुच्छा। ___ गोयमा ! एवं चेव। णवरं जातिविहीणया १ जाव इस्सरियविहीणया ८। जं वेदेइ पोग्गलं वा पोग्गले वा पोग्गलपरिणामं वा वीससा वा पोग्गलाणं परिणाम, तेसि वा उदएणं जाव अट्ठविहे अणुभावे पण्णत्ते ७। [१६८५-२ प्र.] भगवन् ! जीव के द्वारा बद्ध यावत् नीचगोत्रकर्म का कितने प्रकार का अनुभाव कहा गया. है ? इत्यादि पृच्छा। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८] [ तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद ] यथा [ १६८५-२ उ.] गौतम ! पूर्ववत् ( नीचगोत्र का अनुभाव भी उतने ही प्रकार का है, परन्तु वह विपरीत है ) जातित्रिहीनता यावत् ऐश्वर्यविहीनता। पुद्गलों का, अथवा पुद्गल परिणाम का जो वेदन किया जाता है अथवा उन्हीं के उदय से नीचगोत्रकर्म का वेदन किया जाता है। ॥ ७ ॥ - १६८६. अंतराइस्स णं भंते ! कम्मस्स जीवेणं ० पुच्छा । गोयमा ! अंतराइयस्स णं कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पंचविहे अणुभावे पण्णत्ते । तं जहा दाणंतराए १ लाभंतराए २ भोगंतराए ३ उवभोगंतराए ४ वीरियंतराए ५ । जं वेदेइ पोग्गलं वा पोग्गले वा जाव वीससा वा पोग्गलाणं परिणामं वा, तेसि वा उदएणं अंतराइयं कम्मं वेदेति । एस णं गोयमा ! अंतराइए कम्मे । एस णं गोयमा ! जाव पंचविहे अणुभावे पण्णत्ते ८ । [१६८६ प्र.] भगवन् ! जीव के द्वारा बद्ध यावत् अन्तरायकर्म का कितने प्रकार का अनुभाव कहा गया है ? इत्यादि पूर्ववत् पृच्छा। [ १६८६ उ.] गौतम ! जीव के द्वारा बद्ध यावत् अन्तरायकर्म का पांच प्रकार का अनुभाव कहा गया है, यथा— (१) दानान्तराय, (२) लाभान्तराय, (३) भोगान्तराय, (४) उपभोगान्तराय, और (५) वीर्यान्तराय । पुद्गल का या पुद्गलों का अथवा पुद्गल - परिणाम का या स्वभाव से पुद्गलों के परिणाम का जो वेदन किया जाता है अथवा उनके उदय से जो अन्तरायकर्म को वेदा जाता है। यही है गौतम ! वह अन्तरायकर्म, जिसका हे गौतम ? पांच प्रकार का अनुभाव कहा गया है ॥ ८ ॥ - `बद्ध-राग-द्वेष-परिणामों के वशीभूत होकर बांधा अर्थात् आत्म-प्रदेशों के साथ सम्बन्ध को प्राप्त । ॥ तकम्म पगडिपदे पढमो उद्देसओ समत्तो ॥ विवेचन बद्ध, पुट्ठ आदि पदों के विशेषार्थ गया, अर्थात् – कर्मरूप में परिणत किया गया। पुट्ठ-स्पृष्ट बद्धफासपुट्ठ-बद्ध-स्पर्श-स्पृष्ट- पुनः प्रगाढ़रूप में बद्ध तथा अत्यन्त स्पर्श से स्पृष्ट, अर्थात् आवेष्टन, परिवेष्टनरूप से अत्यन्त गाढतर बद्ध। संचित – जो संचित है, अर्थात् - अबाधाकाल के पश्चात् वेदन के योग्य रूप में निषिक्त किया गया है। चित जो चय को प्राप्त हुआ है, अर्थात् उत्तरोत्तर स्थितियों में प्रदेशहानि और रसवृद्धि करके स्थापित किया गया है। उपचित- अर्थात् जो समानजातीय अन्य प्रकृतियों के दलिको में संक्रमण करके उपचय को प्राप्त है। विवागपत्त – जो विपाक को प्राप्त हुआ है अर्थात् विशेष फल देने को अभिमुख हुआ है। आवागपत्त - आपाकप्राप्त, अर्थात् जो थोड़ा सा फल देने को अभिमुख हुआ है। फलपत्त फलप्राप्त अर्थात् अतएव जो फल - उदय प्राप्त जो सामग्री वशात् उदय को प्राप्त हुआ है। जीवेणं कडस्स कर्मबन्धन बद्धजीव के द्वारा कृत । आशय यह है कि जीव उपयोग स्वभाव वाला होने से रागादि परिणाम से युक्त होता है, अन्य नहीं । रागादि परिणाम से युक्त होकर वह कर्मोपार्जन करता है तथा रागादि परिणाम भी कर्मबन्धन से बद्ध जीव के ही होता है, कर्मबन्धनमुक्त सिद्धजीव के नहीं । अतः जीव के द्वारा कृत का भावार्थ है - कर्मबन्धन से बद्ध जीव के द्वारा उपार्जित । कहा भी है। देने को अभिमुख हुआ है। उदयपत्तजीव के 1 - - - Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रज्ञापनासूत्र ] 'जीवस्तु कर्मबन्धन - बद्धो, वीरस्य भगवतः कर्त्ता । सन्तत्याऽनाद्यं च तदिष्टं कर्मात्मनः कर्तुः ॥ अर्थात् - भगवान महावीर के मत में कर्मबन्धन से बद्ध जीव ही कर्मों का कर्त्ता माना गया है। प्रवाह की अपेक्षा से कर्मबन्धन अनादिकालिक है। अतएव अनादिकालिक कर्मबन्धनबद्ध जीव (आत्मा) ही कर्मों का कर्ता अभीष्ट है। जीवेणं णिव्वत्तियस्स - जीव के द्वारा निष्पादित, अर्थात् जो ज्ञानावरणीय आदि कर्म जीव के द्वारा ज्ञानावरणीय आदि के रूप में व्यवस्थापित किया गया है। आशय यह है कि कर्मबन्ध के समय जीव सर्वप्रथम कर्मवर्गणा के साधारण (अविशिष्ट)पुद्गलों को ही ग्रहण करता है अर्थात् उस समय ज्ञानावरणीय आदि भेद नहीं होता। तत्पश्चात् अनाभोगिक वीर्य के द्वारा उसी कर्मबन्धन के समय ज्ञानावरणीय आदि विशेषरूप में परिणत – व्यवस्थापित करता है, जैसे • आहार को रसादिरूप धातुओं के रूप में परिणत किया जाता है, इसी प्रकार साधारण कर्मवर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके ज्ञानावरणीय आदि विशिष्ट रूपों में परिणत करना निर्वतन कहलाता है। - जीवेणं परिणामियस्स - जीव के द्वारा परिणामित, अर्थात् ज्ञान- प्रद्वेष, ज्ञान-निह्नव आदि विशिष्ट कारणों उत्तरोत्तर परिणाम को प्राप्त किया गया। सयं या उदिण्णस्स • जो ज्ञानावरणीय आदि कर्म स्वतः ही उदय को प्राप्त हुआ है, अर्थात् – परनिरपेक्ष होकर स्वयं ही विपाक को प्राप्त हुआ है। परेण वा उदीरियस्स – अथवा दूसरे के द्वारा उदीरित किया गया है, अर्थात् • उदय को प्राप्त कराया गया है। तदुभएण वा उदीरिज्जमाणस्स जो (ज्ञानावरणीयादि) कर्म स्व और पर के द्वारा उदय को प्राप्त किया जा रहा 1 अथवा [१९ - - — स्वनिमित्त से उदय को प्राप्त गतिं पप्प - गति को प्राप्त करके, अर्थात् कोई कर्म किसी गति को प्राप्त करके तीव्र अनुभाव वाला हो जाता है, जैसे असातावेदनीय कर्म नरकगति को प्राप्त करके तीव्र अनुभाव वाला हो जाता है। नैरयिकों के लिए असातावेदनीय कर्म जितना तीव्र होता है, उतना तिर्यञ्चों आदि के लिए नहीं होता । ठितं पप्प - स्थिति को प्राप्त अर्थात् - सर्वोत्कृष्ट स्थिति को प्राप्त अशुभकर्म मिथ्यात्व के समान तीव्र अनुभाव वाला होता है । भवं पप्प 1 भव को प्राप्त करके । आशय यह है कि कोई कोई कर्म किसी भवविशेष को पाकर अपना विपाक विशेष रूप से प्रकट करता है। जैसे मनुष्यभव या तिर्यञ्चभव को पाकर निद्रारूप दर्शनावरणीय कर्म अपना विशिष्ट अनुभाव प्रकट करता है । तात्पर्य यह है ज्ञानावरणयीय आदि कर्म उस उस गति, स्थिति या भव को प्राप्त के स्वयं उदय को प्राप्त (फलाभिमुख ) होता है। 1 परनिमित्त से उदय को प्राप्त - पोग्गलं पप्प - पुद्गल को प्राप्त करके । अर्थात् काष्ठ, ढेला या तलवार आदि पुद्गलों को प्राप्त करके अथवा किसी कि द्वारा फेंके हुए काष्ठ, ढेला, पत्थर, खड्ग आदि के योग से भी असातावेदनीय आदि कर्म का या क्रोधादिरूप कषायमोहनीयकर्म आदि का उदय हो जाता है। पोग्गलपरिणामं पप्प • पुद्गल परिणाम को प्राप्त करके, अर्थात् पुद्गल परिणाम के योग से भी कोई कर्म उदय में आ जाता है, जैसे- मदिरापान के परिणामस्वरूप ज्ञानावरणीयकर्म का अथवा भक्षित आहार के न पचने से असातावेदनीयकर्म का उदय हो जाता है । - १. प्रज्ञापनासूत्र प्रमेयबोधिनी टीका भाग. ५, पृ. १८१ से १८४ तक Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०] [ तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद ] प्रश्न का निष्कर्ष – सू. १६७९ के प्रश्न का निष्कर्ष यह है कि जो ज्ञानावरणीयकर्म बद्ध, स्पृष्ट आदि विभिन्न प्रकार के निमित्तों का योग पाकर उदय में आया है, उसका अनुभाव (विपाकफल) कितने प्रकार का है ?" ज्ञानावरणीयकर्म का दस प्रकार का अनुभाव : क्या, क्यों, और कैसे ? मूलपाठ में ज्ञानावरणीयकर्म का श्रोत्रावरण आदि दस प्रकार का अनुभाव बताया है। श्रोत्रावरण का अर्थ है- श्रोत्रेन्द्रिय विषयक क्षयोपशम (लब्धि) का आवरण । इसी प्रकार प्रत्येक इन्द्रिय के लब्धि (क्षयोपशम) और उपयोग का आवरण समझ लेना चाहिए । इनमें से एकेन्द्रिय जीवों का प्रायः श्रोत्र, नेत्र, घ्राण और रसना-विषयक लब्धि और उपयोग का आवरण होता है । द्वीन्द्रिय जीवों को श्रोत, नेत्र और घ्राण-सम्बन्धी लब्धि और उपयोग का आवरण होता है। त्रीन्द्रिय जीवों को श्रोत्र और नेत्र विषयक लब्धि और उपयोग का आवरण होता है। चतुरिन्द्रिय जीवों को श्रोत्र विषयक लब्धि और उपयोग का आवरण होता है। जिनका शरीर कुष्ठ आदि रोग से अपहत हो गया हो, उन्हें स्पर्शेन्द्रिय सम्बन्धी लब्धि और उपयोग का आवरण होता है। जो जन्म से अंधे, बहरे, गूंगे आदि हैं या बाद में हो गए हैं, उन्हें नेत्र, श्रोत्र आदि इन्द्रियों सम्बन्धी लब्धि और उपयोग का आवरण समझ लेना चाहिए। इन्द्रियों की लब्धि और उपयोग का आवरण स्वयं ही उदय को प्राप्त या दूसरे के द्वारा उदीरित ज्ञानावरणीयकर्म उदय से होता है। इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए शास्त्रकार कहते हैं - जं वेदेइ पोग्गलं वा इत्यादि, अर्थात् - दूसरे के द्वारा फेंके गए या प्रहार करने में समर्थ काष्ठ, खड्ग आदि पुद्गल अथवा बहुत से पुद्गलों से, जो कि ज्ञान परिणति का उपघात आघात होता है अथवा जिस भक्षित आहर या सेवित पेय का परिणाम अतिदुःखजनक होता है, उससे भी ज्ञान परिणति का उपघात होता है अथवा स्वभाव से शीत, उष्ण, धूप आदिरूप पुद्गल परिणाम का ज वेदन किया जाता है, जिसके कारण जीव इन्द्रिय-गोचर ज्ञातव्य वस्तु को नहीं जान पाता। यहाँ तक ज्ञानावरणकर्म का सापेक्ष उदय बताया गया है। - इसके पश्चात् शास्त्रकार निरपेक्ष उदय भी बताते हैं – ज्ञानावरणीय कर्म पुद्गलों के उदय से जीव अपने जानने योग्य (ज्ञातव्य) का ज्ञान नहीं कर पाता, जानने की इच्छा होने पर भी जानने में समर्थ नहीं होता अथवा पहले जान कर भी पश्चात् ज्ञानावरणीयकर्म के उदय से नहीं जान पाता, अथवा ज्ञानावरणीयकर्म के उदय से जीव का ज्ञान तिरोहित (लुप्त हो जाता है। यही ज्ञानावरणीयकर्म का स्वरूप है। दर्शनावरणीयकर्म का नवविध अनुभाव: कारण, प्रकार और उदय दर्शनावरणीयकर्म के अनुभाव के कारण वे ही बद्ध, स्पृष्ट आदि हैं, जो ज्ञानावरणीयकर्म के अनुभाव के लिए बताये हैं। वे अनुभाव नौ प्रकार के हैं, जिनमें निद्रादि का स्वरूप दो गाथाओं में इस प्रकार बताया गया है। - सुह-पडिबोहा णिद्दा, णिद्दाणिद्दा य दुक्खपडिबोहा । पयला होइ ठियस्स उ, पयल - पयला य चंकमतो ॥ १ ॥ १. पण्णवणासुतं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. १. पृ. ३६५ २. प्रज्ञापनासूत्र प्रमेयबोधिनी टीका भाग ५, पृ. १८५-१८६ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रज्ञापनासूत्र ] थी गिद्धी पुण अइकिलिट्ठ-कम्माणुवेयणे होई । महणिद्दा दिण - चिंतिय-वावार-पसाहणी पायं ॥ २ ॥ अर्थात् - जिस निद्रा से सरलतापूर्वक जागा जा सके, वह निद्रा है। जो निद्रा बडी कठिनाई से भंग हो, ऐसी गाढी नींद को निद्रानिद्रा कहते हैं। बैठे-बैठे आने वाली निद्रा प्रचला कहलती है तथा चलते-फिरते आने वाली निद्रा प्रचला-प्रचला है। अत्यन्त संक्लिष्ट कर्मपरमाणुओं का वेदन होने पर आने वाली निद्रा स्त्यानर्द्धि या स्त्यानगृद्धि कहलाती है । इस महानिद्रा में जीव अपनी शक्ति से अनेकगुणी अधिक शक्ति पाकर प्रायः दिन में सोचे हुए असाधारण कार्य कर डालता है। सामान्य चक्षुदर्शनावरण आदि का स्वरूप चक्षुदर्शनावरण नेत्र के द्वारा होने वाले दर्शन उपयोग का आवृत हो जाना। अचक्षुदर्शनावरण - नेत्र के अतिरिक्त अन्य इन्द्रियों से होने वाले सामान्य उपयोग का आवृत होना । अवधिदर्शनावरण अवधिदर्शन का आवृत हो जाना। केवलदर्शनावरण - केवलदर्शन को उत्पन्न न होने देना । - [२१ - - दर्शनावरणीयकर्मोदय का प्रभाव ज्ञानावरणीयकर्म की तरह दर्शनावरणीयकर्म में भी स्वयं उदय को प्राप्त अथवा दूसरे के द्वारा उदीरित दर्शनावरणीयकर्म के उदय से इन्द्रियों के लब्धि और उपयोग का आवरण हो जाता है। पूर्ववत् दर्शन परिणाम का उपघात होता है, जिसके कारण जीव द्रष्टव्य- देखने योग्य इन्द्रियगोचर वस्तु को भी नहीं देख पाता, इत्यादि दर्शनावरणीयकर्म के उदय से पूर्ववत् दर्शनगुण की विविध प्रकार से क्षति हो जाती है। सातावेदनीय और असातावेदनीयकर्म का अष्टविध अनुभाव: कारण, प्रकार और उदय - - सातावेदनीय और असातावेदनीय दोनों प्रकार के वेदनीयकर्मों के आठ-आठ प्रकार के अनुभाव बताए गए हैं। इन अनुभावों के कारण तो वे ही ज्ञानावरणीयकर्म सम्बन्धी अनुभाव के समान हैं। सातावेदनीय के अष्टविध अनुभावों का स्वरूप (१) मनोज्ञ वेणु, वीणा आदि के शब्दों की प्राप्ति, (२) मनोज्ञ रूपों की प्राप्ति, (३) मनोज्ञ इत्र, चन्दन, फूल आदि सुगन्धों की प्राप्ति, (४) मनोज्ञ सुस्वादु रसों की प्राप्ति, (५) मनोज्ञ स्पर्शो की प्राप्ति, (६) मन में सुख का अनुभव, (७) वचन में सुखीपन, जिसका वचन सुनने मात्र से कर्ण और मन में आह्लाद उत्पन्न करने वाला हो और (८) काया का सुखीपन । सातावेदनीय कर्म के उदय से आठ प्रकार के अनुभाव होते हैं। — परनिमित्तक सातावेदनीयकर्मोदय • जिन माला, चन्दन आदि एक या अनेक पुद्ग़लों का आसेवन किया (वेदा) जाता है अथवा देश, काल, वय एवं अवस्था के अनुरूप आहारपरिणतिरूप पुद्गलं परिणाम वेदा जाता है अथवा स्वभाव से पुद्गलों के शीत, उष्ण, आतप आदि की वेदना के प्रतीकार के लिए यथावसर अभीष्ट पुद्गलपरिणाम का सेवन किया (वेदा) जाता है, जिससे मन को समाधि - प्रसन्नता प्राप्त होती है । यह परनिमित्तक सातावेदनीयकर्मों के उदय से सातावेदनीयकर्म का अनुभाव है । सातावेदनीयकर्म के फलस्वरूप साता-सुख का संवेदन (अनुभव) होता है । सातावेदनीयकर्म के स्वतः उदय होने पर कभी कभी मनोज्ञ शब्दादि (परनिमित्त) के १. प्रज्ञापनासूत्र प्रमेयबोधिनी टीका भा. ५, पृ. १८९ से १९१ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२] [ तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद] बिना भी सुखसाता का संवेदन होता है। जैसे – तीर्थकर भगवान् का जन्म होने पर नारक जीव भी किंचित् काल पर्यन्त सुख का वेदन (अनुभव) करते हैं। ___ असातावेदनीयकर्म का अष्टविध अनुभाव - सातावेदनीय के अनुभाव (विपाक) के समान है। पर यह अनुभाव सातावेदनीय से विपरीत है। विष, शस्त्र, कण्टक, आदि पुद्गल या पुद्गलों का जब वेदन किया जाता है अथवा अपथ्य या नीरस आहारादि पुद्गल-परिणाम का वेदन किया जाता है, तब मन की असमाधि होती है, शरीर को भी दुःखानुभव होता है तथा तदनुरूप वाणी से भी असाता के उद्गार निकलते हैं। ऐसा अनुभाव असातावेदनीय का है। असातावेदनीयकर्म के उदय से असातारूप (दुःखरूप) फल प्राप्त होता है। यह परतः असातावेदनीयोदय का प्रतिपादन है। किन्तु बिना ही किसी परनिमित्त के असातावेदनीयकर्म-पुद्गलों के उदय से जो दुःखानुभव (दुःखवेदन) होता है, वह स्वतः असातावेदनीयोदय है। मोहनीयकर्म का पंचविध अनुभाव : क्या, क्यों और कैसे? - पूर्वोक्त प्रकार से जीव के द्वारा बद्ध आदि विशिष्ट मोहनीयकर्म का पांच प्रकार का अनुभाव है – (१) सम्यक्त्ववेदनीय, (२) मिथ्यात्ववेदनीय, (३) सम्यग्- मिथ्यात्ववेदनीय, (४) कषायवेदनीय और (५) नोकषायवेदनीय। इनका स्वरूप क्रमशः इस प्रकार है - ___ सम्यक्त्ववेदनीय - जो मोहनीयकर्म सम्यक्त्व-प्रकृति के रूप में वेदन करने योग्य होता है, उसे सम्यक्त्ववेदनीय कहते है, अर्थात् - जिसका वेदन होने पर प्रशम आदि परिणाम उत्पन्न होता है, वह सम्यक्त्ववेदनीय है। मिथ्यात्ववेदनीयजो मोहनीयकर्म मिथ्यात्व के रूप में वेदन करने योग्य है, उसे मिथ्यात्ववेदनीय कहते हैं । अर्थात् जिसका वेदन होने पर दृष्टि मिथ्या हो जाती है, अर्थात् अदेव आदि में देव आदि की बुद्धि उत्पन्न होती है, वह मिथ्यात्ववेदनीय है। सम्यक्त्वमिथ्यात्ववेदनीय - जिसका वेदन होने पर सम्यक्त्व और मिथ्यात्वरूप मिला जुला परिणाम उत्पन्न होता है, वह सम्यक्त्वमिथ्यात्ववेदनीय है। कषायवेदनीय - जिसका वेदन क्रोधादि परिणामों का कारण होता है, वह कषायवेदनीय है। नोकषायवेदनीय – जिसका वेदन हास्य आदि का कारण हो, वह नोकषायवेदनीय है। ___परतः मोहनीय-कर्मोदय का प्रतिपादन – जिस पुद्गल विषय अथवा जिन बहुत से पुद्गल विषयों - का वेदन किया जाता है । अथवा जिस पुद्गल परिणाम को, जो कर्म पुद्गल विशेष को ग्रहण करने में समर्थ हो एवं देश काल के अनुरूप आहार परिणामरूप हो, वेदन किया जाता है। जैसे कि ब्राह्मी आदि के आहार-परिणमन से ज्ञानावरणीयकर्म का क्षयोपशम देखा जाता है। इससे स्पष्ट है कि आहार के परिणामन विशेष से भी कभी कभी कर्मपुद्गलों में विशेषता आ जाती है। कहा भी है उदय-क्खय-खओवसमोवसमा वि य जंच कम्मुणो भणिया। दव्वं खेत्तं कालं भावं च भवं च संपप्प ॥ १ ॥ अर्थात् - कर्मों के जो उदय, क्षय, क्षयोपशम और उपशम कहे गये हैं, वे भी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव का निमित्त पाकर होते हैं, अथवा स्वभाव से ही जिस पुद्गल परिणाम का वेदन किया जाता है, जैसे - आकाश में १. प्रज्ञापनासूत्र प्रमेयबोधिनी टीका भा. ५, पृ. २०४ - २०५ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रज्ञापनासूत्र | [२३ बादलों आदि के विकार को देखकर मनुष्यों को ऐसा वेदन (विवेक) उत्पन्न होता है कि मनुष्यों की आयु शरदऋतु के मेघों के समान है, सम्पत्ति पुष्पित वृक्ष के सार के समान है और विषयोपभोग स्वप्न में दृष्ट वस्तुओं के उपभोग के समान है। वस्तुत: इस जगत में जो भी रमणीय प्रतीत होता है, वह केवल कल्पनामात्र ही है अथवा प्रशम आदि कारणभूत जिस पर किसी बाह्य पदार्थ के प्रभाव से सम्यक्त्वमोहनीय आदि मोहनीयकर्म का वेदन किया जाता है, यह परतः मोहनीयकर्मोदय का प्रतिपादन है। स्वतः मोहनीयकर्मोदय-प्रतिपादन जो सम्यक्त्ववेदनीय आदि कर्मपुद्गलों के उदय से मोहनीय कर्म का वेदन (प्रशमादिरूपफल का वेदन) किया जाता है, वह स्वतः मोहनीयकर्मोदय है । आयुकर्म का अनुभाव चार प्रकार से होता है - आयुकर्म का अनुभाव : प्रकार, स्वरूप, कारण नारकायु, तिर्यञ्चायु, मनुष्यायु और देवायु । परतः आयुकर्म का उदय आयु का अपवर्तन (ह्रास) करने में समर्थ जिस या जिन शस्त्र आदि पुद्गल या पुद्गलो का वेदन किया जाता है अथवा विष एवं अन्न आदि परिणामरूप पुद्गल परिणाम का वेदन किया जाता है अथवा स्वभाव से आयु का अपवर्तन करने वाले शीत उष्णादिरूप पुद्गल परिणाम का वेदन किया जाता है, उससे भुज्यमान आयु का अपवर्तन होता है। यह है आयुकर्म के परतः उदय का निरूपण । स्वतः आयु कर्म का उदय - नरकायुकर्म आदि के पुद्गलों के उदय से जो नरकायु आदि कर्म का वेदन किया जाता है; वह स्वतः आयुकर्म का उदय है। नामकर्म के अनुभावों का निरूपण - नामकर्म के मुख्यतया दो भेद हैं। शुभनाकमकर्म और अशुभनामकर्मशुभनामकर्म का इष्ट शब्द आदि १४ प्रकार का अनुभाव (विपाक) कहा है। उनका स्वरूप इस प्रकार है - इष्ट का अर्थ है – अभिलषित ( मनचाहा ) । नामकर्म का प्रकरण होने से यहाँ अपने ही शब्द आदि समझने चाहिए। इष्ट गति के दो अर्थ हैं – (१) देवगति या मनुष्यगति अथवा (२) हाथी आदि जैसी उत्तम चाल । इष्ट स्थिति का अर्थ है - इष्ट और सहज सिंहासन आदि पर आरोहण । इष्ट लावण्य अर्थात् - अभीष्ट कान्ति-विशेष अथवा शारीरिक सौन्दर्य । इष्ट यश कीर्ति - विशिष्ट पराक्रम प्रदर्शित करने से होने वाली ख्याति को कीर्ति कहते हैं । उत्थानादि छह का विशेषार्थ शरीर सम्बन्धी चेष्टा को उत्थान, भ्रमण आदि को कर्म, शारीरिक शक्ति को बल, आत्मा से उत्पन्न होने वाले सामर्थ्य को वीर्य, आत्मजन्य स्वाभिमान - विशेष को पुरुषकार और अपने कार्य में सफलता प्राप्त कर लेने वाले पुरुषार्थ को पराक्रम कहते हैं। इष्टस्वर • वीणा आदि के समान वल्लभ स्वर । कान्तस्वर कोकिला के स्वर के समान कमनीय स्वर । इष्ट सिद्धि आदि सम्बन्धी स्वर के समान जो स्वर बार-बार अभिलषणीय हो, वह प्रियस्वर : तथा मनोवांछित लाभ आदि के तुल्य जो स्वर स्वाश्रय में प्रीति उत्पन्न कराए, वह मनोज्ञस्वर कहलाता है। - · - - शुभनामकर्म के परतः एवं स्वतः उदय का निरूपण – वीणा, वेणु, वर्ण, गन्ध, ताम्बूल, पट्टाम्बर, पालखी, सिंहासन आदि शुभ पुद्गल या पुद्गलों का वेदन किया जाता है, इन वस्तुओं (पुद्गलों) के निमित्त से शब्द आदि १. प्रज्ञापनासूत्र प्रमेयबोधिनी टीका, भा. ५ पृ. २०८ से २१० २. वही, भा. ५, पृ. २११ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४] [ तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद] की अभीष्टता सूचित की गई है। अथवा जिस ब्राह्मी औषधि अदि आहार के परिणमनरूप पुद्गल परिणाम का वेदन किया जाता है। जैसे – वर्षाकालीन मेघों की घटा देखकर युवतियाँ इष्टस्वर में गान करने में प्रवृत्त होती हैं । उसके प्रभाव से शुभनामकर्म का वेदन किया जाता है। अर्थात् शुभनामकर्म के फलस्वरूप इष्टस्वरता आदि का अनुभव होता है। यह परनिमित्तक शुभनामकर्म का उदय है। जब शुभनामकर्म के पुद्गलों के उदय से इष्ट शब्दादि शुभनामकर्म का वेदन होता है, तब स्वतः नामकर्म का उदय समझना चाहिए। __ अशुभनामकर्म का अनुभाव - जीव के द्वारा बद्ध, स्पृष्ट आदि विशेषणों से विशिष्ट दुख (अशुभ) नामकर्म का अनुभाव भी पूर्ववत् १४ प्रकार का है, किन्तु वह शुभ से विपरीत है। जैसे – अनिष्ट शब्द इत्यादि। ___गधा, ऊँट, कुत्ता अदि के शब्दादि अशुभ पुद्गल या पुद्गलों का वेदन किया जाता है, क्योंकि उनके सम्बन्ध से अनिष्ट शब्दादि उत्पन्न होते हैं। यह सब पूर्वोक्त शुभनामकर्म से विपरीतरूप में समझ लेना चाहिए। अथवा विष आदि आहार परिणामरूप जिस पुद्गल परिणाम का या स्वभावतः वज्रपात (बिजली गिरना) आदिरूप जिस पुद्गल परिणाम का वेदन किया जाता है तथा उसके प्रभाव से अशुभनामकर्म के फलस्वरूप अनिष्टस्वरता आदि का अनुभव होता है। यह परत: अशुभनामकर्मोदय का अनुभाव है। जहाँ नामकर्म के अशुभकर्मपुद्गलों से अनिष्ट शब्दादि का वेदन होता हो, वहाँ स्वतः अशुभनामकर्मोदय समझना चाहिए।' ___ गोत्रकर्म का अनुभाव : भेद, प्रकार, कारण - गोत्रकर्म के भी मुख्यतया दो भेद हैं - उच्चगोत्र और नीचगोत्र । उच्च जाति, कुल, बल, रूप, तप, श्रुत, लाभ और ऐश्वर्य की विशिष्टता का अनुभव (वेदन) उच्चगोत्रानुभाव है तथा नीच जाति आदि की विशिष्टता का अनुभव नीचगोत्रानुभाव है। उच्चगोत्रनुभाव : कैसे और किन कारणों से ? - उस उस द्रव्य के संयोग से या राजा आदि विशिष्ट पुरुष के संयोग से नीच जाति में जन्मा हुआ पुरुष भी जातिसम्पन्न और कुलसम्पन्न के समान लोकप्रिय हो जाता है। यह जाति और कुल की विशिष्टता हुई। बलविशेषता भी मल्ल आदि किसी विशिष्ट पुरुष के संयोग से होती है। जैसे लकडी घुमाने से मल्लों में शारीरिक बल पैदा होता है, यह बल की विशेषता है। विशेष प्रकार के वस्त्रों और अलंकारों से रूप की विशेषता उत्पन्न होती है। पर्वत की चोटी पर खडे होकर आतापना आदि लेने वाले में तप की विशेषता उत्पन्न होती है। रमणीय भूभाग में स्वाध्याय करने वाले में श्रुत की विशेषता उत्पन्न होती हैं । बहुमूल्य उत्तम रत्न आदि के संयोग से लाभ की विशेषता उत्पन्न होती है। धन, स्वर्ण आदि के सम्बन्ध से ऐश्वर्य की विशेषता उत्पन्न होती है। इस प्रकार बाह्य द्रव्यरूप शुभ पुद्गल या पुद्गलों का जो वेदन किया जाता है, या दिव्य फल आदि के आहर-परिणामरूप जिस पुद्गल परिणाम का वेदन किया जाता है, अथवा स्वभाव से जिन पुद्गलों का परिणाम अकस्मात् जलधारा के आगमन आदि के रूप में वेदा जाता है, यही है उच्चगोत्र कर्मफल का वेदन। ये परतः उच्चगोत्रकर्मोदय के कारण हैं । स्वत: उच्चगोत्रकर्मोदय में तो उच्चगोत्र नामकर्म के पुद्गलों के उदय ही कारण है। नीचगोत्रानुभाव : प्रकार और कारण - पूर्ववत् नीचगोत्रानुभव भी ८ प्रकार का है और उच्चगोत्र के फल से नीचगोत्र का फल एकदम विपरीत है, यथा- जातिविहीनता आदि। १. प्रज्ञापनासूत्र, प्रमेयबोधिनी टीका, भा. ५, पृ. २१३ से २१७ तक Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रज्ञापनासूत्र] [२५ जाति-कुल-विहीनता - अधम कर्म या अधम पुरुष के संसर्गरूप-पुद्गलों का वेदन किया जाता है, जैसे कि अधर्मकर्मवशात् उत्तम कुल और जाति वाला व्यक्ति अधम आजीविका या चाण्डालकन्या का सेवन करता है, तब वह चाण्डाल के समान ही लोकनिन्दनीय होता है, यह जाति-कुल-विहीनता है। सुखशय्या आदि का योग न होने से बलहीनता होती है। दूषित अन्न, खराब वस्त्र आदि के योग से रूपहीनता होती है। दुष्ट जनों के सम्पर्क से तपोहीनता उत्पन्न होती है। सााध्वाभास आदि के सम्पर्क से श्रुतविहीनता होती है। देश-काल आदि के प्रतिकूल कुक्रय(गलत खरीद) अदि से लाभविहीनता होती है। खराब घर एवं कुल्टा स्त्री आदि के सम्पर्क से ऐश्वर्य हीनता होती है। अथवा बैंगन आदि आहारपरिणमनरूप पुद्गल परिणाम का वेदन किया जाता है, क्योंकि बैगन खाने से खुजली होती है, और उससे रूपविहीनता उत्पन्न होती है। अथवा स्वभाव से अशुभपुद्गल परिणाम का जो वेदन किया जाता है, जैसे जलधारा के आगमन सम्बन्धी विसंवाद, उसके प्रभाव से भी नीचगोत्रकर्म के फलस्वरूप जातिविहीनता आदि का वेदन होता है। यह परतः नीचगोत्रकर्मोदय का निरूपण हुआ। स्वतः नीचगोत्रोदय में नीचगोत्रकर्म के पुद्गलों का उदय कारण रूप होता है। उससे जातिविहीनता आदि का अनुभव किया जाता है। अन्तरायकर्म का पंचविध अनुभाव : स्वरूप और कारण - दान देने में विघ्न आ जाना दानान्तराय है, लाभ में बाधाएँ आना लाभान्तराय है, इसी प्रकार भोग, उपभोग, और वीर्य में विघ्न होना भोगोन्तराय आदि है। विशिष्ट प्रकार के रत्नादि पुद्गल या पुद्गलों का वेदन किया जाता है, यावत् विशिष्ट रत्नादि पुद्गलों के सम्बन्ध से उस विषय में ही दानान्तरायकर्म का उदय होता है । सेंध आदि लगाने के उपकरण आदि के सम्बन्ध से लाभान्तराय कर्मोदय होता है। विशेष प्रकार के आहार के या अभोज्य अर्थ के सम्बन्ध से लोभ के कारण भोगान्तरायकर्म का उदय होता है। इसी प्रकार उपभोगान्तराय कर्म का उदय भी समझ लेना चाहिए। लकडी, शस्त्र, आदि की चोट से वीर्यान्तराय का उदय होता है। अथवा जिस पुद्गलपरिणाम का - विशिष्ट आहार औषध का वेदन किया जाता है, उससे भी, यानि विशिष्ट प्रकार के आहार और औषध आदि के परिणाम से वीर्यान्तरायकर्म का उदय होता है। अथवा स्वभाव से विचित्र शीत आदि रूप पुद्गलों के परिणाम के वेदन से भी दानान्तरायादि कर्मो का उदय होता है। जैसे - कोई व्यक्ति वस्त्र आदि का दान देना चाहता है, मगर गर्मी, सर्दी आदि का आवागमन देखकर दान नहीं कर पाता – अदाता बन जाता है । यह हुआ परतः दानान्तरायादि कर्मोदय का प्रतिपादन । स्वतः दानान्तरायादि कर्मोदय में तो अन्तरायकर्म के पुद्गलों के उदय से दानान्तरायादि अन्तरायकर्म के फल का वेदन (अनुभव) होता है। ॥ तेईसवाँ कर्म-प्रकृतिपद : प्रथम उद्देशक समाप्त ॥ १. प्रज्ञापनासूत्र, प्रमेयबोधिनी टीका, भा. ५, पृ. २१८ से २२२ तक २. वही, भा. ५, पृ. २२३ से २२४ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीओ उद्देसओ : द्वितीय उद्देशक मूल और उत्तर कर्मप्रकृतियों के भेद-प्रभेद की प्ररूपणा १६८७. कति णं भंते! कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! अट्ठ कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ। तं जहा - णाणावरणिज्जं जाव अंतराइयं । [१६८७ प्र.] भगवन्! कर्मप्रकृतियाँ कितनी कही हैं ? [१६८७ उ.] गौतम! कर्मप्रकृतियाँ आठ कही गई हैं, यथा - १६८८. णाणावरणिज्जे णं भंते! कम्मे कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते । तं जहा - आभिणिबोहियणाणावरणिज्जे जाव केवलणाणावरणिज्जे । [१६८८ प्र.] भगवन्! ज्ञानावरणीयकर्म कितने प्रकार का कहा गया है ? [ १६८८ उ.] गौतम ! वह पांच प्रकार का कहा गया है, यथा- आभिनिबोधिकज्ञानावरणीय यावत् केवलज्ञानावरणीय । ज्ञानावरणीय यावत् अन्तराय । १६८९. [ १ ] दरिसणावरणिज्जे णं भंते! कम्मे कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते । तं जहा - णिद्दपंचए य दंसणचउक्कए य । [१६८९-१ प्र.] भगवन्! दर्शनावरणीयकर्म कितने प्रकार का कहा है ? [१६८९-१ उ.] गौतम! वह दो प्रकार का कहा है, यथा-निद्रापंचक और दर्शनचतुष्क । [ २ ] णिद्दापंचए णं भंते! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते । तं जहा - णिद्दा जाव थी गिद्धी । [१६५९-२ प्र.] भगवन्! निद्रापंचक कितने प्रकार का कहा गया है ? [ १६८९-२ उ.] गौतम! वह पांच प्रकार का कहा है, यथा - निद्रा यावत् स्त्यानगृद्धि (स्त्यानर्द्धि) । [ ३ ] दंसणचउक्कए णं भंते! ० पुच्छा । .. गोयमा ! चउव्विहे पण्णत्ते । तं जहा - चक्खुदंसणावरणिज्जे जाव केवलदंसणावरणिजे । [१६८९-३ प्र.] भगवन्! दर्शनचतुष्क कितने प्रकार का कहा गया है ? [१६८९ - ३ उ.] गौतम ! वह चार प्रकार का कहा गया है, यथा-चक्षुदर्शनावरण यावत् केवलदर्शनावरण। १६९०. [ १ ] वेयणिज्जे णं भंते! कम्मे कतिविहे पण्णत्ते ? गोमा ! दुविहे पण्णत्ते । तं जहा - सायावेदणिज्जे य असायावेयणिजे य। [१६९०-१ प्र.] भगवन् ! वेदनीयकर्म कितने प्रकार का कह गया है ? Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रज्ञापनासूत्र ] [१६९० - १ उ.] गौतम! वह दो प्रकार का कहा गया है, यथा-सातावेदनीय और असातावेदनीय । २] सायावेयणि णं भंते! कम्मे ० पुच्छा। गोयमा ! अट्ठविहे पण्णत्ते ! तं जहा- मणुण्णा सद्दा जाव कायसुहया (सु. १६८१ [१])। [१६९०-२ प्र.] भगवन् ! सातावेदनीयकर्म कितने प्रकार का कहा गया है ? [२७ [१६९०-२ उ.] गौतम! वह आठ प्रकार का कहा गया है, यथा - (सू. १६८१ -१ के अनुसार) मनोज्ञ शब्द यावत् कायसुखता । [ ३ ] असायावेदणिज्ने णं भंते ! कम्मे कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! अट्ठविहे पण्णत्ते । तं जहा - अमणुण्णा सद्दा जाव कायदुहया । [१६९०-३ प्र.] भगवन्! असातावेदनीयकर्म कितने प्रकार का कहा गया है ? [१६९०-३ उ.] गौतम ! वह आठ प्रकार का कहा गया है। १६९९. [१] मोहणिजे णं भंते! कम्मे कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते । तं जहा - दंसणमोहणिजे य चरित्तमोहणिजे य। [१६९१-१ प्र.] भगवन्! मोहनीय कर्म कितने प्रकार का कहा गया है ? [१६९१-१ उ.] गौतम! वह दो प्रकार का कहा गया है, यथा-दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय | [ २ ] दंसणमोहणिज्ने णं भंते! कम्मे कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! तिविहे पण्णत्ते । तं जहा — सम्मत्तवेयणिज्जे १ मिच्छत्तवेयणिज्जे २ सम्मामिच्छत्तवेयणिजे ३ य । [१६९१-२ प्र.] भगवन्! दर्शन- मोहनीयकर्म कितने प्रकार का कहा है? [१६९१-२ उ.] गौतम! दर्शनमोहनीयकर्म तीन प्रकार का कहा गया है, यथा - (१) सम्यक्त्ववेदनीय, (२) मिथ्यात्ववेदनीय और (३) सम्यग्मिथ्यात्ववेदनीय । [ ३ ] चरित्तमोहणिजे णं भंते! कम्मे कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते । तं जहा - कसायवेयणिज्जे य णोकसायवेयणिज्जे य । [१६९१-३ प्र.] भगवन् ! चारित्रमोहनीयकर्म कितने प्रकार का कहा गया है ? [१६९१-३ उ.] गौतम ! वह दो प्रकार का कहा गया है, यथा- कषायवेदनीय और नोकषायवेदनीय । [४] कसायवेयणिज्ने णं भंते! कम्मे कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! सोलसविहे पण्णत्ते । तं जहा- - अणंताणुबंधी कोहे १ अणंताणुबंधी माणे २ अनंताणुबंधी माया ३ अणंताणुबंधी लोभे ४ अपच्चक्खाणे कोहे ५ एवं माणे ६ माया ७ लोभे ८, पच्चक्खाणावरणे कोहे ९ एवं माणे १० माया ११ लोभे १२, संजलणे कोहे १३ एवं माणे १४ माया १५ लोभे १६ । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८] [१६९१-४ प्र.] भगवन् ! कषायवेदनीयकर्म कितने प्रकार का कहा गया है ? [ १६९१-४ उ. ] गौतम ! वह सोलह प्रकार कहा गया है, यथा - ( १ ) अनन्तानुबन्धी क्रोध, (२) अनन्तानुबन्धी मान, (३) अनुन्तानुबन्धी माया, (४) अनन्तानुबधी लोभ; (५-६-७-८) अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ; (९-१०-११-१२) प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, तथा लोभ, इसी प्रकार (१३-१४-१५-१६) संज्वलन क्रोध, मान, माया एवं लोभ । [५] णोकसायवेयणिज्ने णं भंते! कम्मे कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा! णवविहे पण्णत्ते। तं जहा - इत्थिवेए १ पुरिसवेए २ णपुंसगवेदे ३ हासे ४ रती ५ अरती ६ भये ७ सोगे ८ दुर्गुछा ९ । [१६९१-५ प्र.] भगवन्! नोकषाय- वेदनीयकर्म कितने प्रकार का कहा गया है ? [१६९१-५ उ.] गौतम! वह नौ प्रकार का कहा गया है, यथा (१) स्त्रीवेद, (२) पुरुषवेद, (३) नपुंसकवेद, (४) हास्य, (५) रति, (६) अरति, (७) भय, (८) शोक और (९) जुगुप्सा । १६९२. आउए णं भंते ! कम्मे कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! चउव्विहे पण्णत्ते । तं जहा णेरड्याउए जाव देवाउए । - - [१६९२ प्र.] भगवन्! आयुकर्म सकितने प्रकार का कहा गया है ? [ १६९२ उ.] गौतम! वह चार प्रकार का कहा गया है, यथा१६९३. णामे णं भंते ! कम्मे कतिविहे पण्णत्ते ? [ तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद ] - • नारकायु यावत् देवायु। गोमा ! बायालीसइविहे पण्णत्ते । तं जहा - गतिणामे १ जाइणामे २ सरीरणामे ३ सरीरंगोवंगणामे ४ सरीरबंधणणामे ५ सरीरसंघायणामे ६ संघयणणामे ७ संठाणणामे ८ वण्णणामे ९ गंधणामे १० रसणामे ११ फासणामे १२ अगुरूलहुयणामे १३ उवघायणामे १४ पराघायणामे १५ आणुपुव्वीणामे १६ उस्सासणामे १७ आयवणामे १८ उज्जोयणामे १९ विहायगतिणामे २० तसणामे २१ थावरणामे २२ सुहुमणामे २३ बादरणामे २४ पज्जत्तणामे २५ अपज्जत्तणामे २६ साहारणसरीरणामे २७ पत्तेयसरीरणामे २८ थिरणामे २९ अथिरणामे ३० सुभणामे ३१ असुभणामे ३२ सुभगणामे ३३ दूभगणामे ३४ सूसरणामे ३५ दूसरणामे ३६ आदेज्जणामे ३७ अणादेज्जणामे ३८ जसोकित्तिणामे ३९ अजसोकित्तिणामे ४० णिम्माणणामे ४१ तित्थगरणामे ४२ । [१६९३ प्र.] भगवन्! नामकर्म कितने प्रकार का कहा गया है ? [१६९३ उ.] गौतम! वह बयालीस प्रकार का कहा है, यथा (१) गतिनाम, (२) जातिनाम, (३) शरीरनाम, (४) शरीरांगोपांगनाम (५) शरीरबन्धननाम, (६) शरीरासंघातनाम, (७) संहनननाम, (८) संस्थाननाम, (९) वर्णनाम, (१०) गंधनाम, (११) रसनाम, (१२) स्पर्शनाम, (१३) अगुरुलघुनाम, (१४) उपघातनाम, (१५) पराघातनाम, (१६) आनुपूर्वीनाम, (१७) उच्छ्वासनाम, (१८) आतपनाम, (१९) उद्योतनाम, (२०) विहायोगतिनाम, - Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र] [२९ (२१) त्रसनााम, (२२) स्थावरनाम, (२३) सूक्ष्मनाम, (२४) बादरनाम, (२५) पर्याप्तनाम, (२६) अपर्याप्तनाम, (२७) साधारणशरीरनाम, (२८) प्रत्येकशरीरनाम, (२९) स्थिरनाम, (३०) अस्थिरनाम, (३१) शुभनाम, (३२) अशुभनाम, (३३) सुभगनाम, (३४) दुर्भगनाम, (३५) सुस्वरनाम, (३६) दुःस्वरनाम, (३७) आदेयनाम, (३८) अनादेयनाम, (३९) यश:कीर्तिनाम, (४०) अवश:कीर्तिनाम, (४१) निर्माणनाम और (४२) तीर्थंकरनाम। १६९४. [१] गतिणामे णं भंते! कतिविहे पण्णत्ते? गोयमा ! चउबिहे पण्णत्त ! तं जहा – णिरयगतिणामे १ तिरियगतिणामे २ मणुयगतिणामे ३ देवगतिणामे ४। [१६९४-१ प्र.] भगवन् ! गतिनामकर्म कितने प्रकार का कहा गया है? [१६९५-१उ.] गौतम! वह चार प्रकार का कहा गया है, यथा – (१) नरकगतिनाम, (२) तिर्यञ्चगतिनाम, (३) मनुष्यगतिनाम और (४) देवगतिनाम। [२] जाइणामे णं भंते ! कम्मे पुच्छा। गोयमा! पंचविहे पण्णत्ते ! तं जहा - एगिंदियजाइणामे जाव पंचेंदियजाइणामे। . [१६९४-२ प्र.] भगवन् ! जातिनामकर्म कितने प्रकार का कहा गया है ? [१६९४-२ उ.] गौतम! वह पांच प्रकार का कहा गया है, यथा - एकेन्द्रियजातिनाम, यावत् पंचेन्द्रियजातिनाम । [३] सरीरणामे णं भंते ! कम्मे कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा! पंचविहे पण्णत्ते। तं जहा - ओरालियसरीरणामे जाव कम्मगसरीरणामे। [१६९४-३ प्र.] भगवन् ! शरीरनामकर्म कितने प्रकार का कहा है ? [१६९४-४ उ.] गौतम! वह पांच प्रकार का कहा गया है, यथा – औदारिकशरीरनाम यावत् कार्मणशरीरनाम। [४] सरीरंगोवंगणामे णं भंते ! कम्मे कतिविहे पण्णत्ते? गोयमा! तिविहे पण्णत्ते। तं जहा - ओरालियसरीरंगोवंगणामे १ वेउब्वियसरीरंगोवंगणामे २ आहारगसरीरंगोवंगणामे ३। [१६९४-४ प्र.] भगवन् ! शरीरांगोपांगनाम कितने प्रकार का कहा गया है? [१६९४-४ उ.] गौतम! वह तीन प्रकार का कहा गया है, यथा – (१) औदारिकशरीरांगोपांग, (२) वैक्रियशरीरांगोपांग और (३) आहारकशरीरांगोपांग नाम। [५] सरीरबंधणणामे णं भंते! कतिविहे पण्णत्ते? गोयमा! पंचविहे पण्णत्ते। तं जहा - ओरालियसरीरबंधणणामे जाव कम्मगसरीरबंधणणामे। [१६९४-५ प्र.] भगवन् ! शरीरबन्धननाम कितने प्रकार का कहा गया है ? [१६९४-५ उ.] गौतम! वह पांच प्रकार का कहा गया है, यथा - औदारिकशरीरबंधननाम, यावत् कार्मणशरीरबंधननाम। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०] [ तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद] [६] सरीरसंघायणामे णं भंते! कतिविहे पण्णत्ते? . गोयमा! पंचविहे पण्णत्ते। तं जहा-ओरालियसरीरसंघातणामे जाव कम्मगसरीरसंघायणामे। • [१६९४-६ प्र.] भगवन् ! शरीरसंघातनाम कितने प्रकार का कहा है ? [१६९४-६ उ.] गौतम! वह पांच प्रकार का कहा गया है, यथा – औदारिकशरीरसंघातनाम यावत् कार्मणशरीरसंघातनाम। [७] संघयणणामे णं भंते! कतिविहे पण्णत्ते? गोयमा! छव्विहे पण्णत्ते। जहा - वइरोसभणारायसंघयणणामे १ उसभणारायसंघयणणामे २ णारायसंघयणणामे ३ अद्धणारायसंघयणणामे ४ कीलियासंघयणणामे ५ छेवट्टसंघयणणामे ६। [१६९४-७ प्र.] भगवन् ! संहनननाम कितने प्रकार का कहा गया है ? - [१६९४-७ उ.] गौतम! वह छह प्रकार का कहा गया है, यथा – (१) वज्रऋषभनाराचसंहनननाम, (२) ऋषभनाराचसंहनननाम, (३) नाराचसंहनननाम, (४) अर्द्धनाराचसंहनननाम, (५) कीलिकासंहनननाम और (६) सेवार्त्तसंहनननामकर्म। .. [८] संठाणणामे णं भंते! कम्मे कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा! छव्विहे पण्णत्ते। तं जहा - समचउरंससंठाणणामे १ णग्गोहपरिमंडलसंठाणणामे २ सातिसंठाणणामे ३ वामणसंठाणणामे ४ खुजसंठाणणामे ५ हुंडसंठाणणामे ६। [१६९४-८ प्र.] भगवन् ! संस्थाननाम कितने प्रकार का कहा गया है? [१६९४-८ उ.] गौतम! वह छह प्रकार का कहा गया है, यथा – (१) समचतुरस्रसंस्थाननाम, (२) न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थाननाम, (३) सादिसंस्थाननाम, (४) वामनसंस्थाननाम, (५) कुब्जसंस्थाननाम और (६) हुण्डकसंस्थाननामकर्म। [९] वण्णणामे णं भंते! कम्मे कतिविहे पण्णत्ते? गोयमा! पंचविहे पण्णत्ते। तं जहा - कालवण्णणामे जाव सुक्किलवण्णणामे। [१६९४-९ प्र.] भगवन् ! वर्णनामकर्म कितने प्रकार का कहा गया है ? [१६९४-९ उ.] गौतम! वह पांच प्रकार का कहा गया है, यथा - कालवर्णनाम यावत् शुक्लवर्णनाम। [१०] गंधणामे णं भंते! कम्मे ० पुच्छा। गोयमा! दुविहे पण्णत्ते। तं जहा - सुरभिगंधणामे १ दुरभिगंधणामे २। [१६९४-१० प्र.] भगवन् ! गन्धनामकर्म कितने प्रकार का कहा है ? [१६९४-१० उ.] गौतम! वह दो प्रकार का कहा गया है, यथा – सुरभिगन्धनाम और दुरभिगन्धनामकर्म। [११] रसणामे णं० पुच्छा। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रज्ञापनासूत्र] [३१ गोयमा! पंचविहे पण्णत्ते। तं जहा - तित्तरसणामे जाव महुररसणामे। [१६९४-११ प्र.] भगवन् ! रसनामकर्म कितने प्रकार का कहा गया है ? [१६९४-११ उ.] गौतम! वह पांच प्रकार का कहा गया है, यथा – तिक्तरसनाम यावत् मधुररसनामकर्म। [१२] फासणमे णं० पुच्छा। गोयमा! अट्ठविहे पण्णत्ते। तं जहा - कक्खडफासणामे जाव लुक्खफासणामे। [१६९४-१२] भगवन् ! स्पर्शनामकर्म कितने प्रकार का कहा गया है ? [१६९४-१२] गौतम ! वह आठ प्रकार का कहा गया है, यथा – कर्कशस्पर्शनाम यावत् रूक्षप्शनामकर्म। [१३] अगुरुलहुअणामे एगागारे पण्णत्ते। [१६९४-१३] अगुरूलघुनाम एक प्रकार का कहा गया है। [१४] उवघायणामे एगागारे पण्णत्ते। [१६९४-१४] उपघातनाम एक ही प्रकार का कहा गया है। [१५] पराघायणामे एगागारे पण्णत्ते। [१६९४-१५] पराघातनाम एक प्रकार का कहा है। [१६] आणुपुव्विणामे चउव्विहे पण्णत्ते। तं जहा - णेरइयाणुपुव्विणाम जाव देवाणुपुविणाम। [१६९४-१६] आनुपूर्वीनामकर्म चार प्रकार का कहा गया है, यथा - नैरयिकानुपूर्वीनाम यावत् देवानुपूर्वीनामकर्म। [१७] उस्सासणामे एगागारे पण्णत्ते ।। [१६९४-१७] उच्छ्वासनाम एक प्रकार का कहा गया है। [१८] सेसाणि सव्वाणि एगागाराइं पण्णत्ताई जाव तित्थगरणामे । णवरं विहायगतिणामे दुविहे पण्णत्ते। तं जहा - पसत्थविहायगतिणामे य अपसत्थविहायगतिणामे य । [१६९४-१८] शेष सब तीर्थकरनामकर्म तक एक-एक प्रकार के कहे है। विशेष यह है कि विहायोगतिनाम दो प्रकार का कहा है, यथा - प्रशस्तविहायोगतिनाम और अप्रशस्तविहायोगतिनाम । १६९५. [१] गोए णं भंते! कम्मे कतिविहे पण्णत्ते? गोयमा! दुविहे पण्णत्ते । तं जहा - उच्चागोए य णीयगोए य। [१६९५-१ प्र.] भगवन् ! गोत्रकर्म कितने प्रकार का कहा गया है ? [१६९५-१ उ.] गौतम! वह दो प्रकार का कहा गया है, यथा - उच्चगोत्र और नीचगोत्र । [२] उच्चागोए णं भंते! कम्मे कतिविहे पण्णत्ते? गोयमा! अट्ठविहे पण्णत्ते। तं जहा - जाइविसिट्ठया जाव इस्सरियविसिट्ठया। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२] [ तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद] [१६९५-२ प्र.] भगवन् ! उच्चगोत्रकर्म कितने प्रकार का कहा गया है ? __ [१६९५-२ उ.] गौतम! वह आठ प्रकार का कहा गया है, यथा - जातिविशिष्टता यावत् ऐश्वर्यविशिष्टता। [३] एवं णीयागोए वि। णवरं जातिविहीणया जाव इस्सरियविहीणया। ...[१६९५-३] इसी प्रकार नीचेगात्र भी आठ प्रकार का है। किन्तु यह उच्चगोत्र से विपरीत है, यथा - जातिविहीनता यावत् ऐश्वर्यविहीनता। १६९६. अंतराइए णं भंते ! कम्मे कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते। जहा - दाणंतराइए जाव वीरियंतराइए। [१६९६ प्र.] भगवन् ! अन्तरायकर्म कितने प्रकार का कहा गया है? [१६९६ उ.] गौतम! वह पांच प्रकार का कहा गया है, यथा - दानान्तराय यावत् वीर्यान्तरायकर्म। . विवेचन - उत्तरकर्मप्रकृतियां - प्रथम उद्देशक में ज्ञानावरणीय आदि ८ मूल कर्मप्रकृतियों के अनुभाव का वर्णन करने के पश्चात् द्वितीय उद्देशक में सर्वप्रथम (सू. १६७३ से १६९६ तक में) मूल कर्मप्रकृतियों के अनुसार उत्तरकर्मप्रकृतियों के भेदों का निरूपण किया गया है। उत्तरकर्मप्रकृतियों का स्वरूप - (१) ज्ञानावरणीयकर्म के पांच उत्तरभेद हैं । आभिनिबोधिक (मति) ज्ञानावरण - जो कर्म आभिनिबोधिक ज्ञान अर्थात् मतिज्ञान को आवृत करता है, उसे आभिनिबोधिकज्ञानावरण कहते है। इसी प्रकार श्रुतज्ञानावरण आदि के विषय में समझ लेना चाहि। ___दर्शनावरणीयकर्म – पदार्थ के सामान्य धर्म की सत्ता के प्रतिभास को दर्शन कहते हैं । दर्शन को आवरणे करने वाले कर्म को दर्शनावरण कहते हैं । दर्शनावरण के दो भेद - निद्रापंचक दर्शनचतुष्क है। निद्रापंचक के पांच भेदों का स्वरूप प्रथम उद्देशक में कहा जा चुका है। दर्शनचतुष्क चार प्रकार का है- चक्षुदर्शनावरण - चक्षु के द्वारा वस्तु के सामान्यधर्म के ग्रहण को रोकने वाला कर्म चक्षुदर्शनावरण हे। अचक्षुदर्शनावरण - चक्षुरिन्द्रिय के सिवाय शेष स्पर्शन आदि इन्द्रियों और मन से होने वाले सामान्यधर्म के प्रतिभास को रोकने वाले कर्म को अचक्षुदर्शनावरण कहते हैं। अवधिदर्शनावरण - इन्द्रियों और मन की सहायता के बिना ही द्रव्य के सामान्यधर्म के होने वाले बोध को रोकने वाले कर्म को अवधिदर्शनावरण कहते है। केवलदर्शनावरण - सम्पूर्ण द्रव्यों के होने वाले सामान्यधर्म के अवबोध को आवृत करने वाले को केवलदर्शनावरण कहते हैं । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि निद्रापंचक प्राप्त दर्शनशक्ति का उपघातक है, जबकि दर्शनचतुष्क मूल से ही दर्शनलब्धि का घातक होता है।' (३) वेदनीयकर्म- जो कर्म इन्द्रियों के विषयों का अनुभवन-वेदन कराए, उसे वेदनीयकर्म कहते हैं। वेदनीयकर्म से आत्मा को जो सुख-दुःख का वेदन होता है, वह इन्द्रियजन्य सुख-दुःख अनुभव है। आत्मा को जो १. पण्णवणासुत्तं भा. १(मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), पृ.३६७ से ३७९ तक २. (क) पण्णवणासुत्तं भा. १(मू.पा.टि.), पृ. ३६८ (ख) प्रज्ञापना, (प्रमेयबोधिनी टीका) भाग ५, पृ. २४१ - २४२ (ग) कर्मग्रन्थ भा. १ (मरुधरकेसरी व्याख्या) पृ. ५१ से ६१ तक Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रज्ञापनासूत्र] [३३ स्वाभाविक सुखानुभूति होती है वह कर्मोदय से नहीं होती। इसका स्वभाव तलवार की शहद-लगी धार को चाटने के समान है। इसके मुख्य दो प्रकार है – (१) सातावेदनीय - जिस कर्म के उदय से आत्मा को इन्द्रियविषयसम्बन्धी सुख का अनुभव हो, उसे सातावेदनीयकर्म कहते हैं । (२) असातावेदनीय – जिस कर्म के उदय से आत्मा को अनुकूल विषयों की अप्राप्ति और प्रतिकूल इन्द्रियविषयों की प्राप्ति में दुःख का अनुभव हो, उसे असातावेदनीय कहते हैं । सातावेदनीय के मनोज्ञ शब्द आदि आठ भेद हैं और इसके विपरीत असातावेदनीय के भी अमनोज्ञ शब्द आदि आठ भेद हैं। इनका अर्थ पहले लिखा जा चुका है। (४) मोहनीयकर्म- जिस प्रकार मद्य के नशे में चूर मनुष्य अपने हिताहित का भान भूल जाता है, उसी प्रकार जिस कर्म के उदय से जीव में अपने वास्तविक स्वरूप एवं हिताहित को पहचानने और परखने की बुद्धि लुप्त हो जाती है, कदाचित् हिताहित को परखने की बुद्धि भी आ जाए तो भी तदनुसार आचरण करने का सामर्थ्य प्राप्त नहीं हो पाता, उसे मोहनीयकर्म कहते हैं। इसके मुख्यतः दो भेद हैं - दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय । दर्शनमोहनीय - जो पदार्थ जैसा है, उसे यथार्थरूप में वैसा ही समझना, तत्त्वार्थ पर श्रद्धान करना दर्शन कहलाता है, आत्मा के इस निजी दर्शनगुण का घात (आवृत) करने वाले कर्म को दर्शनमोहनीय कहते हैं । चारित्रमोहनीयआत्मा के स्वभाव की प्राप्ति अथवा उसमें रमणता करना चारित्र है अथवा सावद्ययोग से निवृत्ति तथा निरवद्ययोग में परिणाम चारित्र है। आत्मा के इस चारित्रगण को घात करने या उत्पन्न न होने देवे वाले कर्म को चारित्रमोहनीय कहते हैं। दर्शनमोहनीयकर्म के तीन भेद हैं-सम्यक्त्ववेदनीय, मिथ्यात्ववेदनीय और अम्यग्मिथ्यात्ववेदनीय। इन्हें क्रमशः शुद्ध, अशुद्ध और अर्द्धशुद्ध कहा गया है। जो कर्म शुद्ध होने से तत्त्वरुचिरूप सम्यक्त्व में बाधक तो न हो, किन्तु आत्मस्वभावरूप औपशमिक और क्षायिक सम्यक्त्व नहीं होने देता, जिससे सूक्ष्म पदार्थों का स्वरूप विचारने में शंका उत्पन्न हो, सम्यक्त्व में मलिनता आ जाती हो, चल, मल, अगाढदोष उत्पन्न हो जाते हों, वह सम्यक्त्ववेदनीय (मोहनीय) है। जिसके उदय से जीव को तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप की रुचि ही न हो, अर्थात्-तत्त्वार्थ के अश्रद्धान के रूप में वेदा जाए उसे मिथ्यात्वमोहनीय कहते हैं। जिस कर्म के उदय से जीव को तत्त्व (यथार्थ) के प्रति या जिनप्रणीत तत्त्व में रुचि व अरुचि अथवा श्रद्धा या अश्रद्धा न होकर मिश्रस्थिति रहे, उसे सम्यक्त्व-मिथ्यात्ववेदनीय (मोहनीय) या मिश्रमोहनीय कहते हैं। (५) चारित्रमोहनीयकर्म : भेद और स्वरूप- चारित्रमोहनीयकर्म के मुख्य दो भेद हैं – कषायवेदनीय (मोहनीय) और नोकषायवेदनीय (मोहनीय)। कषायवेदनीय - जो कर्म क्रोध, मान, माया और लोभ के रूप में वेदा जाता हो, उसे कषायवेदनीय कहते हैं। कषाय का लक्षण विशेषावश्यक भाष्य में इस प्रकार कहा गया है - जो आत्मा के गुणों को कषे-नष्ट करे अथवा कष यानी जन्म-मरणरूप संसार, उसकी आय अर्थात् प्राप्ति जिससे हो, उसे कषाय कहते हैं । कषाय के क्रोध, मान, माया और लोभ, ये चार भेद हैं । क्रोध – समभाव को भूल कर आक्रोश से भर जाना, दूसरे पर रोष करना। मान - गर्व, अभिमान या झूठा आत्मप्रदर्शन। माया – कपटभाव अर्थात्-विचार और प्रवृत्ति १. (क) कर्मग्रन्थ भाग १, (मरुधरकेसरीव्याख्या), पृ. ६५-६६ (ख) प्रज्ञापना (प्रमेयबोधिनी टीका), भा. ५, पृ. २४२ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४] [ तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद] में एकरूपता का अभाव। लोभ - ममता के परिणाम । इसी कषायचतुष्टय के तीव्रतम, तीव्रतर, तीव्र और मन्द स्थिति के कारण चार-चार प्रकार हो सकते हैं । वे क्रमशः अनन्तानुबन्धी (तीव्रतमस्थिति), अप्रत्याख्यानावरण (तीव्रतरस्थिति), प्रत्याख्यानावरण (तीव्रस्थिति) तथा संज्वलन (मंदास्थिति) हैं। इनके लक्षण क्रमशः इस प्रकार हैं - अनन्तानुबन्धी- जो जीव के सम्यक्त्व आदि गुणों को घात करके अनन्तकाल तक संसार में परिभ्रमण कराए, उसे अनन्तानुबन्धी कषाय कहते हैं। अप्रत्याख्यानावरण- जो कषाय आत्मा के देशविरति चारित्र (श्रावकपन) का घात करे अर्थात् जिसके उदय से देशविरति-आंशिकत्यागरूप प्रत्याख्यान न हो सके, उसे अप्रत्याख्यानावरण कहते हैं। .. प्रत्याख्यानावरण- जिस कषाय के प्रभाव से आत्मा को सर्वविरति चारित्र प्राप्त करने में बाधा हो, अर्थात् श्रमणधर्म की प्राप्ति न हो, उसे प्रत्याख्यानावरण कहते हैं। संज्वलन- जिस कषाय के उदय से आत्मा को यथाख्यातचारित्र की प्राप्ति न हो, अर्थात् जो कषाय परीषह और उपसर्गों के द्वारा श्रमणधर्म के पालन करने को प्रभावित करे वह संज्वलन कषाय है। इन चारों के साथ क्रोधादि चार कषायों को जोड़ने से कषायमोहनीय के १६ भेद हो जाते हैं। अनन्तानुबन्धी क्रोध - पर्वत के फटने से हुई दरार के समान जो क्रोध उपाय करने पर भी शान्त न हो। अप्रत्याख्यानावरण क्रोध- सूखी मिट्टी में आई हुई दरार जैसे पानी के संयोग से फिर भर जाती है, वैसे ही जो क्रोध कुछ परिश्रम और उपाय से शान्त हो जाता हो। प्रत्याख्यानावरण क्रोध - धूल (रेत) पर खींची हुई रेखा जैसे हवा चलने पर कुछ समय में भर जाती है, वैसे ही जो क्रोध कुछ उपाय से शान्त हो जाता है। संज्वलन क्रोध- पानी पर खींची हुई लकीर के समान जो क्रोध तत्काल शान्त हो जाता है। अनन्तानुबन्धी मान- जैसे कठिन परिश्रम से भी पत्थर के खंभे को नमाना असंभव है, वैसे ही जो मान कदापि दूर नहीं होता। अप्रत्याख्यानावरण मान – हड्डी को नमाने के लिए कठोर श्रम के सिवाय उपाय भी करना पड़ता है, वैसे ही जो मान अतिपरिश्रम और उपाय से दूर होता है। प्रत्याख्यानावरण मान - सूखा काष्ठ तेल आदि की मालिश से नरम हो जाता है, वैसे ही जो मान कुछ परिश्रम और उपाय से दूर होता हो। संज्वलन मान- बिना परिश्रम के नमाये जाने वाले बेंत के समान जो मान क्षणभर में अपने आग्रह को छोड़ कर नम जाता है। अनन्तानुबन्धी माया - बाँस की जड़ में रहने वाली वक्रता-टेढापन का सीधा होना असम्भव होता इसी प्रकार जो माया छूटनी असंभव होती है। अप्रत्याख्यानावरण माया - मेंढे के सींग की वक्रता कठोर परिश्रम व अनेक उपायों से दूर होती है, वैसे ही जो माया-परिणाम अत्यन्त परिश्रम व उपाय से दूर हो। प्रत्याख्यानावरण माया - चलते हुए बैल की मूत्ररेखा की वक्रता के समान जो माया कुटिल परिणाम वाली होने पर कुछ कठिनाई से दूर होती है। संज्वलन माया - बांस के छिलके का टेढापन जैसे बिना श्रम के सीधा हो जाता है, वैसे ही जो मायाभाव आसानी से दूर हो जाता है। अनन्तानुबन्धी लोभ- जैसे किरमिची रंग किसी भी उपाय से नहीं छूटता, वैसे ही जिस लोभ के परिणाम उपाय करने पर भी न छूटते हों। अप्रत्याख्यानावरण लोभ - गाड़ी के पहिये की कीचड़ के समान अतिकठिनता Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र] [३५ से छूटने वाला लोभ का परिणाम । प्रत्याख्यानावरण लोभ - काजल के रंग के समान इस लोभ के परिणाम कुछ प्रयत्न से छूटते हैं । संज्वलन लोभ - सहज ही छूटने वाले हल्दी के रंग के समान इस लोभ के परिणाम होते हैं। नोकषायवेदनीय - जो कषाय तो न हो, किन्तु कषाय के उदय के साथ जिसका उदय होता है, अथवा कषायों को उत्तेजित करने में सहायक हो। जो स्त्रीवेद आदि नोकषाय के रूप में वेदा जाता है, वह नोकषायवेदनीय है। नोकषायवेदनीय के ९ भेद हैं - स्त्रीवेद - जिस कर्म के उदय से पुरुष के साथ रमण करने की इच्छा हो। पुरुषवेद - जिस कर्म के उदय से स्त्री के साथ रमण करने की इच्छा हो। नपुंसकवेद - जिस कर्म के उदय से स्त्री और पुरुष दोनों के साथ रमण करने की इच्छा हो। इन तीनों वेदों की कामवासना क्रमशः करीषाग्नि (उपले की आग), तृणाग्नि और नगरदाह के समान होती है। हास्य - जिस कर्म के उदय से कारणवश या बिना कारण के हंसी आती है या दूसरों को हंसाया जाता हो। रति-अरति - जिस कर्म के उदय से सकारण या अकारण पदार्थों के प्रति राग- प्रीति या द्वेष - अप्रीति उत्पन्न हो। शोक - जिस कर्म के उदय से सकारण या अकारण शोक हो। भय - जिस कर्म के उदय से कारणवशात् या बिना कारण सात भयों में से किसी प्रकार का भय उत्पन्न हो। जुगुप्सा - जिस कर्म के उदय से वीभत्स-घृणाजनक पदार्थों को देख कर घृणा पैदा होती है।' आयुकर्म : स्वरूप, प्रकार और विशेषार्थ - जिस कर्म के उदय से जीव देव, मनुष्य, तिर्यञ्च और नारक के रूप में जीता है और जिसका क्षय होने पर उन रूपों का त्याग कर मर जाता है, उसे आयुकर्म कहते हैं । आयुकर्म के चार भेद हैं, जो मूलपाठ में अंकित हैं। आयुकर्म का स्वभाव कारागार के समान है। जैसे अपराधी को छूटने की इच्छा होने पर भी अवधि पूरी हुए बिना कारागार से छुटकारा नहीं मिलता, इसी प्रकार आयुकर्म के कारण जीव को निश्चित अवधि तक नरकादि गतियों में रहना पड़ता है। बांधी हुई आयु भोग लेने पर ही उस शरीर से छुटकारा मिलता है। आयुकर्म का कार्य जीव को सुख-दुःख देना नहीं है, अपितु नियत अवधि तक किसी एक शरीर में बनाये रखने का है। इसका स्वभाव हडि (खोडा-बेड़ी) के समान है।' नामकर्म : स्वरूप, प्रकार और लक्षण – जिस कर्म के उदय से जीव नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवगति प्राप्त करके अच्छी-बुरी विविध पर्यायें प्राप्त करता है अथवा जिस कर्म से आत्मा गति आदि नाना पर्यायों का अनुभव १. (क) प्रज्ञापना (प्रमेयबोधिनी टीका), भाग ५, पृ. २४३ से २५१ तक (ख) कर्मग्रन्थ भाग-१ (मरुधरकेसरीव्याख्या) पृ. ५५-७०, ८१ से ९३ (i) कम्मं कसो भवो वा कसमातोसिं कसायातो। कसमाययंति व जंतो गमयंति कसं कसायत्ति॥ - विशेपावश्यकभाष्य-१२२७ (ii) अनन्तानुबन्धी सम्यग्दर्शनोपघाती। तस्योदयाद्धि सम्यग्दर्शनं नोत्पद्यते। पूर्वोत्पन्नमपि च प्रतिपतति। संज्वलनकपायोदयाद्यथाख्यातचारित्रलाभो न भवति। -तत्त्वार्थसूत्र भाष्य, अ.८ सू. १० (iii) कपाय-सहवर्तित्वात् कपाय-प्रेरणादपि। हास्यादिनवकस्योक्ता नो-कपाय-कपायता॥१॥-कर्मग्रन्थ, भा. १, पृ. ८४ २. (क) प्रज्ञापना (प्रमेयबोधिनी टीका), भा. ५, पृ. २५१ (ख) कर्मग्रन्थ, भा. १ (मरुधरकेसरीव्याख्या), पृ. ९४ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६] [तईसवाँ कर्मप्रकृतिपद] करे या शरीर आदि बने, उसे नामकर्म कहते हैं । नामकर्म के अपेक्षाभेद से १०३, ९३ अथवा ४२ या किसी अपेक्षा से ६७ भेद हैं। प्रस्तुत सूत्रों में नामकर्म के ४२ भेद कहे गए हैं, जिनका मूलपाठ में उल्लेख है। इनका लक्षण इस प्रकार है - (१) गति-नामकर्म- जिसके उदय से आत्मा मनुष्यादि गतियों में जाए अथवा नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य या देव की पर्याय प्राप्त करे। नारकत्व आदि पर्यायरूप परिणाम को गति कहते हैं। गति के ४ भेद हैं, – नरकगति आदि। इन गतियों को उत्पन्न करने वाला नामकर्म गतिनामकर्म है। (२) जाति-नामकर्म – एकेन्द्रियादि जीवों की एकेन्द्रियादि के रूप में जो समान परिणति (एकाकार अवस्था) उत्पन्न होती है, उसे जाति कहते हैं। स्पर्शन, रसन आदि पांच इन्द्रियों में से जीव एक, दो, तीन, चार या पांच इन्द्रियाँ प्राप्त करता है और एकेन्द्रियादि कहलाता है, इस प्रकार की जाति का जो कारणभूत कर्म है, उसे जातिनामकर्म कहते हैं। (३) शरीर-नामकर्म- जो शीर्ण (क्षण-क्षण में क्षीण) होता रहता है, वह शरीर कहलाता है। शरीरों का जनक कर्म शरीरनामकर्म है अर्थात् जिस कर्म के उदय से औदारिक, वैक्रिय आदि शरीरों की प्राप्ति हो, अर्थात् ये शरीर बनें। शरीरों के भेद से शरीरनामकर्म के ५ भेद हैं। (४) शरीर-अंगोपांग-नामकर्म- मस्तिष्क आदि शरीर के ८ अंग होते हैं । कहा भी है – सीसमुरोयरपिट्ठी-दो बाहू ऊरया य अटुंगा। अर्थात् सिर, उर, उदर, पीठ, दो भुजाएँ और दो जांघ, ये शरीर के आठ अंग है। इन अंगों के अंगुली अदि अवयव उपांग कहलाते हैं और उनके भी अंग जैसे अंगुलियों के पर्व आदि अंगोपांग हैं। जिस कर्म के उदय से अंग, उपांग अदि के रूप में पुद्गलों का परिणमन होता हो, अर्थात् जो कर्म अंगोपांगों का कारण हो, वह अंगोपांगनामकर्म है। यह कर्म तीन ही प्रकार का है, क्योंकि तैजस और कार्मण शरीर में अंगोपांग नहीं होते। (५) शरीरबन्धन-नामकर्म – जिसके द्वारा शरीर बंधे, अर्थात् जो कर्म पूर्वगृहीत औदारिकादि शरीर और वर्तमान में ग्रहण किये जाने वाले औदारिकादि पुद्गलों का परस्पर में, अर्थात् तैजस आदि पुदगलों के साथ सम्बन्ध उत्पन्न करे, वह शरीरबन्धननामकर्म है। (६) शरीर-संहनन-नामकर्म - हड्डियों की विशिष्ट रचना संहनन कहलाती है। संहनन औदारिक शरीर में ही हो सकता है, अन्य शरीर हड्डियों वाले नहीं होते। अतः जिस कर्म के उदय से शरीर में हड्डियों की संधियां सुदृढ़ होती हैं, उसे संहनन नामकर्म कहते हैं। (७) संघात-नामकर्म – जो औदारिक शरीर आदि के पुद्गलों को एकत्रित करता है अथवा जो शरीरयोग्य पुद्गलों को व्यवस्थित रूप से स्थापित करता है, उसे संघातनामकर्म कहते हैं। इसके ५ भेद हैं। (८) संस्थान-नामकर्म - संस्थान का अर्थ है – आकार। जिस कर्म में उदय से गृहीत, संघातित और बद्ध औदारिक आदि पुद्गलों के शुभ या अशुभ आकार बनते हैं, वह संस्थाननामकर्म है। इसके ६ भेद हैं। (९) वर्ण-नामकर्म – जिस कर्म के उदय से शरीर के काले, गोरे, भूरे आदि रंग होते हैं । अथवा जो कर्म Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र] [३७ शरीर में वर्णो का जनक हो, वह वर्ण-नामकर्म है। इसके भी ५ भेद होते हैं। (१०) गन्ध-नामकर्म – जिस कर्म के उदय से शरीर में अच्छी या बुरी गंध हो अर्थात् शुभाशुभ गंध का कारण भूत कर्म गन्धनामकर्म है। (११) रस-नामकर्म – जिस कर्म के उदय से शरीर में तिक्त, मधुर आदि शुभ-अशुभ रसों की उत्पत्ति हो, अर्थात् यह रसोत्पादन में निमित्त कर्म है। (१२) स्पर्श-नामकर्म – जिस कर्म के उदय से शरीर का स्पर्श कर्कश, मृदु, स्निग्ध, रूक्ष आदि हो, अर्थात् स्पर्श का जनक कर्म स्पर्श-नामकर्म हैं। (१३) अगुरुलघु - नामकर्म - जिस कर्म के उदय से जीवों के शरीर न तो पाषाण के समान गुरु (भारी हों और न ही रूई के समान लघु (हल्के) हों, वह अगुरुलघुनामकर्म है। (१४) उपघात-नामकर्म - जिस कर्म के उदय से अपना शरीर अपने ही अवयवों से उपहत – बाधित होता है, वह उपघातनामकर्म कहलाता है। जैसे – चोरदन्त, प्रतिजिह्वा (पडजीभ) आदि । अथवा स्वयं तैयार किये हुए उद्बन्ध (फांसी), भृगुपात आदि से अपने ही शरीर को पीडित करने वाला कर्म उपघातनामकर्म है। (१५) पराघात-नामकर्म - जिस कर्म के उदय से दूसरा प्रतिभाशाली, ओजस्वी, तेजस्वी जन भी पराजित या हतप्रभ हो जाता है, दब जाता है, उसे पराघातनामकर्म कहते हैं। (१६) आनुपूर्वी-नामकर्म - जिस कर्म के उदय से जीव दो, तीन या चार समय प्रमाण विग्रहगति से कोहनी, हल या गोमूत्रिका के आकार से भवान्तर में अपने नियत उत्पत्तिस्थान पर पहुंच जाता है, उसे आनुपूर्वीनामकर्म कहते हैं। (१७) उच्छ्वास-नामकर्म – जिस कर्म के उदय से जीव को उच्छ्वास - निःश्वासलब्धि की प्राप्ति होती है, वह उच्छ्वासनामकर्म है। (१८) आतप-नामकर्म - जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर स्वरूप से उष्ण न होकर भी उष्णरूप प्रतीत होता हो, अथवा उष्णता उत्पन्न करता हो, वह आतपनामकर्म कहलाता है। (१९) उद्योत-नामकर्म – जिस कर्म के उदय से प्राणियों के शरीर उष्णतारहित प्रकाश से युक्त होते हैं, वह उद्योतनांमकर्म है। जैसे - रत्न, औषधि, चन्द्र, नक्षत्र, तारा विमान आदि । (२०) विहायोगति-नामकर्म – जिस कर्म के उदय से जीव की चाल (गति) हाथी, बैल आदि की चाल के समान शुभ हो अथवा ऊँट, गधे आदि की चाल के समान अशुभ हो, उसे विहायोगतिनामकर्म कहते हैं। (२१) त्रस-नामकर्म - जो जीव त्रास पाते हैं, गर्मी आदि से संतप्त होकर छायादि का सेवन करने के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हैं, ऐसे द्वीन्द्रियादि जीव त्रस कहलाते हैं। जिस कर्म के उदय से त्रस-पर्याय की प्राप्ति हो वह त्रसनामकर्म है। (२२) स्थावर-नामकर्म - जो जीव सर्दी, गर्मी आदि से पीड़ित होने पर भी उस स्थान को त्यागने में Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८] [ तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद] समर्थ न हो, वह स्थावर कहलाता है। जैसे पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रिय जीव। जिस कर्म के उदय से स्थावर-पर्याय प्राप्त हो, उसे स्थावरनामकर्म कहते हैं। (२३) सूक्ष्म-नामकर्म – जिस कर्म के उदय से बहुत से प्राणियों के शरीर समुदित होने पर भी छद्मस्थ को दृष्टिगोचर न हों, वह सूक्ष्मनामकर्म है। इस कर्म के उदय से जीव अत्यन्त सूक्ष्म होता है। (२४) बादर-नामकर्म – जिस कर्म के उदय से जीव को बादर (स्थूल) काय की प्राप्ति हो, अथवा जो कर्म शरीर में बादर-परिणाम को उत्पन्न करता है, वह बादर नामकर्म है। (२५) पर्याप्त-नामकर्म – जिस कर्म के उदय से जीव अपने योग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण करने में समर्थ होता है, अर्थात् आहारादि के पुद्गलों को ग्रहण करके उन्हें आहारदि के रूप में परिणत करने की कारणभूत आत्मा की शक्ति से सम्पन्न हो, वह पर्याप्त नामकर्म है। (२६) अपर्याप्त-नामकर्म – जिस कर्म के उदय से जीव अपने योग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण न कर सके, वह अपर्याप्तनामकर्म है। (२७) साधारणशरीर-नामकर्म – जिस कर्म के उदय से अनन्त जीवों का एक ही शरीर हो, जैसे - निगोद के जीव। (२८) प्रत्येक शरीर - नामकर्म - जिस कर्म के उदय से प्रत्येक जीव का शरीर पृथक्-पृथक् हो। (२९) स्थिर-नामकर्म - जिस कर्म के उदय शरीर, अस्थि, दाँत आदि शरीर के अवयव स्थिर हों, उसे स्थिर नामकर्म कहते हैं। (३०) अस्थिर-नामकर्म – जिस कर्म के उदय से जीभ आदि शरीर के अवयव अस्थिर (चपल) हों । (३१) शुभ-नामकर्म - जिस कर्म के उदय से नाभि से ऊपर के अवयव शुभ हों । (३२) अशुभ-नामकर्म - जिस कर्म के उदय से नाभि से नीचे के चरण आदि शरीरावयव अशुभ हों, वह अशुभनामकर्म है। पैर से स्पर्श होने पर अप्रसन्नता होती है, यही अशुभत्व का लक्षण है। (३३) सुभग-नामकर्म - जिस कर्म के उदय से किसी का उपकार करने पर और किसी प्रकार का सम्बन्ध न होने पर भी व्यक्ति सभी को प्रिय लगता हो, वह सुभगनामकर्म है। (३४) दुर्भग-नामकर्म - जिस कर्म के उदय से उपकारक होने पर भी जीव लोक में अप्रिय हो, वह दुर्भगनामकर्म है। (३५) सुस्वर-नामकर्म – जिस कर्म के उदय से जीव का स्वर मधुर और सुरीला हो, श्रोताओं के लिए प्रमोद का कारण हो, वह सुस्वरनामकर्म है। जैसे - कोयल का स्वर । . (३६) दुःस्वर-नामकर्म - जिस कर्म के उदय से जीव का स्वर कर्कश और फटा हुआ हो, उसका स्वर श्रोताओं की अप्रीति का कारण हो। जैसे – कौए का स्वर। (३७) आदेय-नामकर्म – जिस कर्म के उदय से जीव जो कुछ भी कहे या करे, उसे लोग प्रमाणभूत Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३९ [प्रज्ञापनासूत्र] माने, स्वीकार कर लें, उसके वचन का आदर करें, वह आदेयनामकर्म है। . (३८) अनादेय-नामकर्म - जिस कर्म के उदय से समीचीन भाषण करने पर भी उसके वचन ग्राह्य या मान्य न हों, लोग उसके वचन का अनादर करें, वह अनादेयनामकर्म है। (३९) यश:कीर्ति-नामकर्म - जिस कर्म के उदय से लोक में यश और कीर्ति फैले। शौर्य, पराक्रम, त्याग, तप आदि के द्वारा उपार्जित ख्याति के कारण प्रशंसा होना, यश:कीर्ति है । अथवा सर्व दिशाओं में प्रसा फैले उसे कीर्ति और एक दिशा में फैले उसे यश कहते हैं। (४०) अयशःकीर्ति-नामकर्म – जिस कर्म के उदय से सर्वत्र अपकीर्ति हो, बुराई या बदनामी हो, मध्यस्थजनों के भी अनादर का पात्र हो। (४१) निर्माण-नामकर्म – जिस कर्म के उदय से प्राणियों के शरीर में अपनी-अपनी जाति के अनुसार अंगोपांगों का यथास्थान निर्माण हो. उसे निर्माणनामकर्म कहते हैं। (४२) तीर्थंकर नामकर्म - जिस कर्म के उदय से चौंतीस अतिशय और पैंतीस वाणी के गुण प्रकट हों, वह तीर्थंकरनामकर्म कहलाता है। नामकर्म के भेदो के प्रभेद - गतिनामकर्म के ४, जातिनाकर्म के ५, शरीरनामकर्म के ५, शरीरांगोपांगनामकर्म के ३, शरीरबन्धननामकर्म के ५, शरीरसंघातनामकर्म के ५, संहनननामकर्म के ६, संस्थाननामकर्म के ६, वर्णानामकर्म के ५, गन्धनामकर्म के २, रसनामकर्म के ५, स्पर्शनामकर्म के ८, अगुरुलघुनामकर्म का एक उपघात, पराघात नामकर्म का एक-एक, आनुपूर्वी नामकर्म के चार तथा आतपनाम, उद्योतनाम, त्रसनाम, स्थावरनाम, सूक्ष्मनाम, बादरनाम, पर्याप्तनाम, अपर्याप्तनाम, साधारणशरीरनाम, प्रत्येकशरीरनाम, स्थिरनाम, अस्थिरनाम, शुभनाम, अशुभनाम, सुभगनाम, दुर्भगनाम, सुस्वरनाम, दुःस्वरनाम, आदेयनाम, अनादेयनाम, यश:कीर्तिनाम, अयश:कीर्तिनाम, निर्माणनाम और तीर्थंकरनामकर्म के एक-एक भेद हैं । विहायोगतिनामकर्म के दो भेद हैं। गोत्रकर्म : स्वरूप और प्रकार - जिस कर्म के उदय से जीव उच्च अथवा नीच कुल में जन्म लेता है उसे गोत्रकर्म कहते है। इसके दो भेद हैं । जिस कर्म के उदय से लोक में सम्मानित, प्रतिष्ठित जाति, कुल आदि की प्राप्ति होती है तथा उत्तम बल, तप, रूप, ऐश्वर्य, सामर्थ्य, श्रुत, सम्मान उत्थान, आसनप्रदान, अंजलिकरण आदि की प्राप्ति होती है, वह उच्चगोत्रकर्म है। जिस कर्म के उदय से लोक में निन्दित कुल, जाति की प्राप्ति होती हो, उसे नीचगोत्रकर्म कहते हैं । सुघट और मद्यघट बनाने वाले कुम्भकार के समान गोत्रकर्म का स्वभाव है। उच्चगोत्र और नीचगोत्र के क्रमशः आठ-आठ भेद हैं।' ___ अन्तरायकर्म : स्वरूप, प्रकार और लक्षण – जिस कर्म के उदय से जीव को दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य (पराक्रम) में अन्तराय (विघ्न-बाधा) उत्पन्न हो, उसे अन्तरायकर्म कहते हैं। इसके ५ भेद हैं, इनके लक्षण क्रमश: इस प्रकार हैं - १. (क) प्रज्ञापना (प्रमेयबोधिनी टीका), भा. १, पृ. ९८ से १०३ तक (ख) वही, भा. ५, पृ. २५२ से २५७ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०] [तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद] दानान्तराय - दान की सामग्री पास में हो, गुणवान् पात्र दान लेने के लिए सामने हो, दान का फल भी ज्ञात हो, दान की इच्छा भी हो, फिर भी जिस कर्म के उदय से जीव दान न दे पाये उसे दानान्तरायकर्म कहते हैं । - लाभान्तराय – दाता उदार हो, देय वस्तु भी विद्यमान हो, लेने वाला भी कुशल एवं गुणवान् पात्र हो, फिर भी जिस कर्म के उदय से उसे इष्ट वस्तु की प्राप्ति न हो, उसे लाभान्तरायकर्म कहते हैं। भोगान्तराय - जो पदार्थ एक बार भोगे जाएँ उन्हें भोग कहते हैं जैसे - भोजन आदि। भोग के विविध साधन होते हुए भी जीव जिस कर्म के उदय से भोग्य वस्तुओं का भोग (सेवन) नहीं कर पाता, उसे 'भोगान्तरायकर्म' कहते हैं। उपभोगान्तराय – जो पदार्थ बार-बार भोगे जाएं, उन्हें उपभोग कहते हैं। जैसे-मकान, वस्त्र, आभूषण आदि। उपभोग की सामग्री होते हुए भी जिस के उदय से जीव उस सामग्री का उपभोग न कर सके, उसे 'उपभोगान्तरायकर्म' कहते हैं। वीर्यान्तराय – वीर्य का अर्थ है पराक्रम, सामर्थ्य, पुरुषार्थ । नीरोग, शक्तिशाली, कार्यक्षम एवं युवावस्था होने पर भी जिस कर्म के उदय से जीव अल्पप्राण, मन्दोत्साह, आलस्य, दौर्बल्य के कारण कार्यविशेष में पराक्रम न कर सके, शक्ति सामर्थ्य का उपयोग न कर सके, उसे वीर्यान्तरायकर्म कहते हैं। ____ इस प्रकार आठों कर्मों के भेद-प्रभेदों का वर्णन सू. १६८७ से १६९६ तक है। कर्मप्रकृतियों की स्थिति की प्ररूपणा १६९७. णाणावरणिजस्स णं भंते! कम्मस्स केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ; तिण्णि य बाससहस्साई अबाहा, अबाहूणिया कम्मठिती कम्मणिसेगो। [१६९७ प्र.] भगवन् ! ज्ञानावरणीयकर्म की स्थिति कितने काल की कही है? - [१६९७ उ.] गौतम! (उसकी स्थिति) जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट तीस कोडा - कोडी सागरोपम की है। उसका अबाधाकाल तीन हजार वर्ष का हे। सम्पूर्ण कर्मस्थिति (काल) में से अबाधाकाल को कम करने पर (शेष कल) कर्मनिषेक का काल है। १६९८. [१] निद्दापंचयस्स णं भंते! कम्मस्स केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा! जहण्णेणं सागरोवमस्स तिण्णि सत्तभागा पलिओवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणया, उक्कोसेणं तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ; तिण्णि य वाससहस्साइं अबाहा, अबाहूणिया कम्मठिती कम्मणिसेगो। १. (क) वही, भा. ५ पृ. २७५-७६ ___ (ख) कर्मग्रन्थ, भा. १.(मरु. व्या.) पृ. १५१ २. (क) वही, भा. ५, पृ. १५१ (ख) प्रज्ञापना (प्रमेयबोधिनीटीका), भा. ५, पृ. २७७-७८ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रज्ञापनासूत्र ] [१६९८ -१ प्र.] भगवन्! निद्रापंचक (दर्शनावरणीय) कर्म की स्थिति कितने काल की कही है ? [१६९८ - १ उ.] गौतम! ( उसकी स्थिति) जघन्य पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग कम, सागरोपम के ३/७ भाग की है और उत्कृष्ट तीस कोडाकोडी सागरोपम की है। उसका अबाधाकाल तीन हजार वर्ष का है तथा (सम्पूर्ण) कर्मस्थिति (काल) में से अबाधाकाल को कम करने पर (शेष) कर्मनिषेककाल है। [ २ ] दंसणचउक्कस्स णं भंते! कम्मस्स केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोमा ! जहणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ; तिण्णि य बाससहस्साइं अबाहा 0 । [१६९८-२ प्र.] भगवन्! दर्शनचतुष्क (दर्शनावरणीय) कर्म की स्थिति कितने काल की कही है ? [१६९८-२ उ.] गौतम! ( उसकी स्थिति) जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट तीस कोडाकोडी सागरोपम की । उसका अबाधाकाल तीन हजार वर्ष का है। (निषेककाल पूर्ववत् है ।) १६९९. [ १ ] सातावेयणिज्जस्स इरियावहियबंधगं पडुच्च अजहण्णमणुक्को सेणं दो समया, संपराइयबंधगं पडुच्च जहण्णेणं बारस मुहुत्ता, उक्कोसेणं पण्णरस सागरोवमकोडाकोडीओ; पण्णरस य वाससयाई अबाहा० । [४१ [१६९९-१] सातावेदनीयकर्म की स्थिति ईर्यापथिक बन्धक की अपेक्षा जघन्य - उत्कृष्ट-भेदरहित दो समय की है तथा साम्परायिक बन्धक की अपेक्षा जघन्य बारह मुहूर्त की और उत्कृष्ट पन्द्रह कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका अबाधाकाल पन्द्रह सौ वर्ष का है। (निषेककाल पूर्ववत् है ।) [ २ ] असायावेयणिज्जस्स जहण्णेणं सागरोवमस्स तिण्णि सत्तभागा पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणगा, उक्कोसेणं तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ; तिण्णि य वाससहस्साइं अबाहा० । [१६९९-२] असातावेदनीयकर्म की स्थिति जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के सात भागों में से तीन भाग की (अर्थात् ३/७ भाग की ) है और उत्कृष्ट तीस कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका अबाधाकाल तीन हजार वर्ष का है (निषेककाल पूर्ववत् है ) । १७००. [ १ ] सम्मत्तवेयणिज्जस्स पुच्छा । गोमा ! जहणणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं छावट्ठि सागरोव माई साइरेगाई | [१७०० -१ प्र.] भगवन् ! सम्यक्त्व - वेदनीय (मोहनीय) की स्थिति कितने काल की है ? [१७००-१ उ.] गौतम! उसकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट कुछ अधिक छियासठ सागरोपम की है। [ २ ] मिच्छत्तवेयणिज्जस्स जहणणेणं सागरोवमं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणगं, उक्कोसेणं सत्तरि कोडाकोडीओ; सत्त य वाससहस्साइं अबाहा, अबाहूणिया० । [१७००-२] मिथ्यात्व - वेदनीय (मोहनीय) की जघन्य स्थिति पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग कम एक Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२] [तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद] सागरोपम की है और उत्कृष्ट सत्तर कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका आबाधाकाल सात हजार वर्ष का है तथा कर्मस्थिति में से अबाधाकाल कम करने पर (शेष) कर्मनिषेककाल है। [३] सम्मामिच्छत्तवेदणिजस्स जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं। [१७००-३] सम्यग्-मिथ्यात्ववेदनीय (मोहनीय) कर्म की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त की है। .. [४] कसायबारसगस्स जहण्णेणं सागरोवमस्स चत्तारि सत्तभागा पलिओवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणया, उक्कोसेणं चत्तालीसं सागरोवमकोडकोडीओ; चत्तालीसं वाससयाई अबाहा, जाव णिसेगो। [१७००-४] कषायद्वादशक (आदि के बारह कषायों) की जघन्य स्थिति पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग कम सागरोपम के सात भागों में से चार भाग की (अर्थात् ४/७ भाग की) है और उत्कृष्ट स्थिति चालीस कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका अबाधाकाल चालीस सौ (चार हजार) वर्ष का है तथा कर्मस्थिति में से अबाधाकाल कम करने पर जो शेष बचे, वह निषेककाल है। [५] कोहसंजलणाए पुच्छा। गोयमा! जहण्णेणं दो मासा, उक्कोसेणं चत्तालीसं सागरोवमकोडाकोडीओ; चत्तालीसं वाससयाई जाव णिसेगो। [१७००-५ प्र.] संज्वलन-क्रोध की स्थिति सम्बन्धी प्रश्न है। [१७००-५ उ.] गौतम ! (संज्वलन-क्रोध की स्थिति) जघन्य दो मास की है और उत्कृष्ट चालीस कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका अबाधाकाल चालीस सौ वर्ष (चार हजार वर्ष) का है, यावत् निषेक अर्थात्-कर्मस्थिति (काल)में अबाधाकाल कम करने पर (शेष) कर्मनिषेककाल समझना। [६] माणसंजलणाए पुच्छा। गोयमा! जहण्णेणं मासं, उक्कोसेणं जहा कोहस्स। [१७००-६ प्र.] मान-संज्वलन की स्थिति के विषय में प्रश्न है। [१७००-६ उ.] गौतम! उसकी स्थिति जघन्य एक मास की है और उत्कृष्ट क्रोध की स्थिति के समान है। [७] मायासंजलणाए पुच्छा। गोयमा! जहण्णेणं अद्धमासं, उक्कोसेणं जहा कोहस्स। [१७००-७ प्र.] माया-संज्वलन की स्थिति के सम्बन्ध में प्रश्न है। [१७००-७ उ.] गौतम! उसकी स्थिति जघन्य अर्धमास की है और उत्कृष्ट स्थिति क्रोध के बराबर है। [८] लोभसंजलणाए पुच्छा। गोयमा! जहण्णेणं अतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं जहा कोहस्स। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र] [४३ [१७००-८ प्र.] लोभ-संज्वलन की स्थिति के विषय में प्रश्न है। [१७००-८ उ.] गौतम! इसकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट स्थिति क्रोध के समान, इत्यादि पूर्ववत्। [९] इत्थिवेदस्स णं० पुच्छा। गोयमा! जहण्णेणं सागरोवमस्स दिवड्ढे सत्तभागं पलिओवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणयं, उक्कोसेणं पण्णरस सागरोवमकोडाकोडीओ; पण्णरस य वाससयाई अबाहा०। [१७००-९ प्र.] स्त्रीवेद की स्थिति-सम्बन्धी प्रश्न है। [१७००-९ उ.] गौतम! उसकी जघन्य स्थिति पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग कम सागरोपम के सात भागों में से डेढ भाग( १॥ भाग) की है और उत्कृष्ट पन्द्रह कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका आबाधाकाल पन्द्रह सौ वर्ष का है। [१०] पुरिसवेयस्स णं० पुच्छा। गोयमा! जहण्णेणं अट्ठ संवच्छराई, उक्कोसेणं दस सागरोवमकोडाकोडीओ; दस य वाससयाई अबाहा, जाव निसेगो। [१७००-१० प्र.] पुरुषवेद की स्थिति-सम्बन्धी प्रश्न है। [१७००-१० उ.] इसकी जघन्य स्थिति आठ संवत्सर (वर्ष) की है और उत्कृष्ट दस कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका अबाधाकाल दस सौ(एक हजार वर्ष) का है। निषेककाल पूर्ववत् जानना। [११] नपुंसगवेदस्स णं० पुच्छा। गोयमा! जहण्णेणं सागरोवमस्स दुण्णि सत्तभागा पलिओवमस्स असंखिजइभागेणं ऊणगा, उक्कोसेणं वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ; वीसति वाससयाई अबाहा०। [१७००-११ प्र.] नपुंसकवेद की स्थिति-सम्बन्धी प्रश्न है । [१७००-११ उ.] गौतम! इसकी स्थिति जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के २/७ भाग की है और उत्कृष्ट बीस कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका अबाधाकाल बीस सौ (दो हजार) वर्ष का है। [१२] हास-रतीणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं सागरोवमस्स एक्कं सत्तभागं पलिओवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणं, उक्कोसेणं दस सागरोवमकोडाकोडीओ; दस य वाससयाइं अबाहा । [१७००-१२ प्र.] हास्य और रति की स्थिति के विषय में पृच्छा है। [१७००-१२ उ.] गौतम! इनकी जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के १/७ भाग की है और उत्कृष्ट दस कोडाकोडी सागरोपम की है तथा इसका अबाधाकाल दस सौ (एक हजार) वर्ष का है। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद] [१३] अरइ-भय-सोग-दुगुंछाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं सागरोवमस्स दोण्णि सत्तभागा पलिओवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणया, उक्कोसेणं वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ; वीसतिं वाससयाइ अबाहा० । [१७००-१३ प्र.] भगवन् ! अरति, भय, शोक और जुगुप्सा (मोहनीयकर्म) की स्थिति कितने काल की है ? [१७००-१२ उ.] गौतम! इनकी जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के २/७ भाग की है और उत्कृष्ट बीस कोडाकोडी सागरोपम की है। इनका अबाधाकाल बीस सौ (दो हजार) वर्ष का है। १७०१. [१] णेरइयाउयस्स णं. पुच्छा। गोयमा! जहण्णेणं दस वाससहस्साई अंतोमुहुत्तमब्भहियाई उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई पुव्वकोडीतिभागमब्भहियाई। [१७०१-१ प्र.] भगवन् ! नरकायु की स्थिति कितने काल की कही गई है? [१७००-११ उ.] गौतम! नरकायु की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त-अधिक दस हजार वर्ष की है और उत्कृष्ट करोड़ पूर्व के तृतीय भाग अधिक तेतीस सागरोपम की है। [२] तिरिक्खजोणियाउअस्स पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाइं पुव्वकोडितिभागमब्भहियाई। [१७०१-२ प्र.] इसी प्रकार तिर्यञ्चायु की स्थिति सम्बन्धी प्रश्न है। [१७०१-२ उ.] गौतम! इसकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहुर्त की है और उत्कृष्ट स्थिति पूर्वकोटि के त्रिभाग अधिक तीन पल्योपम की है। [३] एवं मणूसाउअस्स वि। [१७०१-३] इसी प्रकार मनुष्यायु की स्थिति के विषय में जानना चाहिए। [४] देवाउअस्स जहा णेरइयाउअस्स ठिति त्ति। [१७०१-४] देवायु की स्थिति नरकायु की स्थिति के समान जाननी चाहिए। १७०२. [१] णिरयगतिणामए णं भंते ! कम्मस्स० पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं सागरोवमसहस्सस्स दो सत्तभागा पलिओवमस्स असंखेजतिभागेणं ऊणगा, उक्कोसेणं वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ; वीस य वाससयाई अबाहा०। [१७०२-१ प्र.] भगवन् ! नरकगति-नामकर्म की स्थिति कितने काल की कही है ? [१७०२-१ उ.] गौतम! इसकी जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम एक सागरोपम के २७ भाग की है और उत्कृष्ट बीस कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका अबाधाकाल बीस सौ (दो हजार) वर्ष का है। [२] तिरियगतिणामए जहा णपुंसगवेदस्स (सु. १७०० [११])। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रज्ञापनासूत्र ] [ ४५ [१७०२-२] तिर्यञ्चगति-नामकर्म की स्थिति (सु. १७०० - ११ में उल्लिखित) नपुंसकवेद की स्थिति के समान है। [३] मणुयगतिणामए पुच्छा । गोयमा! जहणेणं सागरोवमस्स दिवड्ढं सत्तभागं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणगं, उक्कोसेणं पण्णरस सागरोवमकोडाकोडीओ; पण्णरस य वाससयाइं अबाहा० । [१७०२-३ प्र.] भगवन् ! मनुष्यगति-नामकर्म की स्थिति कितने काल की कही है ? ७ [ १७०२ - ३ उ.] गोयमा ! इसकी स्थिति जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के १" भाग की है और उत्कृष्ट पन्द्रह कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका अबाधाकाल पन्द्रह सौ वर्ष का है 1 [ ४ ] देवगतिणामए णं० पुच्छा । गोयमा ! जहण्णेणं सागरोवमसहस्सस्स एक्कं सत्तभागं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणगं, उक्कोसेणं जहा पुरिसवेयस्स (सु. १७०० [१०] ) [१७०२-४ प्र.] भगवन् ! देवगति नामकर्म की स्थिति कितने काल की कही है ? [१७०२-४ उ.] गोयमा ! इसकी जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सहस्रसागरोपम के १/७ भाग की है उत्कृष्ट स्थिति ( १७०० - १० में उल्लिखित) पुरुषवेद की स्थिति के तुल्य है । [५] एगिंदियजाइणामए पुच्छा । गोयमा ! जहणेणं सागरोवमस्स दोण्णि सत्तभागा पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणगा, उक्कोसेणं वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ; वीस य वाससयाई अबाहा० । [१७०२-५ प्र.] एकेन्द्रिय जाति - नामकर्म की स्थिति के विषय में प्रश्न है 1 [१७०२-५ उ.] गोयमा ! इसकी जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के २/७ भाग की है और उत्कृष्ट बीस कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका अबाधाकाल बीस सौ (दो हजार) वर्ष का है। [कर्मस्थिति में से अबाधाकाल कम इसका निषेककाल है ] । [६] बेइंदियजातिणामए णं० पुच्छा। गोयमा ! जहणेणं सागरोवमस्स णव पणतीसतिभागा पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणगा, उक्कोसेणं अट्ठारस सागरोवमकोडाकोडीओ; अट्ठारस य वाससयाई अबाहा० । [ १७०२-६ प्र.] द्वीन्द्रिय-जाति-नामकर्म की स्थिति के विषय में प्रश्न है । [१७०२-६ उ.] गोयमा ! इसकी जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के ९/३५ वें भाग की है और उत्कृष्ट स्थिति अठारह कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका अबाधाकाल अठारह सौ वर्ष का है। [कर्मस्थिति में से अबाधाकाल कम करने पर शेष कर्म-निषेक-काल है ।] Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६] [ तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद] [७] तेइंदयजाइणामए णं जहण्णेणं एवं चेव, उक्कोसेणं, अठारस सागरोवमकोडाकोडीओ; अट्ठारस य वाससयाई अबाहा०। [१७०२-७ प्र.] त्रीन्द्रिय-जाति-नामकर्म की स्थिति-सम्बन्धी पृच्छा है। [१७०२-७ उ.] इसकी जघन्य स्थिति पूर्ववत् है। उत्कृष्ट स्थिति अठारह कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका अबाधाकाल अठारह सौ वर्ष का है। [८] चउरिदियजाइणामए णं० पुच्छा। जहण्णेणं सागरोवमस्स नव पणतीसतिभागा पलिओवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणया, उक्कोसेणं अट्ठारस सागरोवमकोडाकोडीओ; अट्ठारस य वाससयाई अबाहा०। [१७०२-८ प्र.] चतुरिन्द्रिय-जाति-नामकर्म की स्थिति के सम्बन्ध में प्रश्न है। [१७०२-८ उ.] गौतम ! इसकी जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के ९/३५ भाग . की है और उत्कृष्ट स्थिति अठारह कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका अबाधाकाल अठारह सौ वर्ष का है। [९] पंचेंदियजाइणामए णं० पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं सागरोवमस्स दोण्णि सत्तभागा पलिओमस्स असंखेजभागेणं ऊणगा, उक्कोसेणं वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ; वीस य वाससयाई अबाहा०।। [१७०२-९ प्र.] भगवन् ! पंचेन्द्रिय-जाति-नामकर्म की स्थिति कितने काल की कही गई है? - . [१७०२-९ उ.] गौतम ! इसकी जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के २/७ भाग की है और उत्कृष्ट स्थिति बीस कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका अबाधाकाल बीस सौ (दो हजार) वर्ष का है। [१०] ओरालियसरीरणामए वि एवं चेव। [१७०२-१०] औदारिक-शरीर-नामकर्म की स्थिति भी इसी प्रकार समझनी चाहिए। [११] वेउव्वियसरीरणामए णं भंते !० पुच्छा। गोयमा !जहण्णेणं सागरोवमसहस्सस्स दो सत्तभागा पलिओवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणया, उक्कोसेणं वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ; वीस य वाससयाई अबाहा०। [१७०२-११ प्र.] भगवन् ! वैक्रिय-शरीर-नामकर्म की स्थिति कितने काल की कही है ? [१७०२-११ उ.] गौतम ! इसकी जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सहस्र सागरोपम के २७ . भाग की है और उत्कृष्ट स्थिति बीस कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका अबाधाकाल बीस सौ वर्ष का है। [१२] आहारगसरीरणामए जहण्णेणं अंतोसागरोवमकोडाकोडीओ; उक्कोसेण वि अंतोसागरोवमकोडाकोडीओ। [१७०२-१२] आहारक-शरीर-नामकर्म की जघन्य स्थिति अन्त:सागरोपम कोडाकोडी की है और उत्कृष्ट Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र] [४७ स्थिति भी अन्तः सागरोपम कोडाकोडी की है। [१३] तेया-कम्मसरीरणामए जहण्णेणं [ सागरोवमस्स ] दोण्णि सत्तभागा पलिओवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणया, उक्कोसेणं वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ; वीसं य वाससयाई अबाहा०। [१७०२-१३] तैजस और कार्मण-शरीर-नामकर्म की जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के २/७ भाग की है तथा उत्कृष्ट स्थिति बीस कोडाकोडी सागरोपम की है। इनका अबाधाकाल बीस सौ (दो हजार) वर्ष का है। [१४] ओरालिय-वेउव्विय-आहारगसरीरंगोवंगणामए तिण्णि वि एवं चेव। ___ [१७०२-१४] औदारिकशरीरांगोपांग, वैक्रियशरीरांगोपांग ओर आहारकशरीरांगोपांग, इन तीनों नामकर्मों की स्थिति भी इसी प्रकार (पूवर्वत्) है। [१५] सरीरबंधणणामए वि पंचण्ह वि एवं चेव। [१७०२-१५] पांचों शरीरबन्धन-नामकर्मों की स्थिति भी इसी प्रकार है। - [१६] सरीरसंघायणामए पंचण्ह वि जहा सरीरणामए (सु. १७०२ [१०-१३ ]) कम्मस्स ठिति त्ति। [१७०२-१६] पांचों शरीरसंघात-नामकर्मों की स्थिति (सू. १७०२-१०-१३ में उल्लिखित) शरीर-नामकर्म की स्थिति के समान है। [१७] वइरोसभणारायसंघयणणामए जहा रतिणामए (सु. १७०० [१२])। __ [१७०२-१७] वज्रऋषभनाराचसंहनन-नामकर्म की स्थिति (सू. १७००-१२ में उल्लिखित) रति-नामकर्म की स्थिति के समान है। [१८] उसभणारायसंघयणणामए पुच्छा। गोयमा! जहण्णेणं सागरोवमस्स छ पणतीसतिभागा पलिओवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणया, उक्कोसेणं बारस सागरोवमकोडाकोडीओ; बारस य वाससयाई अबाहा० । [१७०२-१८ प्र.] भगवन्! ऋषभनाराचसंहनन-नामकर्म की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [१७०२-१८ उ.] गौतम! इस की स्थिति जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के ६/३५ भाग की है और उत्कृष्ट बारह कोडाकोडी सागरोपम की है तथा इसका अबाधाकाल बारह सौ वर्ष का हे । . [१९] णारायसंघयणणामए जहण्णेणं सागरोवमस्स सत्त पणतीसतिभागा पलिओवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणगा, उक्कोसेणं चोइस सागरोवमकोडाकोडीओ; चोद्दस य वाससयाई अबाहा०। . [१७०२-१९] नाराचसंहनन-नामकर्म की जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम ७/३५ सागरोपम की है तथा उत्कृष्ट स्थिति चौदह कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका अबाधाकाल चौदह सौ वर्ष का है। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८] [ तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद] [२०] अद्धणारायसंघयणणामस्स जहण्णेणं सागरोवमस्स अट्ठ पणतीसतिभागा पलिओवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणगा, उक्कोसेणं सोलस च वाससयाई अबाहा०। । [१७०२-२०] अर्द्धनाराचसंहनन-नामकर्म की जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के ८/३५ भाग की है और उत्कृष्ट स्थिति सोलह कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका अबाधाकाल सोलह सौ वर्ष का है। [२१] खीलियासंघयणे णं० पुच्छा। ___ गोयमा! जहण्णेणं सागरोवमस्स णव पणतीसतिभागा पलिओवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणगा, उक्कोसेणं अट्ठारस सागरोवमकोडाकोडीओ; अट्ठारस य वाससयाई अबाहा० । [१७०२-२१ प्र.] कीलिकासंहनन-नामकर्म की स्थिति के विषय में प्रश्न है। [१७०२-२१ उ.] गौतम! इसकी जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के ९/३५ भाग की है और उत्कृष्ट स्थिति अठारह कोडाकोडी सागरोपम है। इसका अबाधाकाल अठारह सौ वर्ष का है। [२२] सेवट्टसंघयणणामस्स पुच्छा । गोयमा! जहण्णेणं सागरोवभस्स दोण्णि सत्तभागा पलिओवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणगा, उक्कोसेणं वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ; वीस य वाससयाई अबाहा०। [१७०२-२२ प्र.] सेवार्तसंहनन-नामकर्म की स्थिति के विषय में पृच्छा है । [१७०२-२२ उ.] गौतम! जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के २७ भाग की है और उत्कृष्ट स्थिति बीस कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका अबाधाकाल बीस सौ (दो हजार) वर्ष का है। [२३ ] एवं जहा संघयणणामए छ भणिया एवं संठाणा वि छ भाणियव्वा। [१७०२-२३] जिस प्रकार छह संहनननामकर्मों की स्थिति कही, उसी प्रकार छह संस्थाननामकर्मों की भी स्थिति कहनी चाहिए। [२४] सुक्किलवण्णनामए पुच्छा । गोयमा! जहण्णेणं सागरोवमस्स एगं सत्तभागं पलिओवमस्स असंखिज्जइभागेणं ऊणगं, उक्कोसेणं दस सागरोवमकोडाकोडीओ; दस य वाससयाइं अबाहा०। [१७०२-२४ प्र.] शुक्लवर्ण-नामकर्म की स्थिति-सम्बन्धी प्रश्न है। __ [१७०२-२४ उ.] गौतम! इसकी जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के १७ भाग की है और उत्कृष्ट स्थिति दस कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका अबाधाकाल दस सौ (एक हजार) वर्ष का है। [२५] हालिद्दवण्णणामए पुच्छा। गोयमा! जहण्णेणं सागरोवमस्स पंच अट्ठावीसतिभागा पलिओवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणगा, Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रज्ञापनासूत्र ] उक्कोसेणं अद्धतेरस सागरोवमकोडाकोडीओ; अद्धतेरस य वाससयाइं अबाहा० । [ १७०२ - २५ प्र.] पीत (हारिद्र) वर्ण - नामकर्म की स्थिति के 'सम्बन्ध में पृच्छा है। [ १७०२ - २५ उ. ] गौतम ! इसकी जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के ५/२८ भाग की है और उत्कृष्ट स्थिति साढ़े बारह कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका अबाधाकाल साढ़े बारह सौ वर्ष का है। [ २६ ] लोहियवण्णणामए णं० पुच्छा । 1 गोयमा! जहण्णेणं सागरोवमस्स छ अट्ठावीसतिभागा पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणगा, उक्कोसेणं पण्णरस सागरोवमकोडाकोडीओ; पण्णरस य वाससयाइं अबाहा० । [४९ [१७०२-२६ प्र.] भगवन् ! रक्त (लोहित) वर्ण - नामकर्म की स्थिति कितने काल की कही है ? [ १७०२ - २६ उ. ] गौतम! इसकी जघन्य स्थिति पल्योपम के उसंख्यातवें भाग कम सागरोपम के ६/२८ भाग की है और उत्कृष्ट स्थिति पन्द्रह कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका अबाधाकाल पन्द्रह सौ वर्ष का है। [ २७ ] णीलवण्णणामए पुच्छा । . गोयमा ! जहण्णेणं सागरोवमस्स सत्त अट्ठावीसतिभागा पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेण ऊणया, उक्कोसेणं अद्धट्ठारस सागरोवमकोडाकोडीओ; अद्धद्वारस य वाससयाइं अबाहा० । [१७०२-२७ प्र.] नीलवर्ण - नामकर्म की स्थिति-विषयक प्रश्न है। [ १७०२-२७ उ.] गौतम! इसकी जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के ७/२८ भाग की है और उत्कृष्ट स्थिति साढ़े सत्तरह कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका अबाधाकाल साढ़े सत्तरह सौ वर्ष का है। [ २८ ] कालवण्णणामए जहा सेवट्टसंघयणस्स (सु. १७०२ [२२])। [१७०२-२८] कृष्णवर्ण - नामकर्म की स्थिति (सू. १७०२ - २२ में उल्लिखित) सेवार्त्तसंहनननामकर्म की स्थिति के समान है। [२९] सुब्भिगंधणामए पुच्छा । गोयमा ! जहा सुक्किलवण्णणामस्स (सु. १७०२ [२४])। [१७०२-२९ प्र.] सुरभिगन्ध-नामकर्म की स्थिति-सम्बन्धी प्रश्न है । [१७०२-२९ उ.] गौतम ! इसकी स्थिति (सू. १७०२ - २४ में उल्लिखित) शुक्लवर्ण - नामकर्म की स्थिति के समान है। [३०] दुब्भिगंधणामए जहा सेवट्ठसंघयणस्स । [१७०२-३०] दुरभिगन्ध-नामकर्म की स्थिति सेवार्त्तसंहनन नामकर्म (की स्थिति) के समान ( जानना चाहिए।) Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद] [३१] रसाणं महुरादीणं जहा वण्णाणं भणियं (सु. १७०२[ २४-२८ ]) तहेव परिवाडीए भाणियव्वं । [१७०२-३१] मधुर आदि रसों की स्थिति का कथन (सू. १७०२-२४-२८ में उल्लिखित) वर्गों की स्थिति के समान उसी क्रम (परिपाटी) से कहना चाहिए । [३२] फासा जे अपसत्था तेसिं जहा सेवट्टस्स, जे पसत्था तेसिं जहा सुक्किलवण्णणामस्स (सु. १७०२ [२४])। [१७०२-३२] जो अप्रशस्त स्पर्श हैं, उनकी स्थिति सेवार्तसंहनन की स्थिति के समान तथा प्रशस्त स्पर्श हैं, उनकी स्थिति (सू. १७०२८२४में उल्लिखित) शुक्लवर्ण-नामकर्म की स्थिति के समान कहनी चाहिए। [३३] अगुरुलहुणामए जहा सेवट्टस्स। [१७०२-३३] अगुरुलघु-नामकर्म की स्थिति सेवार्तसंहनन की स्थिति के समान जानना चाहिये। [३४] एवं उवघायणामए वि। [१७०२-३४] इसी प्रकार उपघात-नामकर्म की स्थिति के विषय में भी कहना चाहिए। [३५] पराघायणामए वि एवं चेव। [१७०२-३५] पराघात-नामकर्म की स्थिति के विषय मे भी इसी प्रकार है। [३६] णिरयाणुपुग्विणामए पुच्छा । गोयमा! जहण्णेणं सागरोवमसहस्सस्स दो सत्तभागा पलिओवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणगा, उक्कोसेणं वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ; वीस य वाससयाई अबाहा० । [१७०२-३६ प्र.] नरकानुपूर्वी-नामकर्म की स्थिति सम्बन्धी पृच्छा है । [१७०२-३६ उ.] गौतम! जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सहस्र सागरोपम के २/७ भाग की है तथा उत्कृष्ट स्थिति बीस कोडाकोडी सागरोपम की है। बीस सौ (दो हजार) वर्ष का इसका अबाधाकाल है। [३७] तिरियाणुपुव्वीए पुच्छा । गोयमा! जहण्णेणं सागरोवमस्स दो सत्तभगा पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणगा, उक्कोसेणं वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ; वीस य वाससयाई अबाहा०। [१७०२-३७ प्र.] भगवन्! तिर्यञ्चानुपूर्वी की स्थिति कितने काल की कही है ? [१७०२-३७ उ.] गौतम! इसकी जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के २/७ भाग की है और उत्कृष्ट स्थिति बीस कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका अबाधाकाल बीस सौ (दो हजार) वर्ष का है। [३८] मणुयाणुपुविणामए णं पुच्छा । गोयमा! जहण्णेणं सागरोवमस्स दिवड्ढं सत्तभागं पलिओवमस्स असंखेजइभागेण ऊणगं, उक्कोसेणं पण्णरस सागरोवमकोडाकोडीओ; पण्णरस य वाससयाई अबाहा०। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र] [५१ [१७०२-३८ प्र.] मनुष्यानुपूर्वी-नामकर्म की स्थिति के विषय में प्रश्न है। [१७०२-३८ उ.] गौतम! इसकी जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के ?" भाग की है और उत्कृष्ट स्थिति पन्द्रह कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका अबाधाकाल पन्द्रह सौ वर्ष का है। [३९] देवाणुपुग्विणामए पुच्छा। गोयमा! जहण्णेणं सागरोवमसहस्सस्स एगं सत्तभागं पलिओवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणगं, उक्कोसेणं दस सागरोवमकोडाकोडीओ; दस य वाससयाई अबाहा० । [१७०२-३९ प्र.] भगवन् ! देवानुपूर्वी-नामकर्म की स्थिति कितने काल की कही है ? [१७०२-३९ उ.] गौतम! इसकी जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सहस्र सागरोपम के १/७ भाग की है और उत्कृष्ट स्थिति दस कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका अबाधाकाल दस सौ (एक हजार) वर्ष का है। [४०] उस्सासणामए पुच्छा । गोयमा! जहा तिरियाणुपुव्वीए । [१७०२-४० प्र.] भगवन् ! उच्छ्वास-नामकर्म की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [१७०२-४० उ.] गौतम! इसकी स्थिति तिर्यञ्चानुपूर्वी (सू. १७०२-३७ में उक्त) के समान है । [४१] आयवणामए वि एवं चेव, उज्जोवणामए वि। [१७०२-४१] इसी प्रकार आतप-नामकर्म की भी और तथैव उद्योत-नामकर्म की भी स्थिति जाननी चाहिए। [४२] पसत्थविहायगतिणामए पुच्छा । गोयमा! जहण्णेणं एगं सागरोवमस्स सत्तभागं, उक्कोसेणं दस सागरोवमकोडाकोडीओ; दस य वाससयाई अबाहा। [१७०२-४२ प्र.] प्रशस्तविहायोगति-नामकर्म की स्थिति के विषय मे प्रश्न है। [१७०२-४२ उ.] गौतम! इसकी जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के १/७ भाग की और उत्कृष्ट स्थिति दस कोडाकोडी सागरोपम की है। दस सौ (एक हजार) वर्ष का इसका अबाधाकाल है। [४३ ] अपसत्थविहायगतिणामस्स पुच्छा। गोयमा! जहणणेणं सागरोवमस्स दोण्णि सत्तभागा पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणया, उक्कोसेणं वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ; वीस य वाससयाइं अबाहा०। [१७०२-४३ प्र.] अप्रशस्तविहायोगति-नामकर्म की स्थिति विषयक प्रश्न है। [१७०२-४३ उ.] गौतम! इसकी जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के २/७ भाग की है तथा उत्कृष्ट स्थिति बीस कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका अबाधाकाल बीस सौ (दो हजार) वर्ष का है। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४४] तसणामए थावरणामए य एवं चेव। [१७०२-४४] त्रस-नामकर्म और स्थावर-नामकर्म की स्थिति भी इसी प्रकार जाननी चाहिए। [४५] सुहुमणामए पुच्छा । गोयमा! जहण्णेणं सागरोवमस्स णव पणतीसतिभागा पलिओवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणया, उक्कोसेणं अट्ठारस सागरोवमकोडाकोडीओ; अट्ठारस य वाससयाइं अबाहा०। [१७०२-४५ प्र.] सूक्ष्म-नामकर्म की स्थिति-सम्बन्धी प्रश्न है । [१७०२-४५ उ.] गौतम! इसकी स्थिति जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के ९/३५ भाग की और उत्कृष्ट स्थिति अठारह कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका अबाधाकाल अठारह सौ वर्ष का है। [४६ ] बादरणामए जहा अपसत्थविहायगतिणामस्स (सु. १७०२ [ ४३])। [१७०२-४६] बादर-नामकर्म की स्थिति (सू. १७०२-४३ में उल्लिखित) अप्रशस्त विहायोगति की स्थिति के समान जानना चाहिए। [४७] एवं पजत्तगणामए वि। अपज्जत्तगणामए जहा सुहुमणामस्स (सु. १७०२ [४५])। [१७०२-४७] इसी प्रकार पर्याप्त-नामकर्म की स्थिति के विषय में जानना चाहिए। अपर्याप्त-नामकर्म की स्थिति (सू. १७०२-४५ में उक्त) सूक्ष्म-नामकर्म की स्थिति के समान है। [४८ ] पत्तेयसरीरणामए वि दो सत्तभागा। साहारणसरीरणामए जहा सुहुमस्स। [१७०२-४८] प्रत्येकशरीर-नामकर्म की स्थिति भी २७ भाग की है। साधारणशरीर-नामकर्म की स्थिति सूक्ष्मशरीर-नामकर्म की स्थिति के समान है । [४९] थिरणामए एगं सत्तभागं। अथिरणामए दो। [१७०२-४९] स्थिर-नामकर्म की स्थिति १/७ भाग की है तथा अस्थिर -नामकर्म की स्थिति २/७ भाग की [५० ] सुभणामए एगो। असुभणामए दो। [१७०२-५०] शुभ-नामकर्म की स्थिति १/७ भाग की और अशुभ-नामकर्म की स्थिति २/७ भाग की समझनी चाहिए। [५१] सुभगणामए एगो। दूभगणामए दो। [१७०२-५१] सुभग-नामकर्म की स्थिति १/७ भाग की और दुर्भगनामकर्म की स्थिति २/७ भाग की है। [५२] सूसरणामए एगो। दूसरणामए दो। [१७०२-५२] सुस्वर-नामकर्म की स्थिति १/७ भाग की और दुःस्वर-नामकर्म की स्थिति २७ भाग की होती है। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रज्ञापनासूत्र ] 5 [ ५३ [ ५३ ] आएज्जणामए एगो । अणाएज्जणामए दो । [१७०२-५३] आदेय-नामकर्म की स्थिति १/७ भाग की और अनादेय- नामकर्म की २/७ भाग की होती है। [ ५४ ] जसोकित्तिणामए जहणणेणं अट्ठ मुहुत्ता, उक्कोसेणं दस सागरोवमकोडाकोडीओ; दस य वाससयाई अबाहा० । [१७०२-५४] यशःकीर्ति - नामकर्म की स्थिति जघन्य आठ मुहूर्त की और उत्कृष्ट दस कोडाकोडी सागरोपम की है। उसका अबाधाकाल दस सौ (एक हजार) वर्ष का होता है। [ ५५ ] अजसाकित्तिणामए पुच्छा । गोयमा ! जहा अपसत्थविहायगतिणामस्स (सु. १७०२ [ ४३] ) । [ १७०२-५५ प्र.] भगवन्! अयशः कीर्ति-नामकर्म की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [ १७०२-५५ उ.] गौतम ! (सू. १७०२ - ४३ में उल्लिखित) अप्रशस्तविहायोगति नामकर्म की स्थिति के समान इसकी (जघन्य और उत्कृष्ट) स्थिति जाननी चाहिए। [ ५६ ] एवं णिम्माणणामए वि । [१७०२-५६] इसी प्रकार निर्माण-नामकर्म की स्थिति के विषय में भी ( जानना चाहिए।) [ ५७ ] तित्थंगरणामए णं० पुच्छा । गोयमा ! जहणणेणं अंतोसागरोवमकोडाकोडीओ, उक्कोसेण वि अंतोसागरोवमकोडाकोडीओ । [ १७०२-५७ प्र.] भगवन् ! तीर्थंकरनामकर्म की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [१७०२-५७ उ.] गौतम! इसकी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तःकोडाकोडी सागरोपम की कही गई है। [ ५८ ]. एवं जत्थ एगो सत्तभागो तत्थ उक्कोसेणं दस सागरोवमकोडाकोडी दस या वाससयाई अबाहा । जत्थ दो सत्तभागा तत्थ उक्कोसेणं वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ वीस य वाससयाइं अबाहा० । [१७०२-५८]जहाँ (जघन्य स्थिति सागरोपम के) १/७ भाग की हो, वहाँ उत्कृष्ट स्थिति दस कोडाकोडी सागरोपम की और अबाधाकाल दस सौ ( एक हजार) वर्ष का ( समझना चाहिए) एवं जहाँ ( जघन्य स्थिति सागरोपम के) २/७ भाग की हो, वहाँ उत्कृष्ट स्थिति बीस कोडाकोडी सागरोपम की और अबाधाकाल बीस सौ (दो हजार) वर्ष का (समझना चाहिए ।) १७०३. [ १ ] उच्चागोयस्स पुच्छा । गोयमा! जहणेणं अट्ठमुहुत्ता, उक्कोसेणं दस सागरोवमकोडाकोडीओ; दस य वाससयाई अबाहा० । [१७०३-१ प्र.] भगवन्! उच्चगोत्रकर्म की स्थिति कितने काल की कही है ? [१७०३-१ उ.] गौतम! इसकी स्थिति जघन्य आठ मुहूर्त की और उत्कृष्ट दस कोडाकोडी सागरापम की है तथा इसका अबाधाकाल दस सौ वर्ष का है । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४] [२] णीयागोयस्स पुच्छा। गोमा ! जहा अपसत्थविहायगतिणामस्स । [१७०३-२प्र.] भगवन् ! नीचगोत्रकर्म की स्थिति सम्बन्धी प्रश्न है । [ १७०३ - २उ.] गौतम! अप्रशस्तविहायोगति नामकर्म की स्थिति के समान इसकी स्थिति है । १७०४. अंतराइयस्स णं पुच्छा । गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ, तिणि य वाससहस्साई अबाहा, अबाहूणिया कम्मठिती कम्मणिसेगे । [१७०४ प्र.] भगवन्! अँन्तरायकर्म की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [ १७०४ उ.] गौतम! इसकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट स्थिति तीस कोडाकोडी सागरोपम है तथा इसका अबाधाकाल तीन हजार वर्ष का है एवं अबाधाकाल कम करने पर शेष कर्मस्थिति कर्मनिषेककाल है। [ तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद ] - विवेचन प्रस्तुत प्रकरण के (सू. १६९७ से १७०४ तक) में ज्ञानावरणीय से लेकर अन्तरायकर्म तक (उत्तरकर्मप्रकृतियों सहित) की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का निरूपण किया गया है। साथ ही अपृष्ट प्रश्न के व्याख्यान के रूप में इन सब कर्मों के अबाधाकाल तथा निषेककाल के विषय में भी कहा गया है। स्थिति ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों और उनके भेद-प्रभेद सहित सभी कर्मों के अधिकतम और न्यूनतम समय तक आत्मा के साथ रहने के काल को स्थिति कहते हैं। इसे ही कर्मसाहित्य में स्थितिबन्ध कहा जाता है। -- कर्म की उत्कृष्ट स्थिति को कर्मरूपतावस्थानरूप स्थिति कहते हैं । अबाधाकाल - • कर्म बंधते ही अपना फल देना प्रारम्भ नही कर देते, वे कुछ समय तक ऐसे ही पडे रहते हैं। अतः कर्म बंधने के बाद अमुक समय तक किसी प्रकार के फल न देने की (फलहीन ) अवस्था को अबाधाकाल कहते हैं। निषेककाल बन्धसमय से लेकर अबाधाकाल पूर्ण होने तक जीव को वह बद्ध कर्म कोई बाधा नहीं पहुँचाता, क्योंकि इस काल में उसके कर्मदलिकों का निषेंक नहीं होता, अतः कर्म की उत्कृष्ट स्थिति में से अबाधाकाल को कम करने पर जितने काल की उत्कृष्ट स्थिति रहती है, वह उसके कर्मनिषेक का (कर्मदलिक- निषेकरूप) काल अर्थात् - अनुभवयोग्यस्थिति का काल कहते हैं । साथ में दिये रेखाचित्र में प्रत्येक कर्म की जघन्य - उत्कृष्ट स्थिति एवं अबाधाकाल व निषेककाल का अंकन है । रेखाचित्र ( प्रारूप) इस प्रकार है १. पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ -टिप्पणयुक्त) भा. १, पृ. ३७१ से ३७७ तक २. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ३३६-३३७ (ख) कर्मग्रन्थ भाग १, पृ. ६४-६५ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम कर्मप्रकृति का नाम १ ज्ञानावरणीय (पंचविध ) २ दर्शनावरणीय निद्रापंचक ३ दर्शनावरणीय दर्शनचतुष्क ४ सातावेदनीयकर्म ईर्यापथिकापेक्षा से | साम्परायिक बन्धक की अपेक्षा से असातावेदनीय कर्म ६ सम्यक्त्ववेदनीय (मोहनीय) ७ मिथ्यात्ववेदनीय (मोहनीय) ८ सम्यग्मिथ्यात्ववेदनीय (मोहनीय) ९ कपाय - द्वादशक (प्रारम्भ के १२ कपाय) अनन्ता, अप्रत्या प्रत्या, १० संज्वलनक्रोध (मोहनीय) ११ संज्वलनमान (मोहनीय) १२ संज्वलनमाया (मोहनीय) जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के ३/७ भाग अन्तर्मुहूर्त दो समय बारह मुहूर्त पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का ३/७ भाग अन्तमुहूर्त पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग कम १/७ सागरोपम अन्तर्मुहूर्त पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का ४/७ भाग दो मास एक मास अर्द्धमास उत्कृष्ट स्थिति ३० कोडाकोडी सागरोपम ३० कोडाफोडी सागरोपम ३० कोडाकोडी सागरोपम दो समय १५ कोडाकोडी सागरोपम ३० कोडाकोडी सागरोपम कुछ अधिक ६६ सागरोपम ७० कोडाकोडी सागरोपम अन्तर्मुहूर्त ४० कोडाकोडी सागरोपम ४० कोडाकोडी सागरोपम ४० कोडाकोडी सागरोपम ४० कोडाकोडी सागरोपम अबाधाकाल निषेककाल ३ हजार वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में हजार वर्ष कम ३ हजार वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में ३ हजार वर्ष कम २ हजार वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में ३ हजार वर्ष कम १५०० वर्ष ३००० वर्ष ७००० वर्ष ४००० वर्ष ४००० वर्ष ४००० वर्ष ४००० वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में १५०० वर्ष कम उत्कृष्ट स्थिति में तीन हजार वर्ष कम उत्कृष्ट स्थिति में ७ हजार वर्ष कम उत्कृष्ट स्थिति में ४ हजार वर्ष कम उत्कृष्ट स्थिति में ४ हजार वर्ष कम उत्कृष्ट स्थिति में ४ हजार वर्ष कम उत्कृष्ट स्थिति में ४ हजार वर्ष कम [ प्रज्ञापनासूत्र ] [44 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ संज्वलनलोभ (मोहनीय) अन्तर्मुहूर्त ५६] . १४ स्त्रीवेद (मोहनीय) पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम। सागरोपम का " भाग ८ वर्ष की १५ पुरुषवेद (मोहनीय) १६ नपुंसकवेद (मोहनीय). पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का २/७ भाग १७-१८ हास्य और रति (मोहनीय) पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का १७ भाग १९-२२ अरति, भय, शोक, जुगुप्सा पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का २७ भाग २३ नारकायु अन्तर्मुहूर्त अधिक १० हजार वर्प ४० कोडाकोडी सागरोपम ४००० वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में ४ . हजार वर्ष कम १५ कोडाकोडी सागरोपम १५०० वर्ष उत्कृष्ट स्थिति मे १५०० वर्ष कम १० कोडाकोडी सागरोपम १००० वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में १००० वर्ष कम २० कोडाकोडी सागरोपम २००० वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में २००० वर्ष कम १० कोडाकोडी सागरोपम १००० वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में से १००० वर्ष कम २० कोडाकोडी सागरोपम २००० वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में २००० वर्ष कम करोड पूर्व के तृतीय भाग अधिक ३३ सागरोपम करोड पूर्व का तीसरा भाग अधिक ३ पल्योपम करोड पूर्व का तीसरा . भाग अधिक ३ पल्योपम करोड पूर्व के तृतीय भाग अधिक ३३ सागरोपम २० कोडाकोडी सागरोपम २००० वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में २ हजार वर्ष कम २० कोडाकोडी सागरोपम २००० वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में २ हजार वर्ष कम १५ कोडाकोडी सागरोपम१५०० वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में १५०० वर्ष कम २४ तियञ्चायु अन्तर्मुहूर्त २५ मनुष्यायु अन्तर्मुहूर्त २६ देवायु अन्तर्मुहूर्त अधिक १० हजार वर्ष २७ नरकगतिनाम २८ तिर्यंचगतिनाम पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सहस्रासागरोपम का २/७ भाग . पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का २० भाग पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का "भाग २९ मनुष्यगतिनाम [तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद] Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० देवगतिनाम १० कोडाकोडी सागरोपम ३१ एकेन्द्रियजातिनाम [प्रज्ञापनासूत्र] २० कोडाकोडी सागरोपम ३२ द्वीन्द्रियजातिनाम १८ कोडाकोडी सागरोपम ३३ त्रीन्द्रियजातिनाम पल्योपम केअसंख्यातवें भाग कम सहस्र सागरोपम का १/७ भाग पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का २७ भाग पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का ९/३५ भाग। पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का ९/३५ भाग पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का ९/३५ भाग पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का २७ भाग पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का २७ भाग १८ कोडाकोडी सागरोपम १००० वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में १००० वर्ष कम २००० वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में २००० वर्ष कम १८०० वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में १८०० वर्ष कम १८०० वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में १८०० वर्ष कम १८०० वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में १८०० वर्ष कम २००० वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में २००० वर्प कम २००० वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में २००० वर्ष कम ३४ चतुरिन्द्रियजातिनाम १८ कोडाकोडी सागरोपम ३५ पंचेन्द्रियजातिनाम २० कोडाकोडी सागरोपम ३६ ओदारिकशरीरनाम २० कोडाकोडी सागरोपम ३७ वैक्रियशरीरनाम २० कोडाकोडी सागरोपम २००० वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में २००० वर्ष कम अन्तःकोडाकोडीसागरोपम २० कोडाकोडी सागरोपम ३८ आहारकशरीरनाम ३९-४० तैजसशरीरनाम कार्मणशरीरनाम ४१ औदारिकशरीरांगोपांगनाम पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सहस्रसागरोपम का २/७ भाग अन्त:कोडा-कोडी सागरोपम पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का २७ भाग पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का २७ भाग | पूर्ववत् २००० वर्ष २० कोडाकोडी सागरोपम २००० वर्ष ४२ वैक्रियशरीरांगोपांगनाम उत्कृष्ट स्थिति में २००० वर्ष कम उत्कृष्ट स्थिति में २००० वर्ष कम उत्कृष्ट स्थिति में २००० वर्ष कम उत्कृष्ट स्थिति में २००० वर्प कम २० कोडाकोडी सागरोपम २००० वर्ष ४३ आहारकशरीरांगोपांगनाम पूर्ववत् २० कोडाकोडी सागरोपम २००० वर्ष Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४-४८ पंचशरीरवन्धननाम ४९-५३ पंचशरीरसंघातनाम ५४ वज्जऋषभनाराचसंहनननाम ५५ ऋषभनाराचसंहनननाम ५६ नाराचसंहनननाम ५७ अर्द्धनाराचसंहनननाम ५८ कीलिकासंहनननाम ५९ सेवार्तसंहनननाम ६०-६५ छह प्रकार के संस्थान नाम ६६ शुक्लवर्णनाम ६७ पीतवर्णनाम ६८ रक्तवर्णनाम ६९ नीलवर्णनाम ७० कृष्णवर्णनाम पूर्ववत् शरीरनामकर्म के समान पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का १/७ भाग पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का ६ / ३५ भाग पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का ७/३५ भाग पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का ८/३५ भाग पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का ९/३५ भाग पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का २/७ भाग छह संहनननामकर्म के समान पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का १/७ भाग पल्योपम के असंख्य भाग कम सागरोपम का ५ / २८ भाग पल्योपम के असंख्य भाग कम सागरोपम का ६/२८ भाग पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का २/२८ भाग पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का २/७ भाग २० कोडाकोडी सागरोपम शरीरनामकर्मवत् १० कोडाकोडी सागरोपम १२ कोडाकोडी सागरोपम १४ कोडाकोडी सागरोपम १६ कोडाकोडी सागरोपम १८ कोडाकोडी सागरोपम २० कोडाफोडी सागरोपम २० कोडाफोडी सागरोपम १० कोडाकोडी सागरोपम १२॥ कोडाकोडी सागरोपम १५ कोडाकोडी सागरोपम १७ ॥ कोडाकोडी सागरोपम २० कोडाकोडी सागरोपम २००० वर्ष पूर्ववत् १००० वर्ष १२०० वर्ष १४०० वर्ष १६०० वर्ष १८०० वर्ष २००० वर्ष पट्संहननवत् १००० वर्ष १२५० वर्ष १५०० वर्ष १७५० वर्ष २००० वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में २००० वर्ष कम पूर्ववत् उत्कृष्ट स्थिति में १००० वर्ष कम उत्कृष्ट स्थिति में १२०० वर्ष कम उत्कृष्ट स्थिति में १४०० वर्ष कम उत्कृष्ट स्थिति में १६०० वर्ष कम उत्कृष्ट स्थिति में १८०० वर्ष कम उत्कृष्ट स्थिति में २००० वर्ष कम पट्संहनन के समान उत्कृष्ट स्थिति में १ हजार वर्ष कम उत्कृष्ट स्थिति में १२५० वर्ष कम उत्कृष्ट स्थिति में १५०० वर्ष कम उत्कृष्ट स्थिति में १७५० वर्ष कम उत्कृष्ट स्थिति में २००० वर्ष कम ५८] [ तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद ] Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० कोडाकोडी सागरोपम १००० वर्प [प्रज्ञापनासूत्र] . २० कोडाकोडी सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति में १००० वर्ष कम उत्कृष्ट स्थिति में २००० वर्ष कम पंचवर्णवत् २००० वर्प शुक्लादि पंचवर्णवत् पंचवर्णवत् सेवार्तसंहननवत् सेवार्तवत् सेवार्तवत् शुक्लवर्णवत् शुक्लवर्णवत् शुक्लवर्णवत् ७१ सुरभिगन्धनाम पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का १/७ भाग ७२ दुरभिगन्धनाम पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का २७ भाग ७३-७७ मधुर आदि पांच रस नाम शुक्लवर्ण आदि पांच वर्षों की स्थिति के समान ७८-८१ अप्रशस्त स्पर्श चार (कर्कश सेवार्तसंहनन के समान गुरु, रूक्ष, शीत ) ८२-८५ प्रशस्त स्पर्श चार (मृदु, लघु, शुक्लवर्णनामकर्म की स्थिति के समान स्निग्ध,उष्ण) ८६ अगुरुलघुनाम सेवार्तसंहनन के समान ८७ उपघातनाम सेवार्तसंहनन के समान ८८ पराघातनाम सेवार्तसंहनन के समान ८९ नरकानुपूर्वीनाम पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सहस्र सागरोपम का २/७ भाग। ९० तिर्यचानुपूर्वीनाम पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का २/७ भाग ९१ मनुष्यानुपूर्वीनाम पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का १७ भाग ९२ देवानुपूर्वीनाम पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सहस्त्रसागरोपम का १० भाग ९३ उच्छ्वासनाम पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का २७ भाग ९४ आतपनाम पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का २/७ भाग ९५ उद्योतनाम पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का २/७ भाग सेवार्तवत् सेवार्तवत् सेवार्तवत् २० कोडाकोडी सागरोपम सेवार्तवत् २० कोडाकोडी सागरोपम १५ कोडाकोडी सागरोपम सेवार्तवत् सेवार्तवत् सेवार्तवत् सेवार्तवत् सेवार्तवत् २००० वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में २००० वर्ष कम २००० वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में २००० वर्ष कम १५०० वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में १५०० वर्प कम १००० वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में १००० वर्ष कम २००० वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में २००० वर्ष कम २००० वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में २००० वर्ष कम २००० वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में २००० वर्ष कम १० कोडाकोडी सागरोपम २० कोडाकोडी सागरोपम २० कोडाकोडी सागरोपम २० कोडाकोडी सागरोपम [५९ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ प्रशस्तविहायोगतिनाम ९७ अप्रशस्तविहायोगतिनाम ९८ त्रसनाम ९९ स्थावरनाम १०० सूक्ष्मनाम १०१ बादरनाम १०२ पर्याप्तनाम १०३ अपर्याप्तनाम १०४ साधारणशरीरनाम १०५ प्रत्येकशरीरनाम १०६ अस्थिरनाम १०७ स्थिरनाम १०८ शुभनाम १०९ सुभगनाम पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का १/७ भाग पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का २/७ भाग पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का २/७ भाग पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का २/७ भाग पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का ९ / ३५ भाग अप्रशस्तविहायोगति की स्थिति के समान बादर के समान पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का ९/३५ भाग पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का ९/३५ भाग पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का २/७ भाग पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का २/७ भाग पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का १/७ भाग पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का १/७ भाग पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का १/७ भाग १० कोडाकोडी सागरोपम २० कोडाकोडी सागरोपम २००० वर्ष २० कोडाकोडी सागरोपम २० कोडाकोडी सागरोपम १८ कोडाकोडी सागरोपम २० कोडाकोडी सागरोपम बादरवत् १८ कोडाकोडी सागरोपम १८ कोडाकोडी सागरोपम २० कोडाकोडी सागरोपम २० कोठाकोडी सागरोपम १० कोडाफोडी सागरोपम ★ १० कोडाकोडी सागरोपम १००० वर्ष १० कोडाकोडी सागरोपम २००० वर्ष २००० वर्ष १८०० वर्ष २००० वर्ष बादरवत् १८०० वर्ष १८०० वर्ष २००० वर्ष २००० वर्ष १००० वर्ष १००० वर्ष १००० वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में १००० वर्ष कम उत्कृष्ट स्थिति में २००० वर्ष कम उत्कृष्ट स्थिति में २००० वर्ष कम उत्कृष्ट स्थिति में २००० वर्ष कम उत्कृष्ट स्थिति में १८०० वर्ष कम उत्कृष्ट स्थिति में २००० वर्ष कम बादरवत् उत्कृष्ट स्थिति में १८०० वर्ष कम उत्कृष्ट स्थिति में १८०० वर्ष कम उत्कृष्ट स्थिति में २००० वर्ष कम उत्कृष्ट स्थिति में २००० वर्ष कम उत्कृष्ट स्थिति में १००० वर्ष कम उत्कृष्ट स्थिति में १००० वर्ष कम उत्कृष्ट स्थिति में १००० वर्ष कम ६०] [ तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद ] Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० सुस्वरनाम १११ आदेयनाम [प्रज्ञापनासूत्र] ११२ यश:कीर्तिनाम ११३ अशुभनाम ११४ दुर्भगनाम ११५ दुःस्वरनाम ११६ अनादेयनाम पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम १० कोडाकोडी सागरोपम १००० वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में सागरोपम का १७ भाग १००० वर्ष कम पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम . १० कोडाकोडी सागरोपम १००० वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में सागरोपम का १/७ भाग १००० वर्ष कम आठ मुहूर्त १० कोडाकोडी सागरोपम १००० वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में १००० वर्ष कम पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम . २० कोडाकोडी सागरोपम २००० वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में सागरोपम का २/७ भाग २००० वर्ष कम पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम २० कोडाकोडी सागरोपम २००० वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में सागरोपम का २७ भाग २००० वर्ष कम पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम । २० कोडाकोडी सागरोपम २००० वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में सागरोपम का २/७ भाग २००० वर्ष कम पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम २० कोडाकोडी सागरोपम २००० वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में सागरोपम का २/७ भाग २००० वर्ष कम पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम २० कोडाकोडी सागरोपम २००० वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में सागरोपम का २७ भाग २००० वर्ष कम पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम २० कोडाकोडी सागरोपम २००० वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में सागरोपम का २७ भाग २००० वर्प कम अन्त:कोडाकोडी सागरोपम अन्त:कोडाकोडी सागरोपम - आठ मुहूर्त १० कोडाकोडी सागरोपम १००० वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में १००० वर्प कम पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम २० कोडाकोडी सागरोपम २००० वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में सागरोपम का २० भाग २००० वर्ष कम अन्तर्मुहूर्त ३० कोडाकोडी सागरोपम ३००० वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में ३००० वर्ष कम ११७ अयश:कीर्तिनाम ११८ निर्माणनाम ११९ तीर्थकरनाम १२० उच्चगोत्र १२१ नीचगोत्र १२२ अन्तराय १. (क) विशेप स्पष्टीकरण के लिए कर्मग्रन्थ भा. ५ तथा ठिइबंधो आदि देखें। २. (ख) पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. १, पृ. ३७१ से ३७७ तक [६१ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२] [तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद] एकेन्द्रिय जीवों में ज्ञानावरणीयादि कर्मों की बंधस्थिति की प्ररूपणा १७०५. एगिंदिया णं भंते! जीवा णाणावरणिजस्स कम्मस्स किं बंधति ? गोयमा! जहण्णेणं सागरोवमस्स तिण्णि सत्तभागे पलिओवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणए, उक्कोसेणं ते चेव पडिपुण्णे बंधति? | [१७०५ प्र.] भगवन् ! एकेन्द्रिय जीव ज्ञानावरणीयकर्म कितने काल का बांधते हैं ? [१७०५ उ.] गौतम! वे जघन्यतः पल्योपम के असंख्यातवयें भाग कम सागरोपम के ३/७ भाग का बन्ध करते हैं और उत्कृष्टतः पूरे सागरोपम के ३/७ भाग का बन्ध करते है। १७०६. एवं णिहापंचकस्स वि दंसणचउक्कस्स वि । [१७०६] इसी प्रकार निद्रापंचक और दर्शनचतुष्क का (जघन्य और उत्कृष्ट) बन्ध भी ज्ञानावरणीयपंचक के समान जानना चाहिए । १७०७. [१] एगिंदिया णं भंते! जीवा सातावेयणिजस्स कम्मस्स किं बंधंति ? गोयमा! जहण्णेणं सागरोवमस्स दिवड्ढं सत्तभागं पलिओवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणयं, उक्कोसेणं तं चेव पडिपुण्णं बंधंति। [१७०७-१ प्र.] भगवन् ! एकेन्द्रिय जीव सातावेदनीयकर्म कितने काल का बांधते हैं ? [१७०७-१ उ.] गौतम! वे जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के " भाग का और उत्कृष्ट पूरे सागरोपम के भाग का बन्ध करते हैं। १७०७. [२] असायावेयणिजस्स जहा णाणावरणिजस्स (सु. १७०५)। [१७०७-२] असातावेदनीय का (जघन्य और उत्कृष्ट) बन्ध ज्ञानावरणीय के समान जानना चाहिए। १७०८. [१] एगिदिया णं भंते! जीवा सम्मत्तवेयणिजस्स कम्मस्स किं बंधंति ? गोयमा! णत्थि किंचि बंधंति। [१७०८-१ प्र.] भगवन्! एकेन्द्रिय जीव सम्यक्त्ववेदनीय (मोहनीय) कर्म कितने काल का बांधते हैं ? [१७०८-२ उ.] गौतम! वे किसी भी काल का बंध नहीं करते - बन्ध करते ही नहीं हैं । [२] एगिंदिया णं भंते! जीवा मिच्छत्तवेयणिजस्स कम्मस्स किं बंधंति ? गोयमा! जहण्णेणं सागरोवमं पलिओवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणयं, उक्कोसेणं तं चेव पडिपुण्णं बंधति । [१७०८-२ प्र.] भगवन्! एकेन्द्रिय जीव मिथ्यात्ववेदनीय (मोहनीय) कर्म कितने काल का बांधते हैं ? __ [१७०८-२ उ.] गौतम! वे जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम एक सागरोपम काल का बांधते हैं और उत्कृष्ट एक परिपूर्ण सागरोपम का बांधते हैं। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र] [६३ [३] एगिदिया णं भंते! सम्मामिच्छत्तवेयणिजस्स (कम्मस्स) किं बंधंति ? गोयमा! णत्थि किचि बंधंति ? [१७०८-३ प्र.] भगवन्! एकेन्द्रिय जीव सम्यग्मिथ्यात्ववेदनीय (मोहनीय-कर्म) कितने काल तक का बांधते हैं ? [१७०८-३ उ.] गौतम! वे किसी काल का नहीं बांधते । [४] एगिंदिया णं भंते! कसायबारसगस्स किं बंधंति ? गोयमा? जहण्णेणं सागरोवमस्स चत्तारि सत्तभागे पलिओवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणए, उक्कोसेणं ते चेव पडिपुण्णे बंधति । [१७०८-४ प्र.] भगवन्! एकेन्द्रिय जीव कषायद्वादशक का कितने काल का बन्ध करते हैं ? [१७०८-४ उ.] गौतम ! वे जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के ४/७ भाग और उत्कृष्ट वही परिपूर्ण बांधते हैं। [५] एवं कोहसंजलणाए वि जाव लोभसंजलणाए वि । [१७०८-५] इसी प्रकार यावत् संज्वलन क्रोध से लेकर यावत् संज्वलन लोभ तक बांधते हैं । [६] इत्थिवेयस्स जहा सायावेयणिजस्स (सु. १७०७ [१])। [१७०८-६] स्त्रीवेद का बन्धकाल सातावेदनीय (सू. १७०७-१ में उक्त) के बन्धकाल के समान जानना। [७] एगिंदिया पुरिसवेदस्स कम्मस्स जहण्णेणं सागरोवमस्सं एकं सत्तभागं पलिओवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणयं, उक्कोसेणं तं चेव पडिपुण्णं बंधंति। [१७०८-७] एकेन्द्रिय जीव जघन्यतः पुरुषवेदकर्म का पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का १/५ भाग बांधते हैं और उत्कृष्टतः वही १/७ भाग पूरा बांधते हैं। [८] एगिंदिया णपुंसगवेदस्स कम्मस्स जहण्णेणं सागरोवमस्स दो सत्तभागे पलिओवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणए, उक्कोसेणं ते चेव पडिपुण्णे बंधंति। [१७०८-८] एकेन्द्रिय जीव नपुंसकवेदकर्म का जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का १/७ भाग बांधते हैं और उत्कृष्ट वही २/७ भाग परिपूर्ण बाँधते हैं। [९] हास-रतीए जहा पुरिसवेयस्स (सु. १७०८ [७])। [१७०८-९] हास्य और रति का बन्धकाल पुरुषवेद (सू. १७०८-७ में उक्त) के समान जानना। [१०] अरति-भय-सोग-दुगुंछाए जहा णपुंसगवेयस्स (सु. १७०८ [८])। [१७०८-१०]अरति, भय, शोक, और जुगुप्सा का बन्धकाल नपुंसकवेद के समान जानना चाहिए। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद ] १७०९. रइयाउअ - देवाउअ - णिरयगतिणाम- देवगतिणाम - वेडव्वियसरीरणाम- आहारग- सरीरणामरइयाणुपुव्विणाम- देवाणुपुव्विणाम- तित्थगरणाम एयाणि पयाणि ण बंधंति । ६४ ] [१७०९] नरकायु, देवायु, नरकगतिनाम, देवगतिनाम, वैक्रियंशरीरनाम, आहारकशरीरनाम, नरकानुपूर्वीनाम, देवानुपूर्वीनाम, तीर्थकरनाम, इन नौ पदों को एकेन्द्रिय जीव नहीं बांधते । १७१०. तिरिक्खजोणियाउअस्स जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुव्वकोडी सत्तहिं वाससहस्सेहि वाससहस्सतिभागेण य अहियं बंधंति । एवं मणुस्साउअस्स वि। [१७१०] एकेन्द्रिय जीव तिर्यञ्चायु का जघन्य अन्तमुहूर्त का, उत्कृष्ट सात हजार तथा एक हजार वर्ष का तृतीय भाग अधिक करोड पूर्व का बन्ध करते हैं । मनुष्यायु का बन्ध भी इसी प्रकार समझना चाहिए । १७११. [ १ ] तिरियगतिणामए जहा णपुंसगवेदस्स (सु. १७०८ [८] ) । मणुयगतिणामए जहा सातावेदणिज्जस्स (सु. १७०७ [१] ) । [१७११-१] तिर्यञ्चगतिनाम का बन्धकाल (सू. १७०८-८ में उक्त) नपुंसकवेद के समान है तथा मनुष्यगतिनाम का बन्धकाल (सू. १७०७ - १ में उक्त) सातावेदनीय के समान है। [ २ ] एगिंदियजाइणामए पंचेंदियजाइणामए य जहा णपुंसगवेदस्स । बेइंदिय-तेइंदिय-जातिणामए जहण्णेणं सागरोवमस्स णव पणतीसतिभागे पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणए, उक्कोसेणं ते चेव पडिपुणे बंधंति । चडरिंदियनामए वि जहणणेणं सागरोवमस्स णव पणतीसतिभागे पलिओवमस्स असंखिज्जइभागेणं ऊणए, उक्कोसेणं ते चेव पडिपुण्णे बंधंति । [१७११-२] एकेन्द्रियजाति - नाम और पंचेन्द्रियजाति - नाम का बन्धकाल नपुंसकवेद के समान जानना चाहिए तथा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जाति-नाम का बंध जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का ९/३५ भाग बांधते हैं और उत्कृष्ट वही ९/३५ भाग पूरा बांधते हैं। १७१२. एवं जत्थ जहण्णगं दो सत्तभागा तिण्णि वा चत्तारि वा सत्तभागा अट्ठवीसतिभागा० भवंति तत्थ णं जहण्णेणं तें चेव पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊण्गा भाणियव्वा, उक्कोसेणं ते चेव पडिपुणे बंधंति । जत्थ णं जहणेणं एगो वा दिवड्ढो वा सत्तभागो तत्थ जहण्णेणं तं चैव भाणियव्वं, उक्कोसेणं तं चेव पडिपुण्णं बंधंति । [१७१२] जहाँ जघन्यतः २/७ भाग, ३/७ भाग या ४/७ भाग अथवा ५/२८, ९/२८ एवं ७/२८ भाग कहे हैं, वहाँ वे ही भाग जघन्य रूप से पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम कहने चाहिए और उत्कृष्ट रूप में वे ही भाग परिपूर्ण समझने चाहिए। इसी प्रकार जहाँ जघन्य रूप से १/७ या १" भाग है, वहाँ जघन्य रूप से वही भाग कहना Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६५ [ प्रज्ञापनासूत्र ] चाहिए और उत्कृष्ट रूप से वही भाग परिपूर्ण कहना चाहिए । १७१३. जसोकित्ति - उच्चागोयाणं जहण्णेणं सागरोवमस्स एगं सत्तभागं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणयं, उक्कोसेणं तं चेव पडिपुण्णं बंधंति । [१७१३] यश: कीर्तिनाम और उच्चगोत्र का एकेन्द्रिय जीव जघन्यतः पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के १/७ भाग का एवं उत्कृष्टतः सागरोपम के पूर्ण १/७ भाग का बन्ध करते हैं। १७१४. अंतराइयस्स णं भंते! ० पुच्छा । गोयमा ! जहा णाणावरणिज्जस्स जाव उक्कोसेणं ते चेव पडिपुण्णे बंधंति । [१७१४-१ प्र.] भगवन् ! एकेन्द्रिय जीव अन्तरायकर्म का बन्ध कितने काल का करते हैं ? [१७१४-१ उ.] गौतम ! इनका अन्तरायकर्म का जघन्य और उत्कृष्ट बन्धकाल ज्ञानावरणीय के समान जानना चाहिए। विवेचन – इससे पूर्व सभी कर्म-प्रकृतियों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति, अबाधाकाल एवं निषेककाल का प्रतिपादन किया गया था। इस प्रकरण में एकेन्द्रिय जीव बन्धकों को लेकर आठों कर्मों की स्थिति की प्ररूपणा की गई.. है। अर्थात् एकेन्द्रिय जीवों के ज्ञानावरणीयादि कर्म का जो बन्ध होता है, उसकी स्थिति कितने काल तक की होती है ?" निम्नोक्त रेखाचित्र से एकेन्द्रिय जीवों के ज्ञानावरणीयादि कर्मों की जघन्य, उत्कृष्ट स्थिति का आसानी से ज्ञान हो जाएगा - Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६] [ तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद] एकेन्द्रिय जीवों की बन्धस्थिति का रेखाचित्र जघन्य बन्धस्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का ३/७ भाग क्रम कर्म प्रकृति का नाम १ ज्ञानावरणीय (पंचक) असातावेदनीय, निद्रापंचक, दर्शनावरणचतुष्क अंतरायपंचक २ तिर्यञ्चायु उत्कृष्ट बन्धस्थिति पूरे सागरोपम का ३/७ भाग अन्र्तमुहूर्त की सात हजार तथा एक हजार वर्ष का तृतीय भाग अधिक करोड़ पूर्व की पूरे सागरोपम का "भाग ३ सातावेदनीय, स्त्रीवेद, मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी सम्यक्त्ववेदनीय और मिश्र वेदनीय (मोहनीय) कर्म ५ मिथ्यात्ववेदनीय (मोहनीय) पल्योपम के असंख्यातवे भाग कम सागरोपम का "भाग बन्ध नहीं बन्ध नहीं पूरे सागरोपम की . ६ कषायषोडशक (सोलह कषाय) पूरे सागरोपम के ४/७ भाग की पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम एक सागरोपम की पल्योपम के असंख्यतवें भाग कम सागरोपम के ४/७ भाग की पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के १७ भाग की पूरे सागरोपम के १/७ भाग की पूरे सागरोपम के ९/३५ भाग की ७ पुरुषवेद, हास्य, रति, प्रशस्त विहायोगति, स्थिरादिषट्क समचतुरस्त्र संस्थान, वऋषभनाराचसंहनन, शुक्लवर्ण, सुरभिगन्ध, मधुररस और उच्चगोत्र, यश:-कीर्ति द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रियः जातिनाम नरकायु, देवायु, नरकगति, देवगति, वैक्रियशरीर, जाहारकशरीर नरकानुपूर्वी, देवानु पूर्वी, तीर्थकरनामकर्म १० द्वितीय संस्थान, द्वितीय संहनन पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के ९/३५ भाग की इन नौ पदों का बन्ध नहीं बन्ध नहीं ११ तीसरा संस्थान, तीसरा संहनन १२ रक्तवर्ण, कषायरस पल्योपम के असंख्यातवें पूरे सागरोपम के ६/३५ भाग की भाग कम सागरोपम के ६/३५ भाग की पल्योपम के असंख्यातवें पूरे सागरोपम के ७/३५ भाग की भाग कम सागरोपम के ७/३५ भाग की पल्योपम के असंख्यातवें पूरे सागरोपम के ६/२८ भाग की भाग कम सागरोपम के ६/२८ भाग की पल्योपम के असंख्यातवें पूरे सागरोपम के ५/२८ भाग की भाग कम सागरोपम के ५/२८ भाग की पल्योपम के असंख्यातवें पूरे सागरोपम के ७/२८ भाग की भाग कम सागरोपम के ७/२८ भाग की १३ पीलावर्ण, अम्लरस १४ नीलवर्ण, कटुकरस Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र] [६७ पूरे सागरोपम के २७ भाग की पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के २७ भाग की १५ नपुंसकवेद, भय, शोक, जुगुप्सा, अरति, तिर्यञ्चद्विक, औदारिकद्विक अन्तिम संहनन, कृष्णवर्ण, तिक्तरस, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, प्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, अस्थिरादिषट्क, स्थावर, आतप, उधोत, अप्रशस्त विहायोगति, निर्माण, एकेन्द्रिय पंचेन्द्रिय जाति तैजस, कार्मण शरीरनाम' द्वीन्द्रियजीवों में कर्मप्रकृतियों की स्थितिबन्ध-प्ररूपणा १७१५. बेइंदिया णं भंते! जीवा णाणावरणिजस्स कम्मस्स किं बंधति ? गोयमा! जहण्णेणं सागरोवमपणुवीसाए तिण्णि सत्तभागा पलिओवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणया, उक्कोसेणं ते चेव पडिपुण्णे बंधंति । [१७१५ प्र.] भगवन्! द्वीन्द्रिय जीव ज्ञानावरणीयकर्म का कितने काल का बन्ध करते हैं ? [१७१५ उ.] गौतम! वे जधन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम पच्चीस सागरोपम के ३/७ भाग (काल) का बन्ध करते हैं और उत्कृष्ट वही परिपूर्ण बांधते हैं। १७१६. एवं णिद्दापंचगस्स वि। [१७१६] इसी प्रकार निद्रापंचक (निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचला-प्रचला और स्त्यानगृद्धि) की स्थिति के विषय में जानना चाहिए। १७१७. एवं जहा एगिदियाणं भणियं तहा बेइंदियाण वि भाणियव्वं । णवरं सागरोवमपणुवीसाए सह भाणियव्वा पलिओवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणया, सेसं तं चेव, जत्थ एगिंदिया ण बंधंति तत्थ एते विण बंधंति। [१७१७] इसी प्रकार जैसे एकेन्द्रिय जीवों की बन्धस्थिति का कथन किया है, वैसे ही द्वीन्द्रिय जीवों की बंधस्थिति का कथन करना चाहिए। जहाँ (जिन प्रकृतियों को) एकेन्द्रिय नहीं बांधते, वहाँ (उन प्रकृतियों को) ये भी नहीं बांधते हैं। १७१८. बेइंदिया णं भंते! जीवा मिच्छत्तवेयणिजस्स किं बंधंति ! गोयमा! जहण्णेणं सागरोवमपणुवीसं पलिओवमस्स असंखिजइभागेणं ऊणयं, उक्कोसेणं तं चेव १. (क) पण्णवणासुत्तं भा. १ २. (ख) प्रज्ञापनासूत्र भा. ५ (प्रमेयबोधिनी टीका सहित) Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८] [तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद] पडिपुण्णं बंधति । [१७१८ प्र.] भगवन्! द्वीन्द्रिय जीव मिथ्यात्ववेदनीयकर्म का कितने काल का बन्ध करते हैं ? _ [१७१८ उ.] गौतम! वे जघन्यतः पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम पच्चीस सागरोपम की और उत्कृष्टतः वही परिपूर्ण बांधते हैं। १७१९. तिरिक्खजोणियाउअस्स जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुवकोडि चउहि वासेहि अहियं बंधति । एवं मणुयाउअस्स वि। ६१७१९] द्वीन्द्रिय जीव तिर्यञ्चायु को जघन्यत: अन्तर्मुहुर्त की और उत्कृष्टतः चार वर्ष अधिक पूर्वकोटिवर्ष की बांधते हैं । इसी प्रकार मनुष्यायु का कथन भी कर देना चाहिए। १७२०. सेसं जहा एगिदियाणं जाव अंतराइयस्स। [१७२०] शेष यावत् अन्तरायकर्म तक एकेन्द्रियों के कथन के समान जानना चाहिए। विवेचन - द्वीन्द्रिय जीव ज्ञानावरणीयादि आठ कर्मों का बन्ध कितने काल का करते हैं ? इस प्रश्न का समाधान यहाँ किया गया है। नीचे लिखे रेखाचित्र से आसनी से समझ में आ जाएगाकर्म प्रकृति का नाम जघन्य बन्धस्थिति उत्कृष्ट बन्धस्थिति ज्ञानावरणीय, निद्रापंचक पल्योपम का असंख्यातवां भाग कम २५ सागरोपम के ३/७ भाग की २५ सागरोपम के ३/७ भाग की शेषकर्म एकेन्द्रिय के समान बन्ध-अबन्ध जानना मिथ्यात्वमोहनीय पल्योपम के असंख्यातवें भाग पूर्ण पच्चीस सागरोपम की कम २५ सागरोपम की तिर्यञ्चायु मनुष्यायुः अन्तर्मुहूर्त ४ वर्ष अधिक पूर्वकोटी की नाम गोत्र अन्तरायादि एकेन्द्रिय के समान एकेन्द्रियवत्' एकेन्द्रियों की अपेक्षा द्वीन्द्रिय जीवों के बंधकाल की विशेषता - एक विशेषता यह है कि द्वीन्द्रिय जीवों का बन्धकाल एकेद्रिय जीवों से पच्चीस गुणा अधिक होता है। जैसे - एकेन्द्रिय के ज्ञानावरणीयकर्म का जघन्य बन्धकाल पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम एक सागरोपम के ३/७ माग का है, जबकि द्वीन्द्रिय का जघन्य बन्धकाल पल्योपम के असंखयातवें भाग कम २५ सागरोपम के ३/७ भाग का है। इस प्रकार पच्चीस गुणा अधिक १. पण्णवणासुत्तं भाग १ (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. ३७९ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६९ [प्रज्ञापनासूत्र] करके पूर्ववत् समझ लेना चहिए। जिन कर्मप्रकृतियों का बन्ध एकेन्द्रिय जीव नहीं करते, द्वीन्द्रिय जीव भी उनका बन्ध नहीं करते। इस प्रकार जिस कर्म की जो-जो उत्कृष्ट स्थिति पहले कही गई है, उस स्थिति का मोहनीयकर्म की उत्कृष्ट स्थिति ७० कोडाकोडी के साथ भाग करने पर जो संख्या लब्ध होती है,उसे पच्चीस से गुणा करने पर जो राशि आए उसमें से पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग कम करने पर द्वीन्द्रिय जीवों की जघन्य स्थिति का परिमाण आ जाता है। उदाहरणार्थ - ज्ञानावरणीय पंचक आदि के सागरोपम के ३/७ भाग का पच्चीस से गुणा किया जाय तो पच्चीस सागरोपम के ३/७ भाग हुए। अर्थात् – उनका उत्कृष्ट बन्धकाल पूरे पच्चीस सागरोपम के ३/७ भाग हुए। यदि पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग कम कर दिया जाए तो उनका जघन्य स्थिति बन्धकाल हुआ। त्रीन्द्रियजीवों में कर्म प्रकृतियों की स्थिति-बन्धप्ररूपणा १७२१. तेइंदिया णं भंते!जीवा णाणावरणिजस्स कि बंधंति ? गोयमा! जहण्णेणं सागरोवमपण्णासाए तिण्णि सत्तभागा पलिओवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणया, उक्कोसेणं ते चेव पडिपुण्णे बंधति। एवं जस्स जइ भागा ते तस्स सागरोवमपण्णासाए सह भाणियव्वा। [१७२१ प्र.] भगवन् ! त्रीन्द्रिय जीव ज्ञानावरणीय कर्म का कितने काल का बंध करते हैं ? [१७२१ उ.] गौतम! वे जघन्यतः पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम पचास सागरोपम के ३/७ भाग का बंध करते हैं और उत्कृष्ट वही परिपूर्ण बांधते हैं । इस प्रकार जिसके जितने भाग हैं, वे उनके पचास सागरोपम के साथ कहने चाहिए। १७२२. तेइंदिया णं मिच्छत्तवेयणिजस्स कम्मस्स किं बंधंति ? गोयमा! जहण्णेणं सागरोवमपण्णासं पलिओवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणयं, उक्कोसेणं तं चेव पडिपुण्णं बंधंतिः _ [१७२२ प्र.] भगवन्! त्रीन्द्रिय जीव मिथ्यात्व-वेदनीय कर्म का कितने काल का बन्ध करते हैं ? [१७२२ उ.] गौतम! वे जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम पचास सागरोपम का और उत्कृष्ट पूरे पचास सागरोपम का बन्ध करते हैं। १७२३. तिरिक्खजोणियाउअस्स जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं पुव्वकोडि सोलसहिं राइदिएहिं राइंदियतिभागेण य अहियं बंधंति । एवं मणुस्साउयस्स वि। - [१७२३] तिर्यञ्चायु का जघन्य अन्तर्मुहूर्त का और उत्कृष्ट सोलह रात्रि-दिवस तथा रात्रि दिवस के तीसरे भाग अधिक करोड़ पूर्व का बन्धकाल है। इसी प्रकार मनुष्यायु का भी बन्धकाल है। १. प्रज्ञापनासूत्र भा. ५ (प्रमेयबोधिनी टीका) पृ. ४११-४२० Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०] [तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद] १७२४. सेसं जहा बेइंदियाणं जाव अंतराइयस्स। [१७२४] शेष यावत् अन्तराय तक का बन्धकाल द्वीन्द्रिय जीवों के बन्धकाल के समान जानना चाहिए । विवेचन - त्रीन्द्रिय जीवों के बन्धकाल की विशेषता – त्रीन्द्रिय जीवों के बन्धकाल की प्ररूपणा भी इसी प्रकार की है, किन्तु उनका बन्धस्थितिकाल एकेन्द्रिय जीवों की अपेक्षा ५० गुणा अधिक होता है। चतुरिन्द्रिय जीवों की कर्मप्रकृतियों की स्थितिबन्ध-प्ररूपणा १७२५. चउरिदिया णं भंते! जीवा णाणावरणिजस्स किं बंधति ? गोयमा! जहण्णेणं सागरोवमसयस्स तिण्णि सत्तभागे पलिओवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणए, उक्कोसेणं ते चेव पडिपुण्णे बंधंति। एवं जस्स जइ भागा ते तस्स सागरोवमसतेण सह भाणियव्वा। [१७२४ प्र.] भगवन्! चतुरिन्द्रिय जीव ज्ञानावरणीयकर्म का कितने काल का बंध करते हैं ? [१७२४ उ.] गौतम! वे जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सौ सागरोपम के ३/७ भाग का और उत्कृष्ट पूरे सौ सागरोपम के ३०७ भाग का बन्ध करते है। १७२६. तिरिक्खजोणियाउअस्स कम्मस्स जहण्णेणं अंतोमुहुर्त, उक्कोसेणं पुव्वकोडिं दोहिं मासेहिं अहियं। एवं मणुस्साउअस्स वि। [१७२६] तिर्यञ्चायुकर्म का (बन्धकाल) जघन्य अन्तमुहुर्त का है और उत्कृष्ट दो मास अधिक करोड़ पूर्वे का है। इसी प्रकार मनुष्यायु का बन्धकाल भी जानना चाहिए। १७२७. सेसं जहा बेइंदियाणं। णवरं मिच्छत्तवेयणिजस्स जहण्णेणं सागरोवमसतं पलिओवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणयं, उक्कोसेणं तं चेव पडिपुण्णं बंधति। सेसं जहा बेइंदियाणं जाव अंतराइयस्स। ___[१७२७] शेष यावत् अन्तराय द्वीन्द्रियजीवों के बन्धकाल के समान जानना चाहिए। विशेषता यह है कि मिथ्यात्ववेदनीय (मोहनीय) का जघन्य पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग कम सौ सागरोपम और उत्कृष्ट परिपूर्ण सौ सागरोपम का बन्ध करते हैं। शेष कथन अन्तराय कर्म तक द्वीन्द्रियों के समान है। विवेचन - चतुरिन्द्रिय जीवों के बन्धकाल की विशेषता – उनका बन्धकाल एकेन्द्रियों की अपेक्षा सौ गुणा अधिक होता है। १. (क) पण्णवणासुत्तं भाग. १. पृ. ३८० (ख) प्रज्ञापनासूत्र भा. ५ (प्रमेयबोधिनी टीका) पृ. ४२० १. (क) पण्णवणासुत्तं, भाग १, पृ. ६८० (ख) प्रज्ञापनासूत्र (प्रमेयबोधिनी टीका), भाग ५, पृ. ४२१ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७१ [प्रज्ञापनासूत्र] असंज्ञी-पंचेन्द्रिय जीवों की कर्मप्रकृतियों की स्थितिबन्ध-प्ररूपणा १७२८. असण्णी णं भंते! जीवा पंचेंद्रिया णाणावरणिजस्स कम्मस्स कि बंधंति ? गोयमा! जहण्णेणं सागरोवमसहस्सस्स तिणि सत्तभागे पलिओवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणए, उक्कोसेणं ते चेव पडिपुण्णे बंधति। एवं सो चेव गमो जहा बेइंदियाणं। णवरं सागरोवमसहस्सेण समं भाणियव्वा जस्स जति भाग त्ति। [१७२८ प्र.] भगवन् ! असंज्ञी-पंचेन्द्रिय जीव ज्ञानावरणीय कर्म कितने काल का बांधते हैं ? [१७२८ उ.] गौतम! वे पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सहस्रसागरोपम के ३/७ भाग काल का और उत्कृष्ट परिपूर्ण सहस्र सागरोपम के ३/७ भाग (काल) का बन्ध करते हैं। इस प्रकार द्वीन्द्रियों के (बन्धकाल के) विषय में जो गम (आलापक) कहा है, वही यहाँ जानना चाहिए। विशेष यह है कि यहाँ असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के प्रकरण में जिस कर्म का जितना भाग हो, उसका उतना ही भाग सहस्रसागरोपम से गुणित.कहना चाहिए। । १७२९. मिच्छत्तवेदणिजस्स जहण्णेणं सागरेवमसहस्सं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणयं, उक्कोसेणं तं चेव पडिपुण्णं। [१७२९] वे मिथ्यात्ववेदनीयकर्म का जघन्य बन्ध पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सहस्र सागरोपम का और उत्कृष्ट बंध परिपूर्ण सहस्र सागरोपम का (करते हैं)। ___१७३०[१]णेरइयाउअस्स जहण्णेणं दस वाससहस्साई अंतोमुहुत्तब्भइयाई, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेजइभागं पुव्वकोडितिभागब्भइयं बंधति। [१७३०-१] वे नरकायुष्यकर्म का (बन्ध) जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष का और उत्कृष्ट पूर्वकोटि के त्रिभाग अधिक पल्योपम के असंख्यातवें भाग का बन्ध करते हैं। [२] एवं तिरिक्खजोणियाउअस्स वि। णवरं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं। [१७३०-२] इसी प्रकार तिर्यञ्चायु का भी उत्कृष्ट बन्ध पूर्वकोटि का त्रिभाग अधिक पल्योपम के असंख्यातवें भाग का, किन्तु जघन्य अन्तर्मुहूर्त का करते हैं। [३] एवं मणुस्साउअस्स वि। [१७३०-३] इसी प्रकार मनुष्यायु के (बन्ध के) विषय में समझना चाहिए। [४] देवाउअस्स जहा णेरइयाउअस्स। [१७३०-४] देवायू का बन्ध नरकायु के समान जानना चाहिए। १७३१. [१] असण्णी णं भंते! जीवा पंचेंदिया णिरयगतिणामए कम्मस्स कि बंधति ? Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२] [तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद] ___ गोयमा! जहण्णेणं सागरोवमसहस्सस्स दो सत्तभागे पलिओवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणए, उक्कोसेणं ते चेव पडिपुण्णे। [१७३१-१ प्र.] भगवन् ! असंज्ञीपंचेन्द्रिय जीव नरकगतिनाम का कितने काल का बन्ध करते हैं? [१७३१-१ उ.] गौतम! वे पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सहस्र सागरोपम (काल) का २७ भाग और उत्कृष्ट परिपूर्ण सहस्र सागरोपम का २७ भाग बांधते हैं। [२] एवं तिरियगतीए वि। [१७३१-२] इसी प्रकार तिर्यञ्चगतिनाम के बंध के विषय में समझना चाहिए। [३] मणुयगतिणामए वि एवं चेव। णवरं जहण्णेणं सागरोवमसहस्सस्स दिवड्ढे सत्तभागं पलिओवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणयं, उक्कोसेणं तं चेव पडिपुण्णं बंधंति। [१७३१-३] मनुष्यगतिनामकर्म के बन्ध के विषय में भी इसी प्रकार समझना चाहिए। विशेष यह है कि इसका जघन्य बन्ध पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सहस्र-सागरोपम के १॥ भाग और उत्कृष्ट परिपूर्ण सहस्र सागरोपम के "भाग का करते हैं। [४] एवं देवगतिणामए वि। णवरं जहण्णेणं सागरोवमसहस्सस्स एगं सत्तभागं पलिओवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणयं, उक्कोसेणं तं चेव पडिपुण्णं। [१७३१-४] इसी प्रकार देवगतिनामकर्म के बन्ध के विषय में समझना। किन्तु विशेषता यह है कि इसका जघन्य बन्ध पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सहस्र सागरोपम के १/७ भाग का और उत्कृष्ट पूरे उसी (सहस्र सागरोपम) के १/७ भाग का करते हैं। [५] वेउव्वियसरीरणामए पुच्छा । गोयमा! जहणेणं सागरोवमसहस्सस्स दो सत्तभागे पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणए, उक्कोसेणं दो पडिपुण्णे बंधंति। [१७३१:५ प्र.] भगवन् ! (असंज्ञीपंचेन्द्रिय जीव) वैक्रियशरीरनाम का बन्ध कितने काल का करते हैं ? [१७३१-५ उ.] गौतम! वे जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सहस्र सागरोपम के २७ भाग का और उत्कृष्ट पूर सहस्र सागरोपम के २/७ का करते हैं। १७३२. सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त-आहारगसरीरणामए तित्थगरणामए य ण किचि बंधति । [१७३२] (असंज्ञीपंचेन्द्रिय जीव) सम्यक्त्वमोहनीय, सम्यग्मिथ्यात्वमोहनीय, आहारकशरीरनामकर्म और तीर्थंकरनामकर्म का बन्ध करते ही नही हैं। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र] [७३ १७३३. अवसिडें जहा बेइंदियाणं। णवरं जस्स जत्तिया भागा तस्स ते सागरोवमसहस्सेणं सह भाणियव्वा। सव्वेसिं आणुपुव्वीए जाव अंतराइयस्स। [१७३३] शेष कर्म प्रकृतियों का बन्धकाल द्वीन्द्रिय जीवों के कथन के समान जानना। विशेष यह है कि जिसके जितने भाग हैं, वे सहस्र सागरोपम के साथ कहने चाहिए। इसी प्रकार अनुक्रम से यावत् अन्तरायकर्म तक सभी कर्मप्रकृतियों का यथायोग्य (बन्धकाल) कहना चाहिए। विवेचन - द्वीन्द्रियों के समान आलापक, किन्तु विशेष अन्तर भी - द्वीन्द्रिय जीवों के बन्धकाल से असंज्ञीपंचेन्द्रियों के प्रकरण में विशेषता यही है कि यहां जघन्य और उत्कृष्ट बन्धकाल को सहस्र सागरोपम से गुणित कहना चाहिए। जिस कर्म का जितना भाग है, उसका उतना ही भाग यहाँ सहस्र सागरोपम से गुणित कहना चाहिए। संज्ञीपंचेंद्रिय जीवों में कर्म-प्रकृतियों के स्थितिबन्ध का निरूपण १७३४. सण्णी णं भंते! जीवा पंचेंदिया णाणावरणिजस्स कम्मस्स कि बंधति ? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तीसंसागरोवमकोडाकोडीओ, तिण्णि य बाससहस्साइं अबाहा। [१७३४ प्र.] भगवन् ! संज्ञीपंचेन्द्रिय जीव ज्ञानावरणीयकर्म का कितने काल का बन्ध करते हैं ? [१७३४ उ.] गौतम! वे जघन्य अन्तर्मुहूर्त का और उत्कृष्ट तीस कोडाकोडी सागरोपम (काल का) बन्ध करते हैं। इनका अबाधाकाल तीन हजार वर्ष का है। (कर्मस्थिति में से अबाधाकाल कम करने पर इनका कर्मनिषेककाल है।) १७३५. [१] सण्णी णं भंते! पंचेंदिया णिहापंचगस्स कि बंधंति ? गोयमा! जहण्णेणं अंतोसागरोवमकोडाकोडीओ; उक्कोसेणं तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ, तिण्णि य वाससहस्साई अबाहा। [१७३५-१ प्र.] भगवन् ! संज्ञीपंचेन्द्रिय जीव निद्रापंचककर्म का कितने काल का बन्ध करते हैं ? [१७३५-१ उ.] गौतम! वे जघन्य अन्तःकोडाकोडी सागरोपम का और उत्कृष्ट तीस कोडाकोडी सागरोपम का बन्ध करते हैं। इनका तीन हजार वर्ष का अबाधाकाल है, इत्यादि पूर्ववत्। [२] दंसणचउक्कस्स जहा णाणावरणिजस्स । [१७३५-२] दर्शनचतुष्क का बन्धकाल ज्ञानावरणीयकर्म के बन्धकाल के समान है। १७३६. [१] सातावेदणिजस्स जहा ओहिया ठिती भणिया तहेव भाणियव्वा इरियावहियबंधयं पडुच्च संपराइयबंधयं च। १. प्रज्ञापनासूत्र भा. ५, पृ. ४२६ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४] [ तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद] [१७३६-१] सातावेदनीयकर्म का बन्धकाल उसकी जो औधिक (सामान्य) स्थिति कही है, उतना ही कहना चाहिए। ऐर्यापथिकबन्ध और साम्परायिकबन्ध की अपेक्षा से (सातावेदनीय का बन्धकाल पृथक्-पृथक्) कहना चाहिए। [२] असातावेयणिजस्स जहा णिहापंचगस्स। [१७३२-२] असातावेदनीय का बन्धकाल निद्रापंचक के समान (कहना चाहिए)। १७३७. [१] सम्मत्तवेदणिजस्स सम्मामिच्छत्तवेदणिजस्स य जा ओहिया ठिती भणिया तं बंधंति। [१७३७-१] वे सम्यक्त्ववेदनीय (मोहनीय) और सम्यग्मिथ्यात्ववेदनीय (मोहनीय) की जो औधिक स्थिति कही है, उतने ही काल का बांधते हैं। ___ [२] मिच्छत्तवेदणिजस्स जहण्णेणं अंतोसागरोवमकोडाकोडीओ, उक्कोसेणं सत्तरि सागरोवमकोडाकोडीओ, सत्त य वाससहस्साई अबाहा०। [१७३७-२] वे मिथ्यात्ववेदनीय का बन्ध जघन्य अन्त:कोडाकोडी सागरोपम का और उत्कृष्ट ७० कोडाकोडी सागरोपम का करते हैं। अबाधाकाल सात हजार वर्ष का है, इत्यादि पूर्ववत्। [३] कसायबारसगस्स जहण्णेणं एवं चेव, उक्कोसेणं चत्तालीसं सागरोवमकोडाकोडीओ; चत्तालीस य वाससहस्साई अबाहा०। [१७३७-३] कषायद्वादशक (बारह कषायों) का बन्धकाल जघन्यत: इसी प्रकार (अन्त: कोटाकोटि सागरोपम प्रमाण) है और उत्कृष्टतः चालीस कोडाकोडी सागरोपम का है। इनका अबाधाकाल चालीस हजार वर्ष का है, इत्यादि पूर्ववत्। [४] कोह-माण-माया-लोभसंजलणाए य दो मासा मासो अद्धमासो अंतोमुहुत्तो एयं जहण्णेगं उक्कोसगं पुण जहा कसायबारसगस्स। । [१७३७-४] संज्वलन क्रोध-मान-माया-लोभ का जघन्य बन्ध क्रमशः दो मास, एक मास, अर्द्ध मास और अन्तर्मुहूर्त का होता है तथा उत्कृष्ट बन्ध कषाय द्वादशक के समान होता है। १७३८. चउण्ह वि आउआणं जा ओहिया ठिती भणिया तं बंधति । [१७३८] चार प्रकार के आयुष्य (नरकायु, तिर्यञ्चायु, मनुष्यायु और देवायु) कर्म की जो सामान्य (औधिक) स्थिति कही गई है, उसी स्थिति का वे (संज्ञीपंचेन्द्रिय) बन्ध करते हैं। १७३९.[१]आहारगसरीरस्स तित्थगरणामए य जहण्णेणं अंतोसागरोवमकोडाकोडीओ; उक्कोसेण वि अंतोसागरोवमकोडाकोडीओ बंधंति । [१७३९-१] वे आहारकशरीर और तीर्थंकरनामकर्म का बन्ध जघन्यतः अन्त:कोटाकोटि सागरोपम का करते Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रज्ञापनासूत्र ] हैं और उत्कृष्टत: भी उतने ही काल का बन्ध करते हैं। [२] पुरिसवेदस्स जहणणेणं अट्ठ संवच्छराई, उक्कोसेणं दस सागरोवमकोडाकोडीओ; दस य वाससयाई अबाहा० । [२] पुरुषवेद का बन्ध वे जघन्य आठ वर्ष का और उत्कृष्ट दशकोटाकोटी सागरोपम का करते हैं। उनका अबाधाकाल दस सौ (एक हजार) वर्ष का है, इत्यादि पूर्ववत् । [ ७५ [ ३ ] जसोकित्तिणामए उच्चागोयस्स य एवं चेव । णवरं जहण्णेणं अट्ठ मुहुत्ता । [१७३९-३] यशःकीर्तिनाम और उच्चगोत्र का बन्ध भी इसी प्रकार (पुरुषवेदवत् ) जानना चाहिए । विशेष यह है कि संज्ञीपंचेन्द्रिय जीवों का जघन्य स्थितिबन्ध (काल) आठ मुहूर्त का है। १७४०. अंतराइयस्स जहा णाणावरणिजस्स । [१७४०] अन्तरायकर्म का बन्धकाल ज्ञानावरणीयकर्म के (बन्धकाल के) समान है। १७४१. सेसएसु सव्वेसु ढाणेसु संघयणेसु वण्णेसु गंधेसु य जहण्णेणं अंतोसागरोवमकोडाकोडीओ, उक्कोसेणं जा जस्स ओहिया ठिती भाणिया तं बंधंति, णवरं इमं णाणात्तं वुच्चति । एवं आणुपुव्वीए सव्वेसिं जाव अंतराइयस्स ताव भाणियव्वं । अब बाहूणियाण [१७४१] शेष सभी स्थानों में तथा संहनन, संस्थान, वर्ण, गन्ध नामकर्मों में बन्ध का जघन्य काल अन्तः कोटाकोटि सागरोपम का है और उत्कृष्ट स्थितिबन्ध का काल, जो इनकी सामान्य स्थिति कही है, वही कहना चाहिए । विशेष अन्तर यह है कि इनका अबाधाकाल और अबाधाकालन्यून (कर्मनिषेककाल) नहीं कहा जाता । इसी प्रकार अनुक्रम से सभी कर्मों का अन्तरायकर्म तक का स्थितिबन्धकाल कहना चाहिए। विवेचन - कुछ स्पष्टीकरण – संज्ञीपंचेन्द्रिय बन्धक की अपेक्षा से ज्ञानावरणीयादि कर्मों का जो जघन्य स्थितिबन्धकाल कहा गया है, वह क्षपक जीव को उस समय होता है, जब उन कर्म-प्रकृतियों के बन्ध का चरम समय हो । निद्रापंचक, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, कषायद्वादश आदि का बन्ध क्षपण से पहले होता है, अतएव उनका जघन्य और उत्कृष्ट बन्ध भी अन्तः कोटाकोटि सागरोपम का होता है, जो अत्यन्त संक्लेशयुक्त मिथ्यादृष्टि समझना चाहिए। चारों प्रकार के आयुष्यकर्म का उत्कृष्ट बन्ध उन-उनके बन्धकों में जो अतिविशुद्ध होते हैं, उनको होता है । कर्मों के जघन्य स्थितिबन्धक की प्ररूपणा १७४२. णाणावरणिजस्स णं भंते! कम्मस्स जहण्णठितिबंध के ? गोयमा! अण्णयरे सुहुमसंपराए उवसामए वा खवए वा, एस णं गोयमा ! णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स १. प्रज्ञापनासूत्र भाग ५, (प्रमेयबोधिनी टीका) पृ. ४३३- ४३४ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६] [ तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद] जहण्णठितिबंधए, तव्वइरित्ते अजहण्णे।एवं एतेणं अभिलावेणं मोहाऽऽउअवजाणं सेसकम्माणं भाणियव्वं। [१७४२ प्र.] भगवन् ! ज्ञानावरणीयकर्म की जघन्य स्थिति का बन्धक (बांधने वाला) कौन है ? [१७४२ उ.] गौतम! वह अन्यतर (कोई एक) सूक्ष्मसम्पराय, उपशामक (उपशमश्रेणी वाला) या क्षपक (क्षपकश्रेणी वाला) होता है। हे गौतम! यही ज्ञानावरणीयकर्म का जघन्य स्थिति बन्धक होता है, उससे अतिरिक्त अजघन्य स्थिति का बन्धक होता है। इस प्रकार इस अभिलाप से मोहनीय और आयुकर्म को छोड़ कर शेष कर्मों के विषय में कहना चाहिए। १७४३.मोहणिजस्स णं भंते! कम्मस्स जहण्णठितिबंधए के ? गोयमा! अण्णयरं बायरसंपराए उवसामए वा खवए वा, एस णं गोयमा ! मोहणिजस्स कम्मस्स जहण्णठितिबंधए, तव्वतिरित्ते अजहण्णे। [१७४३ प्र.] भगवन्! मोहनीयकर्म की जघन्य स्थिति का बन्धक कौन है ? [१७४३ उ.] गौतम! वह अन्यतर बादरसम्पराय, उपशामक अथवा क्षपक होता है । हे गौतम! यह मोहनीयकर्म की जघन्य स्थिति का बन्धक होता है, उससे भिन्न अजघन्य स्थिति का बन्धक होता है। १७४४. आउयस्स णं भंते! कम्मस्स जहण्णठितिबंधए के ? ___ गोयमा ! जे णं जीवे असंखेप्पद्धप्पविढे सव्वणिरुद्ध से आउए, सेसे सव्वमहंतीए आउअबंधद्धाए, तीसे णं आउअबंधद्धाए चरिमकालसमयंसि सव्वजहणियं ठिई पजत्तापजत्तियं णिव्वत्तेति। एस णं गोयमा ! आउयकम्मस्स जहण्णठितिबंधए, तव्वइरित्ते अजहण्णे। .. [१७४४ प्र.] भगवन् ! आयुष्यकर्म का जघन्य स्थिति-बन्धक कौन है ? [१७४४ उ.] गौतम! जो जीव असंक्षेप्य-अद्धाप्रविष्ट होता है, उसकी आयु सर्वनिरुद्ध (सबसे कम) होती है। शेष सबसे बड़े उस आयुष्य-बन्धकाल के अन्तिम काल के समय में जो सबसे जघन्य स्थिति को तथा पर्याप्तिअपर्याप्ति को बांधता हे। हे गौतम! यही आयुष्यकर्म की जघन्य स्थिति का बन्धक होता है, उससे भिन्न अजघन्य स्थिति का बन्धक होता है। विवेचन-निष्कर्ष – मोहनीय और आयुकर्म को छोडकर शेष पांच कर्मों की जघन्य स्थिति का बन्धक जीव सूक्ष्मसम्पराय अवस्था से युक्त उपशमक अथवा क्षपक दोनों में से कोई एक (अन्यतर) होता है। तात्पर्य यह है कि ज्ञानावरणीयादि कर्मों का बन्ध सूक्ष्मसम्पराय अवस्था में उपशमक और क्षपक दोनों को जघन्य अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होता है । अतएव दोनों का स्थितिबन्ध का काल समान होने से कहा गया है – उपशमक अथवा क्षपक दोनों में से कोई एक। यद्यपि उपशमक और क्षपक दोनों का स्थितिबन्धकाल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है, तथापि दोनों के अन्तर्मुहूर्त के प्रमाण में अन्तर होता है। क्षपक की अपेक्षा उपशमक का बन्धकाल दुगुना समझना चाहिए। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र] [ ৩ उदाहरणार्थ – दसवें गुणस्थान वाले क्षपक को जितने काल का ज्ञानावरणीयकर्म का स्थितिबन्ध होता है, उसकी अपेक्षा श्रेणी चढ़ते हुए उपशमक को दुगुने काल का स्थितिबन्ध होता है फिर भी उसका काल होता है - अन्तर्मुहूर्त ही। इस प्रकार वेदनीयकर्म के साम्परायिकबन्ध की प्ररूपणा करते समय क्षपक का जघन्य स्थितिबन्ध १२ मुहुर्त का और उपशमक का २४ मुहूर्त का कहा है। नाम और गोत्रकर्म का क्षपक जीव आठ मुहूर्त का स्थितिबन्ध करता है, जबकि उपशमक १६ मुहूर्त का करता है। किन्तु उपशमक एवं क्षपक जीव का जघन्यबन्ध शेष सब बन्धों की अपेक्षा सर्वजघन्यबन्ध समझना चाहिए। इसीलिए कहा गया है – उपशमक एवं क्षपक जीव, जो सूक्ष्मसम्पराय अवस्था में हो वही ज्ञानावरणीयादि कर्मों का जघन्य स्थितिबन्धक है।' मोहनीयकर्म की जघन्य स्थिति का बन्धक - बादरसम्पराय से युक्त उपशमक या क्षपक जीव मोहनीयकर्म की स्थिति का बन्धक होता है। आयुकर्म की जघन्य स्थिति का बन्धक कौन और क्यों ? – जो जीव असंक्षेप्य-अद्धाप्रविष्ट होता है, उसकी आयु सर्वनिरुद्ध होती है। उसका आयुष्य आठ आकर्ष प्रमाण सबसे बड़ा काल होता है, आयु के बन्ध होते ही वह आयुष्य समाप्त हो जाता है। अत: असंक्षेप्याद्धाप्रविष्ट जीव आयुष्यबन्ध काल के चरम समय में अर्थात् – एक आकर्षप्रमाण अष्टम भाग में सर्वजघन्य स्थिति को बांधता है। वह स्थिति शरीर-पर्याप्ति और इन्द्रिय-पर्याप्ति को सम्पन्न करने में समर्थ और उच्छ्वास-पर्याप्ति को निष्पन्न करने में असमर्थ होती है। यहाँ असंक्षेप्याद्धा, सर्वनिरुद्ध और चरमकाल आदि कुछ पारिभाषिक शब्द हैं, उनके लक्षण इस प्रकार हैं - असंक्षेप्याद्धा - जिसका त्रिभाग आदि प्रकार से संक्षेप न हो सके.ऐसा अद्धा काल असंक्षेप्याद्धा कहलाता है। ऐसे जीव का आयुष्य सर्वनिरुद्ध होता है। अर्थात् उपक्रम के कारणों द्वारा आयुष्य अतिसंक्षिप्त किया हुआ होता है। ऐसा आयुष्य आयुष्य-बन्ध के समय तक ही सीमित होता है, आगे नहीं। चरमकाल समय - इस शब्द से सूक्ष्म अंश का ग्रहण नहीं करना चाहिए, किन्तु पूर्वोक्तकाल ही समझना चाहिए, क्योंकि उससे कम काल में आयु का बन्ध होना सम्भव नहीं।' कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति के बन्धकों की प्ररूपणा १७४५. उक्कोसकालठितीयं णं भंते! णाणावरणि कम्मं कि णेरडओ बंधड़ तिरिक्खजोणिओ बंधड़ तिरिक्खजोणिणी बंधइ मणुस्सो बंधइ मणुस्सी बंधइ देवो बंधई देवी बंधइ ? गोयमा! णेरइओ वि बंधति जाव देवी वि बंधति। [१७४५ प्र.] भगवन् ! उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले ज्ञानावरणीयकर्म को क्या नारक बांधता है, तिर्यञ्च बांधता है, तिर्यञ्चिनी बांधती है, मनुष्य बंधता है, मनुष्य स्त्री बंधती है अथवा देव बांधता है या देवी बांधती है ? १. प्रज्ञापना (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ४३७ २. वही, भा. ५, पृ. ४४० ३. वही, भा. ५, पृ. ४४०-४४१ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८] [तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद] [१७४५ उ.] गौतम! उसे नारक भी बांधता है यावत् देवी भी बांधती है। १७४६. केरिसए णं भंते! णेरइए उक्कोसकालठितीयं णाणावरणिज कम्मं बंधइ ? गोयमा! सण्णी पंचिंदिए सव्वाहिं पजत्तीहिं पजत्ते सागारे जागरे सुतोवउत्ते मिच्छादिट्ठी कण्हलेसे उक्कोससंकिलिट्ठपरिणामे ईसिमझिमपरिणामे वा, एरिसए णं गोयमा! णेरइए उक्कोस-कालठितीयं णाणावरणिजं कम्मं बंधइ। [१४७४६ प्र.] भगवन्! किस प्रकार का नारक उत्कृष्ट स्थिति वाला ज्ञनावरणीयकर्म बांधता है ? __ [१७४६ उ.] गौतम! जो संज्ञीपंचेन्द्रिय, समस्त पर्याप्तियों से पर्याप्त, साकारोपयोग वाला, जाग्रत, श्रुत में उपयोगवान्, मिथ्यादृष्टि, कृष्णलेश्यावान्, उत्कृष्ट संक्लिष्ट परिणाम वाला अथवा किञ्चित् मध्यम परिणाम वाला हो, ऐसा नारक, हे गौतम! उत्कृष्ट स्थिति वाले ज्ञानावरणीय कर्म को बांधता है। १७४७. [१] केरिसए णं भंते! तिरिक्खजोणिए उक्कोसकालठितीय णाणावरणिज्जं कम्मं बंधइ? गोयमा! कम्मभूमए वा कम्मभूमगपलिभागी वा सण्णी पंचेंदिए सव्वाहि पजत्तीहि पजत्तए, सेसं तं चेव जहा णेरइयस्स। [१७४७-१ प्र.] भगवन् ! किस प्रकार का तिर्यञ्च उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले ज्ञानावरणीयकर्म को बांधता [१७४७-१ उ.] गौतम! जो कर्मभूमि में उत्पन्न हो अथवा कर्मभूमिज के सदृश हो, संज्ञीपंचेन्द्रिय, सर्व पर्याप्तियों से पर्याप्त, साकारोपयोग वाला, जाग्रत, श्रुत में उपयोगवान् मिथ्यादृष्टि, कृष्णलेश्यावान्, एवं उत्कृष्ट संक्लिष्ट परिणाम वाला हो तथा किञ्चित् मध्यम परिणाम वाला हो, हे गौतम! इसी प्रकार का तिर्यञ्च उत्कृष्ट स्थिति वाले ज्ञानावरणीय कर्म को बांधता है। [२] एवं तिरिक्खजोणिणी वि, मणूसे वि मणूसी वि। देव-देवी जहा णेरइए (सु. १७४६ )। [१७४७-२] इसी प्रकार की (पूर्वोक्त विशेषणों से युक्त) तिर्यञ्चनी भी मनुष्य, और मनुष्यस्त्री भी उत्कृष्ट स्थिति वाले ज्ञानावरणीय कर्म को बांधती है (पूर्वोक्त विशेषण युक्त) (सू. १७४६ में उक्त) नारक के सदृश देव और देवी (उत्कृष्ट ज्ञानावरणीय कर्म बांधते हैं।) १७४८. एवं आउअवजाणं सत्तण्हं कम्माणं। ___ [१७४८] आयुष्य को छोड़कर शेष (उत्कृष्ट स्थिति वाले) सात कर्मों के बन्ध के विषय में पूर्ववत् जानना चाहिए। १७४९. उक्कोसकालठितीयं णं भंते! आउअं कम्मं कि णेरइओ बंधइ जाव देवी बंधइ ? गोयमा! णो णेरइओ बंधइ, तिरिक्खजोणिओ बंधइ, णो तिरिक्खजोणिणी बंधइ, मणुस्सो वि बंधइ, Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रज्ञापनासूत्र] [७९ मणुस्सी वि बंधइ, णो देवो बंधइ, णो देवी बंधइ। [१७४९ प्र.] भगवन् ! उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले आयुष्यकर्म को क्या नैरयिक बांधता है, यावत् देवी बांधती है? [१७४९ उ.] गौतम! उसे नारक नहीं बांधता, तिर्यञ्च बांधता है, किन्तु तिर्यञ्चिनी, देव या देवी नहीं बांधती, मनुष्य बांधता है तथा मनुष्य स्त्री भी बांधती है। १७५०. केरिसए णं भंते! तिरिक्खजोणिए उक्कोसकालठितीयं आउयं कम्मं बंधइ ? गोयमा! कम्मभूमए वा कम्मभूमगपलिभागी वा सण्णी पंचेंदिए सव्वाहिं पजत्तीहिं पजत्तए सागारे जागरे सुतोवउत्ते मिच्छट्ठिी परमकिण्हलेस्से उक्कोससंकिलिट्ठपरिणामे, एरिसए णं गोयमा! तिरिक्खजोणिए उक्कोसकालठितीयं आउअं कम्मं बंधइ। [१७५० प्र.] भगवन्! किस प्रकार का तिर्यञ्च उत्कृष्टकाल की स्थिति वाले आयुष्यकर्म को बांधता है ? [१७५० उ.] गौतम! जो कर्मभूमि में उत्पन्न हो अथवा कर्मभूमिज के समान हो, संज्ञीपंचेन्द्रिय, सर्व पर्याप्तियों से पर्याप्त, साकारोपयोग वाला हो, जाग्रत हो, श्रुत में उपयोगवान् मिथ्यादृष्टि, परमक़ष्णलेश्यावान् एवं उत्कृष्ट संक्लिष्ट परिणाम वाला हो, ऐसा तिर्यञ्च उत्कृष्ट स्थिति वाले आयुष्यकर्म को बांधता है । १७५१. केरिसए णं भंते! मणूसे उक्कोसकालठितीयं आउयं कम्मं बंधइ ? गोयमा! कम्मभूमगे वा कम्मभूमगपलिभागी वा जाव सुतोवउत्ते सम्मद्दिट्टी वा मिच्छद्दिट्टी वा कण्हलेसे वा सुक्कलेसे वा णाणी वा अण्णाणी वा उक्कोससंकिलिट्ठपरिणामे वा तप्पाउग्गाविसुज्झमाणपरिणामे वा, एरिसए णं गोयमा! मणूसे उक्कोसकालठिईयं आउयं कम्मं बंधइ। [१७५१ प्र.] भगवन्! किस प्रकार का मनुष्य उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले आयुष्यकर्म को बांधता है ? [१७५१ उ.] गौतम! जो कर्मभूमिज हो अथवा कमभूमिज के सदृश हो यावत् श्रुत में उपयोग वाला हो, सम्यग्दृष्टि हो अथवा मिथ्यादृष्टि हो, कृष्णलेश्यी हो या शुक्ललेश्यी हो, ज्ञानी हो या अज्ञानी हो, उत्कृष्ट संक्लिष्ट परिणाम वाला हो, अथवा तत्प्रयोग्य विशुद्ध होते हुए परिणाम वाला हो, हे गौतम! इस प्रकार का मनुष्य उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले आयुष्यकर्म को बांधता है। १७५२. केरिसिया णं भंते! मणूसी उक्कोसकालठितीयं आउयं कम्मं बंधइ ? गोयमा! कम्मभूमिगा वा कम्मभूमगपलिभागी वा जाव सुतोवउत्ता सम्मद्दिट्ठि सुक्कलेस्सा तप्पाउग्गविसुज्झमाणपरिणामा एरिसिया णं गोयमा! मणुस्सी उक्कोसकालठितीयं आउयं कम्मं बंधइ। [१७५२ प्र.] भगवन्! किस प्रकार की मनुष्य-स्त्री उत्कृष्ट काल की स्थितिवाले आयुष्यकर्म को बांधती है ? [१७५२ उ.] गौतम! जो कर्मभूमि में उत्पन्न हो अथवा कर्मभूमिजा के समान हो यावत् श्रुत में उपयोग वाली Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०] [ तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद ] हो, सम्यग्दृष्टि हो, शुक्ललेश्यावाली हो, तत्प्रयोग्य विशुद्ध होते हुए परिणाम वाली हो, हे गौतम! इस प्रकार की मनुष्य- स्त्री उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले आयुष्यकर्म को बांधती है। १७५३. अंतराइयं जहा णाणावरणिज्जं ( १७४५-४७ ) । [ १७५३] उत्कृष्ट स्थिति वाले अन्तरायकर्म के बंध के विषय में (सू. १७४५-४७ में उक्त) ज्ञानावरणीयकर्म के समान जानना चाहिए। [ बीओ उद्देसओ समत्तो ] ॥ पण्णवणाए भगवतीए तेवीसइमं कम्मे त्ति पदं समत्तं ॥ - विवेचन – निष्कर्ष – आयुकर्म को छोडकर शेष सातों उत्कृष्ट स्थिति वाले कर्मों को पूर्वोक्त विशेषता वाले नारक, तिर्यञ्च तिर्यञ्चनी, मनुष्य, मानुषी, देव या देवी बांधती है । उत्कृष्ट स्थिति वाले आयुष्कर्म को तिर्यञ्च, मनुष्य और मानुषी बांधती है, किन्तु नारक, तिर्यञ्चिनी, देव और देवी नहीं बांधती, क्योंकि इन चारों के उत्कृष्ट आयुकर्म का बन्ध नहीं होता । कठिन शब्दार्थ - कम्मभूमिगपलिभागी – जो कर्मभूमि में जन्मे हुए के समान हो । अर्थात् कर्मभूमिजा गर्भिणी तिर्यञ्चनी का अपहरण करके किसी ने यौगलिक क्षेत्र में रख दिया हो और उससे जो जन्मा हो ऐसा तिर्यञ्च । सागारे – साकारोपयोग वाला। सुतोवउत्ते - श्रुत (शास्त्र) में उपयोग वाला। सुक्कलेस्से - शुक्ललेश्यी । तप्पाउग्गविसुज्झमाण-परिणामे – उसके योग्य विशुद्ध परिणाम वाला हो। ॥ दूसरा उद्देशक समाप्त ॥ ॥ प्रज्ञापना भगवती का तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद सम्पूर्ण ॥ १. (क) पण्णवणासुत्तं भा. १ (मूलपाठ-टिप्पण) पृ. ३८३ - ३८४ (ख) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ४५९ से ४५६ तक Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउवीसइमं कम्मबंधपयं चौवीसवाँ कर्मबन्धपद ज्ञानावरणीयकर्म के बंध के समय अन्य कर्मप्रकृतियों के बन्ध की प्ररूपणा १७५४. [१] कति णं भंते! कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ ? ' गोमा ! अट्ठ कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ । तं जहा णाणावरणिज्जं जाव अंतराइयं । [१७५४-१ प्र.] भगवन् ! कर्म-प्रकृतियाँ कितनी कही गई हैं ? [१७५४-१ उ.] गौतम! कर्म-प्रकृतियाँ आठ कही गई हैं, यथा[२] एवं णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं । [१७५४-२] इसी प्रकार नैरयिकों (से लेकर) वैमानिकों तक ( के आठ कर्मप्रकृतियाँ हैं । ) १७५५. जीवे णं भंते! णाणावरणिज्जं कम्मं बंधमाणे कति कम्मपगडीओ बंधइ ? गोयमा ! सत्तविहबंधए वा अट्ठविहबंधए वा छव्विहबंधए वा । [१७५५ प्र.] भगवन्! (एक) जीव ज्ञानावरणीयकर्म को बांधता हुआ कितनी कर्मप्रकृतियों को बांधता है ? [ १७५५ उ.] गौतम ! वह सात, आठ या छह कर्मप्रकृतियों का बन्धक होता है । १७५६. [ १ ] णेरइए णं भंते! णाणावरणिजं कम्मं बंधमाणे कति कम्मपगडीओ बंधइ ? गोयमा! सत्तविहबंधए वा अट्ठविहबंध वा । — ज्ञानावरणीय यावत् अन्तराय । [१७५६-१ प्र.] भगवन् ! (एक) नैरयिक जीव ज्ञानावरणीयकर्म को बांधता हुआ कितनी कर्मप्रकृतियाँ बांधता है ? [ १७५६-१ उ.] गौतम! वह सात या आठ कर्मप्रकृतियाँ बांधता है। [२] एवं जाव वेमाणिए । णवरं मणूसे जहा जीवे (सु. १७५५ ) । [१७५६-२] इसी प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त कथन करना चाहिए। विशेष यह है कि मनुष्य-सम्बन्धी कथन (सू. १७५५) समुच्चय जीव के समान जानना चाहिए। १७५७. जीवा णं भंते! णाणावरणिज्जं कम्मं बंधमाणा कति कम्मपगडीओ बंधंति ? गोयमा ! सव्वे वि ताव होज्जा सत्तविहबंधगाा य अट्ठविहबंधगाा य १ अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य छव्विहबंधगे य २ अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य छव्विहबंधगा य ३ । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२] [चौवीसवाँ कर्मबन्धपद] [१७५७- प्र.]भगवन्! (बहुत) जीव ज्ञानावरणीयकर्म को बांधते हुए कितनी कर्म-प्रकृतियों को बांधते हैं ? [१७५७ उ.] गौतम! १. सभी जीव सात या आठ कर्म-प्रकृतियों के बन्धक होते है; २. अथवा बहुत से जीव सात या आठ कर्म-प्रकृतियों के बन्धक और कोई एक जीव छह का बन्धक होता है; ३. अथवा बहुत से जीव सात, आठ या छह कर्म-प्रकृतियों के बन्धक होते हैं। १७५८. [१] णेरड्या णं भंते! णाणावरणिजं कम्मं बंधमाणा कति कम्मपगडीओ बंधंति ? गोयमा! सव्वे वि ताव होजा सत्तविहबंधगा १ अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगे य २ अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य, ३ तिण्णि भंगा [१७५८-१ प्र.] भगवन् ! (बहूत से) नैरयिक ज्ञानावरणीयकर्म को बांधते हुए कितनी कर्म-प्रकृतियाँ बांधते [१७५८-१ उ.] गौतम! १. सभी नैरयिक सात कर्म-प्रकृतियों के बन्धक होते हैं अथवा २. बहुत से नैरयिक सात कर्म-प्रकृतियों के बन्धक और एक नैरयिक आठ कर्म-प्रकृतियों का बन्धक होता है, अथवा ३. बहुत से नैरयिक सात या आठ कर्म-प्रकृतियों के बन्धक होते हैं। ये तीन भंग होते हैं। [२] एवं जाव थणियकुमारा। [१७५८-२] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक जानना चाहिए। १७५९. [१] पुढविक्काइयाणं पुच्छा। गोयमा! सत्तविहबंधगा वि अट्ठविहबंधगा वि। . [१७५९-१ प्र.] भगवन् ! (बहुत) पृथ्वीकायिक जीव ज्ञानावरणीयकर्म को बांधते हुए कितनी कर्मप्रकृतियों को बांधते हैं ? [१७५९-१ उ.] गौतम! वे सात कर्मप्रकृतियों के भी बन्धक होते है, आठ कर्मप्रकृतियों के भी । [२] एवं जाव वणस्सइकाइया । [१७५९-२] इसी प्रकार यावत् (बहुत) वनस्पतिकायिक जीवों के सम्बन्ध में कहना चाहिए। १७६०. वियलाणं पंचेंदियतिरिक्खजोणियाण य तियभंगो-सव्वे वि ताव होज्जा सत्तविहबंधगा १ अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधए य २ अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य ३। [१७६०] विकलेन्द्रियों और तिर्यञ्च-पञ्चेन्द्रियजीवों के तीन भंग होते हैं – १. सभी सात कर्मप्रकृतियों के बन्धक होते है, २. अथवा बहुत से सात कर्मप्रकृतियों के और कोई एक आठ कर्मप्रकृतियों का बन्धक होता है, ३. अथवा बहुत से सात के तथा बहुत से आठ कर्मप्रकृतियों के बन्धक होते हैं। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रज्ञापनासूत्र ] [८३ १७६१. मणूसा णं भंते! णाणावरणिज्जस्स पुच्छा । गोयमा! सव्वे वि ताव होज्जा सत्तविहबंधगा १ अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधए य २ अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य ३ अहवा सत्तविहबंधगाा य छव्विहबंधए य ४ अहवा सत्तविहबंधगा य छव्विहबंधगा य ५ अहवा सत्तविहबंधगाा य अट्ठविहबंधए य छव्विहबंधए ६ अहवा सत्तविहबंधगा य अविहबंधगे य छव्विहबंधगाा य ७ अहवा सत्तविहबंधगा य छव्विहबंधए य ८ अहवा सत्तविहबंधगा य अविबंधगाय ९, एवं एते णव भंगा। सेसा वाणमंतराइया जाव वेमाणिया जहा णेरड्या सत्तविहादिबंधगा भणिया (सु. १७५८ [ १ ] ) तहा भाणियव्वा । [१७६१ प्र.] भगवन्! (बहुत से) मनुष्य ज्ञानावरणीयकर्म को बांधते हुए कितनी कर्म-प्रकृतियों को बांधते हैं ? [ १७६१ उ.] गौतम ! १. सभी मनुष्य सात कर्मप्रकृतियों के बन्धक होते हैं, २. अथवा बहुत से मनुष्य सात के बन्धक और कोई एक मनुष्य आठ का बन्धक होता है, ३ अथवा बहुत से सात के तथा आठ के बन्धक होते है, ४. अथवा बहुत से मनुष्य सात के और कोई एक मनुष्य छह का बन्धक होता है, ५. बहुत से मनुष्य सात के और बहुत से छह के बन्धक होते हैं, ६. अथवा बहुत से सात के बन्धक होते हैं, तथा एक आठ का एवं कोई एक छह का बन्धक होता है, ७. अथवा बहुत से सात के बन्धक कोई एक आठ का बन्धक और बहुत से छह के बन्धक होते हैं, ८. अथवा बहुत से सात के बहुत से आठ के और एक छह का बन्धक होता है, ९. अथवा बहुत से सात के, से आठ के और बहुत से छह के बन्धक होते हैं। इस प्रकार ये कुल नौ भंग होते हैं । बहुत शेष वाणव्यन्तरादि (से लेकर) यावत् वैमानिक पर्यन्त जैसे (सू. १७५८ - १ में) नैरयिक सात आदि कर्मप्रकृतियों के बन्धक कहे हैं, उसी प्रकार कहने चाहिए । दर्शनावरणीयकर्मबन्ध के साथ अन्य कर्मप्रकृतियों के बन्ध का निरूपण १७६२. एवं जहा णाणावरणं बंधमाण जाहिं भणिया दंसणावरणं पि बंधमाण ताहिं जीवादीया एगत्त- पोहत्तेहिं भाणियव्वा । [१७६२] जिस प्रकार ज्ञानावरणीयकर्म को बांधते हुए जिन कर्म-प्रकृतियों के बन्ध का कथन किया, उसी प्रकार दर्शनावरणीयकर्म को बांधते हुए जीव आदि के विषय में एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से उन कर्म प्रकृतियों के बन्ध का कथन करना चाहिए। विवेचन • ज्ञान दर्शनावरणीय कर्म बन्ध के साथ अन्य कर्म-प्रकृतियों के बन्ध का निरूपण (१) समुच्चयजीव – सात, आठ या छह कर्मप्रकृतियों के बन्धक कैसे ? जीव जब ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध करता है, तब यदि आयुष्यकर्म का बन्ध न करे तो सात प्रकृतियाँ, यदि आयुष्य-बन्ध करे तो आठ कर्मप्रकृतियाँ बांधता है और जब मोहनीय और आयु दोनों का बन्ध नहीं करता, तब छह कर्मप्रकृतियों का बन्ध करता है। ऐसे Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४] [ चौवीसवाँ कर्मबन्धपद ] जीव सूक्ष्मसम्पयगुणस्थानवर्ती हैं, जो मोहनीय और आयु को छोड़कर शेष छह कर्म - प्रकृतियों के बन्धक होते हैं । केवल एक सातावेदनीय कर्मप्रकृति बांधने वाला ग्यारहवें ( उपशान्त - मोहनीय), बारहवें (क्षीण-मोहनीय) और तेरहवें ( सयोगी - केवली) गुणस्थानवर्ती जीव होता है। उस समय वे दो समय की स्थितिवाला सातावेदनीयकर्म बांधते हैं। उनके साम्परायिक बन्ध नहीं होता, क्योंकि उपशान्तकषाय आदि जीवों के ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का विच्छेदन सूक्ष्मसम्पराय नामक दसवें गुणस्थान के चरम समय में ही हो जाता है। (२) नारकादि जीव - नारक जीव ज्ञानावरणीय का बन्ध करता हुआ जब आयुकर्म का बंध करता है, तब आठ कर्मप्रकृतियों का बंधक होता है। नारक जीव में छह कर्मप्रकृतियों के बंध का विकल्प सम्भव नहीं है, क्योंकि वह सूक्ष्मसम्परायगुणस्थान को प्राप्त नहीं कर सकता । अतः मनुष्य को छोडकर शेष सभी प्रकार के जीवों (दण्डकों) में पूर्वोक्त दो विकल्प (सात या आठ के बंध के) ही समझने चाहिए, क्योंकि उन्हें सूक्ष्मसम्परायगुणस्थान प्राप्त न होने से उनमें तीसरा (छह प्रकृतियों के बन्ध का) विकल्प सम्भव नहीं है। मनुष्य का कथन सामान्य जीव के समान है। अर्थात् - मनुष्य में तीनों भंग पाये जाते हैं । ( ३ ) बहुत्व की अपेक्षा से समुच्चय जीव के ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय कर्मबन्ध के साथ अन्य कर्मबन्धन – सभी जीव आयुकर्म बन्ध के अभाव में सात के और उसके बंध के सद्भाव में आठ - प्रकृतियों के बंधक होते हैं। बहुत्व - विवक्षा में सात या आठ के बंधक तो सदैव बहुसंख्या में पाये जाते हैं, किन्तु छह के बंधक किसी काल- विशेष ही पाये जाते हैं और किसी काल में नहीं पाये जाते, क्योंकि उसका अन्तरकाल छह महिने तक का कहा गया है। जब एक षड्विधबंधक नहीं पाया जात, तब प्रथम भंग होता है, जब एक पाया जाता है तो द्वितीय और जब बहुत षड्विधबंधक जीव पाये जाते हैं, तब तृतीय विकल्प होता है। . वेदनीय कर्मबन्ध के साथ अन्य कर्मप्रकृतियों के बन्ध का निरूपण १७६३. [ १ ] वेयणिज्जं बंधमाणे जीवे कति कम्मपगडीओ बंधइ ? गोमा ! सत्तविहबंध वा अट्ठविहबंधए वा छव्विहबंधए वा एगविहबंधए वा । [१७६३-१ प्र.] भगवन्! वेदनीयकर्म को बाँधता हुआ एक जीव कितनी कर्मप्रकृतियाँ बांधता है ? [ १७६३-१ उ.] गौतम! सात का, आठ का, छह का अथवा एक प्रकृति का बन्धक होता हैं। [२] एवं मणूसे वि । [१७६३-२] मनुष्य के सम्बन्ध में भी ऐसा ही कहना चाहिए। [३] सेसा णारगादीया सत्तविहबंधगाा य अट्ठविहबंधगा य जाव वेमाणिए । [१७६३-३] शेष नारक आदि सप्तविध और अष्टविध बन्धक होते हैं, वैमानिक तक इसी प्रकार कहना चाहिए । १७६४. जीवा णं भंते! वेयणिज्जं कम्मं० पुच्छा । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र] [८५ गोयमा! सव्वे वि ताव होजा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य एगविहबंधगा य छव्विहबंधगे य १ अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगाा य एगविहबंधगा य छव्विहबंधगा य २। [१७६४ प्र.] भगवन् ! बहुत जीव वेदनीयकर्म को बांधते हुए कितनी कर्म प्रकृतियाँ बांधते हैं ? [१७६४ उ.] गौतम! सभी जीव सप्तविधबन्धक, अष्टविधबन्धक, एकप्रकृतिबन्धक और एक जीव छहप्रकृतिबन्धक होता है १. अथवा बहुत सप्तविधबन्धक, अष्टविधबन्धक, एकविधबन्धक या छहविधबन्धक होते हैं । १७६५. [१] अवसेसा णारगादीया जाव वेमाणिया जाओ णाणावरणं बंधमाणा बंधंति ताहिं भाणियव्वा। [१७६५-१] शेष नारकादि से वैमानिक पर्यन्त ज्ञानावरणीय को बांधते हुए जितनी प्रकृतियों को बांधते हैं, उतनी का बन्ध यहाँ भी कहना चाहिए। [२] णवरं मणूसा णं भंते! वेदणिजं कम्मं बंधमाणा कति कम्मपगडीओ बंधंति ? मोयमा! सव्वे वि ताव होज्जा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य १ अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अट्टविहबंधए २ अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अट्टविहबंधगा य ३ अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य छव्विहबंधगे य ४ अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य छव्विहबंधगा य ५ अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अट्ठविहबधंगा य छव्विहबंधए य ६ अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अट्ठविहबंधए य छव्विहबंधगा य ७ अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य छव्विहबंधए य८ अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अदविहबंधगाय छव्विहबंधगा य ९. एवं णव भंगा। [१७६५-२] विशेष यह है कि भगवन्! मनुष्य वेदनीयकर्म को बांधते हुए कितनी कर्म-प्रकृतियों को बांधते हैं ? गौतम! सभी मनुष्य सप्तविधबन्धक और एकविधबन्धक होते हैं १, अथवा बहुत सप्तविधबन्धक, बहुत एकविधबन्धक और एक अष्टविधबन्धक होता है २, अथवा बहुत सप्तविधबन्धक, बहुत एकविधबन्धक और बहुत अष्टविधबन्धक होते हैं ३, अथवा बहुत सप्तविधबन्धक, बहुत एकविधबन्धक और एक षड्विधबन्धक होता है ४, अथवा बहुत सप्तविधबन्धक, बहुत एकविधबन्धक, बहुत षड्विधबन्धक होते हैं ५, अथवा बहुत । सप्तविधबन्धक, बहुत एकविधबन्धक, एक अष्टविधबन्धक, और एक षड्विधबन्धक होता है ६, अथवा बहुत ससविधबन्धक, बहुत एकविधबन्धक, एक अष्टविधबन्धक, और बहुत षड्विधबन्धक होते हैं ७, अथवा बहुत सप्तविधबन्धक, बहुत एकविधबन्धक, बहुत अष्टविधबन्धक, और एक षड्विधबन्धक होता है ८, अथवा बहुत सप्तविधबन्धक, बहुत एकविधबन्धक, बहुत अष्टविधबन्धक और बहुत षड्विधबन्धक होते हैं। ९ । इस प्रकार नौ भंग होते हैं। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६] [चौवीसवाँ कर्मबन्धपद] मोहनीय आदि कर्मों के बन्ध के साथ अन्य कर्मप्रकृतियों के बन्ध का निरूपण १७६६. मोहणिज बंधमाणे जीवे कति कम्मपगडीओ बंधइ ? गोयमा! जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो। जीवेगिंदिया सत्तविहबंधगा वि अट्ठविहबंधगा वि। [१७६६. प्र.] भगवन् ! मोहनीय कर्म बांधता जीव कितनी कर्मप्रकृतियों को बांधता है ? [१७६६ उ.] गौतम! सामान्य जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग कहना चाहिए। जीव और एकेन्द्रिय सप्तविधबन्धक भी और अष्टविधबन्धक भी होते हैं। १७६७.[ १ ] जीवे णं भंते! आउअं कम्मं बंधमाणे कति कम्मपगडीओ बंधइ ? गोयमा! णियमा अट्ठ। एबं णेरइए जाव वेमाणिए। [१७६७-१ प्र.] भगवन् ! आयुकर्म को बांधता जीव कितनी कर्मप्रकृतियों को बांधता है? [१७६७-१ उ.] गौतम! नियम से आठ प्रकृतियाँ बाँधता है। नैरयिकों से लेकर वैमानिक पर्यन्त सभी दण्डकों में इसी प्रकार कहना चाहिये। [२] एवं पुहत्तेण वि। [२] इसी प्रकार बहुतों के विषय में भी कहना चाहिए। १७६८. [१] णाम-गोय-अंतरायं बंधमाणे जीवे कति कम्मपगडीओ बंधइ ? गोयमा! जाओ णाणावरणिजं बंधमाणे बंधइ ताहिं भाणियव्वो। [१७६८-१ प्र.] भगवन् ! नाम, गोत्र और अन्तराय कर्म को बाँधता जीव कितनी कर्मप्रकृतियाँ बाँधता है ? [१७६८-१ उ.] गौतम! ज्ञानावरणीय को बाँधने वाला जिन कर्मप्रकृतियों को बांधता है, वे ही यहाँ कहनी चाहिए। [२] एवं णेरइए वि जाव वेमाणिए। [१७६८-२] इसी प्रकार नारक से लेकर वैमानिक तक कहना चाहिए । [३] एवं पुहत्तेण वि भाणियव्वं । [१७६८-३] इसी प्रकार बहुवचन में भी समझ लेना चाहिए। पण्णवणाए भगवतीए चउवीसइमं कम्मबंधपदं समत्तं॥ विवेचन - वेदनीय कर्मबन्ध के समय अन्य प्रकृतियों का बन्ध -- वेदनीय बन्ध के साथ कोई जीव सात का कोई आठ का और कोई छह का बंधक होता है, उपशान्तमोह आदि वाला कोई एक ही प्रकृति का बन्धक Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रज्ञापनासूत्र ] [८७ होता है। मनुष्य के सम्बन्ध में भी यही कथन समझना चाहिए। नारकादि कोई सात और कोई आठ के बन्धक होते हैं। बहुत जीव (समुच्चय) पद में - सभी सात के या बहुत आठ के, बहुत से एक के, कोई एक छह का बंधक होता है। अथवा बहुत सात के, बहुत आठ के, बहुत एक के और बहुत छह के बन्धक होते हैं। शेष नारकों से वैमानिकों तक में ज्ञानावरणीयकर्मबंध के कथन के समान है। मनुष्यों के सम्बन्ध में ९ भंग मूल पाठ में उल्लिखित हैं। मोहनीय का बन्धक समुच्चय जीव और एकेन्द्रिय मोहनीय कर्मबन्ध के समान ७ या ८ के बंधक होते हैं । मोहनीयकर्म का बन्धक छह प्रकृतियों का बंधक नहीं हो सकता, क्योंकि ६ प्रकृतियों का बंध सूक्ष्मसम्पराय नामक दसवें 'गुणस्थान में होता है, मोहनीय का बंधक नौवें गुणस्थान तक ही होता है। आयुकर्मबन्ध के साथ अन्य कर्मों का बन्ध - आयुकर्मबंधक जीव नियम से ८ प्रकृतियों का बंध करता है। २४ दणडकवर्ती जीवों का भी इसी प्रकार कथन जानना । नाम, गोत्र व अन्तराय कर्म के साथ अन्य कर्मों का बन्ध ज्ञानावरणीयकर्म के साथ जिन प्रकृतियों का बंध बताया है, उन्हीं प्रकृतियों का बंध इन तीनों कर्मों के बंध के साथ होता है। ॥ प्रज्ञापना भगवती का चौबीसवाँ कर्मबन्ध पद समाप्त ॥ १. (क) पण्णवणासुतं (मू. पा. टि.) भाग १, पृ. ३८५ से ३८७ तक (ख) प्रज्ञापनासूत्र (प्रमेयबोधिनी टीका) भाग ५, पृ. ४६७ से ४८४ तक (ग) मलयगिरिवृत्ति, पद २४ पर — Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचवीसइमं कम्मबंधवेयपयं पच्चीसवां कर्मबन्धवेदपद जीवादि द्वारा ज्ञानावरणीयादि कर्मबन्ध के समय कर्म-प्रकृतिवेद का निरूपण १७६९. [१] कति णं भंते! कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ ? गोयमा! अट्ठ कम्मपगडीओ पण्णत्तओ। तं जहा – णाणावरणिजं जाव अंतराइयं। [१७६९-१.प्र.] भगवन् ! कर्मप्रकृतियाँ कितनी कही गई हैं ? [१७६९-१ उ.] गौतम! कर्मप्रकृतियाँ आठ कही गई हैं, यथा – ज्ञानावरणीय यावत् अन्तराय। [२] एवं णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं। [१७६९-२] इसी प्रकार नैरयिकों (से लेकर) यावत् वैमानिकों तक (के ये ही आठ कर्मप्रकृतियाँ कही गई है। १७७०.[१] जीवे णं भंते! णाणावरणिजं कम्मं बंधमाणे कति कम्मपगडीओ वेदेइ ? गोयमा! णियमा अट्ठ कम्मपगडीओ वेदेइ । [१७७०-१ प्र.] भगवन् ! ज्ञानावयरणीयकर्म का बन्ध करता हुआ जीव कितनी कर्मप्रकृतियों का वेदन करता [१७७०-१ उ.] गौतम! वह नियम से आठ कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है। [२] एवं णेरइए जाव वेमाणिए। [१७७०-२] इसी प्रकार (एक) नैरयिक से लेकर एक वैमानिक पर्यन्त (जीवों मे इन्हीं आठ कर्मप्रकृतियों का वेदन जानना चाहिए)। १७७१. एवं पुहत्तेण वि। [१७७१] इसी प्रकार बहुत (नारकों से लेकर बहुत वेमानिकों तक) के विषय में (कहना चाहिए)। १७७२.एवं वेयणिजवजं जाव अंतराइयं। [१७७२] वेदनीयकर्म को छोडकर शेष सभी (छह) कर्मों के सम्बन्ध में इसी प्रकार (ज्ञानावरणीयकर्म के समान जानना चाहिए)। १७७३. [१] जीवे णं भंते! वेयणिजं कम्मं बंधमाणे कइ कम्मपगडीओ वेएइ ? गोयमा! सत्तविहवेयए वा अट्ठविहवेयए वा चउव्विहवेयए वा। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८९ [ प्रज्ञापनासूत्र ] [१७७३-१ प्र.] भगवन्! वेदनीयकर्म को बांधता हुआ जीव कितनी कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है ? [१७७३-१ उ.] गौतम! वह सात ( कर्मप्रकृतियों) का, आठ का अथवा चार (कर्मप्रकृतियों) का वेदन करता है। [ २ ] एवं मणूसे वि। सेसा णेरड्याई एगत्तेण वि पुहत्तेण वि णियमा अट्ठ कम्मपगडीओ वेदेति, जाव वेमाणिया । [१७७३-२] इसी प्रकार मनुष्य के ( द्वारा कर्मप्रकृतियों के वेदन के) सम्बन्ध में ( कहना चाहिए ) । शेष नैरयिकों से लेकर वैमानिक पर्यन्त एकत्व की विवक्षा से भी और बहुत्व की विवक्षा से भी जीव नियम से आठ कर्मप्रकृतियों का वेदन करते हैं। १७७४. [ १ ] जीवाणं भंते! वेदणिज्जं कम्मं बन्धमाणा कति कम्मपगडीओ वेदेति ? गोयमा ! सव्वे वि ताव होज्जा अट्ठविहवेदगा य चउव्विहवेदगा य १ अहवा अट्ठविहवेदगा य चउव्विहवेदगा च सत्तविहवेदगे य २ अहवा अट्ठविहवेदगा य य चउव्विहवेदगा य सत्तविहवेदगा य ३ । [१७७४-१ प्र.] भगवन् ! बहुत जीव वेदनीयकर्म को बांधते हुए कितनी कर्मप्रकृतियों का वेदन करते हैं ? [१७७४-१ उ.] गौतम! १. सभी बहुत जीव वेदनीयकर्म को बांधते हुए आठ या चार कर्मप्रकृतियों के वेदक होते है, २. अथवा बहुत जीव आठ या चार कर्मप्रकृतियों के और कोई एक जीव सात कर्मप्रकृतियों का वेदक होता है, ३. अथवा बहुत जीव आठ, चार या सात कर्मप्रकृतियों के वेदक होते है । [२] एवं मणूसा वि भाणियव्वा । [१७७४-२] इसी प्रकार बहुत से मनुष्यों द्वारा वेदनीयकर्मबन्ध के समय वेदन सम्बन्धी कथन करना चाहिए । ॥ पण्णवणाए भगवतीए पंचवीसइमं कम्मबंधवेदपयं समत्तं ॥ - विवेचन - कर्मबन्ध के समय कर्मवेदन की चर्चा के पांच निष्कर्ष १. समुच्चय जीव के सम्बन्ध में उल्लिखित वक्तव्यतानुसार नैरयिक, असुरकुमारादि भवनपति, पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय, मनुष्य, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक भी एकत्व और बहुत्व की विवक्षा से ज्ञानावरणीयकर्म का बन्ध करते हुए नियम से आठ कर्मप्रकृतियों का वेदन करते हैं। २. इसी प्रकार वेदनीय को छोड़कर शेष सभी कर्मों (दर्शनावरणीय, नाम गोत्र, आयुष्य, मोहनीय और अन्तराय) के सम्बन्ध में समझ लेना चाहिए। ३. समुच्चय जीव एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से वेदनीयकर्म का बन्ध करते हुए सात, आठ अथवा चार कर्मप्रकृतियों का वेदन करते हैं । इसका कारण यह है कि उपशान्तमोह और क्षीणमोह जीव सात कर्मप्रकृतियों का वेदन करते हैं, क्योंकि उनके मोहनीयकर्म का वेदन नहीं होता। मिथ्यादृष्टिगुणस्थान से लेकर सूक्ष्मसम्पराय (दसवें गुणस्थान) पर्यन्त जीव आठों कर्मप्रकृतियों का वेदन करते हैं और सयोगी केवली चार अघाति कर्मप्रकृतियों का ही Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९०] [पच्चीसवाँ कर्मबन्धवेदपद] वेदन करते हैं, क्योंकि उनके चार घातिकर्मों का उदय नहीं होता। ४. समुच्चय जीव के समान एकत्व और बहुत्व की विवक्षा से मनुष्य के विषय में भी ऐसा ही कहना चाहिए। अर्थात् – एक या बहुत मनुष्य वेदनीयकर्म का बन्ध करते हुए सात, आठ या चार कर्मप्रकृतियों का वेदन करते हैं। ___५. मनुष्य के सिवाय शेष सभी नारक आदि जीव एकत्व और बहुत्व की विवक्षा से वेदनीय कर्म का बन्ध करते हुए नियम से आठ कर्मप्रकृतियों का वेदन करते हैं।' ॥ प्रज्ञापना भगवती का पच्चीसवाँ कर्मबन्धवेदपद सम्पूर्ण ॥ १. (क) पण्णवणासुत्तं भाग १ (मूलपाठ-टिप्पण) पृ. ३८८ (ख) प्रज्ञापनासूत्र भाग ५ (प्रमेयबोधिनी टीका) पृ. ४८९-४९० Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छव्वीसइमं कम्मवेयबंधपयं छव्वीसवाँ कर्मवेदबन्धपद ज्ञानावरणीयादि कर्मों के वेदन के समय अन्य कर्मप्रकृतियों के बन्ध का निरूपण १७७५. [१] कति णं भंते! कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ ? गोयमा! अट्ठ कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ। तं जहा - णाणावरणिजं जाव अंतराइयं। [१७७५-१ प्र.] भगवन् ! कर्मप्रकृतियाँ कितनी कही हैं ? [१७७५-१ उ.] गौतम! कर्मप्रकृतियाँ आठ कही हैं यथा – ज्ञानावरणीय यावत् अन्तराय। [२] एवं णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं। [१७७५-२] इसी प्रकार नैरयिकों से लेकर यावत् वैमानिकों तक आठ कर्मप्रकृतियां होती हैं। १७७६. जीवे णं भंते! णाणावरणिजं कम्मं वेदेमाणे कति कम्मपगडीओ बंधइ ? गोयमा! सत्तविहबंधए वा अट्ठविहबंधए वा छव्विहबंधए वा एगविहबंधए वा। [१७७६ प्र.] भगवन् ! (एक) जीव ज्ञानावरणीयकर्म का वेदन करता हुआ कितनी कर्म-प्रकृतियों का बन्ध करता हैं ? [१७७६ उ.] गौतम! वह सात, आठ, छह या एक कर्मप्रकृति का बंध करता है। १७७७. [१] णेरइए णं भंते! णाणावरणिजं कम्मं वेदेमाणे कति कम्मपगडीओ बंधइ ? गोयमा! सत्तविहबंधए वा अट्ठविहबंधए वा। [१७७७-१ प्र.] भगवन् ! (एक) नैरयिक जीव ज्ञानावरणीयकर्म को वेदता हुआ कितनी कर्मप्रकृतियों का बन्ध करता है ? [१७७७-१ उ.] गौतम! वह सात या आठ कर्मप्रकृतियों का बंध करता है। [२] एवं जाव वेमाणिए। णवरं मणूसे जहा जीवे (सु. १७७६ )। [१७७७-२] इसी प्रकार (असुरकुमारादि भवनवासी से लेकर) वैमानिक पर्यन्त जानना चाहिए। परन्तु मनुष्य का कथन (सू. १७७६ में उल्लिखित) सामान्य जीव के कथन के समान है। १७७८. जीवा णं भंते! णाणावरणिज्जं कम्मं वेदेमाणा कति कम्मपगडीओ बंधंति ? ___ गोया! सव्वे वि ताव होजा सत्तविहबंधगा य अट्टविहबंधगा य १ अहवा सत्तविहबंधगा य अट्टविहबंधगा य छव्विहबंधए य २ अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य छव्विहबंधगा य ३ अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य एगविहबंधगे य ४ अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य एगविहबंधगा य ५ अहवा Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२] [छब्बीसवाँ कर्मवेदबन्धपद] सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य छव्विहबंधए य एगविहबंधए य ६ अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य छव्विहबंधए य एगविहबंधगा य ७ अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य छव्विहबंधगा य एगविहबंधए य ८ अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य छव्विहबंधगा य एगविहबंधगा य ९, एवं एते नव भंगा। [१७७८ प्र.] भगवन् ! (बहुत) जीव ज्ञानावरणीय कर्म का वेदन करते हुए कितनी कर्म प्रकृतियाँ बाँधते हैं ? [१७७८ उ.] गौतम! १. सभी जीव सात या आठ कर्मप्रकृतियों के बंधक होते हैं, २. अथवा बहुत जीव सात या आठ के बंधक होते हैं और एक छह का बंधक होता है, ३. अथवा बहुत जीव सात, आठ और छह के बंधक होते हैं. ४ अथवा बहत जीव सात के और आठ के तथा कोई एक प्रकति का बंधक होता है.५. अ अथवा बहुत जीव सात, आठ और एक के बंधक होते हैं, ६. या बहुत जीव सात के तथा आठ के, एक जीव छह का और एक जीव एक का बंधक होता है, ७. अथवा बहुत जीव सात के या आठ के, एक जीव छह का और बहुत जीव एक के बंधक होते है, ८. अथवा बहुत जीव सात के, आठ के, छह के तथा एक-एक का बंधक होता है। ९. अथवा बहुत जीव आठ के, सात के, छह के और एक के बंधक होते हैं । इस प्रकार ये कुल नौ भंग हुए। १७७९. अवसेसाणं एगिदिय-मणूसवजाणं तियभंगो जाव वेमाणियावं। [१७७९] एकेन्द्रिय जीवों और मनुष्यों को छोड़कर शेष जीवों यावत् वेमानिकों के तीन भंग कहने चाहिए। १७८०. एगिंदिया णं सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य। [१७८०] (बहुत-से) एकेन्द्रिय जीव सात के और आठ के बन्धक होते हैं। १७८१. मणूसाणं पुच्छा । गोयमा! सव्वे वि ताव होजा सत्तविहबंधगा १ अहवा सत्तवहबंधगा य अट्ठविहबंधगे य २ अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य ३ अहवा सत्तविहबंधगा य छव्विहबंधए य, एवं छव्विहबंधएण वि समं दो भंगा ५ एगविहबंधएण वि समं दो भंगा ७ अहवा सत्तविहबंधगा य अविहबंधए य छब्बिहबंधए य चउभंगो ११ अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधए य एगविहबंधए य चउभंगो १५ अहवा सत्तविहबंधगा य छव्विहबंधगे य एगविहबंधए य चउभंगो १९ अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधए य छव्विहबंधए य एगविहबंधए य भंगा अट्ठ २७ एवं एते सत्तावीसं भंगा। [१७८१ प्र.] पूर्ववत् मनुष्यों के सम्बन्ध में प्रश्न है। [१७८१ उ.] गौतम! (१) सभी मनुष्य सात कर्मप्रकृतियों के बन्धक होते हैं, (२) अथवा बहुत से सात और एक आठ कम्रप्रकृति बांधता है, (३) अथवा बहुत से मनुष्य सात के और एक छह का बन्धक है, (४-५) इसी प्रकार छह के बन्धक के साथ भी दो भंग होते हैं, (६-७) तथा एक के बन्धक के साथ भी दो भंग होते हैं, (८११) अथवा बहुत से सात के बन्धक, एक आठ का और एक छह का बन्धक, यों चार भंग हुए, (१२-१५) अथवा बहुत से सात के बन्धक, एक आठ का और एक मनुष्य एक प्रकृति का बन्धक, यों चार भंग हुए, (१६-१९) अथवा बहुत से सात के बन्धक तथा एक छह का और एक, एक का बन्धक, इसके भी चार भंग हुए, (२०-२७) Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र] [९३ अथवा बहुत से सात के बंधक, एक आठ का, एक छह का और एक, एक कर्मप्रकृति का बन्धक होता है, यों इसके आठ भंग होते हैं । कुल मिलाकर ये सत्ताईस भंग होते हैं। १७८२. एवं जहा णाणावरणिज्ज तहा दरिसणावरणिजं पि अंतराइयं पि । [१७८२] जिस प्रकार ज्ञानावरणीयकर्म के बन्धक का कथन किया, उसी प्रकार दर्शनावरणीय एवं अन्तराय कर्म के बन्धक का कथन करना चाहिए। विवेचन - प्रस्तुत पद में कर्मसिद्धांत के इस पहलू पर विचार किया गया है कि कौन जीव किस-किस कर्म का वेदन करता हुआ किस-किस कर्म का बन्ध करता है? अर्थात् किस कर्म का उदय होने पर किस कर्म का बन्ध होता है, इस प्रकार कर्मोदय और कर्मबन्ध के सम्बन्ध का निरूपण किया गया है। ज्ञानावरणीय कर्म का वेदन और बन्ध – (१) कोई जीव आयु को छोडकर ७ कर्मप्रकृतियों का बन्ध करता है, (२) कोई आठों का बन्ध करता है, (३) कोई आयु और मोह को छोडकर छह कर्मप्रकृतियों का बन्ध करता है, (४) उपशान्तमोह और क्षीणमोह केवल एक वेदनीयकर्म का बन्ध करता है, (५) सयोगीकेवली ज्ञानावरणीयकर्म का वेदन ही नहीं करते। नैरयिक से लेकर वैमानिक तक पूर्वोक्त युक्ति से ज्ञानावरणीयकर्म का वेदन करते हुए ७ या ८ कर्म-प्रकृतियों का बन्ध करते हैं। मनुष्य सम्बन्धी कथन – मनुष्य सामान्य जीववत् ज्ञानावरणीयकर्म का वेदन करता हुआ सात, आठ, छह या एक प्रकृति का बन्ध करता है। बहुत्व की विवक्षा से - बहुत समुच्चय जीवों के विषय में नौ भंग (१) सभी ज्ञानावरणीयकर्म वेदक जीव ७ या ८ कर्मों के बन्धक होते हैं। (२) अथवा बहुत से सात के बन्धक, बहुत से आठ के बन्धक और कोई एक जीव छह का बन्धक होता है। (सूक्ष्मसम्पराय की अपेक्षा से)। (३) बहुत से सात के, बहुत से आठ के बन्धक और बहुत से छह के बन्धक होते हैं। (४) अथवा बहुत से सात के और बहुत से आठ के बन्धक होते हैं और कोई एक जीव (उपशान्तमोह या क्षीणमोह) एक का बन्धक हो (५) अथवा बहुत से सात के, बहुत से आठ के और बहुत से एक के बन्धक होते है। (६) अथवा बहुत से सात के और बहुत से आठ के बन्धक होते हैं तथा एक जीव छह का और एक जीव एक का बन्धक होता है। (७) अथवा बहुत से जीव सात के और बहुत से जीव आठ के बन्धक होते हैं तथा एक छह का बन्धक होता है एवं बहुत से (उपशान्तमोह और क्षीणमोह गुणस्थान वाले) एक के बन्धक होते हैं। (८) अथवा बहुत से सात के, बहुत से आठ के एवं बहुत से छह के बन्धक होते हैं और कोई एक जीव एक Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [छब्बीसवाँ कर्मवेदबन्धपद] का बन्धक होता है। (९) अथवा बहुत से सात के, बहुत से आठ के, बहुत से छह के और बहुत से एक के बन्धक होते हैं। इस प्रकार समुच्चय जीवों के विषय में ये (उपर्युक्त) ९ भंग होते है। छह और एक प्रकृति के बन्ध का तथा इन दोनों के अभाव में सात अथवा आठ प्रकृतियों के बन्ध का कारण पूर्वोक्त युक्ति से समझ लेना चाहिए। एकेन्द्रियों और मनष्यों के सिवाय शेष नैरयिक आदि दणडकों के तीन भंग होते हैं। एकेन्द्रियों में कोई विकल्प (भंग) नहीं होता, अर्थात् वे सदैव बहुत संख्या में होते हैं, इसलिए बहुत सात के और बहुत आठ के बन्धक ही होते हैं । मनुष्यों में २७ भंगों का चार्ट इस प्रकार है - (ब. से बहुत और ए. से एक समझना चाहिए।) १ २ ३ ४ ५ ६ ७ । =असंयोगी-१ भंग १ | सभी ब. एक ब. ब. ब. एक ब. ब. ब. एक ब. ब. -द्विसंयोगी ६ भंग क्रम ८ ९ १० ११ । ब. एक एक | ब. ब. ब. | ब. ब. एक | ब. एक. ब. - आठ और छह बन्धक के त्रिकसंयोगी भंग ४ १२ १३ | ब. एक एक | ब. ब. १४ ब. एक ब. १५ एक. ब. ३ ब. ब. = आठ और एक के बन्धक के त्रिकसंयोगी भंग ४ १६ | ब. एक १७ ब. १८ १९ ब.ब. ब. एक | ब. एक. ब. ४ एक | ब. - सात और एक के बन्धक के त्रिकसंयोगी भंग ४ . २० २१ । २२ । २३ ए. ए. ए.ब. ब. ब. ब.ब. ब. ए. ए.ब. ब. ब. ए. ब. -८,६, १ बन्धक चतुष्कसंयोगी भंग ८ २४ २५ २६ २७ - | ब. ब. ए. ब. ब. ए. ब. ब. ब. ए. ए. ब. ब. ए. ब. ए. वेदनीयकर्म के वेदन के समय अन्य कर्मप्रकृतियों के बन्ध की प्ररूपणा १७८३. [१] जीवे णं भंते! वेयणिजं कम्मं वेदेमाणे कति कम्मपगडीओ बंधइ ? गोयमा! सत्तविहबंधए वा अट्टविहबंधए वा छव्विहबंधए वा एगविहबंधए वा अबंधए वा। [१७८३-१ प्र.] भगवन् ! (एक) जीव वेदनीयकर्म का वेदन करता हुआ कितनी कर्मप्रकृतियों का बन्ध करता है ? १. (क) पण्णवणासुत्ता भा. १ (मू.पा.टि.) पृ. ३८९ (ख) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, (अभिधान राजेन्द्रकोष भा. ३) पद 26, पृ. २९४-२९५ (ग) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ५०१ सक ५११ तक .. Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र] [९५ [१७८३-१ उ.] गौतम! वह सात, आठ, छह या एक का बन्धक होता है, अथवा अबन्धक होता है। [२] एवं मणूसे वि। अवसेसा णारगादीया सत्तविहबंधगा य अट्टविहबंधगा य। एवं जाव वेमाणिए। [१७८३-२] इसी प्रकार मनुष्य के विषय में भी समझ लेना चाहिए। शेष नारक आदि वैमानिक पर्यन्त सात के बन्धक हैं या आठ के बन्धक हैं। १७८४. [१] जीवा णं भंते! वेदणिजं कम्मं वैदेमाणा कति कम्मपगडीओ बंधंति ? गोयमा! सव्वे वि ताव होजा सत्तविहबंधगा य अट्टविहबंधगा य एगविहबंधगा य १ अहवा सत्तविहबंधगा य अट्टविहबंधगा य एगविहबंधगा य छव्विहबंधगे य २ अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य एगविहबंधगा य छव्विहबंधगा य ३ अबंधगेण वि समं दो भंगा भाणियव्वा ५ अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य एगविहबंधगा य छव्विहबंधए य अबंधए य चउभंगो ९, एवं एते णव भंगा। [१७८४-१ प्र.] भगवन् ! (बहुत) जीव वेदनीयकर्म का वेदन करते हुए कितनी कर्मप्रकृतियाँ बाँधते हैं ? [१७८४-१ उ.] गौतम! १. सभी जीव सात के, आठ के और एक के बन्धक होते हैं, २. अथवा बहुत जीव सात, आठ या एक के बन्धक होते हैं और एक छह का बन्धक होता है । ३. अथवा बहुत जीव सात, आठ, एक तथा छह के बन्धक होते हैं, ४-५, अबन्धक के साथ भी दो भंग कहने चाहिए, ६-९. अथवा बहुत जीव सात के, आठ के, एक के बन्धक होते हैं तथा कोई एक छह का बन्धक होता है तथा कोई एक अबन्धक भी होता है, यों चार भंग होते हैं। कुल मिलाकर ये नौ भंग हुए। [२] एगिंदियाणं अभंगयं। [१७८४-२] एकेन्द्रिय जीवों को इस विषय में अभंगक जानना चाहिए। [३] णारगादीणं तियभंगो जाव वेमाणियाणं। णवरं मणूसाणं पुच्छा। गोयमा! सव्वे वि ताव होज्जा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य १ अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य छव्विहबंधए य अट्ठविहबंधए य अबंधए य, एवं एते सत्तावीसं भंगा भाणियव्वा जहा किरियासु पाणाइवायविरतस्स (सु. १६४३)। [१७८४-३] नारक और वैमानिकों तक के तीन-तीन भंग कहने चाहिए। [प्र.] मनुष्यों के विषय में वेदनीयकर्म के वेदन के साथ कर्मप्रकृतियों के बन्ध की पृच्छा है। [उ.] गौतम! १- बहुत-से सात के अथवा एक के बन्धक होते हैं। २-अथवा बहुत-से मनुष्य सात के और एक के बन्धक तथा कोई एक छह का, एक आठ का बन्धक है या फिर अबन्धक होता है। इस प्रकार ये कुल मिलाकर सत्ताईस भंग (सू. १६४३ में उल्लिखित हैं) जैसे-प्राणातिपात-विरत की क्रियाओं के विषय में कहे हैं, उसी प्रकार कहने चाहिए। विवेचन-वेदनीयकर्म के वेदन के क्षणों में अन्य कर्मों का बन्ध-(१) एक जीव और मनुष्य-सात, आठ, छह या एक प्रकृति का बन्धक होता है अथवा अबन्धक होता है। तात्पर्य यह है कि सयोगीकेवली, Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६] [छब्बीसवाँ कर्मवेदबन्धपद] उपशान्तमोह और क्षीणमोहगुणस्थानवी जीव वेदनीयकर्म का वेदन करते हुए केवल एक वेदनीय प्रकृति का बन्ध करते हैं, क्योंकि सयोगीकेवली में भी वेदनीयकर्म का उदय और बंध पाया जाता है। अयोगीकेवली अबन्धक होते हैं। उनमें वेदनीयकर्म का वेदन होता है, किन्तु योगों का भी अभाव हो जाने से उसका या अन्य किसी भी कर्म का बन्ध नहीं होता। ___ (२) मनुष्य के सिवाय नारक से वैमानिक तक-वेदनीयकर्म का वेदन करते हुए ७ या ८ कर्मप्रकृतियों का बन्ध करते हैं। (३) बहुत से जीव - तीन भंग - सभी ब. ब. ब. ए. | ब. ब. ब. ब. = तीन भंग ७८१ ७ ८ १६ ७ ८ १ ६ | अबंधक के साथ एकत्व - बहुत्व की अपेक्षा – दो भंग (एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा) अथवा ब. ब. ब. ए. ए. ७ ८ १ ६ अबं. = ४ भंग = कुल ९ भंग समुच्चय जीवों के एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा । (४) एकेन्द्रिय जीव – कोई विकल्प नहीं । बहु. और बहु. के बंधक होते हैं। (५) मनुष्य को छोड़कर नारक से वैमानिक तक पूर्ववत् तीन भंग। (६) मनुष्य - (एकत्व या बहुत्व की अपेक्षा) २७ भंग (ज्ञानावरणीयकर्म - बन्धवत्) आयुष्य, नाम और गोत्र कर्म के सम्बन्ध में वेदनीय कर्मवत्। आयुष्यादि कर्मवेदन के समय कर्मप्रकृतियों के बन्ध की प्ररूपणा १७८५. एवं जहा वेदणिजं तहा आउयं णामं गोयं च भाणियव्वं। [१७८५] जिस प्रकार वेदनीयकर्म के वेदन के साथ कर्मप्रकृतियों के बन्ध का कथन किया गया है, उसी प्रकार आयुष्य, नाम और गोत्र कर्म के विषय में भी कहना चाहिए। १७८६. मोहणिजं वेदेमाणे जहा बंधे णाणावरणिजं तहा भाणियव्वं (सु. १७५५-६१)। [१७८६] जिस प्रकार (सू. १७५५-६१ में) ज्ञानावरणीय कर्मप्रकृति के बन्ध का कथन किया है, उसी प्रकार यहाँ मोहनीयकर्म के वेदन के साथ बन्ध का कथन करना चाहिए। ॥पण्णवणाए भगवईए छव्वीसइमं कम्मवेयबंधपयं समत्तं ॥ विवेचन - मोहनीयकर्मवेदन के साथ कर्मबन्ध - ज्ञानावरणीय के समान अर्थात् - मोहनीय कर्म का १. (क) प्रज्ञापना, (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ५१३ से ५१७ तक (ख) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति. (अभिधानराजेन्द्रकोष भा. ३) पद २६, पृ. २९६ (ग) पण्णवणासुत्तं भा. १ (मू. पा. टि.) पृ. ३९० Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र] [९७ वेदन करता हुआ जीव ७,८ या ६ का बन्धक होता है, क्योंकि सूक्ष्मसम्पराय अवस्था में भी मोहनीयकर्म का वेदन होता है, मगर बन्ध नहीं होता। इसी प्रकार का कथन-मनुष्य पद में भी करना चाहिए। नारक आदि पदों में सूक्ष्मसम्परायावस्था प्राप्त न होने से वे ७ या ८ के ही बन्धक होते हैं। बहुत्व की अपेक्षा से - जीव पद में पूर्ववड् तीन भंग - ब. ब. ब. ए. ब. ब. नारकों और भवनवासी देवों में - ब. ब. | ए. तीन भंग पृथ्वीकायादि स्थावरों में - प्रथम भंग - ब. | ब. Ila . विकलेन्द्रिय से वैमानिक तक में - नारकों के समान तीन भंग। . मनुष्यों में – नौ भंग ज्ञानावरणीयकर्म के साथ बन्धक के समान। ॥ प्रज्ञापना भगक्ती का छव्वीसवाँ पद समाप्त ॥ १. (क) पण्णवणासुत्तं भा. १ (मू. पा. टि.), पृ. ३९० (ख)प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ५१७ से ५१९ तक (ग) प्रज्ञापना. (मलय टीका) पद २६ (अभि. राज. कोष भा. ३, पृ. २९६) Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तावीसइमं कम्मवेयवेयगपयं सत्ताईसवाँ कर्मवेदवेदकपद ज्ञानावरणीयादिकर्मों के वेदन के साथ अन्य कर्मप्रकृतियों के वेदन का निरूपण १७८७.[१] कति णं भंते! कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ? गोयमा! अट्ठ। तं जहा – णाणावरणिजं जाव अंतराइयं। [१७८७-१ प्र.] भगवन् ! कर्मप्रकृतियाँ कितनी कही गई हैं ? [१७८७-१ उ.] गौतम! वे आठ कही गई हैं यथा - ज्ञानावरणीय यावत् अन्तराय। [२] एवं गैरइयाणं जाव वेमाणियाणं। [१७८७-२] इसी प्रकार नारकों (से लेकर) यावत् वैमानिकों तक (के आठ कर्मप्रकृतियाँ है। १७८८. [१] जीवे णं भंते! णाणावरणिज कम्मं वेदेमाणे कति कम्मपगडीओ वेदेइ ? गोयमा! सत्तविहवेदए वा अट्ठविहवेदए वा। [१७८८-१ प्र.] भगवन् ! ज्ञानावरणीयकर्म का वेदन करता हुआ (एक) जीव कितनी कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है? [१७८८-१ उ.] गौतम! वह सात या आठ (कर्मप्रकृतियों) का वेदक होता है। [२] एवं मणूसे वि। अवसेसा एगत्तेण वि पुहत्तेण वि नियमा अट्टविहकम्मपगडीओ वेदेति जाव वेमाणिया। [१७८८-२] इसी प्रकार मनुष्य के विषय में भी जानना चाहिए। (मनुष्य के अतिरिक्त) शेष सभी जीव (नारक से लेकर) वैमानिक पर्यन्त एकत्व और बहुत्व की विवक्षा से नियमतः आठ कर्मप्रकृतियों का वेदन करते हैं। १७८९. जीवा णं भंते! णाणावरणिजं कम्मं वेदेमाण कति कम्मपगडीओ वेदेति ? गोयमा! सव्वे वि ताव होजा अट्ठविहवेदगा १ अहवा अट्टविहवेदगा य सत्तविहवेदगे य २ अहवा अट्ठविहवेदगा य सत्तविहवेदगा य ३। एवं मणूसा वि। __ [१७८९ प्र.] भगवन् ! (बहुत) जीव ज्ञानावरणीयकर्म का वेदन करते हुए कितनी कर्मप्रकृतियों का वेदन करते हैं ? [१७८९ उ.] गौतम! १. सभी जीव आठ कर्मप्रकृतियों के वेदक होते हैं, २ अथवा कई जीव आठ कर्म प्रकृतियों के वेदक होते हैं और कोई एक जीव सात कर्मप्रकृतियों का वेदक होता है, ३. अथवा कई जीव आठ और कई सात कर्मप्रतियों के वेदक होते हैं । इसी प्रकार मनुष्यपद में भी ये तीन भंग होते हैं। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र] [९९ . १७९०. दरिसणावरणिजं अंतराइयं च एवं चेव भाणियव्वं । [१७९०] दर्शनावरणीय और अन्तराय कर्म के साथ अन्य कर्मप्रकृतियों के वेदन के विषय में भी पूर्ववत् कहना चाहिए। १७९१. वेदणिज-आउअ-णाम-गोयाइं वेदेमाणे कति कम्मपगडीओ वेदेइ ? गोयमा! जहा बंधगवेयगस्स वेदणिजं (सु. १७७३-७४) तहा भाणियव्वं। [१७९१ प्र.] भगवन् ! वेदनीय, आयु, नाम और गोत्रकर्म का वेदन करता हुआ (एक) जीव कितनी कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है? [१७९१ उ.] गौतम! जैसे (सू. १७७३-७४ में) बन्धक-वेदक के वेदनीय का कथन किया गया है, उसी प्रकार वेद-वेदक के वेदनीय का कथन करना चाहिए । १७९२. [१] जीवे णं भंते! मोहणिजं कम्मं वेदेमाणे कति कम्मपगडीओ वेदेइ ? गोयमा! णियमा अट्ठ कम्मपगडीओ वेदेइ। [१७९२-१ प्र.] भगवन् ! मोहनीयकर्म का वेदन करता हुआ (एक) जीव कितनी कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है? [१७९२-१ उ.] गौतम! वह नियमा से आठ कर्म प्रकृतियों का वेदन करता है । [२] एवं णेरइए जाव वेमाणिए। [१७९२-२] इसी प्रकार नारक से लेकर वैमानिक पर्यन्त (अष्टविध कर्मप्रकृतियों का) वेदन होता है। [३] एवं पुहत्तेण वि। [१७९२-३] इसी प्रकार बहुत्व की विवक्षा से भी सभी जीवों और नारक से वैमानिक पर्यन्त समझना चाहिए। ॥ पण्णवणाए भगवतीए सत्तावीसतिमं कम्मवेदवेदयपयं समत्तं ॥ विवेचन - वेद-वेदक चर्चा का निष्कर्ष – इस पद का प्रतिपाद्य यह है कि जीव ज्ञानावरणीय आदि - किसी एक कर्म का वेदन करता हुआ, अन्य कितनी कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है ? (१) ज्ञानावरणीयकर्म का वेदन करता हुआ कोई जीव या कोई मनुष्य यानी उपशान्तमोह या क्षीणमोह मनुष्य मोहनीयकर्म का वेदक न होने से सात कर्मप्रकृतियों का वेदन करते हैं। ___ (२) बहुत जीवों की अपेक्षा से तीन भंग होते हैं – (१) सभी जीव आठ कर्मप्रकृतियों के वेदक होते हैं, (२) अथवा कई आठ के वेदक होते हैं और कोई एक सात का वेदक होता है, (३) अथवा कई आठ के और कई सात के वेदक होते हैं। (३) दर्शनावरणीय और अन्तरायकर्म-सम्बन्धी वक्तव्यता भी ज्ञानावरणीय के समान कहनी चाहिए। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १००] [सत्ताईसवाँ कर्मवेदकवेदपद] (४) वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र, इन कर्मो का वेदन करता हुआ जीव बन्ध-वेदकवत् आठ, सात या चार कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है। (५) मोहनीयकर्म का वेदन करता हुआ समुच्चय जीव व नैरयिक से वैमानिक तक के जीव एकत्व या बहुत्व की अपेक्षा से नियमतः आठ कर्मप्रकृतियों का वेदन करते हैं।' ॥ प्रज्ञापना भगवती का सत्ताईसवाँ कर्मवेदवेदकमपद सम्पूर्ण ॥ १. (क) पण्णवणासुत्तं (मूल पाठ-टिपपण) भा. १, पृ. ३९१ (ख) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ५२३ से ५२७ तक (ग) प्रज्ञापना मलय वृत्ति, पद २७, अभिधान राजेन्द्र कोष भा. ३, पृ. २९४-२९५ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठावीसइमं आहारपयं अट्ठाईसवाँ आहारपद प्राथमिक * प्रज्ञापनासूत्र के आहारपद में सांसारिक जीवों और सिद्धों के आहर-अनाहार की दो उद्देशकों के ग्यारह और तेरह द्वारों के माध्यम से विस्तृत चर्चा की गई है। आत्मा मूल स्वभावतः निराहारी है, क्योंकि शुद्ध आत्मा (सिद्ध-बुद्ध-मुक्त परमात्मा) के शरीर, कर्म मोह आदि नहीं होते। निरंजन-निराकार होने से उसे आहार की कदापि इच्छा नहीं होती। जैसा सिद्धों का स्वरूप है, वैसा ही निश्चयनय दृष्टि से आत्मा का स्वरूप है। अतः विविध दार्शनिकों, साधकों और विचारकों के मन में प्रश्न का उद्भव हुआ कि जब आत्मा अनाहारी है तो भूख क्यों लगती है ? मनुष्य, पशु-पक्षी आदि क्षुधानिवृत्ति के लिए आहार क्यों करते हैं ? यदि शरीर और क्षुधावेदनीय आदि कर्मो के कारण प्राणियों को आहार करना पड़ता है, तब ये प्रश्न उठते हैं कि सिद्ध तो अनाहारक होते हैं, किन्तु नारक से लेकर वैमानिक तक चौबीस दण्डकवर्ती जीव सचित्त, अचित्त या मिश्र, किस प्रकार का आहार करते हैं ? उन्हें आहार की है या नहीं? इच्छा होती है तो कितने काल के पश्चात् होती है? कौनसा जीव किस वस्तु का आहार करता है? क्या वे सर्व आत्मप्रदेशों से आहार लेते है या एकदेश से? क्या वे जीवन में बार-बार आहार करते हैं या एक बार ? वे कितने भाग का आहार करते हैं, कितने भाग का आस्वादन करते हैं ? क्या वे ग्रहण किये हुए सभी पुद्गलों का आहार करते है ? गृहीत आहार्य-पुद्गलों को वे किस रूप में परिणत करते हैं ? क्या वे एकेन्द्रियादि के शरीर का आहार करते हैं ? तथा उनमें से कौन लोमाहरी है, कौन प्रक्षेपाहरी (कवलाहारी) है तथा कौन ओज-आहारी है, कौन मनोभक्षी है ? ये और इनसे सम्बन्धित आहार-सम्बन्ध चर्याएँ इस पद के दो उद्देशकों में से प्रथम उद्देशक में की गई हैं। इसके अतिरिक्त आहार सम्बन्धी कई प्रश्न अवशिष्ट रह जाते हैं कि एक या अनेक जीव या चौबीस दण्डकवर्ती सभी जीव आहारक ही होते हैं या कोई जीव अनाहारक भी होता है/होते हैं ? यदि कोई जीव किसी अवस्था में अनाहारक होता है तो किस कारण से होता है ?' इन दो प्रश्नों के परिप्रेक्ष्य में भव्यता, संज्ञा, लेश्या, दृष्टि, संयम, कषाय, ज्ञान-अज्ञान, योग, उपयोग, वेद, शरीर, पर्याप्ति, इन १३ द्वारों के मध्याम से आहारक-अनाहारक की सांगोपांग चर्चा द्वितीय उद्देशक में की गई है। प्रथम उद्देशक के उत्तरों को देखते हुए बहुत से रहस्यमय एवं गूढ तथ्य साधक के समक्ष समाधान के रूप में मुखरित होते हैं। जैसे कि वैक्रियशरीरधारी का आहार अचित्त ही होता है और औदारिकशरीरधारी का आहार सचित्त, अचित्त, और मिश्र तीनों प्रकार का होता है । जो आहार ग्रहण किया जाता है, वह दो प्रकार का है - आभोगनिर्वर्तित और अनाभोगनिर्वर्तित । अपनी इच्छा हो और आहार लिया जाए, वह आभोगनिर्वर्तित १. पण्णवणासुत्तं भा. १, पृ. ३९२ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२] [ अट्ठाईसवाँ आहारपद ] तथा बिना ही इच्छा के आहार हो जाए, वह अनाभोगनिर्वर्तित आहार है। इच्छापूर्वक आहार लेने में विभिन्न जीवों की पृथक्-पृथक् काल मर्यादाएँ हैं। परन्तु इच्छा के बिना लिया जाने वाला आहार तो निरन्तर लिया जाता है । फिर यह भी स्पष्ट किया गया है कि कौन जीव किस प्रकार का आहार लेता है ? वर्ण - गन्ध-रसस्पर्शगुणों से युक्त आहार लिया जाता है उसमें भी बहुत विविधता है। नारकों द्वारा लिया जाने वाला आहार अशुभवर्णादि वाला है और देवों द्वारा लिया जाने वाला आहार शुभवर्णादि वाला है। कोई ६ दिशा से तथा कोई तीन, चार, पाँच दिशाओं से आहार लेता है। आहाररूप में ग्रहण किए गये पुद्गल पांच इन्द्रियों के रूप मे तथा अंगोपांगों के रूप में परिणत होते हैं। शरीर भी आहारानुरूप होता है। आहार के लिए लिये जाने वाले पुद्गलों का असंख्यातवाँ भाग आहाररूप में परिणत होता है तथा उनके अनन्तवें भाग का आस्वादन होता है। अन्तिम प्रकरण में यह भी बताया गया है कि चौबीस दण्डकवर्ती जीवों में से कौन लोमाहार और कौन प्रक्षेपाहार (कवलाहार) करता है ? तथा किसके ओज-आहार होता है, किसके मनोभक्षण आहार होता है ? कौन जीव किस जीव के शरीर का आहार करता है ? इस तथ्य को यहाँ स्थल रूप से प्ररूपित किया गया है। सूत्रकृतांगसूत्र श्रुत. २, उ. ३. आहारपरिज्ञा- अध्ययन में तथा भगवतीसूत्र में इस तथ्य की विशेष विश्लेषणपूर्वक चर्चा की गई है कि पृथ्वीकायिकादि विभिन्न जीव वनस्पतिकाय आदि के अचित्त शरीर को विध्वस्त करके आहार करते है, गर्भस्थ मनुष्य आदि जीव अपने माता की रज और पिता के शुक्र आदि का आहार करते हैं। • स्थानांगसूत्र के चतुर्थ स्थान में तिर्यञ्चों, मनुष्यों और देवों का चार-चार प्रकार का आहार बताया है जैसे तिर्यञ्चों का चार प्रकार का आहार - (१) कंकोपम, (२) बिलोपम, (३) पाण (मातंग) मांसोपम और (४) पुत्रमांसोपम। मनुष्यों का चार प्रकार का आहार - अशन, पान, खादिम और स्वादिम। देवों का. चार प्रकार का आहार है - वर्णवान्, रसवान्, गन्धवान्, और स्पर्शवान् । ܀ ܀ आहार की अभिलाषा में देवों की आहाराभिलाषा, जिसमें वैमानिक देवों की आहाराभिलाषा बहुत लम्बे काल की, उत्कृष्ट ३३ हजार वर्ष तक की बताई गई है। इसलिए ज्ञात होता है कि चिरकाल के बाद होने वाली आहारेच्छा किसी न किसी पूर्वजन्म कृत संयम - साधना या पुण्यकार्य का सुफल है। मनुष्य चाहे तो तपश्चर्या के द्वारा दीर्घकाल तक निराहार रह सकता है और अनाहारकता ही रत्नत्रयसाधना का अन्तिम लक्ष्य है। इसी के लिए संयतासंयत तथा संयत होकर अन्त में नो- संयत-नो असंयत-नोसंयतासंयत बनता है। यह इसके संयतद्वार में स्पष्ट प्रतिपादन किया गया है। कुल मिलाकर आहार सम्बन्धी चर्चा साधकों और श्रावकों के लिए ज्ञानवर्द्धक, रसप्रद, आहार-विज्ञानसम्मत एवं आत्मसाधनाप्रेरक है। १. पण्णवणासुतं (मू.पा.टि.) भा. १. पू. ३९३ से ४०५ २. स्थानांगसूत्र, स्था. ४ ३. पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ टिप्पण) भा. १, पृ. ३९७ १८ ४. पण्णवणासुतं (मूलपाठ-टिप्पण) भा. १. पृ. ४०३ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठावीसइमं आहारपयं अट्ठाईसवाँ आहारपद पढमो उद्देसओ : प्रथम उद्देशक प्रथम उद्देशक में उल्लिखित ग्यारह द्वार १७९३. सच्चित्ता १ ऽऽहारट्ठी २ केवति ३ किं वा वि ४ सव्वओ चेव ५ । कतिभागं ६ सव्वे खलु ७ परिणामे चेव ८ बोद्धव्वे ॥ २१७ ॥ एगिंदिसरीरादी ९ लोमाहारे १० तहेव मणभक्खी ११ । एतेसिं तु पयाणं विभावणा होइ कायव्वा ॥ २१८ ॥ [१७९३ गाथार्थ – ] [ प्रथम उद्देशक में] इन (निम्नोक्त) ग्यारह पदों पर विस्तृत रूप से विचारणा करनी है - (१). सचित्ताहार, (२) आहारार्थी, (३) कितने काल से (आहारार्थ) ?, (४) क्या आहार (करते हैं ?), (५) सब प्रदेशों से (सर्वतः), (६) कितना भाग ?, (७) (क्या) सभी आहार (करते हैं ?) और (८) (सर्वतः ) परिणत ( करते हैं ?) (९) एकेन्द्रियशरीरादि, (१०) लोमाहार एवं (११) मनोभक्षी ( ये ग्यारह द्वार जानने चाहिए ) | ॥२१७--२१८ ॥ - विवेचन प्रथम उद्देशक में आहार सम्बन्धी ग्यारह द्वार - प्रस्तुत दो संग्रहणी गाथाओं द्वारा प्रथम उद्देशक में प्रतिपाद्य ग्यारह द्वारों (पदों) का उल्लेख किया गया है। प्रथमद्वार - इसमें नैरयिक से लेकर वैमानिक तक के विषय में प्रश्नोत्तर हैं कि वे सचित्ताहारी होते हैं, अचित्ताहारी होते हैं या मिश्राहारी ?, द्वितीयद्वार से अष्टमद्वार तक - क्रमश: (२) नारकादि जीव आहारार्थी हैं या नहीं ?, (३) कितने काल में आहार की इच्छा उत्पन्न होती है ?, (४) किस वस्तु का आहार करते हैं ?, (५) क्या वे सर्वतः (सब प्रदेशों से) आहार करते हैं ?, सर्वतः उच्छ्वास-नि:श्वास लेते हैं, क्या वे बार-बार आहार करते हैं ? बार-बार उसे परिणत करते हैं ? इत्यादि, (६) कितने भाग का आहार या आस्वादन करते हैं ?, (७) क्या सभी गृहीत पुद्गलों का आहार करते हैं ?, (८) गृहीत आहार्य पुद्गलों को किस-किस रूप में बार-बार परिणत करते हैं ? (९) क्या वे एकेन्द्रियादि के शरीरों का आहर करते हैं ?, (१०) वे ओजाहारी होते हैं या मनोभक्षी ? प्रथम उद्देशक में इन ग्यारह द्वारों का प्रतिपादन किया गया है। चौबीस दण्डकों में प्रथम सचित्ताहारद्वार १७९४. [ १ ] णेरड्या णं भंते! कि सचित्ताहारा अचित्ताहारा मीसाहार ? गोयमा ! णो सचित्ताहार, अचित्ताहारा, णो मीसाहारा । १.(क) प्रज्ञापना, (मलय. वृत्ति) अभि. रा. को. भा. २, पृ. ५०० (ख) प्रज्ञापना सूत्र (प्रमेय बोधिनी टीका), भा. ५, पृ. ५४१, ५६३, ६१३ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अट्ठाईसवाँ आहारपद ] [१७९४-१ प्र.] भगवन् ! क्या नैरचिक सचित्ताहारी होते हैं, अचित्ताहारी होते हैं या मिश्राहारी होते हैं ? [ १७९४ - १ उ.] गौतम! नैरयिक सचित्ताहारी नहीं होते और न मिश्राहारी (सचित्त - अचित्ताहारी) होते हैं, किन्तु अचित्ताहारी होते हैं । [२] एवं असुरकुमारा जाव वेमाणिया । १०४] [१७९४-२] इसी प्रकार असुरकुमारों से लेकर वैमानिकों पर्यन्त ( जानना चाहिए।) [३] ओरालियसरीरी जाव मणूसा सचित्ताहारा वि अचित्ताहारा वि मीसाहारा वि । - [१७९४-३] औदारिकशरीरी यावत् मनुष्य सचित्ताहारी भी हैं, अचित्ताहारी भी हैं और मिश्राहारी भी हैं । विवेचन – सचित्ताहारी, अचित्ताहारी या मिश्राहारी ? • समस्त सांसारिक जीव भवधारणीय शरीर की अपेक्षा से दो भागों में विभक्त हैं - (१) वैक्रियशरीरी और (२) औदारिकशरीरी । वैक्रियशरीरधारी जो नारक, देव आदि जीव हैं, वे वैक्रियशरीर-परिपोषण योग्य पुद्गलों का आहार करते हैं और वे पुद्गल अचित्त ही होते हैं, सचित्त (जीवपरिगृहीत) और मिश्र नहीं। इसलिए प्रस्तुत में नैरयिक, असुरकुमारादि भवनवासीदेव, वाणव्यन्तरदेव, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों (जो कि वैक्रियशरीरी हैं) को एकान्ततः अचित्ताहारी बताया है तथा इनके अतिरिक्त एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय पर्यन्त तिर्यञ्च और मनुष्य जो औदारिकशरीरधारी हैं, वें औदारिकशरीर के परिपोषणयोग्य पुद्गलों का आहार करते हैं, जो तीनों ही प्रकार के होते हैं। इसलिए इन्हें सचित्ताहारी, अचित्ताहारी और मिश्राहारी बताया गया है। नैरयिकों में आहारार्थी आदि द्वितीय से अष्टमद्वार पर्यन्त १७९५. णेरइया णं भंते! आहारट्ठी ? हंता गोयमा! आहारट्ठी । [१७९५ प्र.] भगवन्! क्या नैरयिक आहारार्थी (आहाराभिलाषी) होते हैं ? [ १७९५ उ.] हाँ, गौतम ! वे आहारार्थी होते हैं । १७९६. णेरइयाणं भंते! केवतिकालस्स आहारट्ठे समुप्पज्जति ? गोयमा! णेरइयाणं आहारे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा • भोगणिव्वत्तिए य अणाभोगणिव्वत्तिए य । तत्थ णं जे से अणाभोगणिव्वत्तिए से णं अणुसमयविरहिए आहारट्ठे समुप्पज्जति । तत्थ णं जे से आभोगणिव्वत्तिए से णं असंखेज्जसमइए अंतोमुहुत्तिए आहारट्ठे समुप्पज्जति । [ १७९६ प्र.] भगवन्! नैरयिकों को कितने काल के पश्चात् आहार की इच्छा (आहारार्थ) समुत्पन्न होती है ? [१७९६ उ.] गौतम! नैरयिकों का आहार दो प्रकार का कहा गया है। यथा - (१) आभोगनिर्वर्तित, (उपयोगपूर्वक किया गया) और (२) अनाभोगनिर्वर्तित। उनमें जो अनाभोगनिर्वर्तित (बिना उपयोग के किया हुआ) है, उस आहार की अभिलाषा प्रति समय निरन्तर उत्पन्न होती रहती है, किन्तु जो आभोगनिर्वर्तित (उपयोगपूर्वक किया १. प्रज्ञापना, मलयवृत्ति पत्र अभि. रा. कोष, भा. २, पृ. ५०० Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०५ [ प्रज्ञापनासूत्र ] हुआ) आहार है, उस आहार की अभिलाषा असंख्यात - समय के अन्तर्मुहूर्त में उत्पन्न होती है । १७९७. णेरड्या णं भंते! किमाहारमाहारेंति ? गोयमा ! दव्वओ अणतपदेसियाई, खेत्तओ असंखेज्जपदेसोगाढाई, कालतो अण्णतरठितियाई, भावओ वण्णमंताई गंधमंताइं रसमंताई फासमंताई । [ १७९७ प्र.] भगवन् ! नैरयिक कौन-सा आहार ग्रहण करते हैं ? [ १७९७ उ.] गौतम ! वे द्रव्यतः - अनन्तप्रदेशी (पुद्गलों का) आहार ग्रहण करते हैं, क्षेत्रतः असंख्यातप्रदेशों में अवगाढ (रहे हुए), कालतः किसी भी ( अन्यतर) कालस्थिति वाले और भावतः वर्णवान्, गन्धवान्, रसवान् और स्पर्शवान् पुद्गलों का आहर करते हैं। १७९८. [ १ ] जाई भावओ वण्णमंताई आहारेंति ताइं किं एगवण्णाई आहारेंति जाव किं पंचवण्णाई आहारेंति ? गोयमा! ठाणमग्गणं पडुच्च एगवण्णाई वि आहारेंति जाव पंचवण्णाई पि आहारेंति, विहाणमग्गणं पडुच्च कालवण्णाई पि आहारेंति जाव सुक्किलाई पि आहारेंति । [१७९८-१ प्र.] भगवन्! भाव से (नैरयिक) वर्ण वाले जिन पुद्गलों का आहार करते हैं, क्या वे एक वर्ण वाले पुद्गलों का आहार करते हैं यावत् क्या वे पंच वर्ण वाले पुद्गलों का आहार करते हैं ? [१७९८ -१ उ.] गौतम ! वे स्थानमार्गणा (सामान्य) की अपेक्षा से एक वर्ण वाले पुद्गलों का भी आहार करते हैं यावत् पांच वर्णवाले पुद्गलों का भी आहार करते हैं तथा विधान (भेद) मार्गणा की अपेक्षा से काले वर्ण वाले पुद्गलों का भी आहार करते हैं यावत् शुक्ल (श्वेत) वर्ण वाले पुद्गलों का भी आहार करते हैं । [२] जाई वण्णओ कालवण्णाई आहारेंति ताई कि एगगुणकालाई आहारेंति जाव दसगुणकालाई आहारेंति संखेज्जगुणकालाई असंखेज्जगुणकालाई अनंतगुणकालाई आहारेंति ? गोयमा! एगगुणकालाई पि आहारेंति जाव अनंतगुणकालाई पि आहारेंति । एवं जाव सुक्किलाई पि। [१७९८-२ प्र.] भगवन्! वे वर्ण से जिन काले वर्ण वाले पुद्गलों का आहार करते हैं, क्या वे एक गुण काले पुद्गलों का आहार करते हैं यावत् दस गुण काले, संख्यातगुण काले, असंख्यातगुण काले या अनन्तगुण काले वर्ण वाले पुद्गलों का आहार करते है ? [ १७९८-२ उ.] गौतम ! वे एक गुण काले पुद्गलों का भी आहार करते हैं यावत् अनन्तगुण काले पुद्गलों का भी आहार करते हैं। इसी प्रकार (रक्तवर्ण से लेकर) यावत् शुक्लवर्ण के विषय में पूर्वोक्त प्रश्न और समाधान जानना चाहिए। १७९९. एवं गंधओ वि रसओ वि । [१७९९] इसी प्रकार गन्ध और रस की अपेक्षा से भी पूर्ववत् आलापक कहने चाहिए । १८००. [ १ ] जाई भावओ फासमंताई ताई णो एगफासाई आहारेंति, णो दुफासाई आहारेंति, णो Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६] [अट्ठाईसवाँ आहारपद] तिफासाइं आहारेंति, चउफासाइं आहारेंति जाव अट्ठफासाई पि आहारेंति, विहाणमग्गणं पडुच्च कक्खडाई पि आहारेंति जाव लुक्खाई पि। [१८००-१] भाव से जिन स्पर्शवाले पुद्गलों का आहार करते हैं, वे न तो एकस्पर्श वाले पुद्गलों का आहार करते हैं,न दो और न तीन स्पर्श वाले पुद्गलों का आहार करते हैं, अपितु चतुःस्पर्शी अष्टस्पर्शी पुद्गलों का आहार करते हैं। विधान (भेद) मार्गणा की अपेक्षा वे कर्कश यावत् रूक्ष पुद्गलों का भी आहार करते हैं। [२] जाई फासओ कक्खडाई आहारेंति ताई कि एगगुणकक्खडाई आहारेंति जाव अणंतगुणकक्खडाइं आहारेंति। ___गोयमा! एगगुणकक्खडाई पि आहारेंति जाव अणंतगुणकक्खडाई पि आहारेंति? एवं अट्ठवि फासा भाणियव्वा जाव अणंतगुणलुक्खाई पि आहारेति। [१८००-२ प्र.] भगवन् ! वे जिन कर्कशस्पर्शवाले पुद्गलों का आहार करते हैं, क्या वे एकगुण कर्कशपुद्गलों का आहार करते हैं, यावत् अनन्तगुण कर्कशपुद्गलों का आहार करते हैं ? [१८००-२ उ.] गौतम ! वे एकगुण कर्कशपुदगलों का भी आहार करते हैं यावत् अनन्तगुण कर्कशपुद्गलों का भी आहार करते हैं। इसी प्रकार क्रमशः आठों ही स्पर्शों के विषय में अनन्तगुण रूक्षपुद्गलों का भी आहार करते हैं तक (कहना चाहिए)। [३] जाइं भंते! अणंतगुणलुक्खाइं आहारेति ताई कि पुट्ठाई आहारेंति अपुट्ठाई आहारैति? गोयमा! पुट्ठाई आहारेंति, णो अपुट्ठाइं आहारेंति, जहा भासुद्देसए (सु . ८७७ [ १५-२३ ]) आव णियमा छद्दिसिं आहारेंति। [१८००-३ प्र.] भगवन् ! वे जिन अनन्तगुण रूक्षपुद्गलों का आहार करते हैं, क्या वे स्पृष्ट पुद्गलों का आहार करते हैं या अस्पृष्ट पुद्गलों का आहार करते हैं ? [१८००-३ उ.] गौतम! वे स्पृष्ट पुद्गलों का आहार करते हैं, अस्पृष्ट पुद्गलों का नहीं। (सू. ८७७-१५-२३ में उक्त) भाषा-उद्देशक में जिस प्रकार कहा है, उसी प्रकार वे यावत् नियम से छहों दिशाओं में से आहार करते हैं। १८०१. ओसण्णकारणं पडुच्च वण्णओ काल-नीलाई गंधओ दुब्भिगंधाइं रसतो तित्तरस कडुयाई फासओ कक्खड-गरूय-सीय-लुक्खाइंतेसिं पोराणे वण्णगुणे गंधगुणे फासगुणे विप्परिणामइत्ता परिपीलइत्ता परिसाडइत्ता परिविसइत्ता अण्णे अपुव्वे वण्णगुणे गंधगुणे रसगुणे फासगुणे उप्पाएत्ता आयसरीरखेत्तोगाढे पोग्गले सव्वप्पणयाए आहारमाहारेंति। [१८०१] बहुल कारण की अपेक्षा से जो वर्ण से काले-नीले, गन्ध से दुर्गन्ध वाले, रस से तिक्त (तीखे) और कटुक (कडुए) रस वाले और स्पर्श से कर्कश, गुरु (भारी), शीत (ठंडे) और रूक्ष स्पर्श हैं, उनके पुराने (पहले के) वर्णगुण, गन्धगुण, रसगुण और स्पर्शगुण का विपरिणमन (परिवर्तन) कर, परिपीडन परिशाटन और परिविघ्वस्त करके अन्य (दूसरे) अपूर्व (नये) वर्णगुण, गन्धगुण, रसगुण और स्पर्शगुण को उत्पन्न करके अपने शरीरक्षेत्र में Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र] [१०७ अवगाहन किये हुए पुद्गलों का पूर्णरूपेण (सर्वात्मना) आहार करते हैं। १८०२. णेरइया णं भंते! सव्वओ आहारेंति, सव्वओ परिणामेंति, सव्वओ ऊससंति, सव्वओ णीससंति, अभिक्खणं आहारेंति, अभिक्खणं परिणामेंति, अभिक्खणं ऊससंति अभिक्खणं णीससंति, आहच्च आहारेंति, आहच्च परिणामेंति आहच्च ऊससंति आहच्च णीससंति? हंता गोयमा! णेरइया सव्वओ आहारेंति एवं तं चेव जाव आहच्च णीससंति। [१८०२ प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिक सर्वतः (समग्रता से) आहार करते हैं ? पूर्णरूप से परिणत करते हैं ? सर्वतः उच्छ्वास तथा सर्वत: निःश्वास लेते हैं ? बार-बार आहार करते हैं ? बार बार परिणत करते हैं ? बार-बार उच्छ्वास एवं निःश्वास लेते हैं ? अथवा कभी-कभी आहार करते हैं? कभी-कभी परिणत करते हैं ? और कभीकभी उच्छ्वास एवं निःश्वास लेते हैं ? ___ [१८०२ उ.] हाँ, गौतम ? नैरयिक सर्वत: आहार करते हैं, इसी प्रकार वही पूर्वोक्तवत् यावत् कभी-कभी निःश्वास लेते हैं। १८०३. णेरइया णं भंते! जे पोग्गले आहारत्ताए गेण्हंति ते णं तेसिं पोग्गलाणं सेयालंसि कतिभागं आहारेंति कतिभागं आसाएंति ? गोयमा! असंखेजइभागं आहारेंति अणंतभागं अस्साएंति। [१८०३ प्र.] भगवन् ! नैरयिक जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, उन पुद्गलों का आगामी काल में कितने भाग का आहार करते हैं और कितने भाग का आस्वादन करते हैं? [१८०३ उ.] गौतम! वे असंख्यातवें भाग का आहार करते हैं और अनन्तवें भाग का आस्वादन करते हैं। १८०४. णेरइया णं भंते! जे पोग्गले आहारत्ताए गेण्हंति ते किं सव्वे आहारेति णो सव्वे आहारेंति ? गोयमा! ते सव्वे अपरिसेसिए आहारेंति। [१८०४ प्र.] भगवन् ! नैरयिक जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, क्या उन सबका आहार कर लेते हैं, अथवा सबका आहार नहीं करते हैं? __ [१८०४ उ.] गौतम! शेष बचाये बिना उन सबका आहार कर लेते हैं। १८०५. णेरइया णं भंते! जे पोग्गले आहारत्ताए गेण्हति ते णं तेसिं पोग्गला कीसत्ताए भुजो २ परिणमंति? गोयमा! सोइंदियत्ताए जाव फासिंदियत्ताए अणि?त्ताए अकंतत्ताए अप्पियत्ताए असुभत्ताए अमणुण्णत्ताए अमणामत्ताए अणिच्छियत्ताए अभिज्झियत्ताए अहत्ताए णो उद्धृत्ताए दुक्खत्ताए णो सुहत्ताए एएसिं (ते तेसिं) भुजो भुजो परिणमंति। [१८०५ प्र.] भगवन् ! नैरयिक जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, वे उन पुद्गलों को बारबार किस रूप में परिणत करते हैं? Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८] [अट्ठाईसवाँ आहारपद] [१८०५ उ.] गौतम! वे उन पुद्गलों को श्रोत्रेन्द्रिय के रूप में यावत् स्पर्शेन्द्रिय के रूप में,अनिष्टरूप से, अकान्तरूप से, अप्रियरूप से, अशुभरूप से , अमनोज्ञरूप से, अमनामरूप से , अनिश्चितता से (अथवा अनिच्छित रूप से,) अनभिलषितरूप से , भारीरूप से, हल्केरूप से नहीं, दुःखरूप से सुखरूप से नहीं, उन सबका बार-बार परिणमन करते हैं। __विवेचन - आभोगनिर्वर्तित और अनाभोगनिवर्तित का स्वरूप - नारकों का आहार दो प्रकार का है- आभोगनिर्वर्तित और अनाभोगनिर्वर्तित । आभोगनिर्वर्तित का अर्थ है - इच्छापूर्वक-उपयोगपूर्वक होने वाला आहार तथा अनाभोगनिवर्तित का अर्थ है - बिना इच्छा के-बिना उपयोग के होने वाला आहार। अनाभोगनिर्वर्तित आहार, भव पर्यन्त प्रतिसमय निरन्तर होता रहता है । यह आहार ओजआहार आदि के रूप में होता है। आभोगनिर्वर्तित आहार की इच्छा असंख्यात समय प्रमाण अन्तर्महर्त में उत्पन्न होती है। मैं आहार करूं. इस प्रकार की अभिलाषा एक अन्तर्मुहूर्त के अंदर पैदा हो जाती है। यही कारण है कि नारकों की आहारेच्छा अन्तर्मुहूर्त की कही गई है। यह तीसरा द्वार है। नैरयिक किस वस्तु का आहार करते हैं? - द्रव्य से वे अनन्तप्रदेशी पुद्गलों का आहार करते हैं, क्योंकि संख्यातप्रदेशी या असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध जीव के द्वारा ग्रहण नहीं किये जा सकते, उनका ग्रहण होना सम्भव नहीं है। क्षेत्र की अपेक्षा से वे असंख्यातप्रदेशावगाढ़ स्कन्धों का आहार करते हैं । काल की अपेक्षा से वे जघन्य, मध्यम या उत्कृष्ट किसी भी स्थिति वाले स्कन्धों को ग्रहण करते हैं। भाव से वे वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श वाले द्रव्यों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, क्योंकि प्रत्येक परमाणु में एकादि वर्ण गन्ध, एक रस और दो स्पर्श अवश्य पाए जाते हैं। इसके पश्चात् एकादि वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, से अनेक वर्णादियुक्त आहार ग्रहण करने के विकल्प बताये गए हैं। तदनन्तर यह भी बताया गया है कि वे (नारक) आत्मप्रदेशों से स्पृष्ट द्रव्यों (सम्बद्ध पुद्गलों) का तथा नियमतः छह दिशाओं से आहार करते हैं । विविध पहलुओं से नारकों के आहार के विषय में प्ररूपणा - नारक वर्ण की अपेक्षा प्रायः काले-नीले वर्णवाले, रस की अपेक्षा तिक्त और कटुक रसवाले, गन्ध की अपेक्षा दुर्गन्धवाले तथा स्पर्शसे कर्कश, गुरु, शीत और रूक्ष स्पर्शवाले अशुभ द्रव्यों का आहार करते हैं। यहां बहुलतासूचक शब्द - ओसन्न का प्रयोग किया गया है। जिसका आशय यह है कि अशुभ अनुभाव वाले मिथ्यादृष्टि नारक ही प्रायः उक्त कृष्णवर्ण आदि वाले द्रव्यों का आहार करते हैं। किन्तु जो नारक आगामी भव में तीर्थंकर आदि होने वाले हैं, वे ऐसे द्रव्यों का आहार नहीं करते हैं।' नारक आहार किस प्रकार से करते हैं? – आहार किये जाने वाले पुद्गलों के पुराने वर्ण-गन्ध-रसस्पर्शगुण का परिणमन, परिपीडन, परिशाटन एवं विध्वंस करके, अर्थात्-उन्हें पूरी तरह से बदल कर, उनमें नये वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शगुण को उत्पन्न करके, अपने शरीर-क्षेत्र में अवगाढ पुद्गलों का समस्त आत्मप्रदेशों से आहार करते है। १, २. प्रज्ञापना (हरिभद्रीय टीका) भा. ५, पृ. ५४९ से ५५२ १ से ३ प्रज्ञापना (हरिभद्रीय टीका.) भा. ५, पृ. ५४९ से ५५२ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रज्ञापनासूत्र ] [१०९ सर्वतः आहारादि का अर्थ सर्वतः आहार अर्थात् समस्त आत्मप्रदेशों से आहार करते हैं, सर्वआत्मप्रदेशों से आहार परिणमाते हैं, सर्वतः उच्छ्वास- निःश्वास लेते हैं, सदा आहार करते हैं, सदा परिणत करते हैं, सदा उच्छ्वास- नि:श्वास लेते हैं। कदाचित् आहार और परिणमन करते तथा उच्छ्वास-नि:श्वास लेते है । आहार और आस्वादन कितने-कितने भाग का ? • नारक आहार के रूप में जितने पुद्गलों को ग्रहण करते हैं, उनके असंख्यातवें भाग का आहार करते हैं, शेष पुद्गलों का आहार नहीं हो पाता। वे जितने पुद्गलों का आहार करते हैं, उनके अनन्तवें भाग का आस्वादन करते हैं। शेष का आस्वादन न होने पर भी शरीर के रूप में परिणत हो जाते है ।' (छठा द्वार) - सभी आहाररूप में गृहीत पुद्गलों का या उनके एक भाग का आहार जिन त्यक्तशेष एवं शरीरपरिणाम के योग्य पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, उन सभी पुद्गलों का आहार करते हैं, सबके एक भाग का नही, क्योंकि वे आहार्यपुद्गल त्यक्तशेष और आहार परिणाम के योग्य ही ग्रहण किये हुए होते हैं। — आहाररूप में गृहीत पुद्गल किस रूप में पुनः परिणत ? - आहार के रूप में नारकों द्वारा ग्रहण किये हुए वे पुद्गल श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, आदि पांचों इन्द्रियों के रूप में पुनः पुनः परिणत होते हैं । किन्तु इन्द्रियरूप में परिणत होने वाले वे पुद्गल शुभ नहीं, अशुभरूप ही होते हैं, अर्थात् वे पुद्गल अनिष्टरूप में परिणत होते हैं। जैसे मक्खियों को कपूर, चन्दन आदि शुभ होने पर भी अनिष्ट प्रतीत होते हैं, तैसे ही शुभ होने पर भी किन्हीं जीवों को वे पुद्गल अनिष्ट प्रतीत होते हैं। बल्कि अकान्त ( अकमनीय- देखते समय सुन्दर न लगें ), अप्रिय ( देखते समय भी अन्त:करण को प्रिय न लगें ), अशुभ वर्ण- गन्ध-रस-स्पर्श वाले, अमनोज्ञ - विपाक के समय क्लेशजनक होने के कारण मन में आह्लाद उत्पन्न करने वाले नहीं होते हैं। 1 अमनाम जो भोज्यरूप में प्राणियों को ग्राह्य न हों, अनीप्सित जो आस्वादन करने योग्य नहीं होते, अभिध्य • जिनके विषय में अभिलाषा भी उत्पन्न न हो, इस रूप में परिणत होते हैं तथा वे पुद्गल भारीरूप में परिणत होते हैं, लघुरूप में नहीं। (अष्टमद्वार) भवनपतियों के सम्बन्ध में आहारार्थी आदि सात द्वार (२-८) १८०६. [ १ ] असुरकुमारा णं भंते! आहारट्ठी ? हंता! आहारट्ठी एवं जहा णेरइयाणं तहा असुरकुमाराण वि भाणियव्वं जाव ते तेसिं भुज्जो भुज्जो परिणमति । तत्थ णं जे से आभोगणिव्वत्तिए से णं जहणणेणं चउत्थभत्तस्स उक्कोसेणं सतिरेगस्स वाससहस्सस्स आहारट्ठे समुप्पज्जइ । ओसण्णकारणं पडुच्च वण्णओ हालिद्द-सुक्किलाइ गंधओ सुब्भिगंधाई रसओ अंविलमहुराई फासओ मउय - लहुअ - णिगुण्हाई तेसि पोराणे वण्णगुणे जाव फासिंदियत्ताए जाव मणामत्ताए · इच्छियत्ताए अभिज्झियत्ताए उड्डत्ताए णो अहत्ताए, सुहत्ताए णो दुहत्ताए ते तेसिं भुज्जो २ परिणमति । सेसं जहा रइयाणं । [१८०६-१ प्र.] भगवन् ! क्या असुरकुमार आहारार्थी होते हैं ? १ प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा. ५, पृ. ५५५ से ५५९ तक Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११०] [ अट्ठाईसवाँ आहारपद ] [१८०६ - १ उ. ] हाँ, गौतम! वे आहारार्थी होते हैं। जैसे नारकों की वक्तव्यता कही, वैसे ही असुरकुमारों के विषय में यावत् उनके पुद्गलों का बार-बार परिणमन होता है यहाँ तक कहना चाहिए। उनमें जो आभोगनिर्वर्तित आहार है उस आहार की अभिलाषा जघन्य चतुर्थ-भक्त पश्चात् एवं उत्कृष्ट कुछ अधिक सहस्रवर्ष में उत्पन्न होती है । बाहुल्यरूप कारण की अपेक्षा से वे वर्ण से – पीत ओर श्वेत, गन्ध से – सुरभिगन्ध वाले, रस से अम्ल और मधुर तथा स्पर्श से - मृदु, लधु, स्निग्ध और उष्ण पुद्गलों का आहार करते हैं। (आहार किये जाने वाले) उन (पुद्गलों) के पुराने वर्ण- गन्ध-रस-स्पर्श-गुण को विनष्ट करके, अर्थात् पूर्णतया परिवर्तित करके, अपूर्व यावत् वर्ण- गन्ध-रस-स्पर्श-गुण को उत्पन्न करके ( अपने शरीर - क्षेत्र में अवगाढ़ पुद्गलों का सर्व- आत्मप्रदेशों से आहार करते हैं। आहाररूप में गृहीत वे पुद्गल श्रोत्रेन्द्रियादि पांच इन्द्रियों के रूप में तथा इष्ट, कान्त, प्रिय, शुभ, ) मनोज्ञ, मनाम इच्छित अभिलाषित रूप में परिणत होते हैं । भारीरूप में नहीं हल्के रूप में, सुखरूप में परिणत होते हैं, दुःखरूप में नहीं। (इस प्रकार असुरकुमारों द्वारा गृहीत) वे आहार्य पुद्गल उनके लिए पुनः पुनः परिणत होते हैं। शेष कथन नारकों के कथन के समान जानना चाहिए । - [ २ ] एवं जाव थणियकुमाराणं । णवरं आभोगणिव्वत्तिए उक्कोसेणं दिवसपुहत्तस्स आहारट्ठे समुप्पज्जति । [१८०६-२] इसी प्रकार स्तनितकुमारों तक का कथन असुरकुमारों के समान जानना चाहिए। विशेष यह है कि इनका आभोगनिर्वर्तित आहार उत्कृष्ट दिवस पृथक्त्व से होता है। - विवेचन - असुरकुमारों आदि की आहाराभिलाषा असुरकुमारों को बीच-बीच में एक-एक दिन छोड़ कर आहार की अभिलाषा होती है, यह कथन दस हजार वर्ष की आयु वाले असुरकुमारों की अपेक्षा से समझना चाहिए । उत्कृष्ट अभिलाषा कुछ अधिक सातिरेक सागरोपम की स्थिति वाले बलीन्द्र की अपेक्षा से है। शेष भवनपतियों का आभोगनिर्वर्तित आहार उत्कृष्ट दिवस - पृथक्त्व से होता है। यह कथन पल्योपम के असंख्यातवें भाग की आयु तथा उससे अधिक आयु वालों की अपेक्षा से समझना चाहिए। असुरकुमार त्रसनाडी में ही होते हैं। अतएव वे छहों दिशाओं से पुद्गलों का आहार कर सकते हैं। आहार सम्बन्धी शेष कथन मूलपाठ में स्पष्ट है।' एकेन्द्रियों में आहारार्थी आदि सात द्वार (२-८) १८०७. पुढविकाइया णं भंते! आहारट्ठी ? हंता! आहारट्ठी । [१८०७ प्र.] भगवन्! क्या पृथ्वीकायिक जीव आहारार्थी होते हैं ? [१८०७ उ.] गौतम! वे आहारार्थी होते हैं। १८०८. पुढविक्वाइयाणं भंते! केवतिकालस्स आहारट्ठे समुप्पज्जइ ? गोयमा! अणुसमयं अविरहिए आहारट्ठे समुप्पज्जइ । [१८०८ प्र.] भगवन्! पृथ्वीकायिक जीवों को कितने काल में आहार की अभिलाषा उत्पन्न होती है ? १. प्रज्ञापना प्रमेयबोधिनी टीका, भा. ५, पृ. ५५५ से ५५९ तक Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र] [१११ [१८०८ उ.] गौतम! उन्हें प्रतिसमय बिना विरह के आहार की अभिलाषा उत्पन्न होती है। १८०९. पुढविक्काइया णं भंते! किमाहारमाहारेंति ? एवं जहा णेरइयाणं (सु. १७९७-१८००) जाव ताई भंते! कति दिसिं आहारंति ? गोयमा! णिव्वाघाएणं छदिसिं, वाघायं पडुच्च सिय तिदिसिं सिय चउदिसिं सिय पंचदिसिं, णवरं ओसण्णकारणं ण भवति, वण्णतो काल-णील-लोहिय-हालिद्द-सुकिलाई, गंधओ सुब्भिगंध दुब्भिगंधाई, रसओ तित्त-कड्य-कसाय-अंबिल-महराइं, फासतो कक्खड-मउय-गरुअ-लहुय-सीय-उसिण-णिद्धलुक्खाइं, तेसिं पोराणे वण्णगुणे सेसं जहा णेरइयाणं (सु. १८०१-२) जाव आहच्च णीससंति। [१८०९ प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव किस वस्तु का आहार करते हैं ? [१८०९ उ.] गौतम! इस विषय का कथन (सू. १७९७-१८०० में उक्त) नैरयिकों के कथन के समान जानना चाहिए; यावत् - [प्र.] पृथ्वीकायिक जीव कितनी दिशाओं से आहार करते है? [उ.] गौतम! यदि व्याघात (रुकावट) न हो तो वे (नियम से) छहों दिशाओं (में स्थित और छहों दिशाओं) से (आगत द्रव्यों का) आहार करते हैं। यदि व्याघात हो तो कदाचित् तीन दिशाओं से, कदाचित् चार दिशओं से और कदाचित् पांच दिशाओं से आगत द्रव्यों का आहार करते हैं । विशेष यह है कि (पृथ्वीकायिकों के सम्बन्ध में) बाहुल्य कारण नहीं कहा जाता। (पृथ्वीकायिक जीव) वर्ण से – कृष्ण, नील, रक्त, पीत और श्वेत, गन्ध से – सुगन्ध और दुर्गन्ध वाले, रस से - तिक्त, कटुक, कषाय, अम्ल और मधुर रस वाले और स्पर्श से – कर्कक्ष, मृदु, गुरु (भारी), लघु (हल्का), शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष स्पर्श वाले (द्रव्यों का आहार करते हैं) तथा उन (आहार किये जाने वाले पुद्गलद्रव्यों) के पुराने वर्ण आदि गुण नष्ट हो जाते हैं, इत्यादि शेष सब कथन (सू. १८०१-२ में उक्त) नारकों के कथन के समान यावत् कदाचित् उच्छ्वास और निःश्वास लेते हैं; (यहाँ तक जानना चाहिए।) १८१०. पुढविक्काइया णं भंते! जे पोग्गले आहारत्ताए गेण्हंति तेसि णं भंते! पोग्गलणं सेयालंसि कतिभागं आहारेंति कतिभागं आसाएंति ! गोयमा! असंखेजइभागं आहारेंति अणंतभागं आसाएंति। [१८१० प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं,उन पुद्गलों में से भविष्यकाल में कितने भाग का आहार करते हैं और कितने भाग का आस्वादन करते हैं? [१८१० उ.] गौतम! (आहार के रूप में गृहीत पुद्गलों के) असंख्यातवें भाग का आहर करते हैं और अनन्तवें भाग का आस्वादन करते हैं। १८११. पुढविक्काइया णं भंते! जे पुग्गले आहारत्ताए गिण्हंति ते किं सव्वे आहारेंति णो सव्वे आहारेंति ? जहेव णेरइया (सु. १८०४) तहेव। [१८११ प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, क्या उन सभी का आहार करते हैं अथवा उन सबका आहार नहीं करते हैं ? (अर्थात् सबके एक भाग का आहार करते हैं ?) Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२] [अट्ठाईसवाँ आहारपद] [१८११ उ.] गौतम! जिस प्रकार (सू. १८०४ में) नैरयिकों की वक्तव्यता कही है, उसी प्रकार पृथ्वीकायिक जीवों के विषय में कहना चाहिए। १८१२. पुढविक्काइया णं भंते! जे पोग्गले आहारत्ताए गेण्हंति ते णं तेसिं पोग्गला कीसत्तए भुजो भुजो परिणमंति ? गोयमा! फासेंदियवेमायत्ताए भुजो भुजो परिणमंति। [१८१२ प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, वे पुद्गल (पृथ्वीकायिकों में) किस रूप में पुनःपुनः परिणत होते हैं ? [१८१२ उ.] गौतम! जिस प्रकार (वे पुद्गल) स्पर्शेन्द्रिय की विषम मात्रा के रूप में (अर्थात् इष्ट एवं अनिष्ट रूप में) बार-बार परिणत होते हैं। १८१३. एवं जाव वणस्सइकाइयाणं। [१८१३] इसी प्रकार (पृथ्वीकायिकों) की वक्तव्यता के समान (अप्कायिकों से लेकर) यावत् वनस्पतिकायिकों की (वक्तव्यता समझ लेनी चाहिए।) विवेचन - पृथ्वीकायिक आदि एकेन्द्रियों की आहार-सम्बन्धी विशेषता - पृथ्वीकायिक प्रतिसमय अविरतरूप से आहार करते हैं । वे निर्व्याघात की अपेक्षा छहों दिशाओं से और व्याघात की अपेक्षा कदाचित् तीन, चार या पांच दिशाओं से आहार लेते हैं। इनमें एकान्त शुभानुभाव या अशुभानुभावरूप बाहुल्य नहीं पाया जाता। पृथ्वीकायिकों के द्वारा आहार के रूप में गृहीत पदगल उनमें स्पर्शेन्द्रिय की विषममात्रा के रूप में परिणत होते हैं। इसका आशय यह है कि नारकों के समान एकान्त अशुभरूप में तथा देवों के समान एकान्त शुभरूप में उनका परिणमन नहीं होता, किन्तु बार-बार कभी इष्ट और कभी अनिष्ट रूप में उनका परिणमन होता है। यही नारकों से पृथ्वीकायिकों की विशेषता है। शेष सब कथन नारकों के समान समझ लेना चाहिए। पृथ्वीकायिक से लेकर वनस्पतिकायिक तक आहारसम्बन्धी वक्तव्यता एक सी है। विकलेन्द्रियों में आहारार्थी आदि सात द्वार ( २-८) १८१४. बेइंदिया णं भंते! आहारट्ठी ? हंता गोयमा! आहारट्ठी। [१८१४ प्र.] भगवन् ! क्या द्वीन्द्रिय जीव आहारार्थी होते हैं ? [१८१४ उ.] हाँ, गौतम! वे आहारार्थी होते हैं। १८१५. बेइंदियाणं भंते! केवतिकालस्स आहारट्टे समुप्पज्जति ? जहा णेरइयाणं (सु. १७९३) १. (क) पण्णवणासुतं, भा. १ (मू. पा. टि.) पृ. ३९४-३९५ (ख) प्रज्ञापनासूत्र (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ.५६३-५६६ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र] [११३ णवरं तत्थ णं जे से आभोगणिव्वत्तिए से णं असंखेजसमइए अंतोमुहुत्तिए वेमायाए आहारट्टे समुप्पजइ। सेसं जहा पुढविक्काइयाणं (सु. १८०९) जाव आहच्च णीससंति, णवरं णियमा छद्दिसिं। [१८१८ प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीवों को कितने काल में आहार की अभिलाषा उत्पन्न होती है ? [१८१५ उ.] गौतम! इनका कथन (सू. १७९३ में उक्त) नारकों के समान समझना चाहिए। विशेष यह है कि उनमें जो आभोगनिर्वर्तित आहार है, उस आहार की अभिलाषा असंख्यात समय के अन्तर्मुहूर्त में विमात्रा से उत्पन्न होती है। शेष सब कथन पृथ्वीकायिकों के समान कदाचित् निःश्वास लेते हैं यहाँ तक कहना चाहिए। १८१६. बेइंदिया णं भंते! जे पोग्गले आहारत्ताए गेण्हंति ते णं तेसिं पोग्गलाणं सेयालंसि कतिभागं आहारेंति कतिभागं अस्साएंति ? एवं जहा णेरइयाणं (सु. १८०३)। __ [१८१३ प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, वे भविष्य में उन पुद्गलों के कितने भाग का आहार करते हैं और कितने भाग का आस्वादन करते हैं? [१८१३ उ.] गौतम! इस विषय में (सू. १८०३ में उक्त) नैरयिकों के समान कहना चाहिए। १८१७. बेइंदिया णं भंते! जे पोग्गले आहारत्ताए गेण्हंति ते किं सव्वे आहारेंति, णो सव्वे आहारेंति ? गोयमा! बेइंदियाणं दुविहे आहारे पण्णत्ते, तं जहा – लोमाहारे य पक्खेवाहारे य। जे पोग्गले लोमाहारत्ताए गेण्हंति ते सव्वे अपरिसेसे आहारेंति, जे पोग्गले पक्खेवाहारत्ताए गेण्हंति तेसिं असंखेजइभागमाहारेंति णेगाइं चणं भागसहस्साइं अफासाइजमाणाणं अणासाइजमाणाणं विद्धंसमागच्छति। [१८१७ प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, क्या वे उन सबका आहार करते हैं अथवा उन सबका आहार नहीं करते ? (अर्थात् उन सबके एक भाग का आहार करते हैं ?) ___ [१८१७ उ.] गौतम! द्वीन्द्रिय जीवों का आहार दो प्रकार का कहा है । यथा - लोमाहार और प्रक्षेपाहार । वे जिन पुद्गलों को लोमाहार के रूप में ग्रहण करते हैं, उन सबका समग्ररूप से आहार करते हैं और जिन पुद्गलों को प्रक्षेपाहार के रूप में ग्रहण करते हैं, उनमें से असंख्यातवें भाग का ही आहार करते हैं उनके बहुत से (अनेक) सहस्र भाग यों ही विध्वंस को प्राप्त हो जाते हैं, न ही उनका बाहर-भीतर स्पर्श हो पाता है और न ही आस्वादन हो पाता है। १८१८. एतेसि णं भंते! पोग्गलाणं अणासाइजमाणाणं अफासाइज्जमाणाण य कतरे कतरेहिंतो ४? गोयमा! सव्वत्थोवा पोग्गला अणासाइजमाणा, अफासाइजमाणा अणंतगुणा। [१८१८ प्र.] भगवन् ! इन पूर्वोक्त प्रक्षेपाहारपुद्गलों में से आस्वादन न किये जाने वाले तथा स्पृष्ट न होने वाले पुद्गलों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? [१८१८ उ.] गौतम! सबसे कम आस्वादन न किये जाने वाले पुद्गल हैं, उनसे अनन्तगुणे (पुद्गल) स्पृष्ट न होने वाले हैं। १. ४ सूचक चिह्न - 'अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा?' इस पाठ का सूचक हैं। सं. Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४] [अट्ठाईसवाँ आहारपद] १८१९. बेइंदिया णं भंते! जे पोग्गले आहारत्ताए० पुच्छा । गोयमा! जिभिदिय-फासिंदियवेमायत्ताए ते तेसिं भुज्जो २ परिणमंति। [१८१९ प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीव जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, वे पुद्गल किस-किस रूप में पुन:पुनः परिणत होते हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न। [१८१९ उ.] गौतम! वे पुद्गल जिह्वेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय की विमात्रा के रूप में पुनः पुनः परिणत होते हैं। १८२०. एवं जाव चरिंदिया।णवरं णेगाइं च णं भागसहस्साई अणाघाइजमाणाइं अफासाइजमाणाई अणस्साइजमाणाई विद्धंसमागच्छंति। [१८२०] इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रिय तक के विषय में कहना चाहिए। विशेषता यह है कि इनके (त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय) द्वारा प्रक्षेपाहाररूप में गृहीत पुद्गलों के अनेक सहस्र भाग अनाघ्रायमाण (नहीं सूंघे हुए), अस्पृश्यमान (बिन छुए हुए) तथा अनास्वाद्यमान (स्वाद लिये बिना) ही विध्वंस को प्राप्त हो जाते हैं। १८२१. एतेसि णं भंते! पोग्गलाणं अणाघाइजमाणाणं अणासाइज्जमाणाणं अफासाइज्जमाणाण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा ४ ? गोयमा! सव्वत्थोवा पोग्गला अणाघाइजमाणा, अणास्साइजमाणा अणंतगुणा, अफासाइजमाणा अणंतगुणा। __ [१८२१ प्र.] भगवन् ! इन अनाघ्रायमाण, अस्पृश्यमान और अनास्वाद्यमान पुद्गलों में से कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं? [१८२१ उ.] गौतम! अनाघ्रायमाण पुद्गल सबसे कम हैं, उससे अनन्तगुणे पुद्गल अनास्वाद्यमान हैं और अस्पृश्यमान पुद्गल उससे अनन्तगुणे हैं। १८२२. तेइंदिया णं भंते! जे पोग्गला० पुच्छा। गोयमा! घाणिंदिय-जिभिदिय-फासिंदियवेमायत्ताए ते तेसिं भुजो २ परिणमंति। [१८२२ प्र.] भगवन् ! त्रीन्द्रिय जीव जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, वे पुद्गल उनमें किस रूप में पुन:पुनः परिणत होते हैं ? __[१८२२ उ.] गौतम! वे पुद्गल घ्राणेन्द्रिय, जिह्वेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय की विमात्रा से (अर्थात् – इष्ट - अनिष्टरूप से) पुन:पुनः परिणत होते हैं। १८२३. चउरिंदियाणं चक्खिदिय-घाणिंदिय-जिभिदिय-फासिंदियवेमायत्ताए ते तेसिं भुज्जो भुज्जो परिणमंति, सेसं जहा तेइंदियाणं।। [१८२३] (चतुरिन्द्रिय द्वारा आहार के रूप में गृहीत पुद्गल) चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिह्वेन्द्रिय एवं स्पर्शेन्द्रिय की विमात्रा से पुनः पुनः परिणत होते हैं। चतुरिन्द्रियों का शेष कथन त्रीन्द्रियों के कथन के समान समझना चाहिए। विवेचन - विकलेन्द्रियों के आहार के विषय में स्पष्टीकरण - लोमाहार - लोमों या रोमों (रोओं) Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र] [११५ द्वारा किया जाने वाला आहार लोमाहार कहलाता है। प्रक्षेपाहार अर्थात् कवलाहार, मुख में डाल (प्रक्षिप्त) कर या कोर (ग्रास) के रूप में मुख द्वारा किया जाने वाल आहार प्रक्षेपाहार है। वर्षा आदि के मौसम में ओघरूप से पुद्गलों का शरीर में प्रवेश हो जाता है, जिसका अनुमान मूत्र आदि से किया जाता है, वह लोमाहार है। द्वीन्द्रियादि विकलेन्द्रिय जीव लोमाहार के रूप मे जिन पुद्गलों को ग्रहण करते हैं ,उन सबका पूर्णरूप से आहार करते हैं, क्योंकि उनका स्वभाव ही वैसा होता है। तथा जिन पुद्गलों को वे प्रक्षेपाहार के रूप में ग्रहण करते हैं, उनके असंख्यातवें भाग का ही आहार कर पाते हैं। उनमें से बहुत से सहस्रभाग उनके द्वारा बिना स्पर्श किये बिना आस्वादन किये यों ही विध्वंस को प्राप्त हो जाते हैं, क्योंकि उनमें से कोई पुद्गल अतिस्थूल होने के कारण और कोई अतिसूक्ष्म होने के कारण आहृत नहीं हो पाते। आहार्य पुद्गलों का अल्प-बहुत्व - प्रक्षेपाहार रूप से ग्रहण किये जानेवाले पुद्गलों में सबसे कम पुद्गल अनास्वाद्यमान होते हैं, आशय यह है कि एक - एक स्पर्शयोग्य भाग में अनन्तवाँ भाग आस्वाद के योग्य होता है और उसका भी अनन्तवाँ भाग आघ्राण-(सूंघने के) योग्य होता है। अत:सबसे कम अनाघ्रायमाण पुद्गल होते हैं। उनसे अनन्तगुणे पुद्गल अनास्वाद्यमान होते हैं और उनसे भी अनन्तगुणे पुद्गल अस्पृश्यमान होते हैं । पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों, मनुष्यों, ज्योतिष्कों एवं बाणव्यन्तरों में आहारार्थी आदि सात द्वार १८२४. पंचेंदियतिरिक्खजोणिया जहा तेइंदिया। णवरं तत्थ णं जे से आभोगणिव्वत्तिए से जहण्णेणं अंतोमुहुत्तस्स, उक्कोसेणं छट्ठभत्तस्स आहारट्टे समुप्पजति। [१२४] पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों का कथन त्रीन्द्रिय जीवों के समान जानना चाहिए। विशेष यह है कि उनमें जो आभोगनिवर्तित आहार है, उस आहार की अभिलाषा उन्हें जघन्य अन्तर्मुहूर्त से और उत्कृष्ट षष्ठभक्त से (अर्थात् दो दिन छोड़कर) उत्पन्न होती है। १८२५. पंचेंदियातिरिक्खजोणिया णं भंते। जे पोग्गले आहारत्ताए० पुच्छा ! गोयमा! सोइंदिय-चविखंदिय-घाणिंदिय-जिब्भिदिय-फासेंदियवेमायत्ताएभुजो २ परिणमंति। [१८२५ प्र.] भगवन् ! पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, वे पुद्गल उनमें किस रूप में पुनःपुनः परिजत होते हैं ? [१८२५ उ.] गौतम! आहाररूप में गृहीत वे पुद्गल श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिह्वेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय की विमात्रा के रूप में पुनः पुनः परिणत होते हैं। १८२६. मणूसा एवं चेव। णवरं आभोगणिव्वत्तिए जहण्णेणं अंतोमुहुत्तस्स, उक्कोसेणं अट्ठमभत्तस्स आहारट्ठे समुप्पज्जइ। __ [१८२६] मनुष्यों की आहार सम्बन्धी वक्तव्यता भी इसी प्रकार है। विशेष यह है कि उनकी आभोगनिर्वर्तितआहार की अभिलाषा जघन्य अन्तर्मुहूर्त में होती है और उत्कृष्ट अष्टमभक्त (तीन दिन काल व्यतीत) होने पर उत्पन्न होती है। १ व २ प्रज्ञापना (प्रमेयबोधिनी टीका), भा. ५, पृ. ५८४ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६] [अट्ठाईसवाँ आहारपद] १८२७. वाणमंतरा जहा णागकुमारा (सु. १८०३ [२])। [१८२७] वाणव्यन्तर देवों का आहार सम्बन्धी कथन नागकुमारों के समान जानना चाहिए। १८२८. एवं जोइसिया वि। णवरं आभोगणिव्वत्तिए जहण्णेणं दिवस-पुहत्तस्स, उक्कोसेण वि दिवसपुहत्तस्स आहारट्टे समुप्पज्जइ। [१८२८] इसी प्रकार ज्योतिष्कदेवों का भी कथन है। किन्तु उन्हें आभोगनिर्वर्तित आहार की अभिलाषा जघन्य दिवस-पृथक्त्व में और उत्कृष्ट भी दिवस-पृथक्त्व में उत्पन्न होती है। विवेचन - तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय आदि की आहारसम्बन्धी विशेषता - उनको आभोगनिर्वर्तित आहार की इच्छा जघन्य अन्तर्मुहूर्त में और उत्कृष्ट षष्ठभक्त में (दो दिन के बाद) होती है। यह कथन देवकुरु - उत्तरकुरु क्षेत्रों के तिर्यञ्च पंचेन्द्रियों की अपेक्षा से समझना चाहिए। मनुष्यों को आभोगनिर्वर्तित आहार की अभिलाषा जघन्य अन्तर्मुहूर्त से और उत्कृष्ट अष्टमभक्त से (तीन दिन के बाद) होती है। यह कथन भी देवकुरु-उत्तरकुरु क्षेत्रों के मनुष्यों की अपेक्षा से समझना चाहिए। इन दोनों द्वारा गृहीत आहार्य पुद्गल भी पंचेन्द्रियों की विमात्रा के रूप में पुनः पुनः परिणत होते हैं। वाणव्यन्तर और ज्योतिष देवों का अन्य सब कथन तो नागकुमार के समान है, लेकिन आभोगनिर्वर्तित आहाराभिलाषा जघन्य और उत्कृष्ट दिवसपृथक्त्व (दो दिन से लेकर नौ दिनों) से होती है। इन दोनों प्रकार के देव देवों की आयु पल्योपम के आठवें भाग की होने से स्वभाव से ही दिवस-पृथक्त्व व्यतीत होने पर इन्हें आहार की अभिलाषा होती है। वैमानिक देवों में आहारादि सात द्वारों की प्ररूपणा (२-८) १८२९. एवं वेमाणिया वि। णवरं आभोगणिव्वत्तिए जहण्णेणं दिवस-पुहत्तस्स, उक्कोसेणं तेत्तीसाए वाससहस्साणं आहारट्टे समुप्पजइ। सेसं जहा असुरकुमाराणं (सु. १८०६ [१]) जाव ते तेसिं भुजो २ परिणमंति। [१८२९] इसी प्रकार वैमानिक देवों की भी आहारसम्बन्धी वक्तव्यता जाननी चाहिए। विशेषता यह है कि इनको आभोगनिर्वर्तित आहार की अभिलाषा जघन्य दिवस-पृथक्त्व में और उत्कृष्ट तैतीस हजार वर्षों में उत्पन्न होती है। शेष वक्तव्यता (सु. १८०६-१ में उक्त) असुरकुमारों के समान उनके उन पुद्गलों का बार-बार परिणमन होता है, यहाँ तक कहनी चाहिए। १८३०. सोहम्मे आभोगणिव्वत्तिए जहण्णेणं दिवसपुहत्तस्स, उक्कोसेणं दोण्हं बाससहस्साणं आहारट्ठे समुप्पज्जइ। [१८३०] सौधर्मकल्प में आभोगनिवर्तित आहार की इच्छा जघन्य दिवस-पृथक्त्व से और उत्कृष्ट दो हजार वर्ष से समुत्पन्न होती है। १८३१. ईसाणाणं पुच्छा। १. प्रज्ञापना, प्रमेयबोधिनी टीका, भा. ५. पृ. ५८९ से ५९१ तक Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र] [११७ गोयमा! जहण्णेणं दिवसपुहत्तस्स सातिरेगस्स, उक्कोसेणं सातिरेगाणं दोण्हं वाससहस्साणं। [१८३१ प्र.] ईशानकल्प-सम्बन्धी पूर्ववत् प्रश्न है। [१८३१ उ.] गौतम! जघन्य कुछ अधिक दिवस पृथक्त्व में और उत्कृष्ट कुछ अधिक दो हजार वर्ष में (उनको आहाराभिलाषा उत्पन्न होती है।) १८३२. सणंकुमाराणं पुच्छा। गोयमा! जहण्णेणं दोण्हं वाससहस्साणं, उक्कोसेणं सत्तण्हं वाससहस्साणं। [१८३२ प्र.] सनत्कुमार-सम्बन्धी पूर्ववत् प्रश्न है। [१८३२ उ.] गौतम जघन्य दो हजार वर्ष में और उत्कृष्ट सात हजार वर्ष में आहारेच्छा उत्पन्न होती है। १८३३. माहिदे पुच्छा। गोयमा! जहण्णेणं दोण्हं वाससहस्साणं सातिरेगाणं, उक्कोसेणं सत्तण्हं वाससहस्साणं सातिरेगाणं। [१८३३ प्र.] माहेन्द्रकल्प के विषय में पूवर्वत् प्रश्न है। [१८३३ उ.] गौतम! जघन्य कुछ अधिक दो हजार वर्ष में और उत्कृष्ट कुछ अधिक सात हजार वर्ष में आहाराभिलाषा उत्पन्न होती है। १८३४. बंभलोए णं पुच्छा। गोयमा! जहण्णेणं सत्तण्हं वाससहस्साणं, उक्कोसेणं दसण्हं वाससहस्साणं। [१८३४ प्र.] गौतम! ब्रह्मलोक-सम्बन्धी प्रश्न है। [१८३४ उ.] गौतम! (वहाँ) जघन्य सात हजार वर्ष में और उत्कृष्ट दस हजार वर्ष में आहाराभिलाषा उत्पन्न होती है। १८३५. लंतए णं पुच्छा। गोयमा! जहण्णेणं दसण्हं वाससहस्साणं, उक्कोसेणं चोद्दसण्हं वाससहस्साणं आहारट्टे समुप्पजइ। [१८३५ प्र.] लान्तककल्प-सम्बन्धी पूर्ववत् पृच्छा है। [१८३५ उ.] गौतम! जघन्य दस हजार वर्ष में और उत्कृष्ट चौदह हजार वर्ष में उन्हें आहाराभिलाषा उत्पन्न होती हैं। १८३६. महासुक्के णं पुच्छा। गोयमा! जहण्णेणं चोद्दसण्हं वाससहस्साणं, उक्कोसेणं सत्तरसण्हं वाससहस्साणं। [१८३६ प्र.] महाशुक्रकल्प के सम्बन्ध में प्रश्न है। [१८३६ उ.] गौतम! वहाँ जघन्य चोदह हजार वर्ष में और उत्कृष्ट सत्तरह हजार वर्ष में आहाराभिलाषा उत्पन्न Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८] [अट्ठाईसा आहारपद] होती है। १८३७. सहस्सारे णं पुच्छा। गोयमा! जहण्णेणं सत्तरसण्हं वाससहस्साणं, उक्कोसेणं अट्ठारसण्हं वाससहस्साणं। [१८३७ प्र.] सहस्रारकल्प के विषय में पृच्छा है। [१८३७ उ.] गौतम! जघन्य सत्तरह हजार वर्ष में और उत्कृष्ट अठारह हजार वर्ष में उनको आहारेच्छा उत्पन्न होती है। १८३८. आणए णं पुच्छा। गोयमा! जहण्णेणं अट्ठारसण्हं वाससहस्साणं, उक्कोसेणं एगूणवीसाए वाससहस्साणं। [१८३८ प्र.] आनतकल्प के विषय में आहारसम्बन्धी प्रश्न है। [१८३८ उ.] गौतम! जघन्य अठारह हजार वर्ष में और उत्कृष्ट उन्नीस हजार वर्ष में आहारेच्छा पैदा होती है। १८३९. पाणए णं पुच्छा। गोयमा! जहण्णेणं एगूणवीसाए वाससहस्साणं, उक्कोसेणं वीसाए वाससहस्साणं। [१८३९ प्र.] प्राणतकल्प के देवों की आहारविषयक पृच्छा है। [१८३९ उ.] गौतम! वहाँ जघन्य उन्नीस हजार वर्ष में और उत्कृष्ट बीस हजार वर्ष में आहाराभिलाषा उत्पन्न होती है। १८४०. आरणे णं पुच्छा। गोयमा! जहण्णेणं वीसाए वाससहस्साणं, उक्कोसेणं एकवीसाए वाससहस्साणं। [१८४० प्र.] आरणकल्प में आहारेच्छा सम्बन्धी पूर्ववत् प्रश्न है। [१८४० उ.] गौतम! जघन्य बीस हजार वर्ष में और उत्कृष्ट इक्कीस हजार वर्ष में आहाराभिलाषा उत्पन्न होती है। १८४१. अच्चुए णं पुच्छा। गोयमा! जहण्णेणं एक्कवीसाए वाससहस्साणं, उक्कोसेणं बावीसाए वाससहस्साणं। [१८४१ प्र.] भगवन्! अच्युतकल्प के देवों को कितने काल में आहार की अभिलाषा उत्पन्न होती है? [१८४१ उ.] गौतम! जघन्य २१ हजार वर्ष और उत्कृष्ट २२ हजार वर्ष मे उनको आहाराभिलाषा उत्पन्न होती है। १८४२. हेट्टिमहेट्ठिमगेवेजगाणं पुच्छा। गोयमा! जहण्णेणं बावीसाए वाससहस्साणं, उक्कोसेणं तेवीसाए वाससहस्साणं।एवं सव्वत्थ सहस्साणि भाणियव्याणि जाव सव्वट्ठ। [१८४२ प्र.] भगवन्! अधस्तन-अधस्तन (सबसे निचले) ग्रैवेयक देवों की आहारसम्बन्धी पृच्छा है। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रज्ञापनासूत्र ] [११९ [१८४२ उ.] गौतम ! जघन्य २२ हजार वर्ष में और उत्कृष्ट २३ हजार वर्ष में देवों को आहाराभिलाषा उत्पन्न होती है। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्ध विमान तक (एक-एक) हजार वर्ष अधिक कहना चाहिए । १८४३. हेट्टिममज्झिमाणं पुच्छा । गोयमा ! जहण्णेणं तेवीसाए, उक्कोसेणं चउवीसाए । [१८४३ प्र.] भगवन्! अधस्तन - मध्यम ग्रैवेयकों के विषय में पृच्छा है। [१८४३ उ.] गौतम! जघन्य २३ हजार वर्ष और उत्कृष्ट २४ हजार वर्ष में उन्हें आहारेच्छा उत्पन्न होती है । १८४४. हेट्टिमउवरिमाणं पुच्छा । गोयमा! जहण्णेणं चउवीसाए, उक्कोसेणं पणुवीसाए । [ १८४४ प्र.] भगवन्! अधस्तन- उपरिम ग्रैवेयकों के विषय में आहाराभिलाषा की पृच्छा है। [१८४४ उ.] गौतम! जघन्य चौवीस हजार वर्ष और उत्कृष्ट २५ हजार वर्ष में आहारेच्छा उत्पन्न होती है । १८४५. मज्झिमहेट्टिमाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं पणुवीसाए, उक्कोसेणं छव्वीसाए । [१८४५ प्र.] भगवन्! मध्यम-अधस्तन ग्रैवेयकों के विषय में प्रश्न है। [ १८४५ उ.] गौतम ! जघन्य २५ हजार वर्ष में और उत्कृष्ट २६ हजार वर्ष में आहार की अभिलाषा उत्पन्न होती है । १८४६. मज्झिममज्झिमाणं पुच्छा । गोयमा! जहण्णेणं छव्वीसाए, उक्कोसेणं सत्तावीसाए । [१८४६ प्र.] भगवन्! मध्यम- मध्यम ग्रैवेयकों को आहारभिलाषा कितने काल में उत्पन्न होती है ? [१८४६ उ.] गौतम! जघन्य २६ हजार वर्ष में और उत्कृष्ट २७ हजार वर्ष में आहारेच्छा उत्पन्न होती है । १८४७. मज्झिमउवरिमाणं पुच्छा । गोयमा! जहण्णेणं सत्तावीसाए उक्कोसेण अट्ठावीसाए । [१८४७ प्र.] भगवन्! मध्यम-उपरिम ग्रैवेयकों की आहारेच्छा - सम्बन्धी पृच्छा है। [ १८४७ उ.] गौतम ! जघन्य २७ हजार वर्ष में और उत्कृष्ट २८ हजार वर्ष में उन्हें आहाराभिलाषा उत्पन्न होती है । १८४८. उवरिमहेट्टिमाणं पुच्छा । गोयमा! जहण्णेणं अट्ठावीसाए, उक्कोसेणं एगूणतीसाए । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२०] [ अट्ठाईसवाँ आहारपद ] [१८४८ प्र.] भगवन् ! उपरिम- अधस्तन ग्रैवेयकों की आहारेच्छा - सम्बन्धी पृच्छा है। [१८४८ उ.] गौतम! जघन्य २८ हजार वर्ष में और उत्कृष्ट २९ हजार वर्ष में उन्हें आहार करने की इच्छा उत्पन्न होती है। १८४९. उवरिममज्झिमाणं पुच्छा । गोयमा! जहण्णेणं एक्कूणतीसाए, उक्कोसेणं तीसाए । [१८४९ प्र.] भगवन्! उपरिम- मध्यम ग्रैवेयकों को आहारेच्छा कितने काल में उत्पन्न होती है ? [१८४९ उ.] गौतम! जघन्य २९ हजार वर्षों में और उत्कृष्ट ३० हजार वर्षो में उन्हें आहारेच्छा उत्पन्न होती है। १८५०. उवरिमउवरिमगेवेज्जगाणं पुच्छा । गोयमा! जहण्णेणं तीसाए, उक्कोसेणं एक्कतीसाए । [१८५० प्र.] भगवन् ! उपरिम-उपरिम ग्रैवेयकों को कितने काल में आहारेच्छा उत्पन्न होती है ? [१८५० उ. ] गौतम! जघन्य ३० हजार वर्ष में और उत्कृष्ट ३१ हजार वर्ष में उन्हें आहार करने की इच्छा उत्पन्न होती है। १८५१. विजय - वेजयंत- जयंत अपराजियाणं पुच्छा । गोयमा! जहणेणं एक्कतीसाए, उक्कोसेणं तेत्तीसाए । [१८५१ प्र.] भगवन्! विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित देवों का कितने काल में आहार की अभिलाषा उत्पन्न होती है ? [१८५१ उ.] गौतम ! उन्हें जघन्य ३१ हजार वर्ष में और उत्कृष्ट ३३ हजार वर्ष में आहारेच्छा उत्पन्न होती है। १८५२. सव्वट्टगदेवाणं पुच्छा । गोयमा! अजहण्णमणुक्कोसेणं तेत्तीसाए वाससहस्साणं आहारट्ठे समुप्पज्जति । [१८५२ प्र.] भगवन्! सर्वार्थक (सर्वार्थसिद्ध) देवों को कितने काल में आहार की अभिलाषा उत्पन्न होती है ? [१८५२ उ.] गौतम! उन्हें अजघन्य - अनुत्कृष्ट (जघन्य उत्कृष्ट के भेद से रहित) तेतीस हजार वर्ष में आहार की इच्छा उत्पन्न होती है। 4 — विवेचन - वैमानिक देवों की आहार सम्बन्धी वक्तव्यता • वैमानिक देवों की वक्तव्यता ज्योतिष्क देवों के समान समझनी चाहिए, किन्तु इसमें विशेषता यह है कि वैमनिक देवों को आभोगनिर्वर्तित आहार की इच्छा जघन्य दिवस-पृथक्त्व में होती है, और उत्कृष्ट ३३ हजार वर्षों में । ३३ हजार वर्षों में आहार की इच्छा का जो विधान किया गया है, वह अनुत्तरोपपातिक देवों की अपेक्षा से समझना चाहिए। शेष कथन जैसा असुरकुमारों के विषय में किया गया है, वैसा ही वैमानिकों के विषय में जान लेना चाहिए। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र] [१२१ शुभानुभवरूप बाहुल्य कारण की अपेक्षा से वर्ण से – पीत और श्वेत, गन्ध से सुरभिगन्ध वाले, रस से - अम्ल और मधुर, स्पर्श से मृदु, लघु स्निग्ध और रूक्ष पुद्गलों के पुरातन वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श-गुणों को रूपान्तरित करके अपने शरीरक्षेत्र में अवगाढ़ पुद्गलों का समस्त आत्मप्रदेशों से वैमानिक आहार करते है, उन आहार किये हुए पुद्गलों को वे श्रोत्रेन्द्रियादि पांच इन्द्रियों के रूप में, इष्ट, कान्त, प्रिय, शुभ, मनोज्ञ, मनाम, इष्ट और विशेष अभीष्ट रूप में, हल्के रूप में, भारी रूप में नहीं, सुखदरूप में, दुःखरूप में नहीं, परिणत करते हैं। विशेष स्पष्टीकरण - जिन वैमानिक देवों की जितने सागरोपम की स्थिति है, उन्हें, उतने ही हजार वर्ष में आहार की अभिलाषा उत्पन्न होती है। इस नियम के अनुसार सौधर्म, ईशान आदि देवलोकों में आहारेच्छा की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का परिमाण समझ लेना चाहिए। इसे स्पष्टरूप से समझने के लिए नीचे एक तालिका दी जा रही है, जिससे आसानी से वैमानिक देवों की आहारेच्छा के काल को समझा जा सके। क्रम वैमानिकदेव का नाम जघन्य आहारेच्छाकाल उत्कृष्ट आहारेच्छाकाल सौधर्मकल्प के देव दिवस-पृथक्त्व दो हजार वर्ष ईशानकल्प के देव कुछ अधिक दिवस-पृथक्त्व कुछ अधिक दो हजार वर्ष सनत्कुमारकल्प के देव दो हजार वर्ष सात हजार वर्ष माहेन्द्रकल्प के देव कुछ अधिक दो हजार वर्ष कुछ अधिक ७ हजार वर्ष ब्रह्मलोक के देव सात हजार वर्ष दस हजार वर्ष लान्तककल्प के देव दस हजार वर्ष चौदह हजार वर्ष महाशुक्रकल्प के देव चौदह हजार वर्ष सत्तरह हजार वर्ष सहस्रारकल्प के देव सत्तरह हजार वर्ष अठारह हजार वर्ष आनतकल्प के देव अठारह हजार वर्ष उन्नीस हजार वर्ष, प्राणतकल्प के देव उन्नीस हजार वर्ष बीस हजार वर्ष आरणकल्प के देव बीस हजार वर्ष इक्कीस हजार वर्ष अच्युतकल्प के देव इक्कीस हजार वर्ष बाईस हजार वर्ष अधस्तन-अधस्तन ग्रैवेयक देव बाईस हजार वर्ष तेईस हजार वर्ष अधस्तन-मध्यम ग्रैवेयक देव तेईस हजार वर्ष चौवीस हजार वर्ष अधस्तन-उपरिम ग्रैवेयक देव चौवीस हजार वर्ष पच्चीस हजार वर्ष मध्यम-अधस्तन ग्रैवेयक देव पच्चीस हजार वर्ष छव्वीस हजार वर्ष मध्यम-मध्यम Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२] [अट्ठाईसवाँ आहारपद] ग्रैवेयक देव छव्वीस हजार वर्ष सत्ताईस हजार वर्ष मध्यम-उपरिम ग्रैवेयक देव सत्ताईस हजार वर्ष अट्ठाईस हजार वर्ष उपरिम-अधस्तन ग्रैवेयक देव अट्ठाईस हजार वर्ष उनतीस हजार वर्ष उपरिम-मध्यम ग्रैवेयक देव उनतीस हजार वर्ष तीस हजार वर्ष उपरिम-उपरिम ग्रैवेयक देव तीस हजार वर्ष इकतीस हजार वर्ष २२. विजय-वैजयन्त-जयन्त अपराजित देव इकतीस हजार वर्ष तेतीस हजार वर्ष सर्वार्थसिद्ध देव अजघन्य अनुत्कृष्ट तेतीस हजार वर्ष नौवाँ : एकेन्द्रियशरीरादिद्वार १८५३. णेरइया णं भंते! किं एगिदियसरीराइं आहारेंति जाव पंचेंदियसरीराइं आहरेंति ? गोयमा! पुव्वभावपण्णवणं पडुच्च एगिदियसरीराइं पि आहारेंति जाव पंचेंदियसरीराइं पि, पडुप्पण्णभावपण्णवणं पडुच्च णियमा पंचेंदियसरीराइं आहारैति। [१८५३ प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिक एकेन्द्रियशरीरों का यावत् पंचेन्द्रियशरीरों का आहार करते हैं? . [१८५३ उ.] गौतम! पूर्वभावप्रज्ञापना की अपेक्षा से वे एकेन्द्रियशरीरों का भी आहार करते हैं, यावत् पंचेन्द्रियशरीरों का भी तथा वर्तमानभावप्रज्ञापना की अपेक्षा से नियम से वे पंचेन्द्रियशरीरों का आहार करते हैं। १८५४. एवं जाव थणियकुमारा। [१८५४] (असुरकुमारों से लेकर) स्तनितकुमारों तक इसी प्रकार (समझना चाहिए।) १८५५. पुढविक्काइयाणं पुच्छा। गोयमा! पुव्वभावपण्णवणं पडुच्च एवं चेव, पडुप्पण्णभावपण्णवणं पडुच्च णियमा एगिंदियसरीराइं आहारेंति। [१८५५ प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिकों के विषय में पूर्ववत् प्रश्न है। __ [१८५५ उ.] गौतम! पूर्वभावप्रज्ञापना की अपेक्षा से नारकों के समान वे एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक का आहार करते हैं। वर्तमानभावप्रज्ञापना की अपेक्षा से नियम से वे एकेन्द्रिय शरीरों का आहार करते हैं। १. (क) प्रज्ञापना, मलयवृत्ति, अ.रा. कोष ५०६ (ख) प्रज्ञापना, प्रमेयबोधिनी टीका भा. ५, पृ. ५९२-६०२ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रज्ञापनासूत्र ] [१२३ १८५६. बेइंदिया पुव्वभावपण्णवणं पडुच्च एवं चेव, पडुप्पण्णभावपण्णवणं पडुच्च णियमा बेइंदियसरीराइं आहारेंति । [१८५६] द्वीन्द्रिय जीवों के सम्बन्ध में पूर्वभावप्रज्ञापना की अपेक्षा से इसी प्रकार (पूर्ववत् कहना चाहिए।) वर्तमानभावप्रज्ञापना की अपेक्षा से वे नियम से द्वीन्द्रियशरीरों का आहार करते हैं । १८५७. एवं जाव चउरिंदिया ताव पुव्वभावपण्णवणं पडुच्च एवं, पडुप्पण्णभावपण्णवणं पडुच्च णियमा जस्स जति इंदियाई तइंदियसरीराई ते आहारेंति । [१८५७] इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रियपर्यन्त पूर्वभावप्रज्ञापना की अपेक्षा से पूर्ववत् (कथन जानना चाहिए।) वर्तमानभावप्रज्ञापना की अपेक्षा से जिसके जितनी इन्द्रियां हैं, उतनी ही इन्द्रियों वाले शरीर का आहार करते हैं। १८५८. सेसा जहा णेरड्या जाव वेमाणिया । [१८५८] वैमानिकों तक शेष जीवों का कथन नैरयिकों के समान जानना चाहिए। विवेचन कौन-सा जीव किनके शरीरों का आहार करता है ? प्रस्तुत प्रकरण में नैरयिक आदि चौवीस दण्डकवर्ती जीव जिन-जिन जीवों के शरीर का आहार करते हैं, उसकी प्ररूपणा की गई है, दो अपेक्षाओं से - पूर्वभावप्रज्ञापना (अर्थात् अतीतकालीन पर्यायों की प्ररूपणा) की अपेक्षा से और प्रत्युत्पन्न • वर्तमानकालिक भाव की प्ररूपणा की अपेक्षा से । - प्रश्न के समाधान का आशय प्रश्न तो मूल पाठ से स्पष्ट है, किन्तु उसके समाधान में जो कहा गया कि नारकादि जीव पूर्वभावप्रज्ञापना की अपेक्षा से एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के शरीरों का आहार करते हैं और वर्तमानभावप्रज्ञापना की अपेक्षा नैरयिकादि पंचेन्द्रिय नियम से पंचेन्द्रियशरीरों का, चतुरिन्द्रिय चतुरिन्द्रियशरीरों का, त्रीन्द्रिय त्रीन्द्रियशरीरों का, द्वीन्द्रिय द्वीन्द्रियशरीरों का और पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रिय एकेन्द्रियशरीरों का ही आहार करते हैं । अर्थात् - जो प्राणी जितनी इन्द्रियों वाला है, वह उतनी ही इन्द्रियों वाले शरीरों का आहार करते हैं। इस समाधान का आशय वृत्तिकार लिखते हैं कि आहार्यमाण पुद्गलों के अतीतभाव (पर्याय) की दृष्टि से विचार किया जाए तो निष्कर्ष यह निकलता है कि उनमे से कभी कोई एकेन्द्रियशरीर के रूप में परिणत थे, कोई द्वीन्द्रियशरीर के रूप में परिणत थे, कोई त्रीन्द्रियशरीर या चतुरिन्द्रियशरीर के रूप में और कोई पंचेन्द्रियशरीर के रूप में परिणत थे। उस पूर्वभाव का यदि वर्तमान में आरोप करके विवक्षा की जाए तो नारकजीव एकेन्द्रियशरीरों का तथा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय शरीरों का भी आहार करते हैं । किन्तु जब ऋजुसूत्रनय की दृष्टि से वर्तमान-भव की विवक्षा की जाती है, तब ऋजुसूत्रनय क्रियमाण को कृत, आहार्यमाण को आहत और परिणम्यमान पुद्गलों को परिणत स्वीकार करता है, जो स्वशरीर के रूप में परिणत हो रहे हैं। इस प्रकार ऋजुसूत्रनय के मत से स्वशरीर का ही आहार किया जाता है। नारकों, देवों, मनुष्यों और पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों का स्वशरीर पंचेन्द्रिय है। शेष जीवों (एकेन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय) के विषय में भी इसी प्रकार स्थिति के अनुसार कहना चाहिए। १. (क) पण्णवणासुत्त भा. १ (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. ३९९ (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका, भा. ५, पृ. ६०५-६०६ - Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४] [अट्ठाईसवाँ आहारपद] दसवाँ : लोमाहारद्वार १८५९. णेरइया णं भंते! किं लोमाहारा पक्खेवाहारा ? गोयमा! लोमाहारा, णो पक्खेवाहारा। [१८५९ प्र.] भगवन् ! नारक जीव लोमाहारी हैं या प्रक्षेपाहारी हैं ? [१८५९ उ.] गौतम! वे लोमाहारी हैं, प्रक्षेपाहारी नहीं हैं। १८६०. एवं एगिंदिया सव्वे देवा या भाणियव्वा जाव वेमाणिया। [१८६०] इसी प्रकार एकेन्द्रिय जीवों, वैमानिक तक सभी देवों के विषय में कहना चाहिए। १८६१. बेइंदिया जाव मणूसा लोमाहारा वि पक्खेवाहारा वि। [१८६१] द्वीन्द्रियों से लेकर मनुष्यों तक लोमाहारी भी हैं, प्रक्षेपाहारी भी हैं। विवेचन - चौबीस दण्डकों में लोमाहारी-प्रक्षेपाहारी-प्ररूपणा- लोमाहारी का अर्थ है-रोमों (रोओं) द्वारा आहार ग्रहण करने वाले तथा प्रक्षेपाहारी का अर्थ है – कवलाहारी-ग्रास (कौर) हाथ में लेकर मुख में डालने वाले जीव। चौबीस दण्डकों में नारक, भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क, वैमानिक और एकेन्द्रिय जीव लोमाहारी हैं, प्रक्षेपाहारी नहीं, क्योंकि नारक और चारों प्रकार के देव वैक्रियशरीरधारी होते हैं, इसलिए तथाविध स्वभाव से ही वे लोमाहारी होते हैं। उनमें कवलाहार का अभाव है। पृथ्वीकायिकादि पांच प्रकार के एकेन्द्रिय जीवों के मुख नहीं होता, अतएव उनमें प्रक्षेपाहार का अभाव है। किन्तु द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च एवं मनुष्य लोमाहारी भी होते हैं और कवलाहारी (प्रक्षेपाहारी) भी। नारकों का लोमाहार भी पर्याप्त नारकों का ही जानना चाहिए, अपर्याप्तकों का नहीं। ग्यारहवाँ : मनोभक्षीद्वार १८६२. णेरड्या णं भंते! किं ओयाहारा मणभक्खी? गोयमा! ओयाहारा, णो मणभक्खी। [१८६२ प्र.] भगवन्! नैरयिक जीव ओज-आहारी होते हैं, अथवा मनीभक्षी ? [१८६२ उ.] गौतम! वे ओज-आहारी होते हैं, मनोभक्षी नहीं। १८६३. एवं सव्वे ओरालियसरीरा वि। [१८६३.] इसी प्रकार सभी औदारिकशरीरधारी जीव भी ओज-आहार वाले होते हैं। १८६४. देवा सव्वे जाव वेमाणिया ओयाहारा वि मणभक्खी वि। तत्थ णं जे ते मणभक्खी देवा तेसि १. वही भा. ५ पृ. ६०६ से ६०७ तक २. प्रज्ञापना प्रमेयबोधिनी टीका भा. ५, पृ.६०९-६१० Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रज्ञापनासूत्र ] [१२५ णं इच्छामणे समुप्पज्जइ इच्छामो णं मणभक्खं करित्तए तए णं तेहिं देवेहिं एवं मणसीकते समाणे खिप्पामेव जे पोग्गला इट्ठा कंता जाव मणामा ते तेसिं मणभक्खत्ताए परिणमंति, से जहाणामए सीता पोग्गला सीयं पप्प सीयं चेव अइवइत्ताणं चिट्ठति उसिणा वा पोग्गला उसिणं पप्प उसिणं चेव अतिवइत्ताणं चिट्ठेति । एवामेव तेहिं देवेहिं मणभक्खणे कते समाणे गोयमा ! से इच्छामणे खिप्पामेव अवेति । [१८६४] असुरकुमारों से वैमानिकों तक सभी ( प्रकार के) देव ओज- आहारी भी होते हैं और मनोभक्षी भी । देवों में जो मनोभक्षी देव होते हैं, उनको इच्छामन (अर्थात् मन में आहार करने की इच्छा) उत्पन्न होती है। जैसे कि वे चाहते हैं कि हम मनो- (मन में चिन्तित वस्तु का) भक्षण करें! तत्पश्चात् उन देवों के द्वारा मन में इस प्रकार की इच्छा किये जाने पर शीघ्र ही जो पुद्गल इष्ट, कान्त (कमनीय), यावत् मनोज्ञ, मनाम होते हैं, वे उनके मनोभक्ष्यरूप में परिणत हो जाते है। (यथा • मन से अमुक वस्तु के भक्षण की इच्छा के) तदनन्तर जिस किसी नाम वाले शीत (ठंडे) पुद्गल, शीतस्वभाव को प्राप्त होकर रहते हैं अथवा उष्ण पुद्गल, उष्णस्वभाव को पाकर रहते हैं। गौतम ! इसी प्रकार उन देवों द्वारा मनोभक्षण किये जाने पर, उनका इच्छाप्रधान मन शीघ्र ही सन्तुष्ट तृप्त हो जाता है। ॥ पण्णवणाए भगवतीए आहारपदे पढमो उद्देसओ समत्तो ॥ - विवेचन ओज-आहारी का अर्थ उत्पत्ति प्रदेश में आहार के योग्य पुद्गलों का जो वह ओज कहलाता है। मन में उत्पन्न इच्छा से आहार करने वाले मनोभक्षी कहलाते हैं। समूह - होता है, निष्कर्ष – जितने भी औदारिकशरीरी जीव हैं, वे सब तथा नारक ओज-आहारी होते हैं, तथा वैक्रियशरीरी जीवों में चारों जाति के देव मनोभक्षी भी होते तथा ओज-आहारी भी होते हैं। मनोभक्षी देवों का स्वरूप इस प्रकार है कि वे विशेष प्रकार की शक्ति से मन में शरीर को पुष्टिकर, सुखद, अनुकूल एवं रुचिकर जिन आहार्य - पुद्गलों के आहार की इच्छा करते हैं, तदनुरूप आहार प्राप्त हो जाता है और उसकी प्राप्ति के पश्चात् वे परम संतोष एवं तृप्ति का अनुभव करते हैं। नारकों को ऐसा आहार प्राप्त नहीं होता, क्योंकि प्रतिकूल अशुभकर्मों का उदय होने से उनमें वैसी शक्ति नहीं होती। सूत्रकृतांगनिर्युक्ति गाथाओं का अर्थ ओजाहार शरीर के द्वारा होता है, रोमाहार त्वचा (चमड़ी) द्वारा होता है और प्रक्षेपाहार कवल (कौर) करके किया जाने वाला होता है ॥ १ ॥ सभी अपर्याप्त जीव ओज-आहार करते हैं, पर्याप्त जीवों के तो रोमाहार और प्रक्षेपाहार (कवलाहार) की भजना होती है ॥ २ ॥ एकेन्द्रिय जीवों, नारकों और देवों के प्रक्षेपाहार (कवलाहार) नहीं होता, शेष सब संसारी जीवों के कवलाहार होता है ॥ ३ ॥ एकेन्द्रिय और नारकजीव तथा असुरकुमार आदि का गण रोमाहारी होता है, शेष जीवों का आहार रोमाहार एवं Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६] [अट्ठाईसवाँ आहारपद] प्रक्षेपाहार होता है ॥ ४ ॥ सभी प्रकार के देव ओज-आहारी और मनोभक्षी होते हैं। शेष जीव रोमाहारी और प्रक्षेपाहारी होते हैं ॥५॥ ॥ अट्ठाईसवाँ आहारपद : प्रथम उद्देशक सम्पूर्ण ॥ १. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ६१२ २. वही, भा. ५, पृ. ६१३ ३. सरीरेणोयाहारो तयाय फासेण लोम-आहारो। पक्खेवाहारो कावलिओ होइ नायव्वो ॥ १७१ ॥ ओयाहारा जीवा सव्वे अपज्जत्तगा मुणेयव्या । पज्जत्तगा य लोमे पक्खेवे होंति भइयव्या ॥ १७२ ॥ एगिदियदेवाणं नेरइयाणं च नत्थि पक्खेवो। सेसाणं जीवाणं संसारत्थाण पक्खेवो ॥ १७३ ॥ लोमाहारा एगिदिया उ नेरइय सुरगणा चेव। सेसाणं आहारो लोमे पक्खेवओ चेव ॥ ४ ॥ ओयाहारा मणभक्खिणो य सव्वे वि सुरगणा होति । सेसा हवंति जीवा लोमे पक्खेवओ चेव ॥५॥ - सूत्रकृतांग सु. २, अ. ३ नियुक्ति Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीओ उसओ द्वितीय उद्देशक द्वितीय उद्देशक के तेरह द्वारों की संग्रहणी गाथा १८६५. आहार १ भविय २ सण्णी ३ लेस्सा ४ दिट्ठी य ५ संजय ६ कसाए ७ । ८ जोगवओगे ९-१० वेदे य ११ सरीर १२ पजत्ती १३ ॥ २१९ ॥ [१८६५ संग्रहणी - गाथार्थ ] द्वितीय उद्देशक में निम्नोक्त तेरह द्वार हैं - (१) आहारद्वार, (२) भव्यद्वार, (३) संज्ञीद्वार, (४) लेश्याद्वार, (५) दृष्टिद्वार, (६) संयतद्वार, (७) कषायद्वार, (८) ज्ञानद्वार, (९-१० ) योगद्वार, उपयोगद्वार, (११) वेदद्वार, (१२) शरीरद्वार और (१४) पर्याप्तिद्वार । विवेचन – द्वितीय उद्देशक में इन तेरह द्वारों के आधार पर आहार का प्ररूपण किया जाएगा। यहाँ भव्य आदि शब्दों के ग्रहण से उनके विरोधी अभव्य आदि का भी ग्रहण जाता है। प्रथम : आहारद्वार १८६६. [ १ ] जीवे णं भंते! किं आहारए अणाहारए ? गोयमा ! सिय आहारए सिय अणाहारए । [१८६६ प्र.] भगवन् ! जीव आहारक है या अनाहारक है ? [१८६६ उ.] गौतम! वह कथंचित् आहारक है, कथंचित् अनाहारक है। [ २ ] एवं नेरइए जाव असुरकुमारे जाव वेमाणिए । [१८६६ - २] नैरयिक (से लेकर) यावत् असुरकुमार और वैमानिक तक इसी प्रकार जानना चाहिए । १८६७. सिद्धे णं भंते! कि आहारए अणाहारए ? गोयमा! णो आहारए, अणाहारए । [१८६७ प्र.] भगवन्! एक सिद्ध (जीव) आहारक होता है. या अनाहारक होता हैं ? [१८६७ उ.] गौतम! एक सिद्ध (जीव) आहारक नहीं होता, अनाहारक होता है। १८६८. जीवा णं भंते! किं आहारया अणाहाया ? गोयमा ! आहारगा वि अणाहारगा वि । [१८६८ प्र.] भगवन्! (बहुत) जीव आहारक होते हैं, या अनाहारक होते हैं ? [१८६८ उ. ] गौतम! वे आहारक भी होते हैं, अनाहारक भी होते हैं। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८] [अट्ठाईसवाँ आहारपद] १८६९. [१] णेरइयाणं पुच्छा। गोयमा! सव्वे वि ताव होज्जा आहारगा १ अहवा आहारगा य अणाहारगे य २ अहवा आहरगा य अणाहारगा य३। [१८६९-१. प्र.] भगवन् ! (बहुत) नैरयिक आहारक होते हैं या अनाहारक होते हैं ? [१८६९-१ उ.] गौतम! (१) वे सभी आहारक होते हैं, (२) अथवा बहुत आहारक और कोई एक अनाहारक होता है, (३) या बहुत आहारक और बहुत अनाहारक होते हैं। [२] एवं जाव वेमाणिया। णवरं एगिदिया जहा जीवा। [१८७०] इसी तरह वैमानिक-पर्यन्त जानना चाहिये। विशेष यह है कि एकेन्द्रिय जीवों का कथन बहुत जीवों के समान समण्ना चाहिए। १८७०. सिद्धाणं पुच्छा। गोयमा णो आहारगा, अणाहारगा। दारं १। [१८७० प्र.] (बहुत) सिद्धों के विषय में पूर्ववत् प्रश्न है। [१८७० उ.] गौतम! सिद्ध आहारक नहीं होते, वे अनाहारक ही होते हैं। [प्रथम द्वार]. विवेचन – जीव स्यात् आहारक स्यात् अनाहारक : कैसे? – विग्रहगति, केवलि-समुद्घात, शैलेशी अवस्था और सिद्धावस्था की अपेक्षा समुच्चय जीव को अनाहारक और इनके अतिरिक्त अन्य अवस्थाओं की अपेक्षा आहारक समझना चाहिए। कहा भी हैं - 'विग्गहगइमावन्ना केवलिणो समोहया अजोगी य। सिद्धा य अणाहारा सेसा आहार गा जीवा॥' समुच्चय जीव की तरह नैरयिक भी कथंचित् आहारक और कथंचित् अनाहारक होता है। असुरकुमार से लेकर वैमानिक देव तक सभी जीव कथंचित् आहारक और कथंचित् अनाहारक होते हैं। बहुवचन की अपेक्षा – कोई जीव आहारक होते हैं, कोई अनाहारक भी होते हैं । सभी नारक आहारक होते हैं, अथवा बहुत नारक आहारक होते हैं, कोई एक अनाहारक होता है, अथवा बहुत-से आहारक और बहुत-से अनाहारक होते हैं। यही कथन वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिए। एकेन्द्रिय जीवों का कथन समुच्चय जीवों के समान समझना। अर्थात् वे बहुत से अनाहारक और बहुत से आहरक होते हैं। सिद्ध एकवचन और बहुवचन की अपेक्षा सदैव अनाहारक होते हैं। विग्रहगति की अपेक्षा से जीव अनाहारक - विग्रहगति से भिन्न समय में सभी जीव आहारक होते हैं और १. (क) प्रज्ञापना, मलयवृत्ति, अभि. रा. को. भा. २, पृ. ५१० (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा. ५, पृ. ६२८ से ६३० तक २. वही, भा. ५, पृ. ६२८ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र] [१२९ विग्रहगति कहीं, कभी, किसी जीव की होती है। यद्यपि विग्रहगति सर्वकाल में पाई जाती है, किन्तु वह होती है प्रतिनियत जीवों की ही। इस कारण आहारकों को बहुत कहा है। सिद्ध सदैव अनाहारक होते हैं, वे सदैव विद्यमान रहते है तथा अभव्यजीवों से अनन्तगुणे भी हैं तथा सदैव एक-एक निगोद का प्रतिसमय असंख्यातवाँ भाग विग्रहगतिप्राप्त रहता है। इस अपेक्षा से अनाहारकों की संख्या भी बहुत कही है। बहुत-से नारकों के तीन भंग : क्यों और कैसे? - (१) पहला भंग है - नारक कभी -कभी सभी आहारक होते हैं, एक भी नारक अनाहारक नहीं होता। यद्यपि नारकों के उपपात का विरह भी होता हैं, जो केवल बारह मुहूर्त का होता है, उस काल में पूर्वोत्पन्न एवं विग्रहगति को प्राप्त नारक आहारक हो जाते हैं तथा कोई नया नारक उत्पन्नहीं होता। अतएव कोई भी नारक उस समय अनाहारक नही होता । (२) दूसरा भंग - बहुतसे नारक आहारक और कोई एक नारक अनाहारक होता है । इसका कारण यह है कि नारक में कदाचित् एक जीव उत्पन्न होता है, कदाचित् दो, तीन, चार यावत् संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं। अतएव जब एक जीव उत्पद्यमान होता है और वह विग्रहगति-प्राप्त होता है तथा दूसरे सभी पूर्वोत्पन्न नारक आहारक हो चुकते हैं, उस समय यह दूसरा भंग समझना चाहिए। (३) तीसरा भंग है - बहुत-से नारक आहारक और बहुत से अनाहारक। यह भंग उस समय घटित होता है, जब बहुत नारक उत्पन्न हो रहे हों और वे विग्रहगति को प्राप्त हों। इन तीन के सिवाय कोई भी भंग नारकों में सम्भव नही है। एकेन्द्रिय जीवों में केवल एक भंग : क्यों और कैसे? - पृथ्वीकायिकों से लेकर वनस्पतिकायिकों तक में केवल एक ही भंग पाया जाता है। इसका कारण यह है कि पृथ्वीकायिक से लेकर वायुकायिक तक चार स्थावर जीवों में प्रतिसमय असंख्यात जीव उत्पन्न होते हैं, इसलिए बहुत-से आहारक होते हैं तथा वनस्पतिकायिक में प्रतिसमय अनन्तजीव विग्रहगति से उत्पन्न होते हैं। उस कारण उनमें सदैव अनाहारक भी बहुत पाये जाते हैं। इसलिए समस्त एकेन्द्रियों में केवल एक ही भंग पाया जाता है - बहुत-से आहारक और बहुत-से अनाहारक। द्वितीय : भव्यद्वार १८७१. [१] भवसिद्धिए णं भंते! जीवे किं आहारए अणाहारएं ? गोयमा! सिय आहारए सिय अणाहारए। [१८७१-१ प्र.] भगवन्! भवसिद्धिक जीव आहारक होता है या अनाहारक होता है ? [१८७१-१ उ.] गौतम! वह कदाचित् आहारक होता है, कंदाचित् अनाहारक होता है। [२] एवं जाव वेमाणिए। [१८७१-२] इसी प्रकार की वक्तव्यता वैमानिक तक जाननी चाहिए। १. प्रज्ञापना, प्रमेयबोधिनी टीका, भा. ५, पृ. ६२९ २. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि. रा. कोप भा. २, पृ. ५१० ३. अभि. रा. कोप, भा. २, पृ. ५१० Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३०] १८७२. भवसिद्धया णं भंते! जीव कि आहारगा अणाहारगा ? गोयमा ! जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो। [ अट्ठाईसवाँ आहारपद ] [१८७२ प्र.] भगवन् ! (बहुत) भवसिद्धिक जीव आहारक होते हैं या अनाहारक ? [१८७२ उ.] गौतम! समुच्चय जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर (इस विषय में) तीन भंग कहने चाहिए। १८७३. अभवसिद्धए वि एवं चेव । [१८७३] अभवसिद्धिक के विषय में भी इसी प्रकार (भवसिद्धिक के समान) कहना चाहिए। १८७४. [ १ ] णोभवसिद्धिए - णोअभवसिद्धिए णं भंते! जीवे किं आहारए अणाहारए ? गोयमा! णो आहारए, अणाहारए । [१८७४ -१ प्र.] भगवन् ! नो-भवसिद्धिक-नो-अभवसिद्धिक जीव आहारक होता है या अनाहारक ? [१८७४ - १ उ.] गौतम ! वह आहारक नहीं होता, अनाहारक होता है। [२] एवं सिद्धे वि । [१८७४ -२] इसी प्रकार सिद्ध जीव के विषय में कहना चाहिए । १८७५. [ १ ] णोभवसिद्धिया-णोअभवसिद्धिया णं भंते! जीवा किं आहारगा अणाहारगा ? गोयमा ! णो आहारगा, अणाहारगा । [१८७५-१ प्र.] भगवन्! (बहुत-से ) नो-भवसिद्धिक-नो- अभवसिद्धिक जीव आहारक होते हैं या अनाहारकं ? [१८७५ - १ उ. ] गौतम ! वे आहारक नहीं होते, किन्तु अनाहारक होते हैं। [२] एवं सिद्धा वि । दारं २ ॥ [१८७५ - २] इसी प्रकार बहुत-से सिद्धों के विषय में समझ लेना चाहिए। [ द्वितीय द्वार ] विवेचन - भवसिद्धिक कब आहारक, कब अनाहारक ? - भवसिद्धिक अर्थात् - भव्यजीव विग्रहगति आदि अवस्था में अनाहारक होता है और शेष समय में आहारक । भवसिद्धिक समुच्चय जीव की तरह भवसिद्धिक भवनपति आदि चारों जाति के देव, मनुष्य, तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, एकेन्द्रिय आदि सभी जीव (सिद्ध को छोड़कर) पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार कदाचित् आहारक और कदाचित् अनाहारक होते हैं ।" बहुत्वविशिष्ट भवसिद्धिक जीव के तीन भंग : क्यों और कैसे ? - आहारकद्वार के समान समुच्चय जीव और एकेन्द्रिय को छोड़ शेष नारक आदि बहुत्वविशिष्ट सभी जीवों में उक्त के समान तीन भंग होते हैं । अभवसिद्धिक और भवसिद्धिक: लक्षण एवं आहारकता - अनाहारकता अभवसिद्धिक वह हैं, जो मोक्षगमन के योग्य न हों। भवसिद्धिक वे जीव हैं, जो संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त भवों के पश्चात् कभी न कभी सिद्धि प्राप्त करेंगे। भवसिद्धिक की भाँति अभवसिद्धिक के विषय में भी आहरकत्व - अनाहारकत्व का १. अभि. रा. कोष भा. २, पृ. ५१० - Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र] [१३१ प्ररूपण किया गया है। नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक और सिद्ध - नो-भवसिद्धिक-नो-अभवसिद्धिक सिद्धजीव ही हो सकता है। क्योंकि सिद्ध मुक्तिपद को प्राप्त कर चुकते हैं, इसलिए उन्हें भव्य नहीं कहा जा सकता तथा मोक्ष को प्राप्त हो जाने के कारण उन्हें मोक्षगमन के अयोग्य-अभवसिद्धिक (अभव्य) भी नहीं कहा जा सकता। एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से ये अनाहारक ही होते हैं। तृतीय : संज्ञीद्वार १८७६. [१] सण्णी णं भंते! जीवे कि आहारगे अणाहारगे? गोयमा! सिय आहारगे सिय अणाहारगे। [१८७६-१ प्र.] भगवन् ! संज्ञी जीव आहारक है या अनाहारक है ? [१८७६-१ उ.] गौतम! वह कदाचित् आहारक और कदाचित् अनाहारक होता है। [२] एवं जाव वेमाणिए। णवरं एगिदिय-विगलिंदिया ण पुच्छिज्जति। [१८७६-२] इसी प्रकार वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिए। किन्तु एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवों के विषय में प्रश्न नहीं करना चाहिए। १८७७. सण्णी णं भंते! जीवा किं आहारया अणाहारगा? गोयमा! जीवाईओ तियभंगो जाव वेमाणिया। [१८७७-१ प्र.] भगवन् ! बहुत-से संज्ञी जीव आहारक होते हैं या अनाहारक होते हैं ? [१८७७-१ उ.] गौतम! जीवादि से लेकर वैमानिक तक (प्रत्येक में) तीन भंग होते हैं। १८७८. [१] असण्णी णं भंते! जीवे कि आहारए अणाहारए ? गोयमा! सिय आहारए सिय अणाहारए। [१८७८-१ प्र.] भगवन् ! असंज्ञी जीव आहारक होता है या अनाहारक होता है ? [१८७८-१ उ.] गौतम! वह कदाचित् आहारक और कदाचित् अनाहारक होता है। [२] एवं णेरइए जाव वाणमंतरे। [१८७८-२] इसी प्रकार नारक से लेकर वाणव्यन्तर पर्यन्त कहना चाहिए। [३] जोइसिय-वेमाणिया ण पुच्छिति। [१८७८-३] ज्योतिष्क और वैमानिक के विषय में प्रश्न नहीं करना चाहिए। १८७९. असण्णी णं भंते! जीवा किं आहारगा अणाहारगा? १. प्रज्ञापना मलय वृत्ति पृ. ५१० २. वही, अ.रा. र्कोष भा. २, पृ. ५१०-५११ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२] गोयमा! आहारगा वि अणाहारगा वि, एगो भंगो। [१८७९ प्र.] भगवन्! (बहुत) असंज्ञी जीव आहारक होते हैं या अनाहारक होते हैं ? [१८७९ उ.] गौतम! वे आहारक भी होते हैं और अनाहारक भी होते हैं। इनमें केवल एक ही भंग होता है। १८८०. [१] असण्णी णं भंते! णेरड्या किं आहारगा अणाहारगा ? [ अट्ठाईसवाँ आहारपद ] गोयमा ! आहारगा वा १ अणाहारगा वा २ अहवा आहारए य अणाहारए य ३ अहवा आहारए य अणाहारगा य ४ अहवा आहारगा य अणाहारगे य ५ अहवा आहरगा य अणाहारगा य ६, एवं एते छब्भंगा । [१८८०-१ प्र.] भगवन्! (बहुत) असंज्ञी नैरयिक आहारक होते हैं या अनाहारक होते हैं ? [१८८० - १ उ.] गौतम वे (१) सभी आहारक होते हैं, (२) सभी अनाहारक होते हैं। (३) अथवा एक आहारक और एक अनाहारक, (४) अथवा एक आहारक और बहुत अनाहारक होते हैं, (५) अथवा बहुत आहारक और एक अनाहारक होता है तथा (६) अथवा बहुत आहारक और बहुत अनाहारक होते हैं। [२] एवं जाव थणियकुमारा । [१८८०-२] इसी प्रकार स्तनितकुमार पर्यन्त जानना चाहिए। [३] एगिंदिए अभंगयं । [१८८०-३] एकेन्द्रिय जीवों में भंग नहीं होता। [ ४ ] बेइंदिय जाव पंचेंदियतिरिक्खजोणिएसु तियभंगो । [१८८०-४] द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रियतिर्यञ्च तक के जीवों में पूर्वोक्त कथन के समान तीन भंग कहने चाहिए । [५] मणूस-वाणमंतरेसु छब्भंगा । [१८८०-५] मनुष्यों और वाणव्यन्तर देवों में (पूर्ववत्) छह भंग कहने चाहिए। १८८१. [१] णोसण्णी - णोअसण्णी णं भंते! जीवे कि आहारए अणाहारए ? गोयमा! सिय आहारए सिय अणाहारए । [१८८१-१ प्र.] भगवन्! नोसंज्ञी - नोअसंज्ञी जीव आहारक होता है या अनाहारक होता है ? [१८८१ - १ उ.] गौतम ! वह कदाचित् आहारक और कदाचित् अनाहारक होता है। [२] एवं मणूसे वि । 1 [१८८१-२] इसी प्रकार मनुष्य के विषय में भी कहना चाहिए। [ ३ ] सिद्धे अणाहारए। [१८८१-३] सिद्ध जीव अनाहारक होता है। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र] [१३३ १८८२. [१] पुहत्तेणं णोसण्णी-णोअसण्णी जीवा आहारगा वि अणाहारगा वि। [१८८२-१] बहुत्व की अपेक्षा से नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी जीव आहारक भी होते हैं और अनाहारक भी होते हैं। [२] मणूसेसु तियभंगो। [१८८२-२] (बहुत्व की अपेक्षा से नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी) मनुष्यों में तीन भंग (पाये जाते हैं।) [३] सिद्धा अणाहारगा। दारं ३॥ १८८२. (बहुत-से) सिद्ध अनाहारक होते हैं। [तृतीय द्वार] विवेचन-संज्ञी-असंज्ञी : स्वरूप- जो मन से युक्त हों, वे संज्ञी कहलाते हैं । असंज्ञी अमनस्क होता है। प्रश्न होता है-संज्ञी जीव के भी विग्रहगति में मन नहीं होता, ऐसी स्थिति में अनाहारक कैसे? इसका समाधान यह है कि विग्रहगति को प्राप्त होने पर भी जो जीव संज्ञी के आयुष्य का वेदन कर रहा है, वह उस समय मन के अभाव में भी संज्ञी ही कहलाता है, जैसे-नारक के आयुष्य का वेदन करने के पश्चात् विग्रहगति प्राप्त नरकगामी जीव नारक ही कहलाता है। एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय मनोहीन होने के कारण संज्ञी नहीं होते, इसलिए यहाँ संज्ञीप्रकरण में एकेन्द्रिय और विंकलेन्द्रिय के विषय में प्रश्न नहीं करना चाहिए। ज्योतिष्क और वैमानिकों में असंज्ञी की पृच्छा नहीं - ज्योतिष्क और वैमानिकों में असंज्ञीपन का व्यवहार नहीं होता, इसलिए इन दोनों में असंज्ञी का आलापक नहीं कहना चाहिए। नसंज्ञी-नोअसंज्ञी जीव में आहारकता-अनाहारकता - ऐसा जीव एकत्व की विवक्षा से कदाचित् आहारक और कदाचित् अनाहारक होता है, क्योंकि केवलीसमुद्घातावस्था के अभाव में आहारक होता है, शेष अवस्था में अनाहारक होता है । बहुत्व की विवक्षा से इनमें दो भंग पाए जाते हैं । यथा - (१) आहारक भी नोसंज्ञीनोअसंज्ञी जीव बहुत होते हैं, क्योंकि समुद्घात अवस्था से रहित केवली बहुत पाये जाते हैं। सिद्ध अनाहारक होते हैं, इसलिए अनाहारक भी बहुत पाये जाते हैं। नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी मनुष्यों में तीन भंग पाये जाते हैं - (१) जब कोई भी केवलीसमुद्घातावस्था में नहीं होता, तब सभी आहारक होते हैं, यह प्रथम भंग, (२) जब बहुत-से मनुष्य समुद्घातावस्था में हों और एक केवलीसमुद्घातगत हो, तब दूसरा भंग, (३) जब बहुत-से केवलीसमुद्घातावस्था को प्राप्त हों, तब तीसरा भंग होता हैं। चतुर्थ : लेश्याद्वार १८८३. [१] सलेसे णं भंते! जीवे किं आहारए अणाहारए ? गोयमा! सिय आहारए सिय अणाहारए। [१८८३-१ प्र.] भगवन! सलेश्य जीव आहारक होता है या अनाहारक होता है ? १. (क) अभि. रा. कोष. भा. २, पृ. ५११ (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी. भा. ५, पृ. ६४२ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४] [अट्ठाईसवाँ आहारपद] [१८८३-१ उ.] गौतम! वह कदाचित् आहारक होता है और कदाचित् अनाहारक होता है। [२] एवं जाव वेमाणिए। [१८८३-२] इसी प्रकार वैमानिक तक जानना चाहिए। १८८४. सलेसा णं भंते! जीवा किं आहारगा अणाहारणा? गोयमा! जीवेगिंदियवजो तियभंगो। .. [१८८४ प्र.] भगवन् ! (बहुत) सलेश्य जीव आहारक होते हैं या अनाहारक होते हैं ? [१८८४ उ.] गौतम! समुच्चय जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर इनके तीन भंग होते हैं। १८८५. [१] एवं कण्हलेसाए वि णीललेसाए वि काउलेसाए वि जीवेगिंदियवजो तियभंगो। [१८८५-१] इसी प्रकार कृष्णलेश्यी, नीललेश्यी और कापोतलेश्यी के विषय में भी समुच्चय जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर (पूर्वोक्त प्रकार से नारक आदि प्रत्येक में) तीन भंग कहने चाहिए। [२] तेउलेस्साए पुढवि-आउ-वणस्सइकाइयाणं छब्भंगा। [१८८५-२] तेजोलेश्या की अपेक्षा से पृथ्वीकायिक, अप्कायिक और वनस्पतिकायिकों में छह भंग (कहने चाहिए।) [३] सेसाणं जीवादीओ तियभंगो जेसिं अत्थि तेउलेस्सा। ___ [१८८५-३] शेष जीव आदि (अर्थात् जीव से लेकर वैमानिक पर्यन्त) में, जिनमें तेजोलेश्या पाई जाती है, उनमें तीन भंग (कहने चाहिए।) [४] पम्हलेस्साए सुक्कलेस्साए य जीवादीओ तियभंगो। [१८८५-४] पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या वाले (जिनमें पाई जाती है, उन) जीवों आदि में तीन भंग पाए जाते १८८६. अलेस्सा जीवा मणूसा सिद्धा य एगत्तेण वि पुहत्तेण वि णो आहारगा, अणाहारगा। दार ४॥ [१८८६] अलेश्य (लेश्या रहित) समुच्चय जीव, मनुष्य, (अयोगी केवली और सिद्ध एकत्व और बहुत्व की विवक्षा से आहारक नहीं होते, किन्तु अनाहारक ही होते हैं। [चतुर्थ द्वार] विवेचन - सलेश्य जीवों में आहारकता-अनाहारकता की प्ररूपणा - एकत्व की अपेक्षा - सलेश्य जीव तथा चौबीसदण्डकवर्ती जीव विग्रहगति, केवलीसमुद्घात और शैलेशी अवस्था की अपेक्षा अनाहारक और अन्य अवस्थाओं में आहारक समझने चाहिए। बहुत्व की अपेक्षा - समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़ कर शेष नारक आदि प्रत्येक में पूर्वोक्त युक्ति से तीन भंग होते हैं। जीवों और एकेन्द्रियों में सिर्फ एक भंग – (बहुत आहारक और बहुत अनाहारक) पाया जाता है, क्योंकि दोनों सदैव बहुत संख्या में पाए जाते हैं। कृष्ण-नील-कापोतलेश्यी नारक आदि में भी समुच्चय सलेश्य Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र] [१३५ जीवों के समान प्रत्येक में तीन भंग (समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़कर) कहने चाहिए।' तेजोलेश्यी जीवों के आहारकता-अनाहारकता - एकत्व की अपेक्षा से तेजोलेश्यावान् पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रियों में प्रत्येक में एक ही भंग (पूर्ववत्) समझना चाहिए। बहुत्व की अपेक्षा से पृथ्वीकायिक, अप्कायिक और वनस्पतिकायिक तेजोलेश्यावान् में छह भंग पाये जाते हैं- (१) सब आहारक, (२) सब अनाहारक, (३) एक आहारक एक अनाहारक, (४) एक आहारक बहुत अनाहारक, (५) बहुत आहारक एक अनाहारक और (६) बहुत आहारक बहुत अनाहारक। इसके अतिरिक्त समुच्चय जीवों से लेकर वैमानिक पर्यन्त जिन-जिन जीवें में तेजोलेश्या पाई जाती है, उन्हीं में प्रत्येक में पूवर्वत् तीन-तीन भंग कहने चाहिए, शेष में नहीं। अर्थात् - नारकों में, तेजस्कायिकों में, वायुकायिकों में, द्वीन्द्रियों, त्रीन्द्रियों और चतुरिन्द्रियों में तेजोलेश्या सम्बन्धी वक्तव्यता नहीं कहनी चाहिए, क्योंकि इनमें तेजोलेश्या नहीं होती। __ पृथ्वीकायिक, अप्कायिक और वनस्पतिकायिकों में तेजोलेश्या इस प्रकार है कि भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और सौधर्मदि देवलोकों के वैमानिक देव तेजोलेश्या वाले होते हैं, वे च्यवन कर पृथ्वीकायिकादि तीनों में उत्पन्न हो सकते हैं, इस दृष्टि से पृथ्वीकायिकादित्रय में तेजोलेश्या सम्भव है। पद्म-शुक्ललेश्यायुक्त जीवों की अपेक्षा आहारक-अनाहारक-विचारणा - पंचेन्द्रियतिर्यचों, मनुष्यों, वैमानिकदेवों और समुच्चय जीवों में ही पद्म शुक्ललेश्याद्वय पाई जाती है, अतएव इनमें एकत्व की विवक्षा से पूर्ववत एक ही भंग होता है तथा बहत्व की अपेक्षा पूर्ववत तीन भंग होते हैं ___ लेश्यारहित जीवों में अनाहारकता - समुच्चय जीव, मनुष्य, अयोगिकेवली और सिद्ध लेश्यारहित होते हैं, अतएव ये एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से अनाहारक ही होते हैं, आहारक नहीं। पंचम : दृष्टिद्वार १८८७. [१] सम्मद्दिट्ठी णं भंते! जीवे कि आहारए अणाहारए ? गोयमा! सिय आहारए सिय अणाहारए। [१८८७-१ प्र.] भगवन् ! सम्यग्दृष्टि जीव आहारक होता है या अनाहारक होता है ? [१८८७-१ उ.] गौतम ! वह कदाचित् आहारक और कदाचित् अनाहारक होता है। [२] बेइंदिय-तेइंदिय-चरिंदिया छब्भंगा। __ [१८८७-२] द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय (सम्यग्दृष्टियों) में पूर्वोक्त छह भंग होते हैं। १. प्रज्ञापना, मलयवृत्ति. अभि.रा.कोष, भा. २, पृ. ५१२ २. (क) प्रज्ञापनाचूणि - 'जेणं तेसु भवणवइ-वाणमंतर-सोहम्मीसाणया देवा उववजति तेणं तेउलेस्सा लब्भइ।' (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि.रा.कोष. भा. २, पृ. ५१२ ३. वही. मलयवृत्ति, अभि. रा. कोष भा. २, पृ. ५१२ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६] [अट्ठाईसवाँ आहारपद] [३] सिद्धा अणहारगा। [१८८७-३] सिद्ध अनाहारक होते हैं। [४] अवसेसाणं तियभंगो। [१८८७-४] शेष सभी (सम्यग्दृष्टि जीवों) में (एकत्व की अपेक्षा से) तीन भंग (पूर्ववत्) होते हैं। १८८८.मिच्छद्दिट्ठीसु जीवेगिंदियवज्जो तियभंयो। [१८८८] मिथ्यादृष्टियों में समुच्चय जीव और एकेन्द्रियों को छोड़कर (प्रत्येक में) तीन-तीन भंग पाये जाते * १८८९. [१] सम्मामिच्छहिट्ठी णं भंते! किं आहारए अणाहारए ? गोयमा! आहारए, णो अणाहारए। [१८८१-१ प्र.] भगवन् ! सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव आहारक होता है या अनाहारक होता हैं ? [१८८१-१ उ.] गौतम! वह आहारक होता है, अनाहारक नहीं होता है। [२] एवं एगिंदिय-विगलिंदियवजं जाव वेमाणिए। [१८८१-२] एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय को छोड़ कर वैमानिक पर्यन्त इसी प्रकार (का कथन करना चाहिए।) [३] एवं पुहत्तेण वि। दारं ५ ॥ [१८८१-३] बहुत्व की अपेक्षा से भी इसी प्रकार की वक्तव्यता समझनी चाहिए। [पंचम द्वार] विवेचन - दृष्टि की अपेक्षा से आहारक-अनाहारक-प्ररूपणा – प्रस्तुत में सम्यग्दृष्टि पद का अर्थ- औपशमिक, सास्वादन, क्षायोपशमिक और वेदक तथा क्षायिक सम्यक्त्व वाले समझना चाहिए, क्योंकि यहाँ सामान्यपद से सम्यग्दृष्टि शब्द प्रयुक्त किया गया है। औपशमिक सम्यग्दृष्टि आदि प्रसिद्ध हैं । वेदक सम्यग्दृष्टि वह है, जो क्षायोपशमिक सम्यक्त्व के चरम समय में हो और जिसे अगले ही समय में क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति होने वाली हो। सम्यग्दृष्टि जीवादि पदों में – एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से क्रमशः एक-एक भंग कहना चाहिए, यथा जीव आदि पदों में एकत्वापेक्षया – कदाचित् एक आहारक और एक अनाहारक, यह एक भंग और बहुत्व की अपेक्षा – बहुत आहारक और बहुत अनाहारक, यह एक भंग होता है। इनमें पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रियों की वक्तव्यता नहीं कहनी चाहिए, क्योंकि इनमें सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि दोनों का अभाव होता है। विकलेन्द्रिय सम्यग्दृष्टियों में पूर्वोक्तवत् छह भंग कहने चाहिए। द्वीन्द्रियादि तीन विक्लेन्द्रियों में अपर्याप्त अवस्था में सास्वादनसम्यक्त्व की अपेक्षा से सम्यग्दृष्टित्व समझना चाहिए। सिद्ध क्षायिक सम्यक्त्वी होते हैं और सदैव अनाहारक होते हैं। शेष अर्थात् नैरयिकों, भवनपतियों, पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों, मनुष्यों, वाणव्यन्तरों, ज्योतिष्कों और वैमानिकों में जो सम्यग्दृष्टि हैं, पूर्वोक्त युक्ति से उनमें तीन भंग पाये जाते हैं। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रज्ञापनासूत्र] [१३७ मिथ्यादृष्टियों में - एकत्व की विवक्षा से सर्वत्र कदाचित् एक आहारक एक अनाहारक, यही एक भंग पाया जाता है। बहुत्व की विवक्षा से समुच्चय जीव और पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रिय मिथ्यादृष्टियों में से प्रत्येक के बहुत आहारक बहुत अनाहारक, यह एक ही भंग पाया जाता है। इनके अतिरिक्त सभी स्थानों में पूर्ववत् तीन-तीन भंग कहने चाहिए । यहाँ सिद्ध सम्बन्धी आलापक नहीं कहना चाहिए, क्योंकि सिद्ध मिथ्यादृष्टि होते ही नहीं हैं। ___सम्यग्मिथ्यादृष्टि में आहारकता या अनाहारकता - सम्यग्मिथ्यादृष्टि सभी जीव एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से, एकेन्द्रियों और विकलेन्द्रियों को छोडकर आहारक होते हैं, क्योंकि संसारी जीव विग्रहगति में अनाहारक होते हैं। मगर सम्यग्मिथ्यादृष्टि विग्रहगति में होते नहीं, क्योंकि सम्यग्मिथ्यादृष्टि की अवस्था में मृत्यु नहीं होती। एकेन्द्रियों और विकलेन्द्रियों का कथन यहाँ इसलिए नहीं करना चाहिए कि वे सम्यग्मिथ्यादृष्टि नहीं होते। छठा : संयतद्वार १८९०. [१] संजए णं भंते! जीवे कि आहारए अणाहारए ? गोयमा! सिय आहारए सिय अणाहारए। [१८९०-१ प्र.] भगवन् ! संयत जीव आहारक होता है या अनाहारक होता है ? [१८९०-१ उ.] गौतम! वह कदाचित् आहारक और कदाचित् अनाहारक होता है। [२] एवं मणूसे वि। [१८९०-२] इसी प्रकार मनुष्य संयत का भी कथन करना चाहिए। [३] पुहत्तेण तियभंगो। [१८९०-३] बहुत्व की अपेक्षा से (समुच्चय जीवों और मनुष्यों में) तीन-तीन भंग (पाये जाते हैं।) १८९१. [१] अस्संजए पुच्छा । गोयमा! सिय आहारए सिय अणाहारए। [१८९१-१ प्र.] भगवन् ! असंयत जीव आहारक होता है या अनाहारक होता है? [१८९१-१ उ.] गौतम! वह कदाचित् आहारक होता है और कदाचित् अनाहारक भी होता है। [२] पुहत्तेणं जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो। [१८९१-२] बहुत्व की अपेक्षा जीव और एकेन्द्रिय को छोड़ कर इनमें तीन भंग होते हैं। १८९२. संजयासंजए जीवे पंचेंदियतिरिक्खजोणिए मणूसे य एते एंगत्तेण वि पुहत्तेण वि आहारगा, णो अणाहारगा। १. (क) प्रज्ञापना, मलयवृत्ति, अभि. रा. कोष. भा. २, पृ. ५१३ (ख) प्रज्ञापना, प्रमेयबोधिनी भा. ५, पृ. ६५७-५८ २. वही, भा. ५, पृ. ६५७-५८ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८] [अट्ठाईसवाँ आहारपद] [१८९२] संयतासंयतजीव, पंचेन्द्रियतिर्यञ्च और मनुष्य, ये एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से आहारक होते हैं, अनाहारक नहीं। १८९३. णोसंजए-णोअसंजए-णोसंजयासंजए जीवे सिद्धे य एते एगत्तेण वि पुहत्तेण वि णो आहारगा, अणाहारगा । दारं ६ ॥ [१८९३] नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत जीव और सिद्ध, ये एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से आहारक नहीं होते, किन्तु अनाहारक होते हैं। [छठा द्वार] __विवेचन – संयत-संयतासंयत, असंयत और नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत की परिभाषा - जो संयम (पंचमहाव्रतादि) को अंगीकार करे अर्थात् विरत हो उसे संयत कहते हैं । जो अणुव्रती श्रावकत्व अंगीकार करे अर्थात् देशविरत हो, उसे संयतासंयत कहते हैं। जो अविरत हो, न तो साधुत्व को अंगीकार करे और न ही श्रावकत्व को, वह असंयत है और जो न तो संयत है न संयतासंयत है और न असंयत है, वह नोसंयत-नोअंसंयतनोसंयतासंयत कहलाता है। संयत समुच्चय जीव और मनुष्य ही हो सकता है, संयतासंयत समुच्चय जीव , मनुष्य एवं पंचेन्द्रियतिर्यञ्च हो सकता है, नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत अयोगिकेवली तथा सिद्ध होते हैं। ___ संयत जीव और मनुष्य एकत्वापेक्षया केवलिसमुद्घात और अयोगित्वावस्था की अपेक्षा अनाहारक और अन्य समय में आहारक होता है। ___बहुत्व की अपेक्षा से तीन भंग – (१) सभी संयत आहारक होते हैं; यह भंग तब घटित होता है जब कोई भी केवलीसमुद्घातावस्था में या अयोगी में न हो। (२) बहुत संयत आहारक और कोई एक अनाहारक, यह भंग भी तब घटित होता है जब एक केवली समुद्घातावस्था में या शैलेशी अवस्था में होता है। (३) बहुत संयत आहारक और बहुत अनाहारक, यह भंग भी तब घटित होता है जब बहुत-से संयत केवलीसमुद्घातावस्था में हों या शैलेशी अवस्था में हों। असंयत में एकत्वापेक्षा से - एक आहारक, एक अनाहारक यह एक ही विकल्प होता है। बहुत्व की अपेक्षा से-समुच्चय जीवों और असंयत पृथ्वीकायिकादि प्रत्येक में बहुत आहारक और बहुत अनाहारक यही एक भंग होता है। असंयत नारक से वैमानिक तक (समुच्चय जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर) प्रत्येक में पूर्ववत् तीनतीन भंग होते हैं। संयतासंयत - देशविरतजीव, मनुष्य और पंचेन्द्रियतिर्यञ्च ये तीनों एकत्व और बहुत्व की विवक्षा से आहारक ही होते हैं, अनाहारक नहीं, क्योंकि मनुष्य और तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय के सिवाय किसी जीव में देशविरतिपरिणाम उत्पन्न नहीं होता और संयतासंयत सदैव आहारक ही होते हैं, क्योंकि अन्तरालगति और केवलिसमुद्घात आदि अवस्थाओं में देशविरति-परिणाम होता नहीं है। नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत जीव व सिद्ध - एकत्व बहुत्व अपेक्षा से अनाहारक ही होते हैं, आहारक नहीं, क्योंकि शैलेशी प्राप्त त्रियोगरहित और सिद्ध अशरीरी होने के कारण आहारक होते ही नहीं हैं। १. अभि.रा. को. भा. २, पृ. ५१३ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र] [१३९ सप्तम : कषायद्वार १८९४. [१] सकसाइ णं भंते! जीवे किं आहारए अणाहारए ? गोयमा! सिय आहारए सिय अणाहारए। [१८९४-१ प्र.] भगवन् ! सकषाय जीव आहारक होता है या अनाहारक होता है ? [१८९४-१ उ.] गौतम! वह कदाचित् आहारक और कदाचित् अनाहारक होता है। [२] एवं जाव वेमाणिए। [१८९४-२] इसी प्रकार (नारक से लेकर) वैमानिक पर्यन्त जानना चाहिए। १८९५. [१] पुहत्तेणं जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो। ___ [१८९५-१] बहुत्व की अपेक्षा से – जीव और एकेन्द्रिय को छोड़ कर (सकषाय नारक आदि में) तीन भंग (पाए जाते हैं।) [२] कोहकसाईसु जीवादिएसु एवं चेव। णवरं देवेसु छब्भंगा। [१८९५-२] क्रोधकषायी जीव आदि में भी इसी प्रकार तीन भंग कहने चाहिए। विशेष यह है कि देवों में छह भंग कहने चाहिए। [३] माणकसाईसु मायाकसाईसु य देव-णेरइएसु छब्भंगा। अवसेसाणं जीवेगिंदियवजो तियभंगो। [१८९५-३] मानकषायी और मायाकषायी देवों और नारकों में छह भंग पाये जाते हैं। शेष जीव और एकेन्द्रिय को छोड़ कर तीन भंग पाये जाते हैं। [४] लोभकसाईएसु णेरइएसु छब्भंगा। अवसेसेसु जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो। [१८९५-४] लोभकषायी नैरयिकों में छह भंग होते हैं । जीव और एकेन्द्रियों को छोड़कर शेष जीवों में तीन भंग पाये जाते हैं। १८९६. अकसाई जहा णोसण्णी-णोअसण्णी (सु. १८८१-८२) दारं ७ ॥ [१८९६] अकषायी की वक्तव्यता नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी के समान जाननी चाहिए। [सप्तम द्वार] विवेचन - सकषाय जीव और चौबीस दण्डकों में आहारक-अनाहारक की प्ररूपणा - एकत्व की विवक्षा से समुच्चय जीव और चौबीस दण्डकवर्ती जीव पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार कदाचित् आहारक और कदाचित् अनाहारक होता है। बहुत्व की विवक्षा से समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़ कर सकषाय नारकादि में पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार तीन भंग पाये जाते हैं। समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों में एक भंग - बहुत आहारक बहुत अनाहारक होता है। १. (क) अभि. रा. कोष. भा. २, पृ. ५१३ (ख) प्रज्ञापना प्रमेयबोधिनी टीका भा. ५, पृ. ६६३ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अट्ठाईसवाँ आहारपद ] - क्रोधकषायी की प्ररूपणा चौबीस दण्डकों में एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से एक भंग कदाचित् आहारक कदाचित् अनाहारक होता है। क्रोधकषायी समुच्चय जीवों तथा एकेन्द्रियों में केवल एक ही भंग - बहुत आहारक और बहुत अनाहारक होता है। शेष जीवों में देवों को छोड़कर पूर्वोक्त रीति से तीन भंग होते हैं। विशेषदेवों के छह भंग (१) सभी क्रोधकषायी देव आहारक होते हैं। यह भंग तब घटित होता है जब कोई भी क्रोधकषायी देव विग्रहगति समापन्न नहीं होता, (२) कदाचित् सभी क्रोधकषायी देव अनाहारक होते हैं। यह भंग तब घटित होता है, जब कोई भी क्रोधकषायी देव आहारक नहीं होता। यहाँ मान आदि के उदय से रहित क्रोध का उदय विवक्षित है, इस कारण क्रोधकषायी आहारक देव का अभाव सम्भव है, (३) कदाचित् एक आहारक और एक अनाहारक (४) देवों में क्रोध की बहुलता नहीं होती, स्वभाव से ही लोभ की अधिकता होती है, अतः क्रोधकषायी देव कदाचित् एक भी पाया जाता है, (५) कदाचित् बहुत आहारक और एक अनाहारक और (६) कदाचित् बहुत आहारक और बहुत अनाहारक पाये जाते हैं। १४०] - मानकषायी और मायाकषायी जीवादि में एकत्व की अपेक्षा से पूर्ववत् एक - एक भंग । बहुत्व की अपेक्षा से • मान मायाकषायी देवों और नारकों में प्रत्येक में ६ भंग पूर्ववत् समझना चाहिए। देवों और नारकों में मान और माया कषाय की विरलता पाई जाती है, देवों में लोभ की और नारकों में क्रोध की बहुलता होती है। इस कारण ६ ही भंग सम्भव हैं। मान-मायाकषायी शेष जीवों में समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़ कर तीन भंग पूर्ववत् होते हैं। समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों में एक भंग - बहुत आहारक- बहुत अनाहारक• होता है। - — लोभकषायी जीवादि में लोभकषायी नारकों में पूर्ववत् ६ भंग होते हैं, क्योंकि नारकों में लोभ की तीव्रता नहीं होती । नारकों के सिवाय एकेन्द्रियों और समुच्चय जीवों को छोड़कर शेष जीवों में ३ भंग पूर्ववत् पाये जाते हैं । समुच्चयं जीवों और एकेन्द्रियों में प्रत्येक में एक ही भंग - बहुत आहारक और बहुत अनाहारक • पाया जाता हैं। अष्टम : ज्ञानद्वार - - अकषायी जीवों में अकषायी मनुष्य और सिद्ध ही होते हैं। मनुष्यों में उपशान्तकषाय आदि ही अकषायी होते हैं। उनके अतिरिक्त सकषायी होते हैं। अतएव उन सकषायी समुच्चय जीवों, मनुष्यों और सिद्धों में से समुच्चय जीव में और मनुष्य में केवल एक भंग - कदाचित् एक आहारक और एक अनाहारक - पाया जाता है। सिद्ध में एक भंग- अनाहारक ही पाया जाता है। बहुत्व की विवक्षा से समुच्चय जीवों में बहुत आहारक और बहुत एक भंग ही होता है। क्योंकि आहारक केवली और अनाहारक सिद्ध बहु संख्या में उपलब्ध होते हैं। मनुष्यों में पूर्ववत् तीन भंग समझने चाहिये। सिद्धों में केवल एक ही भंग अनाहारक १८९७. गाणी जहा सम्मद्दिट्ठि (सु. १८८७)। [१८९७] ज्ञानी की वक्तव्यता सम्यग्दृष्टि के समान समझनी चाहिए। १. (क) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा. ५, ६६४ से ६६७ (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि. रा. कोष भा. २, पृ. ५१३-५१४ २. (क) वही, मलयवृत्ति, अभि. रा. कोष भा. २. पृ. ५१४ (ख) प्रज्ञापना प्रमेयबोधिनी टीका भा. ५, पृ. ६६७-६६८ - • अनाहारक पाया जाता है। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र] [१४१ १८९८. [१] आभिणिबोहियणाणि-सुयणाणिसु बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदिएसु छब्भंगा। अवसेसेसु जीवादीओ तियभंगो जेसिं अत्थि। [१८९८-१] आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों में (पूर्ववत्) छह भंग समझने चाहिए। शेष जीव आदि (समुच्चय जीव और नारक आदि)में जिनमें ज्ञान होता है, उनमें तीन भंग (पाये जाते हैं।) [२]ओहिणाणी पंचेन्दियतिरिक्खजोणिया आहारगा, णो अणाहारगा।अवसेसेसु जीवादीओ तियभंगो जेसिं अस्थि ओहिणाणं। [१८९८-२] अवधिज्ञानी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च आहारक होते हैं अनाहारक नहीं। शेष जीव आदि में, जिनमें अवधिज्ञान पाया जाता है, उनमें तीन भंग होते हैं। [३] मणपजवणाणी जीवा मणूसा य एगत्तेण वि आहारगा, णो अणाहारगा। [१८९८-३] मनःपर्यवज्ञानी समुच्चय जीव और मनुष्य एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से आहारक होते हैं, अनाहारक नहीं। [४] केवलणाणी जहा णोसण्णी-णोअसण्णी (सु. १८८१-८२)। [१८९८-४] केवलज्ञनी का कथन (सू. १८८१-८२ में उक्त) नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी के कथन के समान जानना चाहिए। १८९९. [१] अण्णाणी मइअण्णाणी सुयअण्णाणी जीवेगिंदियवजो तियभंगो। [१८९९-१] अज्ञानी, मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी में समुच्चय जीव और एकेन्द्रिय को छोड़ कर तीन भंग पाये जाते हैं। [२] विभंगणाणी पंचेंदियतिरिक्खजोणिया मणूसा य आहारगा, णो अणाहरगा अवसेसेसु जीवादीओ तियभंगो। दारं ८॥ [१८९९-२] विभंगज्ञानी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च और मनुष्य आहारक होते हैं, अनाहारक नहीं। अवशिष्ट जीव आदि में तीन भंग पाये जाते हैं। विवेचन. - ज्ञानी जीवों में आहारक-अनाहारक - प्ररूपणा - समुच्चय ज्ञानी (सम्यग्ज्ञानी) में सम्यग्दृष्टि के समान प्ररूपणा जाननी चाहिए, क्योंकि एकेन्द्रिय सदैव मिथ्यादृष्टि होने के कारण अज्ञानी ही होते हैं, इसलिए एकेन्द्रिय को छोड़कर एकत्व की अपेक्षा से समुच्चय जीव तथा वैमानिक तक शेष १९ दण्डकों में ज्ञानी कदाचित् आहारक और कदाचित् अनाहारक होता है। बहुत्व की विवक्षा से समुच्चयज्ञानी जीव अहारक भी होते हैं। अनाहारिक भी। नारकों से लेकर स्तनितकुमारों तक ज्ञानी जीवों में पूर्वोक्त रीति से.तीन भंग होते हैं। पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों, मनुष्यों, वाणव्यन्तरों, ज्योतिष्कों और वैमानिकों में भी तीन भंग ही पाए जाते हैं। तीन विकलेन्द्रिय ज्ञानियों में छह भंग प्रसिद्ध हैं । सिद्ध ज्ञानी अनाहारक ही होते हैं। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२] [अट्ठाईसवाँ आहारपद] आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी में एकत्व की अपेक्षा से - पूर्ववत् समझना। बहुत्व की अपेक्षा सेतीन विकलेन्द्रियों में छह भंग होते हैं। उनके अतिरिक्त एकेन्द्रियों को छोड़कर अन्य जीवादि पदों में, जिनमें आभिनिबोधिकज्ञान और श्रुतज्ञान हो, उनमें प्रत्येक में तीन-तीन भंग कहने चाहिए। एकेन्द्रिय जीवों में आभिनिबोधिकज्ञान और श्रुतज्ञान का अभाव होता है। इसलिए उनकी पृच्छा नहीं करनी चाहिए। अवधिज्ञानी में – अवधिज्ञान पंचेन्द्रियतिर्यञ्च, मनुष्य, देव और नारक को होता है, अन्य जीवों को नहीं। अतः एकेन्द्रियों एवं तीन विकलेन्द्रियों को छोड़कर पंचेन्द्रियतिर्यञ्च अवधिज्ञानी सदैव आहारक ही होते हैं । यद्यपि विग्रहगति में पंचेन्द्रियतिर्यञ्च अनाहारक होते हैं, किन्तु उस समय उनमें अवधिज्ञान नहीं होता। चूँकि पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों को गुणप्रत्यय अवधिज्ञान होता है-हो सकता है, मगर विग्रहगति के समय गुणों का अभाव होता है, इस कारण अवधिज्ञान का भी उस समय अभाव होता है। इसी कारण अवधिज्ञानी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च अनाहारक नहीं हो सकता। एकेन्द्रियों और विकलेन्द्रियों को छोडकर पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों के अतिरिक्त अन्य स्थानों में समुच्चय जीव से लेकर नारकों, मनुष्यों एवं समस्त जाति के देवों में प्रत्येक में तीन-तीन भंग कहने चाहिए, परन्तु कहना उन्हीं में चाहिए जिनमें अवधिज्ञान का अस्तित्व हो। एकत्व की विवक्षा से पूर्ववत् प्ररूपणा समझनी चाहिए। मनःपर्यवज्ञानी में – मन:पर्यवज्ञान मनुष्यों में ही होता है। अत: उसके विषय में दो पद ही कहते हैं - मनःपर्यवज्ञानी जीव और मनुष्य। एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से ये दोनों मनःपर्यवज्ञानी आहारक ही होते है, अनाहारक नहीं, क्योंकि विग्रहगति आदि अवस्थाओं में मन:पर्यवज्ञान होता ही नहीं है। केवलज्ञानी में – केवलज्ञानी की प्ररूपणा में तीन पद होते है – समुच्चय जीवपद, मनुष्यपद और सिद्धपद। इन तीन के सिवाय और किसी जीव में केवलज्ञान का सद्भाव नहीं होता। प्रस्तुत में केवलज्ञानी की आहारक-अनाहारक विषयक प्ररूपणा नोसंज्ञी-नोअसंजीवत् बताई गई है। अर्थात् समुच्चय जीवपद और मनुष्यपद में एकत्व की अपेक्षा से एकभंग – कदाचित् आहारक और कदाचित् अनाहारक – होता है। सिद्धपद में अनाहारक ही कहना चाहिए। बहुत्व की विवक्षा से – समुच्चय जीवों में आहारक भी होते हैं, अनाहारक भी होते हैं। मनुष्यों में पूर्वोक्त भंग कहना चाहिए। सिद्धों में अनाहारक ही होते हैं। ___ अज्ञानी की अपेक्षा से - अज्ञानियों में, मत्यज्ञानियों और श्रुताज्ञानियों में बहुत्व की विवक्षा से, जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़कर अन्य पदों में प्रत्येक में तीन भंग कहने चाहिए। समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों में आहारक भी होते हैं, अनाहारक भी। विभंगज्ञानी में एकत्व की विवक्षा से पूर्ववत् ही समझना चाहिए। बहुत्व की विवक्षा से - विभगज्ञानी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च एवं मनुष्य आहारक होते हैं, अनाहारक नहीं होते, क्योंकि विग्रहगति में विभंगज्ञानयुक्त पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों और मनुष्यों में उत्पत्ति होना सम्भव नहीं है। पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों और मनुष्यों से भिन्न स्थानों में एकेन्द्रियों और विकलेन्द्रियों को छोड़कर जीव से लेकर प्रत्येक स्थान में तीन भंग कहना चाहिए। १. (क) प्रज्ञापना, मलयवृत्ति, अ. रा. को. भाग २, पृ. ५१४ (ख) प्रज्ञापना, (प्रमेयबोधिनी टीका) भाग ५, पृ. ६७५ से ६७७ तक Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रज्ञापनासूत्र ] नौवाँ : योगद्वार १९००. [ १ ] सजोगीसु जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो । [१९०० - १] सयोगियों में जीव और एकेन्द्रिय को छोडकर तीन भंग (पाये जाते हैं ।) [२] मणजोगी वड्जोगी य जहा सम्ममिच्छद्दिट्ठी (सु. १८८९ ) । णवरं वइजोगो विगलिंदियाण वि । [१९००-२] मनोयोगी और वचनयोगी के विषय में (सू. १८८९ में उक्त) सम्यग्मिथ्यादृष्टि के समान वक्तव्यता कहनी चाहिए। विशेष यह कि वचनयोग विकलेन्द्रियों में भी कहना चाहिए । [ ३ ] कायजोगीसु जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो। [१९०० - ३] काययोगी जीवों में जीव और एकेन्द्रिय को छोड़ कर तीन भंग (पाये जाते हैं ।) [४] अजोगी जीव- मणूसा- सिद्धा अणाहारग । दारं ९ ॥ [१९००-४] अयोगी समुच्चय जीव, मनुष्य और सिद्ध होते हैं और वे अनाहारक हैं। [१४३ - [नौवाँ द्वार ] सम्बन्ध विवेचन योगद्वार की अपेक्षा प्ररूपणा समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़ कर अन्य सयोगी जीवों में पूर्वोक्त तीन भंग पाये जाते हैं। समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों में एक भंग ही पाया जाता है बहुत आहारक-बहुत अनाहारक, क्योंकि ये दोनों सदैव बहुत संख्या में पाये जाते हैं। मनोयोगी और वचनयोगी के में कथन सम्यग्मिथ्यादृष्टि के समान जानना चाहिए, अर्थात् वे एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से आहारक ही होते है, अनाहारक नहीं। यद्यपि विकलेन्द्रिय सम्यग्मध्यादृष्टि नहीं होते, किन्तु उनमें वचनयोग होता है, इसलिए यहाँ उनकी भी प्ररूपणा करनी चाहिए। समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़कर शेष नारक आदि काययोगियों में पूर्ववत् तीन भंग कहना चाहिए। अयोगी समुच्चय जीव, मनुष्य और सिद्ध होते हैं, ये तीनों अयोगी एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से अनाहारक होते है ।" दसवाँ : उपयोगद्वार १९०१. [ १ ] सागाराणागारोवउत्तेसु जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो। [१९०१-१] समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़कर अन्य साकार एवं अनाकार उपयोग से उपयुक्त जीवों में तीन भंग कहने चाहिए । [२] सिद्धा अणाहारगा । दारं १० ॥ [१९०१ २] सिद्ध जीव (सदैव) अनाहारक ही होते हैं। - विवेचन - उपयोगद्वार की अपेक्षा से प्ररूपणा • समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़कर शेष साकार एवं अनाकार उपयोग से उपयुक्त जीवों में तीन भंग पाए जाते हैं। सिद्ध जीव चाहे साकरोपयोग वाला हो, चाहे अनाकारोपयोग से उपयुक्त हो, अनाहारक ही होते हैं । १. प्रज्ञापना प्रमेयबोधिनी टीका, भाग ५, पृ. ६७९-६८० Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४] [अट्ठाईसवाँ आहारपद] एकत्व की अपेक्षा से सर्वत्र कदाचित् आहारक तथा कदाचित् अनाहारक', ऐसा कथन करना चाहिए। ग्यारहवाँ : वेदद्वार १९०२. [१] सवेदे जीवेगिंदियवजो तियभंगो। [१९०२-१] समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़कर अन्य सब सवेदी जीवों के (बहुत्व की अपेक्षा से) तीन भंग होते हैं। [२] इत्थिवेद-पुरिसवेदेसु जीवादीओ तियभंगो। [१९०२-२] स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीव आदि में तीन भंग होते हैं। [३] णपुंसगवेदए जीवेगिंदियवजो तियभंगो। [१९०२-३] नपुंसकवेदी में समुच्चय जीव और एकेन्द्रिय को छोड़ कर तीन भंग होते हैं। [४] अवेदए जहा केवलणाणी (सु. १८९८ [४])। दारं ११॥ [१९०२-४] अवेदी जीवों का कथन (सु. १८९८-४ में उल्लिखित) केवलज्ञानी के कथन के समान करना चाहिए। विवेचन - वेदद्वार के माध्यम से आहारक-अनाहारक प्ररूपणा - सवेदी जीवों में एकेन्द्रियों और समुच्चय जीवों को छोड़कर बहुत्वापेक्षया तीन भंग होते हैं, जीवों और एकेन्द्रियों में आहारक भी होते हैं और अनाहारक भी। एकत्व की विवक्षा से सवेदी कदाचित् आहारक होता है, कदाचित् अनाहारक होता है। बहुत्वापेक्षया - स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीव आदि में एकेन्द्रियों एवं समुच्च्य जीवों को छोड़ कर बहुत्व की विवक्षा से प्रत्येक के तीन भंग होते हैं । अवेदी का कथन केवलज्ञानी के समान है। एकत्व विवक्षया - स्त्रीवेद और पुरुषवेद के विषय में आहारक भी होता है और अनाहारक भी, यह एक ही भंग होता है। यहाँ नैरयिकों, एकेन्द्रियों और विकलेन्द्रियों का कथन नहीं करना चाहिए, क्योंकि वे स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी नहीं होते, अपितु नपुंसकवेदी होते हैं। बहुत्व की अपेक्षा से जीवादि में से प्रत्येक में तीन भंग होते हैं। नपुंसकवेद में – एकत्व की विवक्षा से पूर्ववत् भंग कहना चाहिए, किन्तु यहाँ भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव का कथन नहीं करना चाहिए, क्योंकि ये नपुंसक नहीं होते। बहुत्व की अपेक्षा से जीवों और एकेन्द्रियों के सिवाय शेष में तीन भंग होते हैं । बहुत्व की अपेक्षा से अवेदी कदाचित् आहारक होता है कदाचित् अनाहारक, यह एक भंग होता है। बहुत्व की अपेक्षा से - अवेदी के बहुत आहारक और बहुत अनाहारक, यही एक भंग पाया जाता है । अवेदी मनुष्यों में तीन भंग होते हैं । अवेदी सिद्धों में बहुत अनाहारक यह एक भंग ही पाया जाता है। १. प्रज्ञापना प्रमेयबोधिनी टीका, भाग ५, ६८० २. प्रज्ञापना मलयवृत्ति, अभि. रा. कोष, भाग. २, पृ. ५१५ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र] [१४५ बारहवाँ : शरीरद्वार १९०३. [१] ससरीरी जीवेगिंदियवजो तियभंगो। [१९०३-१] समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़कर शेष (सशरीरी नारकादि) जीवों में (बहुत्वापेक्षया) तीन भंग पाये जाते हैं। [२] ओरालियसरीरीसु जीव-मणूसेसु तियभंगो। [१९०३-२] औदारिकशरीरी जीवों और मनुष्यों में तीन भंग पाये जाते हैं। [३] अवसेसा आहारगा, णो अणाहारगा, जेसिं अत्थि ओरालियसरीरं। [१९०३-३] शेष जीवों और (मनुष्यों से भिन्न) औदारिकशरीरी आहारक होते हैं, अनाहारक नहीं। किन्तु जिनके औदारिक शरीर होता है, उन्हीं का कथन करना चाहिए। [४] वेउव्वियसरीरी आहारगसरीरी य आहारगा, णो अणाहारगा, जेसिं अत्थि। [१९०३-४] वैक्रियशरीरी और आहारकशरीरी आहारक होते हैं, अनाहारक नहीं। किन्तु यह कथन जिनके वैक्रियशरीर और आहारकशरीर होता है, उन्हीं के लिए है। [५] तेय-कम्मगसरीरी जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो। [१९०३-५] समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़कर तैजसशरीर और.कार्मणशरीर वाले जीवों में तीन भंग पाये जाते हैं। [६] असरीरी जीवा सिद्धा य णो आहारगा, अणाहारगा। दारं १२॥ [१९०३-६] अशरीरी जीव और सिद्ध आहारक नहीं होते, अनाहारक होते हैं। [बारहवाँ पद] विवेचन - शरीरद्वार के आधार से प्ररूपणा- समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़कर शेष सशरीरी जीवों में बहुत्व की विवक्षा से तीन भंग और एकत्व की अपेक्षा से सर्वत्र एक ही भंग पाया जाता है - कदाचित् एक आहारक और कदाचित् एक अनाहारक। समुच्चय सशरीरी जीवों और एकेन्द्रियों में बहुत आहारक बहुत अनाहारक. यह एक भंग पाया जाता है। __ औदारिकशरीरी - जीवों और मनुष्यों में तीन भंग तथा इनसे भिन्न औदारिकशरीरी आहारक होते हैं, अनाहारक नहीं। यह कथन औदारिकशरीरधारियों पर ही लागू होता है। नारक, भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों के औदारिकशरीर नहीं होवा, अतः उनके लिए यह कथन नहीं है। बहुत्व की अपेक्षा से - एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रियादि तीन विकलेन्द्रिय और पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में बहुत आहारक ही कहना चाहिए, अनाहारक नहीं, क्योंकि विग्रहगति होने पर भी उनमें औदारिक शरीर का सद्भाव होता है। वैक्रियशरीरी और आहारकशरीरी आहारक भी होते हैं, अनाहारक नहीं। परन्तु यह कथन उन्हीं के लिए है, जिनके वैक्रियशरीर और आहारकशरीर होता है। नारकों और वायुकायिकों, पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों, मनुष्यों तथा चारों जाति के देवों के ही वैक्रियशरीर होता है। आहारकशरीर केवल मनुष्यों के ही होता है। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६] [अट्ठाईसवाँ आहारपद] तैजसशरीरी एवं कार्मणशरीरी जीवों में एकत्वापेक्षया सर्वत्र कदाचित् एक आहारक और कदाचित् एक अनाहारक यह एक भंग होता है। बहुत्वापेक्षया-समुच्चय जीवों और एकेन्द्रिय को छोड़कर अन्य स्थानों में तीनतीन भंग जानने चाहिए। समुच्चय जीवों और पृथ्वीकायिकादि पांच एकेन्द्रियों में से प्रत्येक में एक ही भंग पाया जाता है- बहुत आहारक और बहुत अनाहारक। अशरीरी जीव और सिद्ध आहारक नहीं होते, अतएव एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से अशरीरी सिद्ध अनाहारक ही होते हैं। तेरहवाँ : पर्याप्तिद्वार १९०४. [१] आहार पजत्तीपज्जत्तए सरीरपज्जत्तीपज्जत्तए इंदियपज्जत्तीपजत्तए आणापाणुपजत्तीपजत्तए भासा-मणपजत्तीपजत्तए एयासु पंचसु विपजत्तीसुजीवेसु मणूसेसु य तियभंगो। [१९०४-१] आहारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति तथा भाषा-मन:पर्याप्ति इन पांच (छह) पर्याप्तियों से पर्याप्त जीवों और मनुष्यों में तीन-तीन भंग होते हैं। [२] अवसेसा आहारगा, णो अणाहारगा। [१९०४-२] शेष (समुच्चय जीवों और मनुष्यों के सिवाय पूर्वोक्त पर्याप्तियों से पर्याप्त) जीव आहारक होते हैं, अनाहारक नहीं। [३] भासा-मणपज्जत्ती पंचेंदियाणं, अवसेसाणं णत्थि। [१९०४-३] विशेषता यह है कि भाषा-मनःपर्याप्ति पंचेन्द्रिय जीवों में ही पाई जाती है, अन्य जीवों में नहीं। १९०५. [१] आहारपजत्तीअपजत्तए णो आहारए, अणाहारए, एगत्तेण वि पुहत्तेण वि। [१९०५-१] आहारपर्याप्ति से अपर्याप जीव एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा आहारक नहीं, अनाहारक होते [२] सरीरपजत्तीअपजत्तए सिय आहारए सिय अणाहारए। [१९०५-२] शरीरपर्याप्ति से अपर्याप्त जीव एकत्व की अपेक्षा कदाचित् आहारक, कदाचित् अनाहारक होता __[३] उवरिल्लियासु चउसु अपजत्तीसु णेरइय-देव-मणूसेसु छब्भंगा, अवसेसाणं जीवेगिदियवजो तियभंगो। [१९०५-३] आगे की (अन्तिम) चार अपर्याप्तियों वाले (शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति एवं भाषा-मनःपर्याप्ति से अपर्याप्तक) नारकों, देवों और मनुष्यों में छह भंग पाये जाते हैं । शेष में समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़कर तीन भंग पाये जाते हैं। १. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ६८३-६८४ (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि. रा. कोष, भा. २, पृ. ५१५ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र] [१४७ १९०६. भासा-मणपजत्तीए (अपजत्तएसु) जीवेसु पंचेंदियतिरिक्खजोणिएसु य तियभंगो, णेरइयदेव-मणुएसु छब्भंगा। [१९०६] भाषा-मन:पर्याप्ति से अपर्याप्त समुच्चय जीवों और पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में (बहुत्व की विवक्षा से) तीन भंग पाये जाते हैं । (पूर्वोक्त पर्याप्ति से अपर्याप्त) नैरयिकों, देवों और मनुष्यों में छह भंग पाये जाते हैं। १९०७. सव्वपदेसु एकत्त-पुहत्तेणं जीवादीया दंडगा पुच्छाए भाणियव्वा। जस्स जं अस्थि तस्स तं पच्छिज्जड, जंणत्थितं ण पच्छिज्जड जाव भासा-मणपज्जत्तीए अपजएसणेरड्य-देव-मणुएस य छभंगा। सेसेसु तियभंगो। दारं १३॥ [१९०७] सभी (१३) पदों में एकत्व और बहुत्व की विवक्षा से जीवादि दण्डकों में (समुच्चय जीव तथा चौबीस दण्डक) के अनुसार पृच्छा करनी चाहिए। जो पद जिसमें सम्भव न हो उसकी पृच्छा नहीं करनी चाहिए। (भव्यपद से लेकर) यावत् भाषा-मन:पर्याप्ति से अपर्याप्त नारकों, देवों और मनुष्यों में छह भंगों की वक्तव्यता पर्यन्त तथा नारकों, देवों और मनुष्यों से भिन्न समुच्चय जीवों और पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में तीन भंगों की वक्तव्यता पर्यन्त समझना चाहिए। [तेरहवाँ द्वार] ॥ बीओ उद्देसओ समत्तो ॥ ॥ पण्णवणाए भगवतीए अट्ठावीसइमं आहारपयं समत्तं ॥ विवेचन - पर्याप्तिद्वार के आधार पर आहारक-अनाहारकप्ररूपणा - यद्यपि अन्य शास्त्रों में पर्याप्तियाँ छह मानी गई हैं, परन्तु यहाँ भाषापर्याप्ति और मनःपर्याप्ति दोनों का एक में समावेश करके पांच ही पर्याप्तियाँ मानी गई आहारदि पांच पर्याप्तियों से पर्याप्त समुच्चय जीवों और मनुष्यों में तीन-तीन भंग पायें जाते हैं, इन दो के सिवाय दूसरे जो पांच पर्याप्तियों से पर्याप्त हैं, वे आहारक होते हैं, अनाहरक नहीं। एकेन्द्रियों और विकलेन्द्रियों में भाषामनःपर्याप्ति नहीं पाई जाती। आहारपर्याप्ति से अपर्याप्त एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से अनाहारक होता है, आहारक नहीं, क्योंकि आहारपर्याप्ति से अपर्याप्त जीव विग्रहगति में ही पाया जाता है। उपपातक्षेत्र में आने पर प्रथम समय में ही वह आहारपर्याप्ति से पर्याप्त हो जाता है। अतएव प्रथम समय में वह आहारक नहीं कहलाता । बहुत्व की विवक्षा में बहुत अनाहारक होते हैं। शरीरपर्याप्ति से अपर्याप्त जीव कदाचित् आहारक और कदाचित् अनाहारक होता है। जो विग्रहगति-समापन्न होता है, वह अनाहारक और उपपातक्षेत्र में आ पहुंचता है, वह आहारक होता है। ___ इन्द्रिय-श्वासोच्छ्वास-भाषा-मनःपर्याप्ति से अपर्याप्त - एकत्व की विवक्षा से कदाचित् आहारक कदाचित् अनाहारक होते हैं। बहुत्व की विवक्षा से अन्तिम तीन या (चार) पर्याप्तियों से अपर्याप्त के विषय में ६ भंग होते हैं(१) कदाचित् सभी अनाहारक, (२) कदाचित् सभी आहारक, (३) कदाचित् एक आहारक और एक अनाहारक, Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८] [अट्ठाईसवाँ आहारपद] (४) कदाचित् एक आहारक, बहुत अनाहारक, (५) कदाचित् बहुत आहारक और एक अनाहारक, एवं (६) कदाचित् बहुत आहारक और बहुत अनाहारक । नारकों, देवों और मनुष्यों से भिन्न में (एकेन्द्रियों एवं समुच्चय जीवों को छोड़कर) तीन भंग पूर्व पूर्ववत् पाये जाते हैं। शरीर-इन्द्रिय-श्वासोच्छ्वास-पर्याप्तियों से अपर्याप्त के विषय में एकत्व की विवक्षा-से एक भंग – बहुत आहारक और बहुत अनाहारक होते हैं। बहुत की अपेक्षा-तीन भंग सम्भव है-(१) समुच्चय जीव और समूछिम पंचेन्द्रियतिर्यञ्च सदैव बहुत संख्या में पाये जाते हैं, जब एक भी विग्रहगतिसमापन्न नहीं होता है, तब सभी आहारक होते है, यह प्रथम भंग, (२) जब एक विग्रहगतिसमापन्न होता हैं, तब बहुत आहारक एक अनाहारक यह द्वितीय भंग , (३) जब बहुत जीव विग्रहगतिसमापन्न होते हैं, तब बहुत आहारक और बहुत अनाहारक, यह तृतीय भंग है। नारकों, देवों और मनुष्यों में भाषा-मन:पर्याप्ति से अपर्याप्त के विषय में बहुत्व की विवक्षा से ६ भंग होते हैं।' वक्तव्यता का अतिदेश-अन्तिम सूत्र में एकत्व और बहुत्व की विवक्षा से विभिन्न जीवों के आहारकअनाहारक सम्बन्धी भंगों का अतिदेश किया गया है। ॥ प्रज्ञापना का अट्ठाईसवाँ पद : द्वितीय उद्देशक समाप्त ॥ ॥ प्रज्ञापना भगवती का अट्ठाईसवाँ आहारपद समाप्त ॥ १. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ६८५ से ६८८ तक Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ܀ एगूणतीसइमं उवओगपयं तीसइमं पासणयापयं च उनतीसवाँ उपयोगपद और तीसवाँ पश्यत्तापद प्राथमिक प्रज्ञापनासूत्र के उनतीसवें और तीसवें, उपयोग और पश्यत्ता पदों में जीवों के बोधव्यापार एवं ज्ञानव्यापार की चर्चा है। जीव का या आत्मा का मुख्य लक्षण उपयोग' है, पश्यत्ता उसी का मुख्य अंग है । परन्तु आत्मा के साथ शरीर बंधा होता है । शरीर के निमित्त से अंगोपांग, इन्द्रियाँ, मन आदि अवयव मिलते हैं। प्रत्येक प्राणी को, फिर चाहे वह एकेन्द्रिय हो अथवा विकलेन्द्रिय या पंचेन्द्रिय, देव हो, नारक हो, मनुष्य हो या तिर्यञ्च, सभी को अपने-अपने कर्मों के अनुसार शरीरादि अंगोपांग या इन्द्रियाँ अदि मिलते हैं। मूल में सभी प्राणियों की आत्मा ज्ञानमय एवं दर्शनमय है, जैसा कि आचारांगसूत्र में स्पष्ट कहा है 'जे आया, से विन्नाया, जे विन्नाया से आया। जेण विजाणइ से आया । २ अर्थात् – जो आत्मा है, वह विज्ञाता है और जो विज्ञाता है, वह आत्मा है। जिससे ( पदार्थो को ) जाना जाता है, वह आत्मा है। प्रश्न होता है कि जब प्राणियों की आत्मा ज्ञानदर्शनमय (उपयोगमय) है तथा अरूपी है, नित्य है, जैसा कि भगवतीसूत्र में कहा है 'अवण्णे अगंधे अरसे अफासे अरूवी जीवे सासए अवट्ठिए लोगदव्वे । से समासओ पंचविहे पण्णत्ते, तंजा - दव्वओ जाव गुणओ। दव्वओ णं जीवत्थिकाए अणंताई जीवदव्वाई, खेत्तओ लोगप्पमाणमेत्ते, कालओ-न कयाइ न आसि, न कयावि नत्थि, जाव निच्चे, भावो पुण अवण्णे अगंधे अरसे अफासे, ओ ओगगुणे। यहाँ आत्मा का स्वरूप पांच प्रकार से बताया गया है । द्रव्य अनंत जीव (आत्मा) द्रव्य है, क्षेत्र से लोकप्रमाण है, काल से नित्य है, भाव से वर्णादि से रहित है और गुण से उपयोगगुण वाला है। 1 अतः समानरूप से सभी आत्माओं का गुण-उपयोग होते हुए भी किसी को कम उपयोग होता है, किसी को अधिक, किसी का ज्ञान त्रिकाल - त्रिलोकव्यापी है और किसी को वर्तमानकालिक तथा एक अंगुल क्षेत्र का भी ज्ञान या दर्शन नहीं होता। ऐसा क्यों ? इसका समाधान है - ज्ञानावरणीय एवं दर्शनावरणीय कर्मों की विचित्रता । जिसके ज्ञान दर्शन का आवरण जितना अधिक क्षीण होगा, उसका उपयोग उतना ही अधिक होगा, जिसका ज्ञान दर्शनावरण जितना तीव्र २. आयारांग. श्रु. १, अ. ५, उ. ५, सूत्र. १६५ १. उपयोगो लक्षणम् - तत्त्वार्थसूत्र अ. २ ३. भगवती. श. २, उ. १०, सू. ५ ( आ. प्र. समिति ) Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५०] होगा, उसका उपभोग उतना ही मन्द होगा। यही कारण है कि यहाँ विविध जीवों के विविध प्रकार के उपयोगों की तरतमता आदि का निरूपण किया गया है । * * उपयोग का अर्थ होता है- वस्तु का परिच्छेद- परिज्ञान करने के लिए जीव जिसके द्वारा व्यापृत होता है, अथवा जीव का बोधरूप तत्त्वभूत व्यापार ।' [ प्रज्ञापनासूत्र ] तीसवां पद पश्यत्ता-पासणया है। उपयोग और पश्यत्ता दोनों जीव के बोधरूप व्यापार हैं, मूल में इन दोनों की कोई व्याख्या नहीं मिलती। प्राचीन पद्धति के अनुसार भेद ही इनकी व्याख्या है। आचार्य अभयदेवसूरि ने पश्यत्ता को उपयोगविशेष ही बताया है। किन्तु आगे चल कर स्पष्टीकरण किया है कि जिस बोध में कालिक अवबोध हो, वह पश्यत्ता है और जिस बोध में वर्तमानकालिक बोध हो, वह उपयोग है। यही इन दोनों में अन्तर है । जिस प्रकार उपयोग के मुख्य दो भेद - साकारोपयोग और अनाकारोपयोग किये हैं, उसी प्रकार पश्यत्ता के भी साकारपश्यत्ता और अनाकारपश्यत्ता, ये दो भेद हैं। किन्तु दोनों के उपर्युक्त लक्षणों के अनुसार मति - ज्ञान और मति- अज्ञान को साकारपश्यत्ता के भेदों में परिगणित नहीं किया, क्योंकि मतिज्ञान और मत्यज्ञान का विषय वर्तमानकालिक अविनष्ट पदार्थ ही बनता है। इसके अतिरिक्त अनाकारपश्यत्ता में अचक्षुदर्शन का समावेश नहीं किया गया है, इसका समाधान आचार्य अभयदेवसूरि ने यों किया है कि पश्यत्ता प्रकृष्ट ईक्षण है और प्रेषण तो केवल चक्षुदर्शन द्वारा ही सम्भव है, अन्य इन्द्रियों द्वारा होने वाले दर्शन में नहीं। अन्य इन्द्रियों की अपेक्षा चक्षु का उपयोग अल्पकालिक होता है जहां अल्पकालिक उपयोग होता है, वहाँ बोधक्रिया में शीघ्रता अधिक होती है, यही पश्यत्ता की प्रकृष्टता में कारण है। आचार्य मलयगिरि ने आचार्य अभयदेवसूरि का अनुसरण किया है। उन्होंने स्पष्टीकरण किया है कि पश्यत्ता शब्द रूढ़ि के कारण साकार और अनाकार बोध का प्रतिपादक है। विशेष में यह समझना चाहिए कि जहाँ दीर्घकालिक उपयोग हो, वहीं त्रैकालिक बोध सम्भव है। मतिज्ञान में दीर्घकाल का उपयोग नहीं है, . इस कारण उससे त्रैकालिक बोध नहीं होता । अतः उसे 'पश्यत्ता' में स्थान नहीं दिया गया है। उनतीसवें पद में सर्वप्रथम साकारोपयोग और अनाकारोपयोग, यों भेद बताये गये हैं। तत्पश्चात् इन दोनों के क्रमशः आठ और चार भेद किये गये हैं । साकारोपयोग और अनाकारोपयोग तथा साकारपश्यत्ता और अनाकारपश्यत्ता इन दोनों का अन्तर निम्नोक्त तालिका से स्पष्ट समझ में आ जाएगा। १. उपयुज्यते वस्तुपरिच्छेदं प्रति व्यापार्यते जीवोऽनेनेति उपयोगः । बोधरूपो जीवस्य तत्त्वभूतो व्यापारः । 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ७१४ - प्रज्ञापना, मलयवृत्ति अ. रा. को. भा. २, पृ. ८६०. Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्राथमिक ] * ܀ उपयोग (सू. १९०८ - १० ) १. साकारोपयोग (१) आभिनिबोधिकज्ञान- साकारोपयोग (२) श्रुतज्ञान-साकारोपयोग (३) अवधिज्ञान - साकारोपयोग (४) मनः पर्यवज्ञान - साकारोपयोग (५) केवलज्ञान-साकारोपयोग (६) मतिज्ञानावरण-साकारोपयोग (७) श्रुताज्ञानावरण-साकारोपयोग (८) विभंगज्ञानावरण-साकारोपयोग २. अनाकारोपयोग पश्यत्ता ( १९३६-३८ ) १. साकार- पश्यत्ता X X X [१५१ (१) श्रुतज्ञान- साकारपश्यत्ता (२) अवधिज्ञान - साकारपश्यत्ता (३) मनः पर्यवज्ञान - साकारपश्यत्ता. (४) केवलज्ञान - साकारपश्यत्ता X X X (५) श्रुताज्ञान- साकारपश्यत्ता (६) विभंगज्ञान - साकारपश्यत्ता २. अनाकारपश्यत्ता (१) चक्षुदर्शन - अनाकारपश्यत्ता (१) चक्षुदर्शन - अनाकारोपयोग (२) अचक्षुदर्शन - अनाकारोपयोग (३) अवधिदर्शन - अनाकारोपयोग (२) अवधिदर्शन - अनाकारपश्यत्ता (३) केवलदर्शन - अनाकारपश्यत्ता।' (४) केवलदर्शन - अनाकारोपयोग साकारोपयोग और अनाकारोपयोग का लक्षण आचार्य मलयगिरि ने इस प्रकार किया है। सचेतन या अचेतन वस्तु में उपयोग लगाता हुआ आत्मा जब वस्तु का पर्यायसहित बोध करता है, तब वह उपयोग साकार कहलाता है, तथा वस्तु का सामान्यरूप से ज्ञान होना अनाकारोपयोग है। १. पण्णवणासुत्तं भा. २ (परिशिष्ट - प्रस्तावनात्मक ), पृ. १३८ २. प्रज्ञापना, मलयवृत्ति, अभि. रा. कोष. भा. २, पृ. ८६० X X X साकारपश्यत्ता और अनाकारपश्यत्ता में भी साकार और अनाकार शब्दों का अर्थ तो उपर्युक्त ही है, किन्तु पत्ता में वस्तु का त्रैकालिक बोध होता है, जबकि उपयोग में वर्तमानकालिक ही बोध होता है । इसके पश्चात् उनतीसवें पद में नारक से वैमानिकपर्यन्त चौबीस दण्डकों में से किस-किस जीव में कितने उपयोग पाये जाते हैं ? इसका प्ररूपण किया गया है। तीसवें पश्यत्ता पद में इसके भेद-प्रभेदों का प्रतिपादन करके नारक से लेकर वैमानिक पर्यन्त जीवों में से किसमें कितने प्रकार की पश्यत्ता है ? इसका प्ररूपण किया गया है। उनतीसवें पद में पूर्वोक्त प्ररूपण के अनन्तर चौबीस दण्डकवर्ती जीवों के विषय में प्रश्नोत्तरी प्रस्तुत की गई Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२] [प्रज्ञापनासूत्र] है कि कौनसा जीव साकारोपयुक्त है या अनाकारोपयुक्त? इसी प्रकार तीसवें पद में प्रश्नोत्तरी है कि जीव साकार पश्यत्तावान् है या अनाकार पश्यत्तावान् है?' तीसवें पद में पूर्वोक्त वक्तव्यता के पश्चात् केवलज्ञानी द्वारा रत्नप्रभा आदि का ज्ञान और दर्शन (अर्थात्साकारोपयोग तथा निराकारपयोग) दोनों समकाल में होते हैं या क्रमशः होते हैं, इस प्रकार के दो प्रश्नों का समाधान किया गया है तथा ज्ञान और दर्शन का क्रमश: होना स्वीकार किया है। जिस समय अनाकारोपयोग (दर्शन) होता है, उस समय साकारोपयोग (ज्ञान) नहीं होता तथा जिस समय साकारोपयोग होता है, उस समय अनाकारोपयोग नहीं होता, इसी सिद्धान्त की पुष्टि की गई है। १. पण्णवणासतुत्तं भा. १ (मूलपाठ-टिप्पण), पृ. ४०८-९ २. (क) पण्णवणासुत्तं, भा. १ (मू.पा.टि.), पृ. ४१२ (ख) वही, भा. २ (परिशिष्ट), पृ. १३८ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगूणतीसइमं : उवओगपयं उनतीसवाँ उपयोगपद जीव आदि में उपयोग के भेद - प्रभेदों की प्ररूपणा [१९०८] कतिविहे णं भंते ! उवओगे पण्णत्ते ? गोयसा! दुविहे उवओगे पण्णत्ते । तं जहा - सागारोवओगे य अणागारोवओगे य । [११०८ प्र.] भगवन् ! उपयोग कितने प्रकार का कहा गया है? [११०९ उ.] गौतम ! वह दो प्रकार का कहा गया है, यथा-साकारोपयोग और अनाकारोपयोग। [१९०९] सागारोवओगे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा! अट्ठविहे पण्णत्ते। तं जहा-आभिणिबोहियणाणसागारोवओगे १ सुयणाणसागारोवओगे २ ओहिणाणसागारोवओगे ३ मणपजवणाणसागारोवओगे ४ केवलणाणसागारोवओगे ५ मतिअण्णाणसागारोवओगे ६ सुयअण्णाणसागारोवओगे ७ विभंगणाणसागारोवओगे ८ । १९०९ प्र. भगवन् ! साकारोपयोग कितने प्रकार का कहा गया है ? [१९०९ उ.] गौतम ! वह आठ प्रकार का कहा गया है। (१) आभिनिबोधिक - ज्ञानसाकारोपयोग, (२) श्रुतज्ञानसाकारोपयोग, (३) अवधिज्ञानसाकारोपयोग, (४) मनःपर्यवज्ञानसाकारोपयोग (५) केवलज्ञानसाकारोपयोग, (६) मति-अज्ञानसाकारोपयोग, (७) श्रुतअज्ञानसाकरोपयोग और (८) विभंगज्ञानसाकारोपयोग। १९१० अणागारोवओगे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! चउव्विहे पण्णत्ते । तं जहा - चक्खुदंसणअणागारोवओगे १ अचक्खुदंसणअणागारोवओगे ओहिदंसणअणागारोवओगे ३ केवलदंसणअणागारोवओगे ४। [१९१० प्र.] भगवन् अनाकारोपयोग कितने प्रकार का कहा गया है? [१९१० उ.] गौतम वह चार प्रकार का कहा गया है। यथा - चक्षुदर्शन-अनाकारोपयोग, (२) अचक्षुदर्शनअनाकारोपयोग, (३) अवधिदर्शन अनाकारोपयोग, (४) केवलदर्शन अनाकारोपयोग । १९११ एवं जीवाणं पि । [१९११] इसी प्रकार समुच्चय जीवों में भी (साकारोपयोग और अनाकारोपयोग क्रमशः आठ और चार प्रकार का है।) १९१२ णेरइयाणं भंते। कतिविहे उवओगे पण्णत्ते? गोयमा! दुविहे उवओगे पण्णत्ते। तं जहा-सागारोवओगे य अणागारोवओगे य। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४] [१९१२ प्र.] भगवान् नैरयिकों का उपयोग कितने प्रकार का कहा गया है ? [१९१२ उ.] गौतम ! वह दो प्रकार का कहा गया है। यथा • साकारोपयोग और अनाकारोपयोग । — १९१३ णेरइयाणं भंते! सागारोवओगे कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! छव्विहे पण्णत्ते तं जहा - मतिणाणसागरोवओगे १ सुयणाणसागारोवओगे २ ओहिणाणसागारो वओगे ३ मतिअण्णाणसागारोवओगे ४ सुयअण्णाणसागारोवओगे ५ विभंगणाणसागारोवओगे ६ । [१९१३ प्र.] भगवन् नैरयिकों का साकारोपयोग कितने प्रकार का कहा गया है ? [१९१३ उ.] गौतम वह छह प्रकार का कहा गया हैं यथा (१) मतिज्ञान- साकारोपयोग, (२) श्रुतज्ञानसाकारोपयोग (३) अवधिज्ञान- साकारोपयोग (४) मति - अज्ञान साकारोपयोग (५) श्रुत- अज्ञान - साकारोपयोग (६) विभंगज्ञान - साकारोपयोग | - [ प्रज्ञापनासूत्र ] १९१४ रइयाणं भंते ! अणागारोवओगे कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा! तिविहे पण्णत्ते । तं जहा - चक्खुदंसणअणागारोवओगे १ अचक्खुदंसणअणागारोवओगे २ ओहिदंसणअणागारोवओगे ३ य । [१९१४ प्र.] भगवन्! नैरयिकों का अनाकारोपयोग कितने प्रकार का कहा गया है ? [१९१४ उ.] गौतम! वह तीन प्रकार का कहा गया है यथा (१) चक्षुदर्शन - अनाकारोपयोग, (२) अचक्षुदर्शन- अनाकारोपयोग, (३) अवधिदर्शन- अनाकारोपयोग । १९९५ एवं जाव थणियकुमाराणं । १९१५ इसी प्रकार असुरकुमारों से लेकर स्तनितकुमारों तक के साकारोपयोग और अनाकारोपयोग का कथन करना चाहिए। १९१६ पुढविक्काइयाणं पुच्छा । गोयमा! दुबिहे उवओगे पण्णत्ते । तं जहा [१९१६ प्र.] भगवन्! पृथ्वीकायिक जीवों के उपयोग सम्बन्धी प्रश्न हैं । [१९१६ उ.] गौतम! उनका उपयोग दो प्रकार का कहा गया है। यथा-साकारोपयोग और अनाकारोपयोग । १९१७ पुढविक्काइयाणं भंते ! सागारोवओगे कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते । तं जहा - . मतिअण्णाणे सुयअण्णाणे । [१९१७ प्र.] भगवन्! पृथ्वीकायिक जीवों का साकारोपयोग कितने प्रकार का कहा गया है ? [१९१७ उ.] गौतम ! वह दो प्रकार का कहा गया है - यथा - १ मति- अज्ञान और २ श्रुतअज्ञान साकारोपयोग । १९१८ पुढविक्काइयाणं भंते ! अणागारोवओगे कतिविहे पण्णत्ते ? सागारोवओगे य अणागारोवओगे य । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उनतीसवाँ उपयोगपद ] [१५५ गोमा ! एगे अचक्खुदंसणाणागारोवओगे पण्णत्ते । [१९१८ प्र.] भगवन्! पृथ्वीकायिक जीवों का अनाकारोपयोग कितने प्रकार का कहा गया है ? [१९१८ उ.] गौतम! उनका एकमात्र अचक्षुदर्शन-अनाकारोपयोग कहा गया है। १९१९. एवं जाव वणस्सइकाइयाणं । [१९१९] इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक जीवों तक (के विषय में जानना चाहिए।) १९२०. बेइंदियाणं पुच्छा । गोयमा! दुविहे उवओगे पण्णत्ते । तं जहा- सागारे अणागारे य । [१९२० प्र.] भगवन्! द्वीन्द्रिय जीवों के उपयोग के विषय में पृच्छा है। [१९२० उ.] गौतम! उनका उपयोग दो प्रकार का कहा गया है, यथा - १९२१. बेइंदियाणं भंते! सागारोवओगे कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा! चउव्विहे पण्णत्ते । तं जहा - आभिणिबोहियणाणसागारोवओगे १ सुयणाणसागारोवओगे २ मतिअण्णाणसागारोवओगे ३ सुयअण्णाणसागारोवओगे ४ । [१९२१ प्र.] भगवन्! द्वीन्द्रिय जीवों का साकारोपयोग कितने प्रकार का कहा गया है ? साकारोपयोग और अनाकारोपयोग । [१९२१ उ.] गौतमं! उनका उपयोग चार प्रकार का कहा गया है । यथा - (१) आभिनिबोधिकज्ञानसाकारोपयोग, (२) श्रुतज्ञान- साकारोपयोग, (३) मति- अज्ञान - साकारोपयोग और (४) श्रुत- अज्ञान - साकारोपयोग । १९२२. बेइंदियाणं भंते! अणागारोवओगे कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! एगे अचक्खुदंसणअणागारोवओगे । [१९२२ प्र.] भगवन्! द्वीन्द्रिय जीवों का अनाकारोपयोग कितने प्रकार का कहा गया है ? [१९२२ उ.] गौतम! उनका एक ही अचक्षुदर्शन-अनाकारोपयोग है। १९२३. एवं तेइंदियाण वि । [१९२३] इसी प्रकार त्रीन्द्रिय जीवों (के साकारोपयोग और अनाकारोपयोग) का ( कथन करना चाहिए ।) १९२४. चउरिंदियाण वि एवं चेव । णवरं अणागारोवओग दुविहे पण्णत्ते । तं जहाचक्खुदंसणअणागारोवओगे य अचक्खुदंसणअणागारोवओगे य । [१९२४] चतुरिन्द्रिय जीवों के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए। किन्तु उनका अनाकारोपयोग दो प्रकार का कहा है, यथा-चक्षुदर्शन - अनाकारोपयोग और अचक्षुदर्शन-अनाकारोपयोग । १९२५. पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं जहा णेरइयाणं (सु. १९१२-१४)। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६] [प्रज्ञापनासूत्र] [१९२५] पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिक जीवों (के साकारोपयोग तथा अनाकारोपयोग) का कथन (सू. १९१२-१४ में उक्त)नैरयिकों के समान करना चाहिए। १९२६. मणुस्साणं जहा ओहिए उवओगे भणियं (सु. १९०८-१०) तहेव भाणियव्वं। ___ [१९२६] मनुष्यों के उपयोग (सू. १९०८-१० में उक्त) समुच्चय (औधिक) उपयोग के समान कहना चाहिए। १९२७. वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणियाणं जहा णेरइयाणं (सु. १६१२-१४) [१९२६] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों के साकारोपयोग-अनाकारोपयोग-सम्बन्धी कथन (सू. १९१२-१४ में उक्त) नैरयिकों के समान (करना चाहिए।) विवेचन - उपयोग : स्वरूप और प्रकार - जीव के द्वारा वस्तु के परिच्छेदज्ञान के लिए जिसका उपयोजन-व्यापार किया जाता है, उसे उपयोग कहते हैं । वस्तुतः उपयोग जीव का बोधरूप धर्म या व्यापार है। इसके दो भेद हैं-साकारोपयोग और अनाकारोपयोग। नियत पदार्थ को अथवा पदार्थ के विशेष धर्म को ग्रहण करना आकार है। जो आकार-सहित हो, वह साकार है। अर्थात्-विशेषग्राही ज्ञान को साकारोपयोग कहते हैं। आशय यह है कि आत्मा जब सचेतन या अचेतन वस्तु में उपयोग लगाता हुआ पर्यायसहित वस्तु को ग्रहण करता है, तब उसका उपयोग साकारोपयोग कहलाता है। काल की दृष्टि से छद्मस्थों का उपयोग अन्तर्मुहूर्त तक रहता है और केवलियों का एक समय तक ही रहता है । जिस उपयोग में पूर्वोक्तरूप आकार विद्यमान न हो, वह अनाकारोपयोग कहलाता है। वस्तु का सामान्यरूप से परिच्छेद करना-सत्तामात्र को ही जानना अनाकारोपयोग है। अनाकारोपयोग भी छद्मस्थों का अन्तर्मुहूर्त कालिक है। परन्तु अनाकारोपयोग के काल से साकारोपयोग का काल संख्यातगुणा जानना चाहिए क्योंकि विशेष का ग्राहक होने से उसमें अधिक समय लगता है। केवलियों के अनाकारोपयोग का काल तो एक ही समय का होता है। पृष्ठ १५९ पर दी तालिका से जीवों में साकारोपयोग-अनाकारोपयोग की जानकारी सुगमता से हो जाएगी। जीवों आदि में साकारोपयुक्तता-अनाकारोपयुक्तता-निरूपण १९२८. जीवा णं भंते! किं सागारोवउत्ता अणागारोवउत्ता? गोयमा! सागारोवउत्ता वि अणागारोवउत्ता वि। से केणठेणं भंते! एवं वुच्चइ जीवा सागारोवउत्ता वि अणागारोवउत्ता वि? गोयमा! जे णं जीवा आभिणिबोहियणाण-सुयणाण-ओहिणाण-मण-केवल-मतिअण्णाणसुयअण्णाण-विभंगणाणोवउत्ता ते णं जीवा सागारोवउत्ता, जे णं जीवा चक्खुदंसण-अचक्खुदंसण ओहिदसण-केवलदंसणोवउत्ता ते णं जीवा अणागारोवउत्ता, से तेणठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ जीवा सागारोवउत्ता वि अणागारोवउत्ता वि। १. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि. रा. को. भा. २, ८६०-६२ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उनतीसवाँ उपयोगपद ] [१९२८ प्र.] भगवन्! जीव साकरोपयुक्त होते है या अनाकारोपयुक्त होते हैं ? [१९२८ उ.] गौतम! जीव साकारोपयोग से उपयुक्त भी होते हैं और अनाकारोपयोग से भी उपयुक्त । [प्र.] भगवन्! किस कारण से ऐसा कहते हैं, कि जीव साकारोपयुक्त भी होते हैं और अनाकारोपयुक्त भी होते हैं ? [१५७ [उ.] गौतम! जो जीव आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान, केवलज्ञान तथा मतिअज्ञान, श्रुत-अज्ञान एवं विभंगज्ञान उपयोग वाले होते हैं, वे साकारोपयुक्त कहे जाते है और जो जीव चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन के उपयोग से युक्त होते हैं, वे अनाकारोपयुक्त कहे जाते हैं। इस कारण से हे गौतम! ऐसा कहा जाता है कि जीव साकारोपयुक्त भी होते हैं और अनाकारोपयुक्त भी होते हैं । १९२९. णेरड्या णं भंते! किं सागारोवउत्ता अणागारोवउत्ता ? गोयमा ! णेरड्या सागारोवउत्ता वि अणागारोवउत्ता वि । से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ ? गोयमा ! जे णं णेरड्या आभिणिबोहियणाण- सुय-ओहिणाण-मतिअण्णाण - सुयअण्णाणविभंगणाणोवउत्ता ते णं णेरड्या सागारोवउत्ता, जे णं णेरड्या चक्खुदंसण-अचक्खुदंसण- ओहिदंसणोवउत्ता ते णं णेरड्या अणागारोवउत्ता, से तेणट्ठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ जाव सागारोवउत्ता वि अणागारोवउत्ता वि । [१९२९ प्र.] भगवन्! नैरयिक साकारोपयुक्त होते हैं या अनाकारोपयुक्त होते हैं ? [१९२९ उ.] गौतम! नैरयिक साकारोपयुक्त भी होते हैं और अनाकारोपयुक्त भी होते हैं । [प्र.] भगवन्! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि नैरयिक साकारोपयुक्त भी होते हैं और अनाकारोपयुक्त भी होते हैं ? i [उ.] गौतम! जो नैरयिक आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान तथा मति- अज्ञान, श्रुत- अज्ञान और विभंगज्ञान के उपयोग से युक्त होते हैं, वे साकारोपयुक्त होते हैं और जो नैरयिक चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन के उपयोग से युक्त होते हैं, वे अनाकारोपयुक्त होते हैं। इस कारण से हे गौतम! ऐसा कहा जाता है नैरयिक साकारोपयुक्त भी होते हैं और अनाकारोपयुक्त भी होते हैं। १९३०. एवं जाव थणियकुमारा । [१९३०] इसी प्रकार का कथन स्तनितकुमारों तक करना चाहिए। १९३१. पुढविक्वाइयाणं पुच्छा । गोयमा ! तहेव जाव जे णं पुढविकाइया मतिअण्णाण - सुयअण्णाणोवउत्ता ते णं पुढविकाइया सागारोवउत्ता, जेणं पुढविकाइया अचक्खुदंसणोवउत्ता ते णं पुढविक्काइया अणागारोवउत्ता, से तेणट्ठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ जाव वणस्सइकाइया । [१९३१ प्र.] पृथ्वीकायिकों के विषय में इसी प्रकार की पृच्छा है। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रज्ञापनासूत्र ] [१९३१ उ.] गौतम ! पूर्ववत् (नारकादि के समान) जो पृथ्वीकायिक जीव मत्यज्ञान और श्रुत- अज्ञान के उपयोग वाले हैं, वे साकारोपयुक्त होते हैं तथा जो पृथ्वीकायिक जीव अचक्षुदर्शन के उपयोग वाले होते हैं, वे अनाकारोपयुक्त होते हैं। इस कारण से हे गौतम! यों कहा जाता है कि पृथ्वीकायिक जीव साकारोपयुक्त भी होते हैं और अनाकारोपयुक्त भी होते हैं। इसी प्रकार पूर्वोक्त कारणों से अप्कायिक, वायुकायिक, तेजस्कायिक और वनस्पतिकायिक साकारोपयुक्त भी होते हैं और अनाकारोपयुक्त भी होते हैं। १५८] १९३२. [ १ ] बेइंदियाणं अट्ठसहिया तहेव पुच्छा । गोयमा ! जाव जेणं बेइंदिया आभिणिबोहियणाण - सुयणाण-मतिअण्णाण सुयअण्णाणोवउत्ता ते णं बेइंदिया सागारोवउत्ता, जे णं बेइंदिया अचक्खुदंसणोवउत्ता ते णं बेइंदिया अणागारोवउत्ता, से तेणट्ठेणं गोमा ! एवं वुच्चति० । [१९३२ प्र.] भगवन्! द्वीन्द्रिय जीवों की (उपयोगयुक्तता के विषय में पूर्ववत्) कारण सहित पृच्छा है। [१९३२ उ.] गौतम ? यावत् जो द्वीन्द्रिय आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, मत्यज्ञान और श्रुत- अज्ञान के उपयोग वाले होते हैं, वे साकारोपयुक्त होते हैं और जो द्वीन्द्रिय अचक्षुदर्शन के उपयोग से युक्त होते हैं, वे अनाकारोपयुक्त होते हैं। इस कारण से हे गौतम! ऐसा कहा जाता है कि द्वीन्द्रिय जीव साकारोपयुक्त भी होते हैं। [ २ ] एवं जाव चउरिंदिया । णवरं चक्खुदंसणं अब्भइयं चउरिंदियाणं । [१८३२-२] इसी प्रकार ( त्रीन्द्रिय एवं ) यावत् चतुरिन्द्रिय जीवों के विषय में समझना चाहिए; विशेष यह है कि चतुरिन्द्रिय जीवों में चक्षुदर्शन अधिक कहना चाहिए। १९३३. पंचेंदियतिरिक्खजोणिया जहा णेरड्या (सु. १९२९ ) । [१९३३] पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिकों का ( कथन सू. १९२९ में उक्त) नैरयिकों के समान (जानना चाहिए।) १९३४. मणूसा जहा जीवा (सु. १९२८ ) । [१९३४] मनुष्यों के विषय में वक्तव्यता (सू. १९२८ में उक्त) समुच्चय जीवों के समान ( जानना चाहिए । ) १९३५. वाणमंतर - जोतिसिय-वेमाणिया जहा णेरड्या (सु. १९२९ ) । ॥ पण्णवणाए भगवतीए एगूणतीसइमं उवओगपयं समत्तं ॥ [१९३५] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के विषय में नैरयिकों के समान (कथन करना चाहिए।) विवेचन प्रस्तुत (सू. १९१८ से १९३५ तक) आठ सूत्रों में समुच्चय जीवों और चौबीस - दण्डकवर्ती जीवों में साकारोपयोगयुक्तता एवं अनाकारोपयोगयुक्तता का कारण पूर्वक कथन किया गया है। कथन स्पष्ट है। ॥ प्रज्ञापना भगवती का उनतीसवाँ उपयोगपद समाप्त ॥ - Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवों के नाम समुच्चय जीव मनुष्य साकारोपयोग कितने? आठ ही प्रकार का साकारोपयोग अनाकारोपयोग कितने? चारों ही प्रकार का अनाकारोपयोग कारण - क्योंकि इनमें सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनों प्रकार के जीव पाये जाते हैं, इस कारण आठों साकारो० व चारों अनाकारोपयोग [ उनतीसवाँ उपयोगपद] नैरयिक इन सब में ६ प्रकार के- इन सब में ३ प्रकार केदस प्रकार के भवनवासी मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, चक्षुदर्शन-अनाकारोपयोग पंचेन्द्रियतिर्यञ्च मत्यज्ञान, श्रुतज्ञान, विभंगज्ञान, अचक्षुदर्शन-अनाकारोपयोग वाणव्यन्तर देव अवधिदर्शन-अनाकारोपयोग ज्योतिष्क देव वैमानिक देव नारक, तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय, भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक ये सम्यग्दृष्टि भी होते हैं और मिथ्यादृष्टि भी। सम्यग्दृष्टि में तीन ज्ञान, मिथ्यादृष्टि में तीन अज्ञान पाये जाते है तथा दोनों में तीन । प्रकार के अनाकारोपयोग पाये जाते हैं। पृथ्वीकायिक देव पांच स्थावर एकेन्द्रिय दो प्रकार का-मति-अज्ञान श्रुत-अज्ञान-साकारोपयोग एक प्रकार का - अचक्षुदर्शन-अनाकारोपयोग जीव द्वीन्द्रिय जीव त्रीन्द्रिय जीव चतुरिन्द्रिय जीव चार प्रकार का-मतिज्ञान श्रुतज्ञान तथा मत्यज्ञान श्रुताज्ञान-साकारोपयोग एक ही प्रकार का-अचक्षुदर्शन एक ही प्रकार का-अचक्षुदर्शन दो प्रकार का-चक्षुदर्शन,अचक्षुदर्शन सम्यग्दर्शनरहित होने से दो प्रकार के अज्ञान तथा चक्षुरिन्द्रिरहित होने से एक अचक्षुदर्शन- अनाकारोपयोग होता है। होता है। तीनों विकलेन्द्रिय जीवों को मतिज्ञान और श्रुतज्ञान सास्वादनभाव को प्राप्त होते हुए ___ अपर्याप्तावस्था में होते है, इसलिए दो ज्ञान भी होते है। चतुरिन्द्रिय जीव के चक्षुरिन्द्रिय होने से चक्षुदर्शन भी पाया जाता है। १. (क) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति अभि. भा. २, पृ. ८६६-६७ ... (ख) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ७०७ से ७१३ [१५९ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसइमं पासणयापर्यं तीसवाँ पश्यत्तापद जीव एवं चौबीस दण्डकों में पश्यत्ता के भेद-प्रभेद की प्ररूपणा १९३६. कतिविहा णं भंते! पासणया पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पासणया पण्णत्ता । तं जहा - सागारपासणया अणागारपासणया य । [१९३६ प्र.] भगवन्! पश्यत्ता कितने प्रकार की कही गई है ? [१९३६ उ.] गौतम ! पश्यत्ता दो प्रकार की कही गई हे, यथा - साकारपश्यत्ता और अनाकारपश्यत्ता। १९३७. सागारपासणया णं भंते! कइविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! छव्विहा पण्णत्ता । तं जहा सुयणाणसागारपासणया १ ओहिणाणसागारपासणया २ मणपज्जवणाणसागारपासणया ३ के वलणाणसागारपासणया ४ सुयअन्नाणसागारपासणया ५ विभंगनाणसागारपासणया ६ । [१९३७ प्र.] भगवन्! साकारपश्यत्ता कितने प्रकार की कही गई है ? [१९३७ उ.] गौतम ! वह छह प्रकार की कही गई है, यथा (१) श्रुतज्ञानसाकारपश्यत्ता, (२) अवधिज्ञानसाकारपश्यत्ता, (३) मनः पर्यवज्ञानसाकार पश्यत्ता, (४) केवलज्ञानसाकारपश्यत्ता, (५) श्रुतअज्ञानसाकारपश्यत्ता और (६) विभंगज्ञानसाकारपश्यत्ता । १९३८. अणागारपासणया णं भंते! कतिविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! तिविहा पण्णत्ता । तं जहा - चक्खुदंसणअणागारपासणया १ ओहिदंसणअणागारपासणया २ केवलदंसणअणागारपासणया ३ । - [१९३८ प्र.] भगवन्! अनाकारपश्यत्ता कितने प्रकार की कही गई है ? [१९३८ उ.] गौतम! वह तीन प्रकार की कही गई है। यथा - (१) चक्षुदर्शनअनाकारपश्यत्ता, (२) अवधिदर्शनअनाकारपश्यत्ता और (३) केवलदर्शन अनाकारपश्यत्ता। १९३९. एवं जीवाणं पि । [१९३९] इसी प्रकार (छह प्रकार की साकारपश्यत्ता और तीन प्रकार की अनाकारपश्यत्ता) समुच्चय जीवों में ( कहनी चाहिए।) १. 'पासणया' शब्द का संस्कृतरूपान्तर 'पश्यनका - पश्यना' भी होता है, वह सहसा यह भ्रम खड़ा कर देता है, कि कहीं यह वर्तमान में प्रचारित बौद्धधर्म-संदिष्ट विपश्यना तो नहीं है ? परन्तु आगे के वर्णन को देखते हुए यह भ्रम मिट जाता है। - सम्पादक Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ तीसवाँ पश्यत्तापद] [१६१ १९४०. णेरइयाणं भंते! कतिविहा पासणया पण्णत्ता? गोयमा! दुविहा पण्णत्ता। तं जहा - सागारपासणया अणागारपासणया य। [१९४० प्र.] भगवन् ! नैरयिक जीवों की पश्यत्ता कितने प्रकार की कही गई है ? [१९४० उ.] गौतम! दो प्रकार की कही गई है, यथा-साकारपश्यत्ता और अनाकारपश्यत्ता। १९४१. णेरइयाणं भंते! सागारपासणया कतिविहा पण्णत्ता ? गोयमा! चउव्विहा पण्णत्ता। तं जहा-सुयणाणसागारपासणया १ ओहिणाणसागारपासणया २ सुयअण्णाणसागारपासणया ३ विभंगणाणसागारपासणया ४। [१९४१ प्र.] भगवन् ! नैरयिक की साकारपश्यत्ता कितने प्रकार की कही गई है ? [१९४१ उ.] गौतम! उनकी पश्यत्ता चार प्रकार की कही गई है, यथा – (१) श्रुतज्ञानसाकारपश्यत्ता, (२) अवधिज्ञानसाकारपश्यत्ता, (३) श्रुत-अज्ञानसाकारपश्यत्ता और (४) विभंगज्ञानसाकारपश्यत्ता। १९४२. णेरइयाणं भंते! अणागारपासणया कतिविहा पण्णत्ता ? .गोयमा! दुविहा पण्णत्ता । तं जहा - चक्खुदंसणअणागारपासणया य ओहिदंसणअणागारपासणया य। [१९४२ प्र.] भगवन् ! नैरयिकों की अनाकारपश्यत्ता कितने प्रकार की कही गई है ? [१९४२ उ.] गौतम! वह दो प्रकार की कही गई है, यथा - चक्षुदर्शन-अनाकारपश्यत्ता और अवधिदर्शन - अनाकारपश्यत्ता। १९४३. एवं जाव थणियकुमारा । [१९४३] इसी प्रकार स्तनितकुमारों तक (की पश्यत्ता जाननी चाहिए।) १९४४. पुढविक्काइयाणं भंते! कतिविहा पासणया पण्णत्ता ? गोयमा! एगा सागारपासणया। [१९४४ प्र.] भगवन्! पृथ्वीकायिक जीवों की पश्यत्ता कितने प्रकार की कही गई है ? [१९४४ उ.] गौतम! उनमें एक साकारपश्यत्ता कही है। १९४५. पुढविक्काइयाणं भंते! सागारपासणया कतिविहा पण्णत्ता ? गोयमा! एगा सुयअण्णाणसगारपासणया पण्णत्ता ? [१९४५ प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिकों की साकारपश्यत्ता कितने प्रकार की कही गई है? [१९४५ उ.] गौतम! उनमें एक मात्र श्रुत-अज्ञानसाकारपश्यत्ता कही गई है। १९४६. एवं जाव वणस्सइकाइयाणं। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२] [प्रज्ञापनासूत्र] [१९४६] इसी प्रकार (अप्कायिकों से लेकर) यावत् वनस्पतिकायिकों तक (की पश्यत्ता जाननी चाहिए।) १९४७. बेइंदियाणं भंते! कतिविहा पासणया पण्णत्ता ? गोयमा! एगा सागारपासणया पण्णत्ता । [१९४७ प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीवों की कितने प्रकार की पश्यत्ता कही गई है ? [१९४७ उ.] गौतम! उनमें एकमात्र साकारपश्यत्ता कही गई है। १९४८. बेइंदियाणं भंते! सागारपासणया कतिविहा पण्णत्ता ? गोयमा! दुविहा पण्णत्ता। तं जहा - सुयणाणसागारपासणया य सुयअण्णाणसागारपासणया य। [१९४८ प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीवों की सागारपश्यत्ता कितने प्रकार की कही है ? [१९४८ उ.] गौतम! दो प्रकार की कही गई है, यथा-श्रुतज्ञानसाकारपश्यत्ता और श्रुत-अज्ञानसाकारपश्यत्ता। १९४९. एवं तेइंदियाण वि। [१९४९] इसी प्रकार त्रीन्द्रिय जीवों की (वक्तव्यता) भी (जाननी चाहिए।) १९५०. चउरिंदियाणं पुच्छा। गोयमा! दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-सागारपासणया य अणागारपासणया य। सागरपासणया जहा बेइंदियाणं (सु. १९४७-४८)।। [१९५०प्र.] भगवन्! चतुरिन्द्रिय जीवों की पश्यत्ता कितने प्रकार की कही गई है? [१९५० उ.] गौतम! उनकी पश्यत्ता दो प्रकार की कही गई है, यथा - साकारपश्यत्ता और अनाकारपश्यत्ता। इनकी साकारपश्यत्ता द्वीन्द्रियों की (सू. १९४७-४८ में कहे अनुसार) साकारपश्यत्ता के समान जाननी चाहिए। १९५१. चउरिदियाणं भंते! अणागारपासणया कतिविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! एगा चक्खुदंसणअणागारपासणया पण्णत्ता। [१९५१ प्र.] भगवन्! चतुरिन्द्रिय जीवों की अनाकारपश्यत्ता कितने प्रकार की कही गई है ? .. [१९५१ उ.] गौतम! उनकी एकमात्र चक्षुदर्शन-अनाकारपश्यत्ता कही है। १९५२. मणूसाणं जहा जीवाणं (सु. १९३९) । [१९५२] मनुष्यों (की साकारपश्यत्ता और अनाकारपश्यत्ता) का कथन (सू. १९३९ में उक्त) समुच्चय जीवों के समान है। १९५३. सेसा जहा णेरइया (सु. १९४०-४२) जाव वेमाणिया। [१९५३] वैमानिक पर्यन्त शेष समस्त दण्डकों की पश्यत्ता-सम्बन्धी वक्तव्यता (सू. १९४०-४२ में उक्त) नैरयिकों के समान कहनी चाहिए। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [तीसवाँ पश्यत्तापद] [१६३ विवेचन - उपयोग और पश्यत्ता में अन्तर - मूलपाठ में दोनों में कोई अन्तर नहीं बताया गया। व्याकरण की दृष्टि से पश्यत्ता का अर्थ है-देखने का भाव। उपयोग शब्द के समान पश्यत्ता के भी दो भेद किये गए हैं । आचार्य अभयदेव ने थोडा-सा स्पष्टीकरण किया है। कि यों तो पश्यत्ता एक उपयोग-विशेष ही है, किन्तु उपयोग और पश्यत्ता में थोडा-सा अन्तर है। जिस बोध में केवल त्रैकालिक (दीर्घकालिक) अवबोध हो, वह पश्यत्ता है तथा जिस बोध में केवल वर्तमानकालिक बोध हो, वह उपयोग है। यही कारण है कि साकारपश्यत्ता के भेदों में मतिज्ञान और मत्यज्ञान, इन दोनों को नहीं लिया गया है, क्योंकि इन दोनों का विषय वर्तमानकालिक अविनष्ट पदार्थ ही होता है तथा अनाकारपश्यत्ता में अचक्षुदर्शन का समावेश इसलिए नहीं किया गया है कि पश्यत्ता एक प्रकार का प्रकृष्ट ईक्षण है, जो चक्षुरिन्द्रिय से ही सम्भव है तथा दूसरी इन्द्रियों की अपेक्षा चक्षुरिन्द्रिय का उपयोग अल्पकालिक और द्रुततर होता है, यही पश्यत्ता की प्रेक्षण-प्रकृष्टता में कारण है। अतः अनाकारपश्यत्ता का लक्षण है-जिसमें विशिष्ट परिस्फुटरूप देखा जाए । यह लक्षण चक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन में ही घटित हो सकता है। वस्तुतः प्राचीन कालिक व्याख्याकारों के अनुसार पश्यत्ता और उपयोग के भेदों में अन्तर ही इनकी व्याख्या को ध्वनित कर देते हैं। ___ साकारपश्यत्ता का प्रमाण - आभिनिबोधिकज्ञान उसे कहते हैं, जो अवग्रहादिरूप हो, इन्द्रिय तथा मन के निमित्त से उत्पन्न हो तथा वर्तमानकालिक वस्तु का ग्राहक हो। इस दृष्टि से मतिज्ञान और मत्यज्ञान दोनों में साकारपश्यत्ता नहीं है, जबकि श्रुतज्ञानादि छहों अतीत और अनागत विषय के ग्राहक होने से साकारपश्यत्ता शब्द के वाच्य होते हैं। श्रुतज्ञान त्रिकालविषयक होता है। अवधिज्ञान भी असंख्यात अतीत और अनागतकालिक उत्सर्पिणियोंअवसर्पिणियों को जानने के कारण त्रिकाल-विषयक है। मनःपर्यायज्ञान भी पल्योपम के असंख्यात भागप्रमाण अतीत-अनागतकाल का परिच्छेदक होने से त्रिकालविषयक है। केवलज्ञान की त्रिकालविषयता तो प्रसिद्ध ही है। श्रुतज्ञान और विभंगज्ञान भी त्रिकाल विषयक होते हैं, क्योंकि ये दोनों यथायोग्य अतीत और अनागत भावों के परिच्छेदक होते हैं । अतएव पूर्वोक्त छहों ही साकरपश्यत्ता वाले हो सकते हैं।' जीव और चौवीस दण्डकों में साकरपश्यत्ता और अनाकारपश्यत्ता का निरूपण १९५४. जीवा णं भंते! कि सागारपस्सी अणागारपस्सी ? गोयमा! जीवा सागारपस्सी वि अणागारपस्सी वि। से केणढेणं भंते! एवं वुच्चति जीवा सागारपस्सी वि अणागारपस्सी वि ? गोयमा! जे णं जीवा सुयणाणी ओहिणाणी मणपजवणाणी केवलणाणी सुयअण्णाणी विभंगणाणी ते णं जीवा सागारपस्सी, जे णं जीवा चक्खुदंसणी ओहिदंसणी केवलदसणी ते णं जीवा अणागारपस्सी, से तेणढेणं गोयमा! एवं वुच्चति जीवा सागारपस्सी वि अणागारपस्सी वि। १. (क) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ५३० (ख) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भाग ५, पृ. ७२९ से ७३१ (ग) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ७१४ २. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भाग ५, पृ.७३१-७३२ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४] [प्रज्ञापनासूत्र] [१९५४ प्र.] भगवन् ! जीव साकारपश्यत्ता वाले होते हैं या अनाकारपश्यत्ता वाले होते हैं ? [१९५४ उ.] गौतम! जीव साकारपश्यत्ता वाले भी होते हैं और अनाकारपश्यत्ता वाले भी होते हैं। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि जीव साकारपश्यत्ता वाले भी होते हैं और अनाकारपश्यत्ता वाले भी होते हैं ? [उ.] गौतम! जो जीव श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, केवलज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी और विभंगज्ञानी होते हैं, वे साकारपश्यत्ता वाले होते हैं और जो जीव चक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी और केवलदर्शनी होते हैं, वे अनाकारपश्यत्ता वाले होते हैं। इस कारण से हे गौतम ! यों कहा जाता है कि जीव साकारपश्यत्ता वाले भी होते हैं और अनाकारपश्यत्ता वाले भी होते हैं। १९५५. णेरइया णं भंते! किं सागारपस्सी अणागारपस्सी ? गोयमा! एवं चेव। णवरं सागारपासणयाए मणपजवणाणी केवलणाणी ण वुच्चति, अणागारपासणयाए केवलदंसणं णत्थि। [१९५५ प्र.] भगवन् ! नैरयिक जीव साकारपश्यत्ता वाले हैं या अनाकारपश्यत्ता वाले हैं? [१९५५ उ.] गौतम ? पूर्ववत् (दोनों प्रकार के हैं।) परन्तु इनमें (नैरयिकों में) साकारपश्यत्ता के रूप में मनःपर्यायज्ञानी और केवलज्ञानी नहीं कहना चाहिए तथा अनाकरपश्यत्ता में केवयलदर्शन नहीं है। १९५६. एवं जाव थणियकुमारा। [१९५६] इसी प्रकार (की वक्तव्यता) स्तनितकुमारों तक (कहनी चाहिए)। १९५७. [१] पुढविक्काइयाणं पुच्छा। गोयमा! पुढविक्काइया सागारपस्सी, णो अणागारपस्सी। से केणढेणं भंते! एवं वुच्चति ? गोयमा! पुढविक्काइयाणं एगा सुयअण्णाणसागारपासणया पण्णत्ता, से तेणद्वेणं गोयमा! एवं वुच्चतिः । [१९५७-१ प्र.] पृथ्वीकायिक जीवों के विषय में पूर्ववत् प्रश्न है। [१९५७-१ उ.] गौतम! पृथ्वीकायिक जीव साकारपश्यत्ता वाले हैं, अनाकारपश्यत्ता वाले नहीं हैं। [प्र.] भगवन्! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि पृथ्वीकायिक जीव साकारपश्यत्ता वाले हैं, अनाकारपश्यत्ता वाले नहीं हैं ? [उ.] गौतम! पृथ्वीकायिकों में एकमात्र श्रुत-अज्ञान (होने से) साकारपश्यत्ता कही है। इस कारण से हे गौतम ? ऐसा कहा जाता है कि पृथ्वीकायिक साकारपश्यत्ता वाले हैं, अनाकारपश्यत्ता वाले नहीं हैं। [२] एवं जाव वणस्सइकाइया। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [तीसवाँ पश्यत्तापद] [१६५ [१९५७-२] इसी प्रकार (अप्कायिक से लेकर) वनस्पतिकायिकों तक के (सम्बन्ध में कहना चाहिए।) १९५८. बेइंदियाणं पुच्छा। गोयमा! सागारपस्सी, णो अणागारपस्सी। से केणट्टेणं भंते! एवं वुच्चति ? . गोयमा! बेइंदियाणं दुविहा सागारपासणया पण्णत्ता। तं जहा-सुयणाणसागारपासणया य सुयअण्णाणसागारपासणया य, से तेणढेणं गोयमा! एवं वुच्चतिः। [१९५८ प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीव साकरपश्यत्ता वाले हैं या अनाकारपश्यत्ता वाले हैं ? [१९५८ उ.] गौतम! वे साकारपश्यत्ता वाले हैं, अनाकारपश्यत्ता वाले नही हैं । [प्र.] भगवन्! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि द्वीन्द्रिय साकारपश्यत्ता वाले हैं, अनाकारपश्यत्ता वाले नहीं हैं? [उ.] गौतम! द्वीन्द्रिय जीवों की दो प्रकार की साकार पश्यत्ता कही है। यथा-श्रुतज्ञानसाकरपश्यत्ता और श्रुत-अज्ञानसाकरपश्यत्ता । इस कारण से हे गौतम! ऐसा कहा जाता है कि द्वीन्द्रिय साकारपश्यत्ता वाले हैं, अनाकारपश्यत्ता वाले नहीं हैं। १९५९. एवं तेइंदियाण वि। [१९५९] इसी प्रकार त्रीन्द्रिय जीवों के विषय में समझना चाहिए । १९६०. चउरिंदियाणं पुच्छा। गोयमा! चउरिंदिया सागारपस्सी वि अणागारपस्सी वि। से केणठेणं०? गोयमा! जे णं चउरिदिया सुयणाणी सुयअण्णाणी ते णं चउरिंदिया सागारपस्सी, जे णं चउरिं दिया चक्खुदंसणी ते णं चरिंदिया अणागारपस्सी, से तेणठेणं गोयमा! एवं वुच्चतिः । [१९६० प्र.] भवगन्! चतुरिन्द्रिय जीव साकारपश्यत्ता वाले हैं या अनाकारपश्यत्ता वाले हैं ? [१९६० उ.] गौतम! चतुरिन्द्रिय जीव साकारपश्यत्ता वाले हैं और अनाकारपश्यत्ता वाले भी हैं। [प्र.] भगवन्! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि चतुरिन्द्रिय जीव साकारपश्यत्ता वाले हैं और अनाकारपश्यत्ता वाले भी हैं ? [उ.] गौतम! जो चतुरिन्द्रिय जीव श्रुतज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी हैं, वे साकारपश्यत्ता वाले हैं और चतुरिन्द्रिय वाले होने से चक्षुदर्शनी हैं, अतः अनाकारपश्यत्ता वाले हैं। इस हेतु से हे गौतम! यों कहा जाता है कि चतुरिंन्द्रिय साकारपश्यत्ता वाले भी हैं और अनाकारपश्यत्ता वाले भी हैं। १९६१. मणूसा जहा जीवा (सु. १९५४)। [१९६१] मनुष्यों से सम्बन्धित कथन (सू. १९५४ में उक्त) समुच्चय जीवों के समान है। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६] [प्रज्ञापनासूत्र] १९६२. अवसेसा जहा णेरइया (सु. १९५५) जाव वेमाणिया। [१९६२] अवशिष्ट सभी (वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क तथा) वैमानिक तक के विषय में (सू. १९५५ में उक्त) नैरयिकों के समान (जानना चाहिए।) विवेचन – किन-किन जीवों में साकारपश्यत्ता और अनाकारपश्यत्ता होती है और क्यों? -(१) समुच्चय जीवों में जो जीव श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन:पर्यवज्ञानी या केवलज्ञानी हैं अथवा श्रुताज्ञानी या विभंगज्ञानी हैं, वे साकारपश्यत्ता वाले हैं, क्योंकि उनका ज्ञान साकारपश्यत्ता से युक्त है। जो जीव चक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी तथा केवलदर्शनी हैं, वे अनाकारपश्यत्ता वाले हैं, क्योंकि उनका बोध अनाकारपश्यत्ता है। मनुष्यों में भी समुच्चय जीवों के समान साकारपश्यत्ता और अनाकारपश्यत्ता दोनों हैं। नारक भी साकारपश्यत्ता और अनाकारपश्यत्ता वाले हैं. किन्तु नारक मनपर्यवज्ञान और केवलज्ञान रूप साकारपश्यत्ता से युक्त नहीं होते, तथैव केवलदर्शन रूप अनाकारपश्यत्ता वाले भी वे नहीं होते। इसका कारण यह है नारक चारित्र अंगीकार नहीं कर सकते, अतएव उनमें ये तीनों सम्भव नहीं होते। पृथ्वीकायिक आदि पांचों एकेन्द्रिय तथा द्वीन्द्रिय और त्रीन्द्रिय जीव साकारपश्यत्ता वाले होते हैं, अनाकारपश्यत्ता नहीं होती, क्योंकि एकेन्द्रिय जीवों में श्रुताज्ञान रूप साकारपश्यत्ता होती है, अनाकारपश्यत्ता नहीं होती, क्योंकि उनमें विशिष्ट परिस्फुट बोध रूप पश्यत्ता नहीं होती। चतुरिन्द्रियों में दोनों ही पश्यत्ताएँ होती हैं, क्योंकि उनके चक्षुरिन्द्रिय होने से चक्षुदर्शनरूप अनाकारपश्यत्ता भी होती है । चतुरिन्द्रिय जीव श्रुतज्ञानी एवं श्रुताज्ञानी होने से वे साकारपश्यत्तायुक्त होते ही हैं । भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक जीव नारकों की तरह साकारपश्यत्ता और अनाकारपश्यत्ता से युक्त होते हैं।' केवली में एक समय में दोनों उपयोगों के निषेध की प्ररूपणा ___ १९६३. केवली णं भंते ! इमं त्यणप्पभं पुढविं आगारेहिं हेतूहिं उवमाहिं दिटुंतेहिं वण्णेहिं संठाणेहिं पमाणेहिं पडोयारेहिं जं समयं जाणइ तं समयं पासइ जं समयं पासइ तं समयं जाणइ ? गोयमा ! णो इणठे समढे। से केणढेणं भंते ! एवं वुच्चति केवली णं इमं रयणप्पभं आगारेहिं जाव जं समयं जाणइ णो तं समयं पासइ जं समयं पासइ णो तं समयं जाणइ? गोयमा! सागारे से णाणे भवति अणागारे से दंसणे भवति, से तेणट्टेणं जाव णो तं समयं जाणइ। एवं जाव अहेसत्तमं । एवं सोहम्मं कप्पं जाव अच्चुयं गेवेजगविमाणे अणुत्तरविमाणे ईसीपब्भारं पुढविं परमाणुपोग्गलं दुपएसियं खंधं अणंतपदेसियं खंधं। [१९६३ प्र.] भगवन् ! क्या केवलज्ञानी इस रत्नप्रभापृथ्वी को आकारों से, हेतुओं से, उपमाओं से, दृष्टान्तों से, वर्णों से, संस्थानों से, प्रमाणों से और प्रत्यवतारों से जिस समय जानते हैं, उस समय देखते हैं तथा जिस समय देखते हैं, उस समय जानते हैं? १. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५. पृ.७३९ से ७४४ तक (ख) पण्णवणासुत्तं भा. १ (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), पृ. ४११-४१२ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ तीसवाँ पश्यत्तापद ] [१९६३ उ. ] गौतम ! यह अर्थ ( बात) समर्थ (शक्य) नहीं है। [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहा जाता कि केवली इस रत्नप्रभापृथ्वी को आकारों से यावत् प्रत्यवतारों से जिस समय जानते हैं, उस समय नहीं देखते और जिस समय देखते हैं, उस समय नहीं जानते हैं ? [१६७ [उ.] गौतम ! जो साकार होता है, वह ज्ञान होता है और जो अनाकार होता है, वह दर्शन होता है, [ इसलिए जिस समय साकारज्ञान होगा, उस समय अनाकारज्ञान (दर्शन) नहीं रहेगा, इसी प्रकार जिस समय अनाकारज्ञान (दर्शन) होगा, उस समय साकारज्ञान नहीं होगा। ] इस कारण से हे गौतम! ऐसा कहा जाता है कि केवलज्ञानी जिस समय जानता है, उस समय देखता नहीं यावत् जानता नहीं। इसी प्रकार शर्कराप्रभापृथ्वी से यावत् अधः सप्तमनरकपृथ्वी तक के विषय में जानना चाहिए और इसी प्रकार ( का कथन ) सौधर्मकल्प से लेकर अच्युतकल्प, ग्रैवेयकविमान, अनुत्तरविमान, ईषत्प्राग्भारापृथ्वी, परमाणुपुद्गल, द्विप्रदेशिक स्कन्ध यावत् अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक के जानने और देखने के विषय में समझना चाहिए। (अर्थात् इन्हें जिस समय केवली जानते हैं, उस समय देखते नहीं और जिस समय देखते हैं, उस समय जानते नहीं) १९६४. केवली णं भंते ! इमं रयणप्पभं पुढविं अणागारेहिं अहेतूहिं अणुवमाहिं अदिट्ठतेहिं अवण्णेहिं असंठाणेहिं अपमाणेहिं अपडोयारेहिं पासइ, ण जाणइ ? हंता गोयमा ! केवली णं इमं रयणप्पभं पुढविं अणागारेहिं अहेतूहिं जाव पासइ, ण जाणइ । सेकेणट्ठे भंते! एवं वुच्चति केवली णं इमं रयणप्पभं पुढविं अणागारेहिं जाव पासइ, ण जाणइ ? गोयमा ! अणागारे से दंसणे भवति सागारे से णाणे भवति, से तेणट्ठेणं गोयमा एवं वुच्चति केवली णं इमं रयणप्पभं पुढविं अणागारेहिं जाव पासइ, ण जाणइ । एवं जाव ईसीपब्भारं पुढविं परमाणुपोग्गलं अणतपदेसियं पासइ, ण जाणइ । [१९६४ प्र.] भगवान ! क्या केवलज्ञानी इस रत्नप्रभापृथ्वी को अनाकारों से, अहेतुओं से, अनुपमाओं से, अदृष्टान्तों से, अवर्णों से, असंस्थानों से, अप्रमाणों से और अप्रत्यवतारों से देखते हैं, जानते नहीं हैं ? [१९६४ उ. ] हाँ, गौतम ! केवली इस रत्नप्रभापृथ्वी को अनाकारों से यावत् देखते हैं, जानते नहीं हैं। [प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि केवली इस रत्नप्रभापृथ्वी को अनाकारों से यावत् देखते हैं, जानते नहीं ? [उ.] गौतम ! जो अनाकार होता, वह दर्शन (देखना) होता है और साकार होता है, वह ज्ञान (जानना) होता है। इस अभिप्राय से हे गौतम! ऐसा कहा जाता है कि केवली इस रत्नप्रभापृथ्वी को अनाकारों से "यावत् देखते हैं, जानते नहीं हैं। इसी प्रकार (अनाकारों से यावत् अप्रत्यवतारों से शेष छहों नरकपृथ्वियों, वैमानिक देवों के विमानों) यावत् ईषत्प्राग्भारापृथ्वी, परमाणुपुद्गल तथा अनन्त प्रदेशी स्कन्ध को केवली देखते हैं, किन्तु जानते नहीं, (यह कहना चाहिए ) ॥ पण्णवणाए भगवतीए तीसइमं पासणयापयं समत्तं ॥ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८] [ प्रज्ञापनासूत्र ] विवेचन – केवली के द्वारा ज्ञान और दर्शन के समकाल में न होने की चर्चा - ( १ ) इस प्रश्न के उठने का कारण छद्मस्थ जीव तो कर्मयुक्त होते हैं, अतः उनका साकारोपयोग और अनाकारोपयोग क्रम से ही प्रादुर्भूत हो सकता है, क्योंकि कर्मों से आवृत जीवों के एक उपयोग के समय, दूसरा उपयोग कर्म से आवृत हो जाता है। इस कारण दो उपयोगों का एक साथ होना विरुद्ध है । अतः जिस समय छद्मस्थ जानता है, उसी समय देखता नहीं है, किन्तु उसके बाद ही देख सकता है। मगर केवली के चार घातिक कर्मों का क्षय हो चुका है। अतः ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय कर्मों का सर्वथा क्षय हो जाने के कारण उनको ज्ञान और दर्शन दोनों एक साथ होने में कोई विरोध या बाधा नहीं है। ऐसी आशंका से गौतमस्वामी द्वारा यह प्रश्न उठया गया कि क्या केवली रत्नप्रभा आदि को जिस समय जानते हैं, उसी समय देखते हैं अथवा जीव-स्वभाव के कारण क्रम से जानते-देखते हैं ?” आगारेहिं आदि पदों का स्पष्टीकरण - ( १ ) आगारेहिं - केवली भगवान् इस रत्नप्रभापृथ्वी आदि को अर्थात् आकार-प्रकारों से यथा यह रत्नप्रभापृथ्वी खरकाण्ड, पंककाण्ड और अप्काण्ड के भेद से तीन प्रकार की है खरकाण्ड के भी सोलह भेद हैं उनमें से एक सहस्रयोजन प्रमाण रत्नकाण्ड है, तदनन्तर एक सहस्त्रयोजनपरिमित वज्रकाण्ड है, फिर उसके नीचे सहस्रयोजन का वैडूर्यकाण्ड है, इत्यादि रूप के आकार-प्रकारों से समझना । ( २ ) हेऊहिं – हेतुओं से अर्थात् उपपत्तियों से - युक्तियों से । यथा - इस पृथ्वी का नाम रत्नप्रभा क्यों है ? युक्ति आदि द्वारा इसका समाधान यह है कि रत्नमयकाण्ड होने से या रत्न की ही प्रभा या स्वरूप होने से नाम सार्थक है । ( ३ ) उवमाहिं – उपमाओं से अर्थात् सदृशताओं से। जैसे कि - वर्ण से पद्मराग के सदृश रत्नप्रभा में रत्नप्रभ आदि काण्ड हैं, इत्यादि । ( ४ ) दिट्ठतेहिं – दृष्टान्तों उदाहरणों से या वादी प्रतिवादी की बुद्धि समता-प्रतिपादक वाक्यों से। जैसे घट, पट आदि से भिन्न होता है, वैसे ही यह रत्नप्रभापृथ्वी शर्कराप्रभा आदि अन्य नरकपृथ्वियों से भिन्न है, क्योंकि इसके धर्म उनसे भिन्न हैं । इसलिए रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा आदि से भिन्न वस्तु है, इत्यादि । (५) वण्णेहिं वर्ण - गन्धादि के भेद से । शुक्ल आदि वर्णों से उत्कर्ष - अपकर्षकरूप संख्यातगुण, असंख्यातगुण और अनन्तगुण के विभाग से तथा गन्ध, रस और स्पर्श के विभाग से । ( ६ ) संठाणेहिं – संस्थानोंआकारों से अर्थात् रत्नप्रभापृथ्वी में बने भवनों और नरकवासों की रचना के आकारों से। जैसे - वे भवन बाहर से गोल और अन्दर से चौकोर हैं नीचे पुष्कर की कर्णिका की आकृति के हैं। इसी प्रकार नरक अन्दर से गोल और बाहर से चौकोर हैं और नीचे से क्षुरप्र (खुरपा) के आकार के हैं, इत्यादि। (७) पमाणेहिं – प्रमाणों से अर्थात् उसकी लम्बाई, मोटाई, चौड़ाई आदि रूप परिमाणों से। जैसे वह एक लाख अस्सी हजार योजन मोटाई वाली तथा रज्जू-प्रमाण लम्बाई-चौड़ाई वाली है, इत्यादि । ( ८ ) पडोयारेहिं – प्रत्यवतारों से अर्थात् पूर्णरूप से चारों ओर से व्याप्त करने वाले पदार्थों (प्रत्यवतारों) से। जैसे – घनोदधि आदि वलय सभी दिशाओं - विदिशाओं में व्याप्त कर रहे हुए हैं, अतः वे प्रत्यवतार कहलाते हैं। इस प्रकार के प्रत्यवतारों के जानना । - प्रथम प्रश्न का तात्पर्य - क्या केवली भगवान् पूर्वोक्त आकारादि से रत्नप्रभादि को जिस समय केवलज्ञान से जानते हैं, उसी समय केवलदर्शन से देखते भी हैं तथा जिस समय वे केवलदर्शन से देखते हैं, क्या उसी समय केवलज्ञान से जानते भी हैं ? १. प्रज्ञापनासूत्र (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५ पृ. ७४७ से ७४८ तक Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [तीसवाँ पश्यत्तापद] [१६९ उत्तर का स्पष्टीकरण - उपर्युक्त प्रश्न का उत्तर 'ना' में है क्योंकि केवली भगवान् का ज्ञान साकार अर्थात् विशेष का ग्राहक होता है, जबकि उनका दर्शन अनाकार अर्थात् सामान्य का ग्राहक होता है। अतएव केवली भगवान् जब ज्ञान के द्वारा विशेष का परिच्छेद करते हैं, तब जानते हैं, ऐसा कहा जाता है और जब दर्शन के द्वारा अनाकार यानी सामान्य को ग्रहण करते हैं, तब देखते हैं, ऐसा कहा जाता है। सविशेषं पुनर्ज्ञानम् इस लक्षण के अनुसार वस्तु का विशेषयुक्त बोध या विशेषग्राहक बोध ही ज्ञान होता है। अतः केवली का ज्ञान साकार यानी विशेष का ही ग्राहक होता है, अन्यथा उसे ज्ञान ही नहीं कहा जा सकता और दर्शन अनाकार यानी सामान्य का ही ग्राहक होता है, क्योंकि दर्शन का लक्षण ही है - ‘पदार्थों को विशेषरहित ग्रहण करना।' अतः सिद्धान्त यह है कि जब ज्ञान होता है, तब ज्ञान ही होता है और जब दर्शन होता है, तब दर्शन ही होता है। ज्ञान और दर्शन छाया और आतप (धूप) के समान साकाररूप एवं अनाकाररूप होने से परस्पर विरोधी हैं। ये दोनों एक साथ उपयुक्त नहीं रह सकते। अतएव केवली जिस समय जानते हैं, उस समय देखते नहीं और जिस समय देखते हैं, उस समय जानते नहीं। जीव के कतिपय प्रदेशों में ज्ञान हो और कतिपय प्रदेशों में दर्शन हो, इस प्रकार एक ही साथ खण्डशः ज्ञान और दर्शन सम्भव नहीं है। सातों नरकपृथ्वियों, अनुत्तरविमान तक के विमानों, ईषत्प्रारभारापृथ्वी, परमाणु, द्विप्रदेशी से अनन्तप्रदेशी स्कन्ध के विषय में यही सिद्धान्त पूर्वोक्त युक्तिपूर्वक समझ लेना चाहिए। द्वितीय प्रश्न का तात्पर्य – केवली जिस समय इस रत्नप्रभापृथ्वी आदि को अनाकारों (आकारप्रकाररहित रूप) इत्यादि से क्या केवल देखते ही हैं, जानते नहीं हैं? उत्तर का स्पष्टीकरण – भगवान् इसे 'हाँ ' रूप में स्वीकार करते हैं, क्योंकि अनाकार आदि रूप में वस्तु को ग्रहण करना दर्शन का कार्य है, ज्ञान का नहीं । ज्ञान का कार्य साकार आदि रूप में ग्रहण करना है। स्पष्ट शब्दों में कहें तो केवल अनाकार आदि रूप में जब रत्नप्रभादि को सामान्य रूप से ग्रहण करते हैं, तब दर्शन ही होता है, ज्ञान नहीं। ज्ञान तभी होगा, जब वे साकार आदि रूप में वस्तु को ग्रहण करें। अणागारेहिं आदि पदों का विशेषार्थ – (१) अणागारेहिं - अनाकारों से पूर्वोक्त आकार-प्रकारों से रहित रूप से। (२) अहेतूहिं - हेतु-युक्ति आदि से रहित रूप से। (३) अणुवमाहि- अनुपमाओं से - सदशतारहित रूप से। (४) अदिटठंतेहिं - अदष्टान्तों से - दृष्टान्त, उदाहरण आदि के अभाव से। (५) अवण्णेहिं - अवर्णों से अर्थात् शुक्लादि वर्णों एवं गन्ध, रस और स्पर्श से रहित रूप से। (६) असंठाणेहिं - पूर्वोक्त रूप से लम्बाई-चौड़ाई-मोटाई आदि परिमाण-विशेष रहित रूप में। (८) अपडोयारेहिं - अप्रत्यवतारों से अर्थात् घनोदधि आदि वलयों से व्याप्त होने की स्थिति से रहित रूप में, केवल देखते ही हैं। निष्कर्ष यह है कि केवली जब केवलदर्शन से रत्नप्रभादि किसी भी वस्तु को देखते हैं तब जानते नहीं केवल देखते ही हैं और जब जानते हैं तब देखते नहीं। इसलिए शास्त्रकार कहते हैं - केवली .." जाव अपडोयारेहिं पासइ, ण जाणइ। ॥ प्रज्ञापना भगवती का तीसवाँ पश्यत्तापद समाप्त ॥ १. वही, भा. २, पृ.७५४-७५५ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * एगतीसइमं सण्णिपयं इकतीसवाँ संक्षिपद प्राथमिक प्रज्ञापनसूत्र के इस इकतीसवें 'संज्ञिपद' में सिद्धसहित समस्त जीवों का संज्ञी, असंज्ञी तथा नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी, इन तीन भेदों के आधार पर विचार किया गया है। इस पद में बताया गया है कि सिद्ध संज्ञी भी नहीं हैं, असंज्ञी भी नहीं हैं, उनकी संज्ञा नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी है, क्योंकि वे मन होते हुए भी उसके व्यापार से ज्ञान प्राप्त नहीं करते। मनुष्यों में भी जो केवली हो गए हों, वे सिद्ध के समान ही नोअसंज्ञी-नोसंज्ञी माने गए हैं, क्योंकि वे भी मन के व्यापार से ज्ञान प्राप्त नहीं करते । अन्य गर्भज और सम्मूछिम मनुष्य क्रमशः संज्ञी और असंज्ञी होते हैं। एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रय तक सभी जीव असंज्ञी हैं। नारक, भवनवासी वाणव्यन्तर और पंचेन्द्रियतिर्यंच संज्ञी और असंज्ञी दोनों ही प्रकार के हैं। ज्योतिष्क और वैमानिक दोनों संज्ञी हैं। इस पद के उपसंहार में एक गाथा दी गई है, जिसमें मनुष्य को संज्ञी या असंज्ञी दो ही प्रकार का कहा है, परन्तु सूत्र १९७० में मनुष्य में तीनों प्रकार बताए हैं। इससे मालूम होता है कि गाथा का कथन छद्मस्थ मनुष्य की अपेक्षा से होना चाहिए। परन्तु संज्ञा का अर्थ यहाँ मूल में स्पष्ट नहीं है। मनुष्य, नारक, भवनवासी एवं व्यन्तरदेव को असंज्ञी कहा गया है, इससे यह तो स्पष्ट हो जाता है कि जिसके मन हो, उसे संज्ञी कहते है, यह अर्थ प्रस्तुत प्रकरण में घटित नहीं होता। यही कारण है कि वृत्तिकार को यहाँ संज्ञा शब्द के दो अर्थ करने पड़े। फिर भी पूरा समाधान नहीं होने से टीकाकार को यह स्पष्टीकरण करना पड़ा कि नारक आदि संज्ञी और असंज्ञी इसलिए हैं कि वे पूर्वभव में संज्ञी या असंज्ञी थे। अतः संज्ञा शब्द यहाँ किस अर्थ में अभिप्रेत है, यह अनुसंधान का विषय है।' आचारांगसूत्र के प्रारम्भ में पूर्वभव के ज्ञान के प्रसंग में, अर्थात् विशेष प्रकार के मतिज्ञान के अर्थ में संज्ञा शब्द प्रयुक्त किया गया है। इसी प्रकार दशाश्रुतस्कन्ध में जहाँ दस चित्तसमाधिस्थानों का वर्णन है, वहाँ अपने पूर्वजन्म के स्मरण करने के अर्थ में संज्ञा शब्द का प्रयोग किया गया है। इससे प्रतीत होता है कि संज्ञा शब्द १. पाणवणासुत्तं भाग २ (परिशिष्ट, प्रस्तावना), पृ. १४२ २. 'संज्ञिनः समनस्काः ।' -तत्वार्थ, २ । २५ ३. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ५३४ ४. (क) 'मतिः स्मृति: संज्ञा चिन्ता ......" इत्यनर्थान्तरम्' - तत्वार्थ. (ख) विशेषावश्यक गा. १२, पत्र ३९४ (ग) इहमेगेसिंणो सण्णा भवइ, तं पुरत्थिमाओ वा दिसाओ आगओ अहांसि इत्यादि। -आचारांग श्रु.१ सू. १ सणिणाणं वा से असमुपन्नपुव्वे समुपजेज्जा, अप्पणो पोराणियं जाई सुमरित्तए - दशाश्रुतस्कन्ध दशा ५ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्राथमिक] [१७१. पहले मतिज्ञान-विशेष अर्थ में प्रयुक्त हुआ होगा, कालक्रम से यह पूर्व-अनुभव के स्मरण या जातिस्मरण ज्ञान के अर्थ में व्यवहृत होने लगा होगा। जो भी हो, संज्ञा शब्द है तो मतिज्ञान-विशेष ही, फिर वह संज्ञासंकेत-शब्द रूप में हो या चिन्हरूप में हो। उससे ज्ञान होने में स्मरण आवश्यक है। स्थानांगसूत्र में भी 'एगा सन्ना' ऐसा पाठ मिलता है। इसलिए प्राचीनकाल में संज्ञा नाम का कोई विशिष्ट ज्ञान तो प्रसिद्ध था ही। आवश्यकनियुक्ति में भी संज्ञा को अभिनिबोध (मतिज्ञान) कहा है। 'षट्खण्डागम' मूल के मार्गणाद्वार में संज्ञीद्वार है। परन्तु वहाँ संज्ञा का वास्तविक अर्थ क्या है, यह नहीं . बताया गया है। वहाँ संज्ञी-असंज्ञी की प्ररूपणा करते हुए कहा गया है कि मिथ्यादृष्टिगुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय-वीतराग-छद्मस्थ गुणस्थान तक के जीव संज्ञी हैं तथा एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीव असंज्ञी हैं। फिर यह भी कहा है कि संज्ञी क्षायोपशमिक लब्धि से, असंज्ञी औदयिक भाव से और न-संज्ञी न-असंज्ञी क्षायिकलब्धि से होता है । इसके स्पष्टीकरण में 'धवला' में संज्ञी शब्द की दो प्रकार की व्याख्या की गई है, वह विचारणीय है- सम्यग् जानातीति संज्ञं-मनः, तदस्यास्तीति संज्ञी । नैकेन्द्रियादिना अतिप्रसंगः, तस्य मनसो भावात् । अथवा शिक्षाक्रियोपदेशालापग्राही संज्ञी। उक्तं च - . 'सिक्खा-किरियुवदेसालावग्गाही मणोवलंबेण'। जो जीवो सो सण्णी, तव्विवरीदो असण्णी दु ॥ इस दसरी व्याख्या में भी मन का आलम्बन तो स्वीकत है ही। तात्पर्य में इससे कोई अन्तर नहीं पड़ा। तत्वार्थसूत्र में 'संज्ञिनः समनस्काः ' (संज्ञी जीव मन वाले होते हैं), ऐसा कह कर भाष्य में इसका स्पष्टीकरण किया है कि यहाँ संज्ञी शब्द से वे ही जीव विवक्षित हैं, जिनमें संप्रधारण संज्ञा हो। सम्प्रधारण संज्ञा का लक्षण किया है - ईहापोहयुक्ता गुणदोषविचारणात्मिका सम्प्रधारणसंज्ञा-अर्थात् ईहा और अपोह से युक्त गुण-दोष का विचार करने वाली संप्रधारण संज्ञा है। इसका फलितार्थ यह हुआ कि समनस्क (मन वाले) संज्ञी जीव वे ही होते हैं, जो सम्प्रधारणसंज्ञा के कारण संज्ञी कहलाते हों। * संज्ञा के इस लक्षण पर से एक बात स्पष्ट हो जाती है कि स्थानांगसूत्र के चतुर्थ स्थान में प्रतिपादित आहारादि संज्ञा तथा आहार-भय-परिग्रह-मैथुन-क्रोध-मान-माया-लोभ-शोक-सुख-दुःख-मोह-विचिकित्सासंज्ञा के कारण कहलाने वाले 'संज्ञी' यहाँ विवक्षित नहीं हैं।' * कुल मिलाकर 'संज्ञीपद' से आत्मा के द्वारा होने वाले मतिज्ञानविशिष्ट तथा गुणदोषविचारणात्मक संज्ञा प्राप्त करने की प्रेरणा मिलती है। १. (क) पण्णवणासुत्तं भाग २ (परिशिष्ट प्रस्तावनात्मक), पृ. १४२ (ख) स्थानांगसूत्र स्था. १, सू. २९-३२ (ग) आवश्यकनियुक्ति गा. १२, विशेषावश्यक गा. ३९४ २. (क) षट्खण्डागम, मूल पु. १, पृ. ४०८ (ख) वही, पुस्तक ७, पृ.१११-११२ (ग) धवला, पु. १, पृ. १५२ २. तत्त्वार्थ. भाप्य २।२५ ४. स्थानांग.स्था.४, स्था.१० Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगतीसइमं सण्णिपयं इकतीसवाँ संक्षिपद जीव एवं चौबीस दण्डकों में संज्ञी आदि की प्ररूपणा १९६५. जीवा णं भंते! किं सण्णी असण्णी णोसण्णी-णोअसण्णी ? गोयमा ! जीवा सण्णी वि असण्णी वि णोसण्णी-णोअसण्णी वि । [१९६५ प्र.] भगवन् ! जीव संज्ञी हैं, असंज्ञी हैं, अथवा नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी हैं ? [१९६५ उ.] गौतम ! जीव संज्ञी भी हैं, असंज्ञी भी हैं और नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी भी हैं। १९६६. णेरइया णं भंते ! • पुच्छा। गोयमा ! णेरइया सण्णी वि असण्णी वि, णो णोसण्णी-णोअसण्णी । [१९६६ प्र.] भगवन् ! नैरयिक संज्ञी हैं, असंज्ञी हैं अथवा नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी हैं ? [१९६६ उ.] गौतम ! नैरयिक संज्ञी भी हैं, असंज्ञी भी हैं, किन्तु नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी नहीं हैं। १९६७. एवं असुरकुमारा जाव थणियकुमारा। इसी प्रकार असुरकुमारों से लेकर स्तनितकुमारों तक (कहना चाहिए) १९६८. पुढविक्काइयाणं पुच्छा। गोयमा ! णो सण्णी, असण्णी, णो णोसण्णी-णोअसण्णी । [१९६८ प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव संज्ञी हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न है। [१९६८ उ.] गौतम ! पृथ्वीकायिक जीव न तो संज्ञी हैं और न नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी हैं, किन्तु असंज्ञी हैं । (इसी प्रकार सभी एकेन्द्रिय जीवों के विषय में समझना चाहिए।) १९६९. एवं बेइंदिय-तेइंदिय-चउरिदिया वि। [१९६९] इसी प्रकार द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के लिए भी जानना चाहिए (कि वे संज्ञी या नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी नहीं होते, किन्तु असंज्ञी होते हैं)। १९७०. मणूसा जहा जीवा (सु. १९६५)। [१९७०] मनुष्यों की वक्तव्यता समुच्चय जीवों के समान जानना चाहिए। १९७१. पंचेंदियतिरिक्खजोणिया वाणमंतरा य जहा णेरइया (सु. १९६६)। [१९७१]पंचेन्द्रियतिर्यचों और वाणव्यन्तरों का कथन (सू. १९६६ में उक्त) नारकों के समान है। १९७२. जोइसिय-वेमाणिया सण्णी, णो असण्णी णो णोसण्णी-णोअसण्णी। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [इकतीसवाँ आहारपद] [१७३ [१९७२] ज्योतिष्क और वैमानिक संज्ञी होते हैं, किन्तु असंज्ञी नहीं होते, न ही नोसंज्ञी - नोअसंज्ञी होते हैं। १९७६. सिद्धाणं पुच्छा। गोयमा! णो सण्णी णो असण्णी, णोसण्णि-णोअसण्णी। णेरइय-तिरिय-मणुया य वणयरसुरा य सण्णऽसण्णी य। विगलिंदिया असण्णी, जोतिस-वेमाणिया सण्णी ॥२२०॥ [१९७३ प्र.] भगवन् ! क्या सिद्ध संज्ञी होते हैं ? इत्यादि प्रश्न। [१९७३ उ.] गौतम ! वे न तो संज्ञी हैं, न असंज्ञी हैं, किन्तु नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी हैं। संग्रहणीगाथार्थ –'नारक' तिर्यच्च, मनुष्य वाणव्यन्तर और असुरकुमारादि भवनवासी संज्ञी होते हैं, असंज्ञी भी होते हैं। विकलेन्द्रिय (एवं एकेन्द्रिय) असंज्ञी होते हैं तथा ज्योतिष्क और वैमानिक देवह संज्ञी ही होते हैं ॥२२०॥ ॥ पण्णवणाए भगवतीए एगतीसइमं सण्णिपयं समत्तं॥ विवेचन - संज्ञी, असंज्ञी और नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी का स्वरूप - प्रस्तुत प्रकरण में संज्ञा का अर्थ है - अतीत, अनागत और वर्तमान भावों के स्वभाव का पर्यालोचन - विचारणा। इस प्रकार की संज्ञा वाले जीव संज्ञी कहलाते हैं। अर्थात् जिनमें विशिष्ट स्मरणादि रूप मनोविज्ञान पाया जाए। इस प्रकार के मनोविज्ञान (मस्तिष्कज्ञान) से विकल जीव असंज्ञी कहलाते हैं । अथवा भूत, भविष्य और वर्तमान पदार्थ का जिससे सम्यक् ज्ञान हो, उसे संज्ञा अर्थात्-विशिष्ट मनोवृत्ति कहते हैं। इस प्रकार की संज्ञा जिनमें हो, वे संज्ञी कहलाते हैं । अर्थात् - समनस्क जीव संज्ञी तथा जिनके मनोव्यापार न हो, ऐसे अमनस्क जीव असंज्ञी कहलाते हैं। जो संज्ञी और असंज्ञी, दोनो कोटियों से अतीत हों, ऐसे केवली या सिद्ध नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी कहलाते हैं।' कौन संज्ञी, कौन असंज्ञी तथा कौन संज्ञी-असंज्ञी और क्यों? - एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और सम्मूछिम पंचेन्द्रिय जीव असंज्ञी होते हैं, क्योंकि एकेन्द्रियों में मानसिक व्यापार का अभाव होता है और द्वीन्द्रियादि विकलेन्द्रियों एवं सम्मूछिम पंचेन्द्रियों में विशिष्ट मनोवृत्ति का अभाव होता है। केवली मनोद्रव्य से सम्बन्ध होने पर भी अतीत, अनागत और वर्तमानकालिक पदार्थों या भावों के स्वभाव की पर्यालोचनारूप संज्ञा से रहित हैं तथा ज्ञानावरण और दर्शनावरण कमों का सर्वथा क्षय हो जाने के कारण केवलज्ञान-केवलदर्शन से साक्षात् समस्त पदार्थों को जानते देखते हैं । इस कारण केवली न तो संज्ञी हैं और न असंज्ञी हैं, सिद्ध भी संज्ञी नहीं हैं, क्योंकि उनके द्रव्यमन नहीं होता तथा सर्वज्ञ होने के कारण असंज्ञी भी नहीं हैं। अतएव केवली और सिद्ध नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी कहलाते हैं। समुच्चय जीव संज्ञी भी होते हैं, असंज्ञी भी होते हैं और नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी भी होते हैं । नैरयिक तथा दस प्रकार के भवनवासी देव संज्ञी भी होते हैं. असंज्ञी भी। जो नैरयिक या भवनवासी संज्ञी के भव से नरक में या भवनवासी देव में उत्पन्न होते हैं, वे नारक या भवनवासी देव संज्ञी कहलाते हैं। जो असंज्ञी के भव से नरक में या भवनवासी १. (क) प्रज्ञापना (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ७१३ (ख) प्रज्ञापना, मलयवृत्ति, अ.रा.कोष भा. ७, पृ. ३०५ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४] [प्रज्ञापनासूत्र] देवों में उत्पन्न होते हैं, वे असंज्ञी कहलाते हैं। किन्तु नारक या भवनवासी देव नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी नहीं हो सकते, क्योंकि वे केवली नहीं हो सकते । केवली न हो सकने का कारण यह है कि वे चारित्र को अंगीकार नहीं कर सकते। मनुष्यों की वक्तव्यता समुच्चय जीवों के समान समझनी चाहिए। अर्थात् मनुष्य भी समुच्चय जीवों के समान संज्ञी, असंज्ञी तथा नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी भी होते हैं । गर्भज मनुष्य संज्ञी होते हैं, सम्मूछिम मनुष्य असंज्ञी होते हैं तथा केवली नोसंज्ञी-नांअसंज्ञी होते हैं। पंचेन्द्रियतिर्यञ्च और वाणव्यन्तर नारकों को समान संज्ञी भी होते हैं, असंज्ञी भी। जो पंचेन्द्रियतिर्यंच सम्मूछिम होते हैं, वे असंज्ञी और जो गर्भज होते हैं, वे संज्ञी होते हैं । जो वाणव्यन्तर असंज्ञियों से उत्पन्न होते हैं, वे असंज्ञी और संज्ञियों से उत्पन्न होते हैं, वे संज्ञी होते हैं। दोनों ही नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी नहीं होते, क्योंकि वे चारित्र अंगीकार नहीं कर सकते । ज्योतिष्क और वैमानिक संज्ञी ही होते हैं, असंज्ञी नहीं, क्योंकि संज्ञी से ही उत्पन्न होते हैं। ये नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी तो हो ही नहीं सकते, क्योंकि वे चारित्र अंगीकार नहीं कर सकते। सिद्ध भगवान् पूर्वोक्त युक्ति से नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी होते हैं। ॥ प्रज्ञापना भगवती का इकतीसवाँ संज्ञिपद समाप्त ॥ १. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि. रा. कोष भा. ७, पृ. ३०५ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बत्तीसइमं संजयपयं बत्तीसवाँ संयतपद प्राथमिक * प्रज्ञापनासूत्र का यह बत्तीसवां पद है, इसका नाम संयतपद है। संयतपद मानवजीवन का सर्वोत्कृष्ट पद है। संयतपद प्राप्त करने के बाद ही मोक्ष की सीढ़ियाँ उत्तरोत्तर शीघ्रता से पार की जा सकती हैं। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रय की सर्वोत्तम आराधना इसी पद पर आरूढ होने के बाद हो सकती है। इसीलिए प्रज्ञापना के बत्तीसवें पद में इसे स्थान दिया गया हैं। प्रस्तुत पद में समुच्चय जीव तथा नैरयिक से लेकर वैमानिक तक चौबीस दण्डकवर्ती जीवों के संयत, .असंयत, संयतासंयत और नोसंयत-नोअसंयत होने के विषय में प्ररूपणा की गई है। * संयत से सम्बन्धित चार भेदों का विचार समस्त जीवों के विषय में किया गया है। * संयत का अर्थ है जो महाव्रती, संयमी हो, सर्वविरत हो। असंयत का अर्थ है - जो सर्वथा अविरत, असंयमी, अप्रत्याख्यानी हो। संयतासंयत का अर्थ है-जो देशविरत हो,श्रावकव्रती हो, विरताविरत हो तथा नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत का अर्थ - जो न तो संयत हो और न असंयत हो, न ही संयतासंयत हो, क्योंकि संयत भी साधक है, अभी सिद्धगतिप्राप्त नहीं है और असंयतासंयत तो और भी नीची श्रेणी पर है। इसलिए नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत में सिद्ध भगवान् को लिया गया है। इस पद का निष्कर्ष यह है कि नारक, एकेन्द्रिय, तीन विकलेन्द्रिय, भवनवासी वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक, ये सभी असंयत होते हैं, ये न तो संयत हो सकते हैं, न संयतासंयत । पंचेन्द्रियतिर्यञ्च संयत नहीं हो सकता, वह संयतासंयत हो सकता हैं। अथवा प्रायः असंयत होता है। मनुष्य में संयत, असंयत और संयतासंयत तीनों प्रकार सम्भव हैं। नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत सिद्ध भगवान् ही हो सकते हैं। आचार्य मलयगरि ने संयतपद का महत्त्व बताते हुए कहा है कि देवों, नारकों और तिर्यञ्च पंचेन्द्रियों को सर्वविरतिरूप चारित्र या केवलज्ञान का परिणाम ही नहीं होता । वे श्रवण-मनन भी नहीं कर सकते और न जीवन में चारित्र धारण कर सकते हैं, इसके कारण वे पश्चात्ताप करते हैं, विषाद पाते हैं । अतः मनुष्यों को संयतपद की आराधना के लिए पुरुषार्थ करना चाहिए। षट्खण्डागम के संयमद्वार में सामायिकशुद्धिसंयत, परिहारशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसम्परायशुद्धिसंयत, यथाख्यातविहारशुद्धिसंयत, संयतासंयत और असंयत ऐसे भेद करके १४ गुणस्थानों के माध्यम से विचारणा की गई है। १. पण्णवणासुत्तं भा. २, (प्रस्तावना-परिशिष्ट) पृ. १४४ २. षट्खण्डागम पु. १, पृ. ३६८ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बत्तीसइमं संजयपयं बत्तीसवाँ संयतपद जीवों एवं चौबीस दण्डकों में संयत आदि की प्ररूपणा १९७४. जीवा णं भंते! किं संजया असंजया संजयासंजया णोसंजय-णोअसंजय णोसंजयासंजया? गोयमा ! जीवा णं संजया वि असंजया वि संजयासंजया वि णोसंजय णोअसंजय णोसंजयासंजया वि। [१९७४ प्र.] भगवन् ! (समुच्चय) जीव क्या संयत होते हैं, असंयत होते हैं, संयतासंयत होते हैं, अथवा नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत होते हैं ? [१९७४ उ.] गौतम! जीव संयत भी होते हैं, असंयत भी होते हैं, संयतासंयत भी होते हैं और नोसंयतनोअसंयत-नोसंयतासंयत होते हैं। १९७५. णेरइया णं भंते ! किं संजया असंजया संजयासंजया णोसंजयणोअसंजयणोसंजयासंजया? गोयमा! णेरइया णो संजया, असंजया, णो संजयासंजया णो णोसंजय-णोअसंजय-णोसंजयासंजया। [१९७५ प्र.] भगवन् ! नैरयिक संयत होते हैं, असंयत होते हैं, संयतासंयत होते हैं या नोसंयत-नोअसंयतनोसंयतासंयत होते हैं ? [१९७५ उ.] गौतम ! नैरयिक संयत नहीं होते हैं,न संयतासंयत होते और न नोसंयत नोसंयत-नोसंयतासंयत होते हैं; किन्तु असंयत होते हैं। १९७६. एवं जाव चउरिंदिया। [१९७७.] इसी प्रकार (असुरकुमारादि भवनवासी, पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय तथा त्रीन्द्रिय) चतुरिन्द्रियों तक जानना चाहिए। १९७७. पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा ? गोयमा! पंचेंदियतिरिक्खजोणिया णो संजया, असंजया वि संजयासंजया वि, णो णोसंजयणोअसंजयणोसंजयासंजया। [१९७७ प्र.] भगवन् ! पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिक क्या संयत होते हैं ? इत्यादि प्रश्न है। [१९७७ उ.] गौतम ! पंचेन्द्रियतिर्यञ्च न तो संयत होते हैं और न ही नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत होते हैं, किन्तु वे असंयत या संयतासंयत होते हैं। ११७८. ! मणूसा णं भंते ! ० पुच्छा। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ बत्तीसवाँ संयतपद ] [ १७७ गोमा ! मणूसा संजया वि असंजया वि, संजयासंजया वि, णो णोसंजयणोअसंजय णो- संजयासंजया । [१९७८ प्र.] भगवन् ! मनुष्य संयत होते हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न है । [१९७८ उ.] गौतम ! मनुष्य संयत भी होते हैं, असंयत भी होते हैं, संयतासंयत भी होते हैं, किन्तु नोसंयतनो असंयत-नोसंयतासंयत नहीं होते हैं । १९७१. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणिया जहा णेरड्या (सु. १९७५)। [१९७९] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों का कथन नैरयिकों के समान समझना चाहिए। १९८०. सिद्धाणं पुच्छा । गोयमा ! सिद्धा नो संजया नो असंजया नो संजयासंजया, णोसंजय - णोअसंजय - णोसंजया - संजया । संजय अस्संजय मीसगा य जीवा तहेव मणुया य । संजयरहिया तिरिया, सेसा अस्संजया होंति ॥ २२९ ॥ [१९८० प्र.] सिद्धों के विषय में पूर्ववत् प्रश्न हैं । [१९८० उ.] गौतम! सिद्ध न तो संयत होते हैं, न असंयत और न ही संयतासंयत होते हैं, किन्तु नोसंयतनो असंयत-नोसंयतासंयत होते हैं। [ संग्रहणी - गाथार्थ - ] जीव और मनुष्य संयत, असंयत और संयतासंयत (मिश्र) होते हैं। तिर्यञ्च संयत नहीं होते, (किन्तु असंयत और संयतासंयता होते हैं)। शेष एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और देव (चारों जाति के ) तथा नारक असंयत होते हैं ॥२२१॥ ॥ पण्णवणाए भगवतीए बत्तीसइमं संजयपयं समत्तं ॥ - विवेचन- संयत एवं असंयत पद का लक्षण - जो सर्वसावद्ययोगों से सम्यक् प्रकार से विरत हो चुके हैं। और चारित्रपरिणामों की वृद्धि के कारणभूत निरवद्य योगों में प्रवृत्त हुए हैं, वे संयत कहलाते हैं । अर्थात् -हिंसा आदि पापस्थानों से जो सर्वथा निवृत्त हो चुके हैं, वे संयत हैं। उनसे विपरीत असंयत हैं । संयतासंयत- जो हिंसादी से देश (आंशिकरूप) से विरत है । नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत- जो इन तीनों से भिन्न है । जीव में चारों का समावेश : कैसे ? - जीव संयत भी होते हैं, क्योंकि श्रमण संयत हैं। जीव असंयत भी होते हैं, क्योंकि नारकादि असंयत हैं। जीव संयतासंयत भी होते हैं, क्योकि पंचेन्द्रियतिर्यञ्च और मनुष्य स्थूल प्राणातिपात आदि का त्याग करके देशसंयम के आराधक होते तथा जीव नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत भी होते हैं, क्योंकि सिद्धों में इन तीनों का निषेध पाया जाता है। सिद्ध भगवान् शरीर और मन से रहित होते हैं। अतएव उनमें निरवद्ययोग में प्रवृत्ति और सावद्ययोग से निवृत्ति रूप संयतत्व घटित नहीं होता । सावद्ययोग में प्रवृत्ति न होने से असंयतत्व भी नहीं पाया जाता तथा दोनों का सम्मिलितरूप संयतासंयतत्व भी इसी कारण सिद्धों में नहीं पाया जाता । Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८] [प्रज्ञापनासूत्र] कौन संयत है, कौन असयंत है, कौन संयतासंयत है तथा कौन नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत है, इसकी प्ररूपणा मूलपाठ में कर ही दी गई है, अन्तिम संग्रहणी गाथा में निष्कर्ष दे दिया है। अतः स्पष्टीकरण की आवश्यकता नहीं है। ॥ प्रज्ञापना भगवती का बत्तीसवाँ संयतपद सम्पूर्ण ॥ १. (क) पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणीयुक्त) भा. १, पृ. ४१४ (ख) प्रज्ञापना (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ७६८ से ७७१ तक Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेत्तीसइमं ओहिपयं तेतीसवाँ अवधिपद * यह प्रज्ञापनासूत्र का तेतीसवाँ अवधिपद है। इसमें अवधिज्ञान सम्बन्धी विस्तृत चर्चा है। विभिन्न पहलुओं से अवधिज्ञान की प्ररूपणा की गई है। भारतीय दार्शनिकों और कहीं-कहीं पश्चात्य दार्शनिकों ने अतीन्द्रिय ज्ञान की चर्चा अपने-अपने धर्मग्रन्थों तथा स्वतन्त्ररचित साहित्य में की है। साधारण जनता किसी ज्योतिषी, मंत्रविद्या सिद्ध व्यक्ति अथवा किसी देवी देवोपासक के द्वारा भूत, भविष्य एवं वर्तमान की चर्चा सुन कर आश्चर्यान्वित हो जाती है। उसी को चमत्कार मान कर गतानुगतिक रूप से उलटे-सीधे मार्ग को पकड़कर चल पड़ती है। कभी-कभी लोग ऐसे चमत्कार के चक्कर में पडकर धन और धर्म को खो बैठते हैं । क्षणिक चमत्कार की चकाचौंध में पड कर कई व्यक्ति अपने शील का भी त्याग कर देते हैं और नैतिक पतन के चौराहे पर आकर खडे हो जाते हैं। अत: ऐसा चमत्कार क्या है? वह अवधिज्ञान है या और कोई ज्ञान है? इस शंका के समाधानार्थ जैन तीर्थंकरों ने अवधिज्ञान का यथार्थ स्वरूप बताया है। वह कितने प्रकार का है? कैसे उत्पन्न होता है? क्या वह चला भी जाता है, न्यूनाधिक भी हो जाता है अथवा स्थायी रहता है ? ऐसा ज्ञान किन-किन को होता है? जन्म से ही होता है या विशिष्ट क्षयोपशम से? इन सब पहलुओं पर साधकों को यथार्थ मार्गदर्शन देने तथा साधक कहीं इसके पीछे अपनी साधना न खो बैठे, आम जनता को चमत्कार के चक्कर में डालने के लिए रत्नत्रय की साधना को छोड़कर अन्य मार्गों का अवलम्बन न ले बैठे तथा जनता की चमत्कार की भ्रान्ति दूर करने के लिए अवधिज्ञान की विभिन्न पहलुओं से व्याख्या की है। प्रस्तुत पद में अवधिज्ञान के विषय में ७ द्वारों के माध्यम से विश्लेषण किया गया है। जैसे कि - (१) प्रथम भेदद्वार जिसमें अवधिज्ञान के भेद-प्रभेद का निरूपण किया गया है। (२) द्वितीय विषयद्वार, अवधिज्ञान से प्रकाशित क्षेत्र का विषय, (३) तीसरा संस्थानद्वार, उस क्षेत्र के आकार का वर्णन है, (४) चतुर्थ अवधिज्ञान के बाह्य आभ्यन्तर प्रकार, (५) पंचम देशावधिद्वार, जिसमें सर्वोत्कृष्ट अवधि के साथ सर्वजघन्य और मध्यम अवधि का निरूपण है, (६) छठा, इसमें अवधिज्ञान के क्षय और वृद्धि का निरूपण है। अर्थात् हीयमान और वर्धमान अवधिज्ञान की चर्चा है। (७) सप्तम प्रतिपाति और अप्रतिपातीद्वार, इसमें स्थायी और प्रतिपाती अवधिज्ञज्ञन का निरूपण है। आम जनता आज जिस प्रकार के साधारण भूत-भविष्य-वर्तमानकालिक ज्ञान को चमत्कार मान कर प्रभावित हो जाती है, वह मतिज्ञान का ही विशेष प्रकार है। वह इन्द्रियातीत ज्ञान नहीं है। पूर्वजन्म की बीती बातों को याद करने वाले जातिस्मरण ज्ञान को भी कई लोग अवधिज्ञान की कोटी में मान बैठते हैं, किन्तु वह मतिज्ञान का ही विशेष भेद है। ज्योतिष या मंत्र तंत्रादि से अथवा देवोपासना से होने वाला विशिष्ट ज्ञान भी अवधिज्ञान नहीं है, वह मतिज्ञान का ही विशिष्ट प्रकार है। Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० ] ܀ [ प्रज्ञापनासूत्र ] अवधिज्ञान के स्वरूप कर्मग्रन्थ आदि में बताया गया है कि इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना आत्मा को अवधि-मर्यादा में होने वाला रूपी पदार्थों का ज्ञान अवधिज्ञान है । वह भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय ( क्षायोपशमिक) दो प्रकार का है। देवों और नारकों को यह जन्म से होता है और मनुष्यों एवं पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों को कर्मों के क्षयोपशम से प्राप्त होता है। अवधिज्ञान के क्षेत्रगत विषय की चर्चा का सार यह है - नारक क्षेत्र की दृष्टि से कम से कम आधा गाऊ और अधिक से अधिक चार गाऊ तक जानता देखता है। फिर एक-एक करके सातों ही नरकों के नारकों के अवधि क्षेत्र का निरूपण है, नीचे की नरक भूमियों में उत्तरोत्तर अवधिज्ञानक्षेत्र कम होता जाता है। भवनवासी निकाय में असुरकुमार का अवधिक्षेत्र कम से कम २५ योजन और उत्कृष्ट असंख्यात द्वीपसमुद्र है। बाकी के नागकुमारादि का अवधिक्षेत्र उत्कृष्ट संख्यात द्वीप - समुद्र है। पंचेन्द्रियतिर्यच का अवधिक्षेत्र जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट संख्यात द्वीप समुद्र है। मनुष्य का उत्कृष्ट अवधिक्षेत्र अलोक में भी लोकपरिमित असंख्यात लोक जितना है । वाणव्यन्तर का अवधिक्षेत्र नागकुमारवत् है। ज्योतिष्कदेवों का जघन्य असंख्यात द्वीप समुद्र है। वैमानिक देवों के अवधिक्षेत्र की विचारणा में विमान से नीचे का, ऊपर का और तिरछे भाग का अवधिक्षेत्र बताया है। विमान पर उन उन वैमानिक देवों का अवधिक्षेत्र विस्तृत है। अनुत्तरौपपातिक देवों का अवधिक्षेत्र समग्र लोकनाडी- प्रमाण है । अवधिज्ञान का क्षेत्र की अपेक्षा से तप्र (डोंगी), पल्लक, झालर, पटह आदि के समान विविध प्रकार का आकार बताया है। आचार्य मलयगिरि ने उसका निष्कर्ष यह निकाला है कि भवनवासी और व्यन्तर को ऊपर के भाग में, वैमानिकों को नीचे के भाग में तथा ज्योतिष्क और नारकों को तिर्यदिशा में अधिक विस्तृत होता है। मनुष्य और तिर्यञ्चों के अवधिज्ञान का आकार विचित्र होता है । बाह्य और अभ्यन्तर अवधि की चर्चा में बताया गया है कि नारक और देव अवधिक्षेत्र के अन्दर हैं, अर्थात्उनका अवधिज्ञान अपने चारो ओर फैला हुआ है, तिर्यञ्च में वैसा नहीं है। मनुष्य अवधि क्षेत्र में भी है और बाह्य भी है। इसका तात्पर्य यह है कि अवधिज्ञान का प्रसार स्वयं जहाँ है, वहीं से हो तो वह अवधि के अन्दर (अन्तः) माना जाता है, परन्तु अपने से विच्छिन्न प्रदेश में अवधि का प्रसार हो तो वह अवधि से बाह्य माना जाता है। सिर्फ मनुष्य को ही सर्वावधि सम्भव है, शेष सभी जीवों को देशावधि ही होता है । आगे से द्वारों में नरकादि जीवों मे आनुगामिक- अनानुगामिक, हीयमान- वर्धमान, प्रतिपाति - अप्रतिपाती तथा अवस्थित और अनवस्थित आदि अवधिभेदों की प्ररूपणा की गई है। - कुल मिलाकर अवधिज्ञान की सांगोपांग चर्चा प्रस्तुत पद में की गई है। भगवतीसूत्र एवं कर्मग्रन्थ में भी इतनी विस्तृत विचारणा नहीं की गई है। १. (क) पण्णवणासुत्तं भा. १ (मूलपाठ - टिप्पण) पृ. ४१५ से ४१८ तक (ख) पण्णवणासुतं भा. २ (परिशिष्ट - प्रस्तावनादि) पृ. १४० - १४१ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेत्तीसइमं ओहिपयं तेतीसवाँ अवधिपद तेतीसवें पद के अर्थाधिकारों की प्ररूपणा १९८१. भेद १ विसय २ संठाणे ३ अब्भिंतर-बाहिरं ४ य देसोही ५। ओहिस्स य खय-वुड्डी ६ पडिवाई चेवऽपडिवाई ७॥ २२२॥ [१९८१ संग्रहणी-गाथार्थ –] तेतीसवें पद में इन सात विषयों का अधिकार है - (१) भेद, (२) विषय, (३) संस्थान, (४) आभ्यन्तर-बाह्य, (५) देशावधि, (६) अवधि का क्षय और वृद्धि, (७) प्रतिपाती और अप्रतिपाती। विवेचन–सातद्वार-तेतीसवें पद में प्रतिपाद्य विषय के सात द्वार इस प्रकार हैं। (१) प्रथम द्वारअवधिज्ञान के भेद-प्रभेद, (२) द्वितीय द्वार-अवधिज्ञान द्वारा प्रकाशित क्षेत्र का विषय (३) तृतीय द्वारअवधिज्ञान द्वारा प्रकाशित क्षेत्र का संस्थान-आकार, (४) चतुर्थ द्वार-अवधिज्ञान के दो प्रकार-आभ्यन्तर और बाह्य, (५) पंचम द्वार-देश अवधि-सर्वोत्कृष्ट अवधि में से सर्वजघन्य और मध्यम अवधि, (६) छठा द्वार-अवधिज्ञान के क्षय और वृद्धि का कथन, अर्थात् हीयमान और वर्द्धमान अवधिज्ञान तथा (७) सप्तम द्वारप्रतिपात (उत्पन्न होकर कुछ ही काल तक टिकने वाला) अवधिज्ञान एवं अप्रतिपाती-मृत्यु से या केवलज्ञान से पूर्व तक नष्ट न होने वाला अवधिज्ञान ।' प्रथम : अवधि-भेद द्वार १९८२. कतिविहा णं भंते! ओही पण्णत्ता ? गोयमा! दुविहा ओही पण्णत्ता। तं जहा - भवपच्चइया य खओवसमिया या दोण्ह भवपच्चइया, तं जहा-देवाण य णेरइयाण य । दोण्हं खओवसमिया, तं जहा-मणुसाणं पंचेंदियतिरिक्खजोणियाण य। [१९८२ प्र.] भगवन् ! अवधि (ज्ञान) कितने प्रकार का कहा गया है? [१९८२ उ.] गौतम! अवधि (ज्ञान) दो प्रकार का कहा गया है, यथा-भवप्रत्ययिक और क्षायोपशमिक। दो को भवप्रत्ययिक अवधि (ज्ञान) होता है, यथा-देवों को और नारकों को। दो को क्षायोपशमिक होता है, यथामनुष्यों को और पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों को। विवेचन-अवधिज्ञान : स्वरूप और प्रकार-इन्द्रियों और मन की सहायता के बिना आत्मा को अवधि-मर्यादा में होने वाला रूपी पदार्थों का ज्ञान अवधिज्ञान कहलाता है। जहाँ प्राणी कर्मों के वशीभूत होते हैं। अर्थात् जन्म लेते हैं, वह है भव अर्थात् नारक आदि सम्बन्धी जन्म। भव जिसका कारण हो, वह भवप्रत्ययिक है। अवधिज्ञानावरणीय कर्म के उदयावलिका में प्रविष्ट अंश का वेदन होकर पृथक् हो जाना क्षय है और जो उदयावस्था १ (क) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका, भा. ५. प. ७७५-७७४. Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२] [प्रज्ञापनासूत्र] को प्राप्त नहीं है, उसके विपाकोदय को दूर कर देना-स्थगित कर देना, उपशम कहलाता है। जिस अवधिज्ञान में क्षयोपशम ही मुख्य कारण हो, वह क्षयोपशम-प्रत्यय या क्षायोपशमिक अवधिज्ञान कहलाता है।' किसे कौन सा अवधिज्ञान और क्यों ?- भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान चारों जाति के देवों को तथा रत्नप्रभा आदि सातों नरकभूमियों के नारकों को होता है। प्रश्न होता है कि अवधिज्ञान क्षायोपशमिक भाव में है और नारकादि भव औदयिक भाव में है, ऐसी स्थिति में देवों और नारकों को अवधिज्ञान कैसे हो सकता है? इसका समाधान यह है कि वस्तुतः भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान भी क्षायोपशमिक ही है, किन्तु वह क्षयोपशम देव और नारक-भव का निमित्त मिलने पर अवश्यम्भावी होता है। जैसे-पक्षीभव में आकाशगमन की लब्धि अवश्य प्राप्त हो जाती है। इसी प्रकार देवभव और नारकभव का निमित्त मिलते ही देवों और नारकों को अवधिज्ञान की उपलब्धि अवश्यमेव हो जाती है। ___ दो प्रकार के प्राणियों का अवधिज्ञान क्षायोपशमिक अर्थात्-क्षयोपशम-निमित्तक है, वह है-मनुष्यों और पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों को। इन दोनों को अवधिज्ञान अवश्यम्भावी नहीं है, क्योंकि मनुष्यभव और तिर्यञ्चभव के निमित्त से इन दोनों को अवधिज्ञान नहीं होता, बल्कि मनुष्यों या तिर्यञ्चपचेन्द्रियों में भी जिनके अवधिज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम हो जाए, उन्हें ही अवधिज्ञान प्राप्त होता है, अन्यथा नहीं। इसे कर्मग्रन्थ की भाषा में गुणप्रत्यय भी कहते हैं । यद्यपि पूर्वोक्त दोनों प्रकार के अवधिज्ञान क्षायोपशमिक ही हैं, तथापि पूर्वोक्त निमित्तभिन्नता के कारण दोनों में अन्तर है। द्वितीय : अवधि-विषय द्वार ११८३. णेरइया णं भंते! केवतियं खेत्तं ओहिणा जाणंति पासंति ? गोयमा! जहण्णेणं अद्धगाउयं, उक्कोसेणं चत्तारि गाउयाई ओहिणा जाणंति पासंति । [१९८३ प्र.] भवगन् ! नैरयिक अवधि (ज्ञान) द्वारा कितने क्षेत्र को जानते देखते हैं ? [१९८३ उ.] गौतम! वे जघन्यतः आधा गाऊ (गव्यूति) और उष्कृष्टतः चार गाऊ (क्षेत्र को) अवधि (ज्ञान) से जानते देखते हैं। १९८४. रयणप्पभापुढविणेरइया णं भंते ! केवतियं खेत्तं ओहिणा जाणंति पासंति ? . गोयमा! जहण्णेणं अद्धट्ठाई, गाउआई, उक्कोसेणं चत्तारि गाउआई ओहिणा जाणंति पासंति । [१९८४ प्र.] भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक अवधि (ज्ञान) से कितने क्षेत्र को जानते देखते हैं ? [१९८४ उ.] गौतम! वे जघन्य साढ़े तीन गाऊ और उत्कृष्ट चार गाऊ (क्षेत्र) अवधि (ज्ञान) से जानते-देखते हैं। १९८५. सक्करप्पभापुढविणेरइया जहण्णेणं तिण्णि गाउआई, उक्कोसेणं अछुट्ठाई गाउआई ओहिणा जाणंति पासंति । १. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ.७८० (ख) पण्णवणासुतं भा. २, (प्रस्तावना) पृ. १४०-१४१ २. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ७८० से ७८४ तक Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [तेतीसवाँ अवधिपद] [१८३ [१९८५] शर्कराप्रभापृथ्वी के नारक जघन्य तीन गाऊ और उत्कृष्ट साढ़े तीन गाऊ (क्षेत्र को) अवधि-(ज्ञान) से जानते-देखते हैं। १९८६. वालुयप्पभापुढविणेरइया जहण्णेणं अड्डाइजाई गाउयाई, उक्कोसेणं तिण्णि गाउआई ओहिणा जाणंति पासंति। [१९८६] बालुकाप्रभापृथ्वी के नारक जघन्य ढाई गाऊ और उत्कृष्ट तीन गाऊ (क्षेत्र को) अवधि (ज्ञान) से जानते - देखते हैं। १९८७. पंकप्पभापुढविणेरइया जहण्णेणं दोण्णि गाउयाई, उक्कोसेणं अड्डाइजाई गाउआई ओहिणा जाणंति पासंति। [१९८७] पंकप्रभापृथ्वी के नारक जघन्य दो गाऊ और उत्कृष्ट ढाई गाऊ (प्रमाण क्षेत्र को) अवधि (ज्ञान) से जानते-देखते हैं। १९८८. धूमप्पभापुढविणेरइयाणं पुच्छा। गोयमा! जहण्णेणं दिवड्ढ गाउई, उक्कोसेणं दो गाउआई ओहिणा जाणंति पासंति। [१९८८ प्र.] भगवन् ! धूमप्रभापृथ्वी के नारक अवधि (ज्ञान) से कितने क्षेत्र को जानते-देखते हैं ? [१९८८ उ.] गौतम! वे जघन्य डेढ़ गाऊ और उत्कृष्ट दो गाऊ (क्षेत्र को) अवधि (ज्ञान) से जानते-देखते हैं। १९८९. तमापुढवि०? गोयमा! जहण्णेणं गाउयं, उक्कोसेणं दिवड्ढे गाउयं ओहिणा जाणंति पासंति। [१९८९ प्र.] भगवन् ! तमःप्रभापृथ्वी के नारक अवधि (ज्ञान) से कितने क्षेत्र को जानते-देखते हैं ? [१९८९ उ.] गौतम! वे जघन्य एक गाऊ और उत्कृष्ट डेढ़ गाऊ (क्षेत्र को) अवधि (ज्ञान) से जानते-देखते १९९०. अहेसत्तमाए पुच्छा। गोयमा! जहण्णेणं अद्धगाउयं, उक्कोसेणं गाउयं ओहिणा जाणंति पासंति। [१९९० प्र.] भगवन् ! अधःसप्तम (तमस्तमःप्रभा) पृथ्वी के नैरयिक कितने क्षेत्र को अवधि (ज्ञान) से जानते-देखते हैं ? [१९९० उ.] गौतम! वे जघन्य आधा गाऊ और उत्कृष्ट एक गाऊ (क्षेत्र को) अवधि (ज्ञान) से जानते-देखते १९९१. असुरकुमारा णं भंते ! ओहिणा केवतियं खेत्तं जाणंति पासंति ? गोयमा ! जहण्णेणं पणुवीसं जोयणाई, उक्कोसेणं असंखेजे दीव-समुद्दे ओहिणा जाणंति पासंति। [१९९१ प्र.] भगवान् ! असुरकुमारदेव अवधि (ज्ञान) से कितने क्षेत्र को जानते-देखते हैं? Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४] [प्रज्ञापनासूत्र] [१९९१ उ.] गौतम ! वे जघन्य पच्चीस योजन और उत्कृष्ट असंख्यात द्वीप-समुद्रों (पर्यन्त क्षेत्र) को अवधि (ज्ञान) से जानते-देखते हैं। १९९२. णागकुमारा णं जहण्णेणं पणुवीसं जोयणाई, उक्कोसेणं संखेजे दीव-समुद्दे ओहिणा जाणंति पासंति। [१९९२] नागकुमारदेव जघन्य पच्चीस योजन-और उत्कृष्ट संख्यात द्वीप-समुद्रों (पर्यन्त क्षेत्र) को अवधि(ज्ञान) से जानते-देखते हैं। १९९३. एवं जाव थणियकुमारा। [१९९३] इसी प्रकार (सुपर्णकुमार से लेकर) स्तनितकुमार पर्यंन्त की (अवधिज्ञान से जानने-देखने की जघन्य उत्कृष्ट सीमा का कथन करना चाहिए।) १९९४. पंचेंदियतिरिक्खजोणिया णं भंते ! केवतियं खेत्तं ओहिणा जाणंति पासंति ? .. गोयमा! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजतिभागं, उक्कोसेणं असंखेजे दीव-समुद्दे। [१९९४ प्र.] भगवन्! पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीव अवधि (ज्ञान) से कितने क्षेत्र को जानते-देखते हैं। __ [१९९४ उ.] गौतम! वे जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग को और उत्कृष्ट असंख्यात द्वीप-समुद्रों को जानते-देखते हैं। १९९५. मणूसा णं भंते! ओहिणा केवतियं खेत्तं जाणंति पासंति ? गोयमा! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजतिभागं, उक्कोसेणं असंखेजाइं अलोए लोयपमाणमेत्ताई खंडाई आहिणा जाणंति पासंति। [१९९५ प्र.] भगवन्! मनुष्य अवधि (ज्ञान द्वारा कितने क्षेत्र) को जानते-देखते हैं ? [१९९५ उ.] गौतम! जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग क्षेत्र को और उत्कृष्ट अलोक में लोक प्रमाण असंख्यात खण्डों को अवधि (ज्ञान) द्वारा जानते-देखते हैं। १९९६. वाणमंतरा जहा णागकुमारा (सु. १९९२)। [१९९६] वाणव्यन्तर देवों की जानने-देखने की क्षेत्र-सीमा (सू. १९९२ में उक्त) नागकुमार देवों के समान जाननी चाहिए। १९९७. जोइसिया णं भंते! केवतियं खेत्तं ओहिणा जाणंति पासंति। गोयमा! जहण्णेणं संखेने दीव-समुद्दे, उक्कोसेण वि संखिने दीव-समुद्दे। [१९९७ प्र.] भगवन् ! ज्योतिष्कदेव कितने क्षेत्र को अवधि (ज्ञान) द्वारा जानते-देखते हैं ? [१९९७ उ.] गौतम! वे जघन्य भी संख्यात द्वीप-समुद्रों को तथा उत्कृष्ट भी संख्यात द्वीप-समुद्रों (पर्यंन्तक्षेत्र) को (अवधिज्ञान से जानते-देखते हैं।) Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [तेतीसवाँ अवधिपद] [१८५ १९९८. सोहम्मगदेवा णं भंते ! केवतियं खेत्तं ओहिणा जाणंति पासंति ? गोयमा! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजतिभागं, उक्कोसेणं अहे जाव इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए हेट्ठिल्ले चरिमंते, तिरियं जाव असंखेजे दीव-समुद्दे, उड्ढे जाव सगाई विमाणाइं ओहिणा जाणंति पासंति। भगवन् ! सौधर्मदेव कितने क्षेत्र को अवधि (ज्ञान) द्वारा जानते-देखते हैं ? गौतम ! वे जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग क्षेत्र को और उत्कृष्टतः नीचे इस रत्नप्रभापृथ्वी के निचले चरमान्त तक, तिरछे असंख्यात द्वीप-समुद्रों (तक) और ऊपर अपने-अपने विमानों तक (के क्षेत्र) को अवधि (ज्ञान) द्वारा जानते-देखते हैं। १९९९. एवं ईसाणगदेवा वि। . [१९९९] इसी प्रकार ईशानदेवों के विषय में भी कहना चाहिए। २००० सणंकुमारदेवा वि एवं चेव। णवरं अहे जाव दोच्चाए सक्करप्भाए पुढवीए हेट्ठिल्ले चरिमंते। [२०००] सनत्कुमार देवों की भी अवधिज्ञान विषयक क्षेत्रमर्यादा इसी प्रकार पूर्ववत् समझना चाहिए। किन्तु विशेष यह है कि ये नीचे दूसरी शर्कराप्रभा नरक पृथ्वी के निचले चरमान्त तक जानते-देखते हैं। २००१. एवं माहिंदगदेवा वि। [२००१] माहेन्द्रदेवों के विषय में भी इसी प्रकार क्षेत्रमर्यादा समझनी चाहिए। २००२ बंभलोग-लंतगदेवा तच्चाए पुढवीए हेट्ठिल्ले चरिमंते। . [२००२] ब्रह्मलोक और लान्तकदेव नीचे तीसरी (बालुका) पृथ्वी के निचले चरमान्त तक जानते-देखते हैं। शेष सब पूर्ववत्। २००३. महासुक्क-सहस्सारगदेवा चउत्थीए पंकप्पभाए पुढवीए हेट्ठिल्ले चरिमंते। [२००३] महाशुक्र और सहस्रारदेव (नीचे) चौथी पंकप्रभापृथ्वी के निचले चरमान्त (तक जानते-देखते २००४. आणय-पाणय-आरण-अच्चुयदेवा अहे जाव पंचमाए धूमप्पभाए पुढवीए हेट्ठिल्ले चरिमंते। [२००४] आनत, प्राणत, आरण अच्युत देव नीचे पाँचवीं धूमप्रभापृथ्वी के निचले चरमान्त पर्यन्त जानतेदेखते हैं। २००५ हेट्ठिम-मज्झिमगेवेज्जगदेवा अहे छट्ठए तमाए पुढवीए हेट्ठिल्ले चरिमंते? [२००५] निचले और मध्यम ग्रैवेयकदेव नीचे छठी तमःप्रभापृथ्वी के निचले चरमान्त पर्यन्त क्षेत्र को जानते-देखते हैं। २००६. उवरिमगेवेजगदेवा णं भंते ! केवतियं खेत्तं ओहिणा जाणंति पासंति ? गोयमा! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजतिभागं, उक्कोसेणं अहेसत्तमाए पुढवीए हेट्ठिल्ले चरिमंते, Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६] [प्रज्ञापनासूत्र] तिरियं जाव असंखेजे दीव-समुद्दे, उड्ढं जाव सगाई विमाणइं ओहिणा जाणंति-पासंति। [२००६ प्र.] भगवन् ! उपरिम ग्रैवेयकदेव अवधि (ज्ञान) से कितने क्षेत्र को जानते-देखते हैं ? [२००६ उ.] गौतम! वे जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग को और उत्कृष्ट नीचे अधःसप्तमपृथ्वी के निचले चरमान्त (पर्यन्त), तिरछे यावत् असंख्यात द्वीप-समुद्रों को तथा ऊपर अपने विमानों तक (के क्षेत्र) से जानते देखते २००७ अणुत्तरोववाइयदेवा णं भंते! केवतियं खेत्तं ओहिणा जाणंति पासंति? . गोयमा! संभिन्नं लोगणालिं ओहिणा जाणंति पासंति। [२००७ प्र.] भगवन् ! अनुत्तरोपपातिकदेव अवधि (ज्ञान) द्वारा कितने क्षेत्र को जानते देखते हैं ? [२००७ उ.] गौतम ! वे सम्पूर्ण (सम्भिन्न) (चौदह रज्जू-प्रमाण) लोकनाडी को अवधि (ज्ञान) से जानतेदेखते हैं। विवेचन-विभिन्न जीवों की अवधिज्ञान से जानने-देखने की क्षेत्रमर्यादा-अवधिज्ञान के योग्य समस्त नारकों, देवों, मनुष्यों तथा पंचेन्द्रियतिर्यंचों की अवधिज्ञान द्वारा जानने-देखने की क्षेत्रमर्यादा सू. १९८३ से २००७ तक में बताई गई हैं। इसे सुगमता से समझने के लिए निम्नलिखित तालिका देखिएक्रम अवधिज्ञानयोग्य जीवों के नाम जानने-देखेने की जघन्य क्षेत्रसीमा उत्कृष्ट क्षेत्रसीमा १ समुच्चय नारक आधा गाऊ चार गाऊ २ रत्नप्रभापृथ्वीनारक साढ़े तीन गाऊ चार गाऊ ३ शर्कराप्रभापृथ्वीनारक तीन गाऊ साढ़े तीन गाऊ ४ बालुकाप्रभापृथ्वीनारक ढाई गाऊ तीन गाऊ ५ पंकप्रभापृथ्वीनारक दो गाऊ ढाई गाऊ ६ धूमप्रभापृथ्वीनारक डेढ़ गाऊ दो गाऊ ७ तमःप्रभापृथ्वीनारक एक गाऊ डेढ़ गाऊ ८ तमस्तमःप्रभापृथ्वीनारक आधा गाऊ एक गाऊ ९ असुरकुमार देव पच्चीस योजन असंख्यात द्वीव-समुद्र १० नागकुमारदेव पच्चीस योजन संख्यात द्वीप-समुद्र ११ सुपर्णकुमार से स्तनितकुमार तक के देव पच्चीस योजन संख्यात द्वीप-समुद्र १२ तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय अंगुल के असंख्यातवें भाग असंख्यात द्वीप-समुद्र १३ मनुष्य अंगुल के असंख्यातवें भाग अलोक में लोकप्रमाण असंख्यात खण्ड (परमावधि की अपेक्षा से) Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [तेतीसवाँ अवधिपद] [१८७ १४ वाणव्यन्तर पच्चीस योजन संख्यात द्वीप-समुद्र १५ ज्योतिष्कदेव संख्यात द्वीप-समुद्र संख्यात द्वीप-समुद्र १६ सौधर्मदेव अंगुल के असंख्यातवें भाग नीचे रत्नप्रभापृथ्वी के निचले (उपपात के समय पूर्वभव चरमान्त तक, तिरछे असंख्यात सम्बन्धी सर्व जघन्य अवधि द्वीप-समुद्र तक, ऊपर अपने की अपेक्षा से) विमानों तक १७ ईशानदेव सौधर्मवत् १८ सनत्कुमारदेव नीचे शर्कराप्रभा के निचले चरमान्त तक, शेप सब सौधर्मवत्। १९ माहेन्द्रदेव सनत्कुमारवत् २० ब्रह्मलोक और लान्तकदेव नीचे तीसरी पृथ्वी के निचले चरमान्त तक, शेष सब सौधर्मवत् २१ महाशुक्र, सहस्त्रारदेव नीचे चौथी पंकप्रभा के निचले चरमान्त तक, शेष सौधर्मवत् २२ आनत, प्राणत, आरण, अच्युत नीचे पंचमी धूमप्रभापृथ्वी के निचले चरमान्त तक, शेप पूर्ववत् २३ अधस्तन, मध्यम ग्रैवेयकदेव नीचे छठी तमः प्रभापृथ्वी के निचले चरमान्त तक, शेष सौधर्मवत् २४ उपरिम ग्रैवेयकदेव नीचे सातवीं नरक के निचले चरमान्त तक, तिरछे और ऊपर सौधर्मवत् २५ अनुत्तरोपपातिकदेव सम्पूर्ण लोकनाडी तृतीय : अवधिज्ञान का संस्थानद्वार २००८. रइयाणं भंते! ओही किंसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा! तप्पागारसंठिए पण्णत्ते। [२००८ प्र.] भगवन् ! नारकों का अवधि (ज्ञान) किस आकार (संस्थान) वाला बताया गया है ? [२००८ उ.] गौतम! वह तप्र के आकार का बताया गया है। २००९ [१] असुरकुमाराणं भंते! ० पुच्छा। गोयमा! पल्लगसंठिए। १. (क) पण्णवणासुत्तं भा. १ (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. ४१५ से ४१७ तक (ख) प्रज्ञापनासूत्र (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ७९० से ८०१ तक Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८] [प्रज्ञापनासूत्र] [२००९-१ प्र.] भगवन्! असुरकुमारों का अवधि (ज्ञान) किस प्रकार का बताया गया है? [२००९-१ उ.] गौतम! वह पल्लक के आकार का बताया गया है। [२] एवं जाव थणियकुमाराणं। [२००९-२ ] इसी प्रकार (नागकुमारों से लेकर) स्तनितकुमारों तक के अवधि-संस्थान के विषय में जानना चाहिए। २०१०. पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। . गोयमा! णाणासंठाणसंठिए पण्णत्ते। [२०१० प्र.] भगवन् ! पंचेन्द्रियतिर्यंचों का अवधि (ज्ञान) किस आकार का कहा गया है ? [२०१० उ.] गौतम! नाना आकारों वाला कहा गया है। २०११. एवं मणूसाण वि। [२०११] इसी प्रकार मनुष्यों के अवधि-संस्थान के विषय में जानना चाहिए। २११२. वाणमंतराणं पुच्छा। गोयमा! पडहसंठाणसंठिए पण्णत्ते। [२०१२ प्र.] भगवन् ! वाणव्यन्तर देवों का अवधिज्ञान किस आकार का कहा गया है? [२०१२ उ.] गौतम! वह पटह के आकार का कहा गया है। २११३. जोतिसियाणं पुच्छा। गोयमा! झल्लरिसंठाणसंठिए पण्णत्ते। [२०१३ प्र.] ज्योतिष्कदेवों के अवधिसंस्थान के विषय में पूर्ववत् प्रश्न है। [२०१३ उ.] गौतम! वह झालर के आकार का कहा गया है। २०१४ [१] सोहम्मगदेवाणं पुच्छा। गोयमा! उड्ढमुइंगागारसंठिए पण्णत्ते। [२०१४-१ प्र.] भगवन् ! सौधर्मदेवों के अवधि-संस्थान के विषय में पूर्ववत् पृच्छा है। [२०१४-१ उ.] गौतम! वह ऊर्ध्व-मृदंग के आकार का कहा है। [२] एवं जाव अच्चुयदेवाणं पुच्छा। [२०१४-२] इसी प्रकार यावत् अच्युतदेवों तक के अवधिज्ञान के आकार के विषय में प्रश्नोत्तर समझना चाहिए। २०१५. गेवेजगदेवाणं पुच्छा। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [तेतीसवाँ अवधिपद] [१८९ गोयमा। पुप्फचंगेरिसंठिए पण्णत्ते। [२०१५ प्र.] भगवन् ! ग्रैवेयकदेवों के अवधिज्ञान का आकार कैसा है? [२०१५ उ.] गौतम! वह फूलों की चंगेरी (छबड़ी या टोकरी) के आकार का है। २०१६. अणुत्तरोववाइयाणं पुच्छा। गोयमा! जवणालियासंठिए ओही पण्णत्ते। [२०१६ प्र.] भगवन् ! अनुत्तरौपपातिकदेवों के अवधिज्ञान का आकार कैसा है ? [२०१६ उ.] गौतम! उनका अवधिज्ञान यवनालिका के आकार का कहा गया है। विवेचन-जीवों के अवधिज्ञान के विविध आकार नारकों का तप्राकार, भवनवासी देवों का पल्लकाकार, पंचेन्द्रियतिर्यंचों और मनुष्यों का नाना आकार का, व्यन्तरदेवों का पटहाकार का, ज्योतिष्कदेवों का झालर के आकार का, सौधर्मकल्प से अच्युतकल्प के देवों का उर्ध्वमृदंगाकार का ग्रैवेयकदेवों का पुष्पचंगेरी के आकार का और अनुत्तरौपपातिकदेवों का यवनालिका के आकार का अवधिज्ञान है । वस्तुतः अवधिज्ञान द्वारा प्रकाशित क्षेत्र का आकार उपचार से अवधि का आकार कहा जाता है। कठिन शब्दों का अर्थ - तप - नदी के वेग में बहता हुआ, दूर से लाया हुआ लम्बा और तिकोना काष्ठविशेष अथवा लम्बी और तिकोनी नौका। पल्लक- लाढ़देश में प्रसिद्ध धान भरने का एक पात्रविशेष, जो ऊपर और नीचे की ओर लम्बा, ऊपर कुछ सिकुड़ा हुआ, कोठी के आकार का, होता है । पटह-ढोल (एक प्रकार का बाजा), झल्लरी-झालर, एक प्रकार का बाजा, जो गोलाकार होता है, इसे ढपली भी कहते हैं। उर्ध्व-मृदंगऊपर को उठा हुआ मृदंग जो नीचे विस्तीर्ण और ऊपर संक्षिप्त होता है। पुष्पचंगेरी-फूलों की चंगरी, सूत से गूंथे हुए फूलों की शिखायुक्त चंगेरी। चंगेरी टोकरी या छबड़ी को भी कहते हैं। अवधिज्ञान के कारण का फलितार्थ यह है कि भवनवासी और वाणव्यन्तरदेवों का अवधिज्ञान ऊपर की ओर अधिक होता है और वैमानिकों का नीचे की ओर अधिक होता है। ज्योतिष्कों और नारकों का तिरछा तथा मनुष्यों और तिर्यञ्चों का विविध प्रकार का होता है। ___पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों और मनुष्यों का अवधिज्ञान - जैसे स्वयम्भूरमणसमुद्र में मत्स्य नाना आकार के होते हैं, वैसे ही तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों एवं मनुष्यों में नाना आकार का होता है। वलयाकार भी होता है।' चतुर्थः अवधि-आभ्यन्तर-बाह्यद्वार २०१७. णेरइया णं भते ! ओहिस्स किं अंतो बाहिं ? गोयमा! अंतो, नो बाहिं। [२०१७ प्र.] भगवान् ! क्या नारक अवधि (ज्ञान) के अन्दर होते हैं, अथवा बाहर होते हैं ? १. (क) पण्णवणासुत्तं भा. १ (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. ४१७-४१८ (ख) प्रज्ञापनासूत्र (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ.,८०६ से ८१० तक Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९०] [२०१७ उ.] गौतम! वे ( अवधि के अन्दर (मध्य में रहने वाले) होते हैं, बाहर नहीं । २०१८. एवं जाव थणियकुमारा । [२०१८ प्र.] इसी प्रकार स्तनितकुमारों तक जानना चाहिए। २०१९. पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा । गोयमा ! णो अंतो, बाहिं । [२०१९ प्र.] भगवन् ! पंचेन्द्रियतिर्यञ्च अवधि के अन्दर होते हैं, अथवा बाहर होते हैं ? [२०१९ उ.] गौतम! वे अन्दर नहीं होते, बाहर होते हैं। २०२०. मणूसाणं पुच्छा। गोयमा ! अंतो वि बाहिं पि [२०२० प्र.] भगवन्! मनुष्य अवधिज्ञान के अन्दर होते हैं या बाहर होते हैं ? [२०२० उ. ] गौतम ! वे अन्दर भी होते हैं और बाहर भी होते हैं। [ प्रज्ञापनासूत्र ] २०२१. वाणमंतर - जोइसिय-वेमाणियाणं जहा णेरइयाणं (सु. २०१७ ) । [२०२१] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों का कथन (सू. २०१७ में उक्त) नैरयिकों के समान है। विवेचन • आभ्यन्तरावधि और बाह्यावधि : स्वरूप और व्याख्या जो अवधिज्ञान सभी दिशाओं में अपने प्रकाश्य क्षेत्र को प्रकाशित करता है तथा अवधिज्ञानी जिस अवधिज्ञान द्वारा प्रकाशित क्षेत्र के भीतर ही रहता है, वह आभ्यन्तरावधि कहलाता है। इससे जो विपरीत हो, वह बाह्यावधि कहलाता है । बाह्य अवधि अन्तगत और मध्यगत के भेद से दो प्रकार है। जो अन्तगत हो अर्थात् आत्मप्रदेशों के पर्यन्त भाग में स्थित (गत) हो वह अन्तगत अवधि कहलाता है। कोई अवधिज्ञान जब उत्पन्न होता है, तब वह स्पर्द्धक के रूप में उत्पन्न होता है । स्पर्द्धक उसे कहते हैं, जो गवाक्ष जाल आदि से बाहर निकलने वाली दीपक - प्रभा समान नियत विच्छेद विशेषरूप है। वे स्पर्द्धक एक जीव के संख्यात और असंख्यात तथा नाना प्रकार के होते हैं। उनमें से पर्यन्तवर्ती आत्मप्रदेशों में सामने पीछे, अधोभाग या ऊपरी भाग में उत्पन्न होता हुआ अवधिज्ञान आत्मा के पर्यन्त में स्थित हो जाता है, इस कारण वह अन्तगत कहलाता है । अथवा औदारिकशरीर के अन्त में जो गत- स्थित हो, वह अन्तगत कहलाता है, क्योंकि वह औदारिकशरीर की अपेक्षा से कदाचित् एक दिशा में जानता है। अथवा समस्त आत्मप्रदेशों में क्षयोपशम होने पर भी जो अवधिज्ञान औदारिकशरीर के अन्त में यानी किसी एक दिशा से जाना जाता है, वह अन्तगत अवधिज्ञान कहलाता है। अन्तगत अवधि तीन प्रकार का होता है- (१) पुरतः, (२) पृष्ठतः, (३) पार्श्वतः । मध्यगत अवधि उसे कहते हैं, जो आत्मप्रदेशों के मध्य में गत-स्थित हो । अर्थात् जिसकी स्थिति आत्मप्रदेशों के मध्य में हो, अथवा समस्त आत्मप्रदेशों में जानने का क्षयोपशम होने पर भी जिसके द्वारा औदारिकशरीर के मध्यभाग से जाना जाए वह भी मध्यगत कहलाता है। सारांश यह है कि जब अवधिज्ञान के द्वारा प्रकाशित क्षेत्र अवधिज्ञानी के साथ सम्बद्ध होता है, तब वह आभ्यन्तर - अवधि कहलाता है तथा जब अवधिज्ञान द्वारा प्रकाशित क्षेत्र अवधिज्ञानी — Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ तेतीसवाँ अवधिपद ] सम्बद्ध नहीं रहता, तब वह बाह्यावधि कहलाता है। नारक और समस्त जाति के देव भवस्वभाव के कारण अवधिज्ञान के अन्तः- मध्य में ही रहने वाले होते हैं, बहिर्वर्ती नहीं होते। उनका अवधिज्ञान सभी ओर के क्षेत्र को प्रकाशित करता है, इसलिए वे अवधि के मध्य में ही होते हैं। पंचेन्द्रियतिर्यञ्च तथाविध भवस्वभाव के कारण अवधि के अन्दर नहीं होते, बाहर होते हैं। उनका अवधि स्पर्द्धकरूप होता है जो बीच-बीच में छोड़कर प्रकाश करता है, मनुष्य अवधि के मध्यवर्ती भी होते हैं, बहिर्वर्ती भी। पंचम देशावधि - सर्वावधिद्वार २०२२. णेरड्या णं भंते! किं देसोही सव्वोही ? गोयमा! देसोही, णो सव्वोही । [२०२२ प्र.] भगवन् ! नारकों का अवधिज्ञान देशावधि होता है अथवा सर्वावधि होता है ? . [२०२२ उ.] गौतम ! उनका अवधिज्ञान देशावधि होता है, सर्वावधि नहीं होता है। २०२३. एवं जाव थणियकुमाराणं । [२०२३] इसी प्रकार ( का कथन ) स्तनितकुमारों तक के विषय में (समझना चाहिए।) २०२४. पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा । गोयमा! देसोही, णो सव्वोही । [२०२४ प्र.] भगवन् ! पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों का अवधि देशावधि होता है या सर्वावधि होता है ? [२०२४ उ.] गौतम ! वह देशावधि होता है, सर्वावधि नहीं होता है ? २०२५. मणूसाणं पुच्छा । गोयमा ! देसोही वि सव्वोही वि । [२०२५ प्र.] भगवन् ! मनुष्यों का अवधिज्ञान देशावधि होता है या सर्वावधि होता है ? [२०२५ उ.] गौतम ! उनका अवधिज्ञान देशावधि भी होता है, सर्वावधि भी होता है। २०२६. वाणमंतर जोतिसिय-वेमाणियाणं जहा णेरइयाणं (सु. २०२२ ) । [२०२६] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों का ( अवधि भी) (सू. २०२२ समान) (देशावधि होता है ।) १. (क) प्रज्ञापना (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ७७३ से ७७५ तक २. वही, भा. ५, पृ. ८१० से ८१२ तक [१९१ - - विवेचन – देशावधि और सर्वावधि : स्वरूप एवं विश्लेषण अवधिज्ञान तीन प्रकार का होता है। सर्वजघन्य, मध्यम और सर्वोत्कृष्ट । इनमें से सर्वजघन्य और मध्यम अवधि को देशावधि कहते हैं और सर्वोत्कृष्ट ¿ उक्त नारकों के Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२] [प्रज्ञापनासूत्र] अवधि को परमावधि या सर्वावधि कहते हैं। सर्वजघन्य अवधिज्ञान द्रव्य की अपेक्षा तैजसवर्गणा और भाषावर्गणा के अपान्तरालवर्ती द्रव्यों को, क्षेत्र की अपेक्षा अंगुल के असंख्यातवें भाग को, काल की अपेक्षा अवलिका के असंख्यातवें भाग अतीत और अनागत काल को जानता है। यद्यपि अवधिज्ञान रूपी पदार्थों को जानता है, इसलिए क्षेत्र और काल अमूर्त होने के कारण उनको साक्षात् ग्रहण नहीं कर सकता, क्योंकि वे अरूपी हैं, तथापि उपचार से क्षेत्र और काल में जो रूपी द्रव्य होते हैं, उन्हें जानता है तथा भाव से अनन्त पर्यायों को जानता है। द्रव्य अनन्त होते हैं, अतः कम-से-कम प्रत्येक द्रव्य के रूप, रस, गन्ध और स्पर्श रूप चार पर्यायों को जानता है। यह हुआ सर्वजघन्य अवधिज्ञान । इससे आगे पुनः प्रदेशों की वृद्धि से, पर्यायों की वृद्धि से बढ़ता हुआ अवधिज्ञान मध्यम कहलाता है। जब तक सर्वोत्कृष्ट अवधिज्ञान न हो जाए, तब तक मध्यम का ही रूप समझना चाहिए। सर्वोत्कृष्ट अवधिज्ञान द्रव्य की अपेक्षा समस्त रूपी द्रव्यों को जानता है, क्षेत्र की अपेक्षा असंख्यात अतीत और अनागत उत्सर्पिणियों अवसर्पिणियों को जानता है तथा भाव की अपेक्षा अनन्त पर्यायों को जानता है, क्योंकि वह प्रत्येक द्रव्य की संख्यात-असंख्यात पर्यायों को जानता है। छठा-सातवाँ अवधि-क्षय-वृद्धि आदि द्वार २०२७. णेरइयाणं भंते ! ओही किं आणुगामिए अणाणुगामिए बड्ढमाणए हायमाणए पडिवाई अपडिवाई अवट्ठिए अणवट्ठिए? गोयमा! आणुगामिए, णो अणाणुगामिए जो वड्ढमाणए णो हायमाणए णो पडिवाई, अपडिवादी अवट्ठिए, णो अणवट्ठिए। [२०२७ प्र.] भगवन् ! नारकों का अवधि (ज्ञान) क्या आनुगामिक होता है, अनानुगामिक होता है, वर्द्धमान होता है, हीयमान होता है, प्रतिपाती होता है, अप्रतिपाती होता है, अवस्थित होता है, अथवा अनवस्थित होता है ? [२०२७ उ.] गौतम! वह आनुगामिक है, किन्तु अनानुगामिक, वर्धमान, हीयमान, प्रतिपाती और अनवस्थित नहीं होता, अप्रतिपाती और अवस्थित होता है। २०२८. एवं जाव थणियकुमाराणं। [२०२८] इसी प्रकार (असुरकुमारों से लेकर) स्तनितकुमारों तक के विषय में जानना चाहिए। २०२९. पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। गोयमा! आणुगामिए वि जाव अणवट्ठिए वि। [२०२९ प्र.] भगवन्! पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों का अवधि (ज्ञान) आनुगामिक होता है ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न है। [२०२९ उ.] गौतम! वह आनुगामिक भी होता है, यावत् अनवस्थित भी होता है। २०३०. एवं मणूसाण वि। __ [२०३०] इसी प्रकार मनुष्यों के अवधिज्ञान के विषय में समझ लेना चाहिए । १. प्रज्ञापना (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ७७६ से ७७७ तक Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [तेतीसवाँ अवधिपद] [१९३ २०३१. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणियाणं जहा णेरइयाणं (सु. २०२७ )। [२०३१] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों (के अवधिज्ञान) की वक्तव्यता (सू. २०२७ में उक्त) नारकों के समान जाननी चाहिए। ॥ पण्णवणाए भगवतीए तेत्तीसइमं ओहिपयं समत्तं ॥ विवेचन - आनुगामिक आदि पदों के लक्षण - (१) आनुगामिक (अनुगामी)-जो अवधिज्ञान अपने उत्पत्तिक्षेत्र को छोड़कर दूसरे स्थान पर चले जाने पर भी अवधिज्ञानी के साथ विद्यमान रहता है, उसे आनुगामिक कहते हैं, अर्थात् जिस स्थान पर जिस जीव में यह अवधिज्ञान प्रकट होता हैं, वह जीव उस स्थान के चारों ओर संख्यात-असंख्यात योजन तक देखता है, इसी प्रकार उस जीव के दूसरे स्थान पर चले जाने पर भी वह उतने क्षेत्र को जानता-देखता है, वह आनुगामिक कहलाता है (२) अनानुगामिक (अननुगामी) - जो साथ न चले, किन्तु जिस स्थान पर अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ, उसी स्थान में स्थित होकर पदार्थों को जाने, उत्पत्तिस्थान को छोड़ देने पर न जाने, उसे अनानुगामिक कहते हैं। तात्पर्य यह है कि अपने ही स्थान पर अवस्थित रहने वाला अवधिज्ञान अनानुगामी कहलाता है। (३) वर्धमान – जो अवधिज्ञान उत्पत्ति के समय अल्पविषय वाला हो और परिणामविशुद्धि के साथ प्रशस्त, प्रशस्ततर अध्यवसाय के कारण द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा को लिए बढ़े अर्थात् अधिकाधिक विषय वाला हो जाता है, वह 'वर्धमान' कहलाता है। (४) हीयमान- जो अवधिज्ञान उत्पत्ति के समय अधिक विषय वाला होने पर भी परिणामों की अशुद्धि के कारण क्रमशः अल्प, अल्पतर और अल्पतम विषय वाला हो जाए, तो उसे हीयमान कहते है। (५) प्रतिपाती-इसका अर्थ पतन होना, गिरना या समाप्त हो जाना है। जगमगाते दीपक के वायु के झोके से एकाएक बुझ जाने के समान जो अवधिज्ञान सहसा लुप्त हो जाता है उसे प्रतिपाती कहते है। (६) अप्रतिपाती-जिस अवधिज्ञान का स्वभाव पतनशील नहीं है, उसे अप्रतिपाती कहते हैं। केवलज्ञान होने पर भी अप्रतिपाती अवधिज्ञान नहीं जाता, क्योंकि वहाँ अवधिज्ञानावरण का उदय नहीं होता, जिससे जाए; अपितु वह केवलज्ञान में समाविष्ट हो जाता है। केवलज्ञान के समक्ष उसकी सत्ता अकिंचित्कर है। जैसे कि सूर्य के समक्ष दीपक का प्रकाश । यह अप्रतिपाती अवधिज्ञान बारहवें गुणस्थानवी जीवों के अन्तिम समय में होता है और उसके बाद तेरहवाँ गुणस्थान प्राप्त होने के प्रथम समय के साथ केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है । इस अप्रतिपाती अवधिज्ञान को परमावधिज्ञान भी कहते हैं। हीयमान और प्रतिपाती में अन्तर यह है कि हीयमान का तो पूर्वापेक्षया धीरे - धीरे ह्रास हो जाता है, जबकि प्रतिपाती दीपक की तरह एक ही क्षण में नष्ट हो जाता है। (७) अवस्थित – जो अवधिज्ञान जन्मान्तर होने पर भी आत्मा में अवस्थित रहता है या केवलज्ञान की उत्पतित्पर्यंन्त ठहरता है, वह अवस्थित अवधिज्ञान कहलाता है। (८) अनवस्थित - जल की तरंग के समान जो अवधिज्ञान कभी घटता है, कभी बढ़ता है, कभी आविर्भूत हो जाता है और कभी तिरोहित हो जाता है, उसे अनवस्थित कहते हैं। ये दोनों भेद प्रायः प्रतिपाती और अप्रतिपाती के समान लक्षण वाले हैं, किन्तु नाममात्र का भेद होने से दोनों को अपेक्षाकृत पृथक्-पृथक् बताया है।' १. कर्मग्रन्थ भाग १ (मरुधरकेसरीव्याख्या) भा. १, पृ. ४८ से ५१ तक Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४] [ प्रज्ञापनासूत्र ] निष्कर्ष - नारकों तथा चारों जाति के देवों का अवधिज्ञान आनुगामिक, अप्रतिपाती और अवस्थित होता है। तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों और मनुष्यों का अवधि पूर्वोक्त आठ ही प्रकार का होता है।' ॥ पज्ञापना भगवती का तेतीसवाँ अवधिपद समाप्त ॥ १. पण्णवणासुतं भा. १ ( मूलपाठ - टिप्पण), पृ. ४१८ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * चउतीसइमं परियारणापयं चौतीसवाँ परिचारणापद प्राथमिक प्रज्ञापनासूत्र का यह चौतीसवाँ परिचारणापद है। इसके बदले किसी-किसी प्रति में प्रविचारणा शब्द मिलता है, जो तत्त्वार्थसूत्र' के प्रवीचार शब्द का मूल है । इसलिए परिचारणा अथवा प्रवीचार दोनों शब्द एकार्थक हैं। कठोपनिषद में भी परिचार शब्द का प्रयोग मिलता है। प्रवीचार या परिचारणा दोनों शब्दों का अर्थ मैथुनसेवन, इन्द्रियों का कामभोग, कामक्रीडा, रति, विषयभोग आदि किया गया है। भारतीय साधकों ने विशेषतः जैनतीर्थकरों ने देवों को मनुष्य जितना महत्त्व नहीं दिया है। देव मनुष्यों से भोगविलास में, वैषयिक सुखों में आगे बढे हुए अवश्य हैं तथा मनमाना रूप बनाने में दक्ष हैं, किन्तु मनुष्य जन्म को सबसे बढ़कर माना है, क्योंकि विषयों एवं कषायों से मुक्ति मनुष्यजन्म में ही, मनुष्ययोनि में ही सम्भव है। माणुसं खु दुल्लहं कह कर भगवान् महावीर ने इसकी दुर्लभता का प्रतिपादन यत्र-तत्र किया है। यही कारण है कि मनुष्यजीवन की महत्ता बताने के लिए देवजीवन में विषयभोगों की तीव्रता का स्पष्टतः प्रतिपादन किया गया है। देवजीवन में उच्चकोटि के देवों को छोड़कर अन्य देव इन्द्रिय-विषयभोगों का त्याग कर ही नहीं सकते। उच्चकोटि के वैमानिक देव भले ही परिचाररहित और देवीरहित हों, किन्तु वे ब्रह्मचारी नहीं कहला सकते, क्योंकि उनमें चारित्र के परिणाम नहीं होते। जबकि मनुष्यजीवन में महाव्रतीसर्वविरतिसाधक बनकर मनुष्य पूर्ण ब्रह्मचारी अथवा अणुव्रती बन कर मर्यादित ब्रह्मचारी हो सकता है। इस पद में देवों की परिचारणा का विविध पहलुओं से प्रतिपादन है। यद्यपि प्रारम्भ में आहारसम्बन्धी वक्तव्यता होने से सहसा यह प्रतीत होता है कि आहारसम्बन्धी यह वक्तव्यता आहारपद में देनी चाहए थी, परन्तु गहराई से समीक्षण करने पर यह प्रतीत होता है कि आहारसम्बन्धी वक्तव्यता यहाँ सकारण है। इसका कारण यह है कि परिचारणा या मैथुनसेवन का मूल आधार शरीर है, शरीर से सम्बन्धित स्पर्श, रूप, शब्द, मन, अंगोपांग, इन्द्रियाँ, शारीरिक लावण्य, सौष्ठव, चापल्य वर्ण आदि हैं। इसीलिए शास्त्रकार ने सर्वप्रथमशरीर निर्माण की प्रक्रिया से इस पद का प्रारम्भ किया है। चौवीस दण्डकवर्ती जीव उत्पत्ति के प्रथम समय में आहार लेने लगता है। तदनन्तर उसके शरीर की निष्पत्ति होती है। चारो ओर से पुद्गलों का ग्रहण होकर शरीर, इन्द्रियादि के रूप में परिणमन होता है । इन्द्रियाँ जब आहार से पुष्ट होती हैं तो उद्दीप्त होने - तत्त्वार्थसूत्र ४१८, ९ १. 'कायप्रवीचारा आ ऐशानात्, शेषा स्पर्शरूपशब्दमन:प्रवीचारा द्वयोर्दयोः।' प्रवीचारो-मैथुनोपसेवनम्। -सर्वार्थसिद्धि ४।७ २. पण्णावणासुत्तं (प्रस्तावना) भा. २, पृ. १४५ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६] [ प्रज्ञापनासूत्र ] पर जीव परिचारणा करता है, फिर विक्रिया करता है। देवों में पहले विक्रिया है फिर परिचारणा है । एकेन्द्रियों तथा विकलेन्द्रियों में परिचारणा है, विक्रिया नहीं होती है। परिचारणा में शब्दादि सभी विषयों का उपभोग होने लगता है। * * ܀ में आहार की चर्चा के पश्चात् आभोगनिर्वर्तित और अनाभोगनिर्वर्तित आहार का उल्लेख किया है। प्रस्तुत आभोगनिर्वर्तित का अर्थ वृत्तिकार ने किया है 'मनः प्रणिधानपूर्वकमाहारं गृहन्ति' अर्थात् मनोयोगपूर्वक जो आहार ग्रहण किया जाए। अनाभोगनिर्वर्तित आहार का अर्थ है - इसके विपरीत जो आहार मनोयोगपूर्वक न किया गया हो। जैसे एकेन्द्रियों के मनोद्रव्यलब्धि पटु नहीं है, इसलिए उनके पटुतर आभोग (मनोयोग ) नहीं होता। परन्तु यहाँ रसनेन्द्रिय वाले प्राणी के मुख होने से उसे खाने की इच्छा होती है इसलिए एकेन्द्रिय में अनाभोगनिर्वर्तित आहार माना गया है। एकेन्द्रिय के सिवाय सभी जीव आभोगनिर्वर्तित और अनाभोगनिर्वर्तित दोनों प्रकार का आहार लेते है। इसके पश्चात् ग्रहण किये हुए आहार्यपुद्गलों को कौन जीव जानता देखता है, कौन नहीं ? इसकी चर्चा है। आहारशुद्धौ सत्वशुद्धिः इस सूक्ति के अनुसार आहार का अध्यवसाय के साथ सम्बन्ध होने से यहाँ आहार के बाद अध्यवसाय स्थानों की चर्चा की गई है। चौवीस दण्डकों में प्रशस्त और अप्रशस्त अध्यवसायस्थान असंख्यात प्रकार के होते हैं। परिचारणा के साथ स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध का निकट सम्बन्ध है । यही कारण है कि षट्खण्डागम में कर्म के स्थितिबन्ध और अनुाभागबन्ध के अध्यवसायस्थानों की विस्तृत चर्चा है। इसके पश्चात् चौवीस दण्डकों में सम्यक्त्वाभिगामी, मिथ्यात्वाभिगामी और सम्यग्मिथ्यात्वाभिगामी की चर्चा है। परिचारणा के सन्दर्भ में यह प्रतिपादन किया गया है, इससे प्रतीत होता है कि सम्यक्त्वी और मिथ्यात्वी का परिचारणा के परिणामों पर पृथक्-पृथक् असर पड़ता है। सम्यक्त्वी द्वारा की गई परिचारणा और मिथ्यात्वी द्वारा की गई परिचारणा के भावों में रात-दिन का अन्तर होगा, तदनुसार कर्मबन्ध में भी अन्तर पडेगा । यहाँ तक परिचारणा की पृष्ठभूमि के रूप में पांच द्वार शास्त्रकार ने प्रतिपादित किये है (१) अनन्तराहारद्वार, (२) आहाराभोगद्वार, (३) पुद्गलज्ञानद्वार, (४) अध्यवसानद्वार और (५) सम्यक्त्वाभिगमद्वार। १. (क) पण्णवणासुतं भा. २ ( प्रस्तावना - परिशिष्ट ) पृ. १४५ (ख) प्रज्ञपना. मलयवृत्ति, पत्र ५४५ (ग) पण्णवणासुतं भा. २ ( मू. पा. टि.) पृ. १४६ २. (क) पण्णवणासुतं भा. २ ( प्रस्तावना) पृ. १४६ - १४७ (ख) पण्णवणासुत्तं भा. १ (मू.पा.टि.) पृ. १४६ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्राथमिक] [१९७ * इसके पश्चात् छठा परिचारणाद्वार प्रारम्भ होता है। परिचारणा को शास्त्रकार ने चार पहलुओं से प्रतिपादित किया है-(१) देवों के सम्बन्ध में परिचारणा की दृष्टि से निम्नलिखित तीन विकल्प सम्भव हैं, चौथा विकल्प सम्भव नहीं है। (१) सदेवीक सपरिचार देव (२) अदेवीक सपरिचार देव, (३) अदेवीक अपरिचार देव। कोई भी देव सदेवीक हो, साथ ही अपरिचार भी हो, ऐसा सम्भव नहीं। अत: उपर्युक्त तीन सम्भावित विकल्पों का स्पष्टीकरण इस प्रकार है-(१) भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और सौधर्मईशान वैमानिक में देवियाँ होती हैं । इसलिए इनमें कायिकपरिचारणा (देव-देवियाँ का मैथुनसेवन) होती है। (२) सनत्कुमारकल्प से अच्युतकल्प के वैमानिक देवों में अकेले देव ही होते हैं, देवियाँ नहीं होतीं, इसके लिए द्वितीय विकल्प है-उन विमानों में देवियाँ नहीं होती, फिर भी परिचारणा होती है। (३) किन्तु नौ ग्रैवेयक और अनुत्तरविमानों में देवी भी नहीं होती और वहाँ के देवों द्वारा परिचाारणा भी नहीं होती। यह तीसरा विकल्प है। जिस देवलोक में देवी नहीं होती, वहाँ परिचारणा कैसे होती है ? इसका समाधान करते हुए शास्त्रकार कहते हैं-(१) सनत्कुमार और माहेन्द्रकल्प में स्पर्श-परिचारणा, (२) ब्रह्मलोक और लान्तककल्प में रूपपरिचारणा, (३) महाशुक्र और सहस्रारकल्प में शब्द-परिचारणा, (४) आनत-प्राणत तथा आरण-अच्युतकल्प में मन:परिचारणा होती है। कायपरिचारणा तब होती है, जब देवों में स्वतः इच्छा-मन की उत्पत्ति अर्थात् कायपरिचारणा की इच्छा होती है और तब देवियाँ-अप्सराएँ मनोरम मनोज्ञ रूप तथा उत्तरवैक्रिय शरीर धारण करके उपस्थित होती हैं। देवों की कायिक परिचारणा मनुष्य के कायिक मैथुनसेवन के समान देवियों के साथ होती है। शास्त्रकार ने आगे यह भी बताया है कि देवों में शुक्र पुद्गल होते है, वे उन देवियों में संक्रमण करके पंचेन्द्रियरूप में परिणत होते हैं तथा अप्सरा के रूप लावण्यवर्द्धक भी होते हैं । यहाँ एक विशेष वस्तु ध्यान देने योग्य है कि देव के उस शुक्र से अप्सरा में गर्भाधान नहीं होता, क्योंकि देवों के वैक्रियशरीर होता है। उनकी उत्पत्ति गर्भ से नहीं, किन्तु औपपातिक है। जहाँ स्पर्श, रूप एवं शब्द से परिचारणा होती है, उन देवलोकों में देवियां नहीं होतीं। किन्तु देवों को जब स्पर्शादि-परिचारणा की इच्छा होती है, तब अप्सराएँ (देवियाँ) विक्रिया करके स्वयं उपस्थित होती हैं । वे देवियाँ सहस्रारकल्प तक जाती हैं, यह खासतौर से ध्यान देने योग्य है। फिर वे देव क्रमशः (यथायोग्य) स्पर्शादि से ही सन्तुष्टि-तृप्ति अनुभव करते हैं । यही उनकी परिचारणा है। स्पर्शादि से परिचारणा करने वाले देवों के भी शुक्र-विर्सजन होता है। * वृत्तिकार ने इस विषय में स्पष्टीकरण किया है कि देव-देवी का कायिक सम्पर्क न होने पर भी दिव्य-प्रभाव के कारण देवी मे शुक्र-संक्रमण होता है और उसका परिणमन भी उन देवियों के रूप-लावण्य में वृद्धि करने में होता है। १. (क) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ५४९ (ख) वही, केवलमेते वैक्रियशरीरान्तर्गता इति न गर्भाधानहेतवः। -पत्र ५५०-५५१ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८] [प्रज्ञापनासूत्र] * आनत, प्राणत, आरण और अच्युतकल्प में केवल मन-(मन से) परिचारणा होती है। अतः उन-उन देवों की परिचारणा की इच्छा होने पर देवियाँ वहाँ उपस्थित नहीं होती, किन्तु वे उपने स्थान में रह कर ही मनोरम श्रृंगार करती हैं, मनोहर रूप बनाती हैं और वे देव अपने स्थान पर रहते हुए ही मन:सन्तुष्टि प्राप्त कर लेते हैं, साथ ही अपने स्थान में रही हुई वे देवियाँ है भी दिव्य-प्रभाव से अधिकाधिक रूप-लावण्वती बन जाती हैं। प्रस्तुत पद के अन्तिम सप्तम द्वार में पूर्वोक्त सभी परिचारणाओं की दृष्टि से देवों के अल्पबहुत्व की विचारणा की गई है। उसमें उत्तरोत्तर वृद्धिंगत क्रम इस प्रकार है, – (१) सबसे कम अपरिचारक देव हैं, (२) उनसे संख्यातगुणे अधिक मन से परिचारणा करने वाले देव है, (३) उनसे असंख्यातगुणा शब्द-परिचारक देव हैं, (४) उनकी अपेक्षा रूप-परिचारक देव असंख्यातगुणा हैं, (५) उनसे असंख्यातगुणा स्पर्श-परिचारक देव हैं और (६) इन सबसे कायपरिचारक देव असंख्यातगुणे हैं। उसमें उत्तरोत्तर वृद्धि का विपरीतक्रम परिचारणा में उत्तरोत्तर सुखवृद्धि की दृष्टि से प्रस्तुत किया गया है। उदाहरणार्थ-सबसे कम सुख कायपरिचारणा में है और फिर उत्तरोत्तर सुखवृद्धि स्पर्श-रूप-शब्द और मन से परिचारणा में है। सबसे अधिक सुख अपरिचारणा वाले देवों में है। वृत्तिकार ने यह रहस्योद्घाटन किया है। १.(क) पुद्गल-संक्रमो दिव्यप्रभावादवसेयः।-प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र५५१ (ख) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, (ग) पण्णवणासुत्तं भा. २ (प्रस्तावना-परिशिष्ट) पृ. १४८ २. (क) पण्णवणासुत्तं भा. २ (प्रस्तावना-परिशिष्ट) पृ.१४ (ख) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ८७१ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउतीसइमं परियारणापयं चौतीसवाँ परिचारणापद चौतीसवें पद का अर्थाधिकार-प्ररूपण २०३२. अणंतरागयआहारे १ आहाराभोगणाइ य २। पोग्गला नेव जाणंति ३ अज्झवसाणा य आहिया ४ ॥ २२३ ॥ सम्मत्तस्स अभिगमे ५ तत्तो परियारणा य बोद्धव्वा ६। काए फासे रू वे सद्दे य मणे य अप्पबहुं ७ ॥ २२४ ॥ [२०३२ अर्थाधिकार प्ररूपक-गाथार्थ] (१) अनन्तरागत आहार, (२) आहारभोगता आदि, (३) पुद्गलों को नहीं जानते, (४) अभ्यवसान. (५) सम्यक्त्व का अभिगम, (६) काय, स्पर्श, रूप, शब्द और मन से सम्बन्धित परिचारणा और (७) अन्त में कार आदि से परिचारणा करने वालों का अल्पबहुत्व, (इस प्रकार चौतीसवें पद का अर्थाधिकार) समझना चाहिए॥२२३-२२४ ॥ विवेचन-चौतीसवें पद में प्रतिपाद्य विषय - प्रस्तुत पद में दो संग्रहणी गाथाओं द्वारा निम्नोक्त विषयों की प्ररूपणा की गई है-(१) सर्वप्रथम नारक आदि अनन्तरागत-आहारक हैं, इस विषय की प्ररूपणा है, (२) तत्पश्चात् उनका आहार आभोगजनित होता है या अनाभोगजनित?, इत्यादि कथन है। (३) नारकादि जीव आहाररूप में गृहीत पुद्गलों को जानते-देखते हैं या नहीं? इस विषय में प्रतिपादन है। (४) फिर नारकादि के अध्यवसाय के विषय में कथन है। (५) तत्पश्चात् नारकादि के सम्यक्त्व प्राप्ति का कथन है। (६) शब्दादिविषयोपभोग की वक्तव्यता, तथा काय, स्पर्श रूप, शब्द और मन सम्बन्धी परिचारणा का निरूपण है। (७) अन्त में, काय आदि से परिचारणा करने वालों के अल्पबहुत्व की वक्तव्यता है।' प्रथम अनन्तराहारद्वार २०३३. णेरइया णं भंते! अणंतराहार तओ निव्वत्तणया ततो परियाइयणया ततो परिणामणया ततो परियारणया ततो पच्छा विउव्वणया ? हंता गोयमा! णेरइया णं अणंतराहार तओ निव्वत्तणया ततो परियादियणता तओ परिणामणया तओ परियारणया तओ पच्छा विउव्वणया। [२०३३ प्र.] भगवन् ! क्या नारक अनन्तराहारक होते हैं ? उसके पश्चात् (उनके शरीर की) निष्पत्ति होती है? फिर पर्यादानता, तदनन्तर परिणामना होती है ? तत्पश्चत् परिचारणा करते हैं ? और तब विकुर्वणा करते हैं ? [२०३३ उ.] हाँ, गौतम ? नैरयिक अनन्तराहारक होते हैं, फिर उनके शरीर की निष्पत्ति होती है, तत्पश्चात् पर्यादानता और परिणामना होती है, तत्पश्चात् वे परिचारणा करते हैं और तब वे विकुर्वणा करते हैं। १. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ८१७ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २००] [प्रज्ञापनासूत्र] २०३४. [१] असुरकुमारा णं भंते! अणंतराहारा तओ णिव्वत्तणया तओ परियाइयणया तओ परिणामणया तओ विउव्वणया तओ पच्छा परियारणया? गोयमा! असुरकुमारा अणंतराहार तओ णिव्वत्तणया जाव तओ पच्छा परियारणया। [२०३४-१ प्र.] भगवन्! क्या असुरकुमार भी अनन्तराहारक होते हैं? फिर उनके शरीर की निष्पत्ति होती हैं ? फिर वे क्रमशः पर्यादान, परिणामना करते हैं ? और तत्पश्चत् विकुर्वणा और फिर परिचारणा करते हैं? । [२०३४-१ उ.] हाँ, गौतम! असुरकुमार अनन्तराहारी होते हैं, फिर उनके शरीर की निष्पत्ति होती है यावत् फिर वे परिचारणा करते हैं। [२] एवं जाव थणियकुमारा। [२०३४-२] इसी प्रकार की वक्तव्यता स्तनितकुमारपर्यन्त कहनी चाहिए। २०३५. पुढविक्काइया णं भंते! अणंतराहार तओ णिव्वत्तणया तओ परियाइयणया तओ परिणामणया य तओ परियारणया ततो विउव्वणया ? हंता गोयमा! तं चेव जाव परियारणया, णो चेव णं विउव्वणया। [२०३५ प्र.] भगवन् ! क्या पृथ्वीकायिक अनन्तराहारक होते हैं? फिर उनके शरीर की निष्पत्ति होती है ? तत्पश्चात् पर्यादानता, परिणामना, फिर परिचारणा और तब क्या विकुर्वणा होती है? . [२०३५ उ.] हाँ, गौतम! पृथ्वीकायिक की वक्तव्यता यावत् परिचारणापर्यन्त पूर्ववत् कहनी चाहिए किन्तु वे विकुर्णवा नहीं करते। २०३६. एवं जाव चउरिंदिया। णवरं वाउक्काइया पंचेंदियतिरिक्खजोणिया मणुस्सा य जहा णेरइया (सु. २०३३)। [२०३६] इसी प्रकार चतुरिन्द्रियपर्यन्त कथन करना चाहिए। विशेष यह है कि वायुकायिक जीव, पंचेन्द्रियतिर्यञ्च और मनुष्यों के विषय में (सू. २०३३ में उक्त) नैरयिकों के कथन के समान जानना चाहिए। २०३७. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा (सु. २०३४)। [२०३७] वाणव्यन्तर ज्योतिष्क और वैमानिकों की वक्तव्यता असुरकुमारों की वक्तव्यता के समान जाननी चाहिए। विवेचन-अनन्तराहार से विकुर्वणा तक के क्रम की चर्चा-नारक आदि चौबीस दण्डकवर्ती जीवों के विषय में प्रथम द्वार में अनन्तराहार, निष्पत्ति, पर्यादानता, परिणामना, परिचारणा और विकुर्वणा के क्रम की चर्चा की गई है। अनन्तराहारक आदि का विशेष अर्थ-अनन्तराहारक-उत्पत्ति क्षेत्र में आने के समय ही आहार करने वाले। निर्वर्तना-शरीर की निष्पत्ति, पर्यादानता-आहार्य पुद्गलों का ग्रहण करना। परिणामना-गृहीत पुद्गलों १. पण्णवणासुत्तं भा. १ (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. ४१९ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [चौतीसवाँ परिचारणापद] [२०१ को शरीर, इन्द्रिय आदि के रूप में परिणत करना। परिचारणा-यथायोग्य शब्दादि विषयों का उपभोग करना। विकुर्वणा-वैक्रियलब्धि के सामर्थ्य से विक्रिया करना। प्रश्न का आशय यह है कि नारक आदि अनन्तराहारक होते हैं ? अर्थात् - क्या उत्पत्तिक्षेत्र में पहुँचते ही समय के व्यवधान के बिना ही वे आहार करते हैं ? तत्पश्चात् क्या उनके शरीर की निर्वर्तना-निष्पत्ति (रचना) होती है ? शरीरनिष्पत्ति के पश्चात् क्या अंग-प्रत्यंगों द्वारा लोमाहार आदि से पुद्गलों का पर्यादान-ग्रहण होता है ? फिर उन गृहीत पुद्गलों का शरीर, इन्द्रिय आदि के रूप में परिणमन होता है ? परिणमन के बाद इन्द्रियां पुष्ट होने पर क्या वे परिचारणा करते हैं ? अर्थात्-यथायोग्य शब्दादि विषयों का उपभोग होता है ? और फिर क्या वे अपनी वैक्रियलब्धि के सामर्थ्य से विक्रिया करते हैं ? उत्तर का सारांश-भगवान् द्वारा इस क्रमबद्ध प्रक्रिया का हाँ में उत्तर दिया गया है। किन्तु वायुकायिक को छोडकर शेष एकेन्द्रियों एवं विकलेन्द्रियों में विकुर्वणा नहीं होती, क्योंकि ये वैक्रियलब्धि प्राप्त नहीं कर सकते। दूसरी विशेष बात यह है कि भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों, इन चारों प्रकार के देवों में विकुर्वणा पहले होती है, परिचारणा बाद में जबकि नारकों आदि शेष जीवों में परिचारणा के पश्चात् विकुर्वणा का क्रम है। देवगणों का स्वभाव ही ऐसा है कि विशिष्ट शब्दादि के उपभोग की अभिलाषा होने पर पहले वे अभीष्ट वैक्रिय रूप बनाते हैं, तत्पश्चात् शब्दादि का उपभोग करते हैं, किन्तु नैरयिक आदि जीव शब्दादि-उपभोग प्राप्त होने पर हर्षातिरेक से विशिष्टतम शब्दादि के उपभोग की अभिलाषा के कारण विक्रिया करते हैं। इस कारण देवों की वक्तव्यता में पहले विक्रिया और बाद में परिचारणा का कथन किया गया है। द्वितीय आहाराभोगताद्वार २०३८. णेरइयाणं भंते ! आहारे किं आभोगणिव्वत्तिए अणाभोगणिव्वत्तिए ? गोयमा! आभोगणिव्वत्तिए वि अणाभोगणिव्वत्तिए वि। [२०३८ प्र.] भगवन् ! नैरयिकों का आहार आभोग-निर्वर्तित होता है या अनाभोगनिर्वर्तित ? [२०३८ उ.] गौतम! उनका आहार आभोग-निर्वर्तित भी होता है और अनाभागनिर्वर्तित भी होता है। २०३९. एवं असुरकुमाराणं जाव वेमाणियाणं। णवरं एगिंदियाणं णो आभोगणिव्वत्तिए, अणाभोगणिव्वत्तिए। [२०३९] इसी प्रकार असुरकुमारों से लेकर यावत् वैमानिकों तक (कहना चाहिए।) विशेष यह है कि एकेन्द्रिय जीवों का आहार आभोगनिर्वर्तित नहीं होता, किन्तु अनाभोगनिर्वर्तित होता है। विवेचन-आभोगनिर्वर्तित और अनाभोगनिवर्तित का स्वरूप-यद्यपि आहारपद (२८ वाँ पद) में इन दोनों प्रकार के आहारों की चर्चा की गई है। वृत्तिकार आचार्य मलयगिरि ने मन:प्रणिधानपूर्वक ग्रहण किये जाने १. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ८२१ (ख) प्रज्ञापना . मलयवृत्ति, पत्र ५४४ २. वही, मलयवृत्ति, पत्र ५४४ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२] [प्रज्ञापनासूत्र] वाले आहार को आभोगनिर्वर्तित कहा है। इसलिए नारक आदि जब मनोयोगपूर्वक आहार ग्रहण करते हों, तब वह आभोगनिवर्तित होता है, और जब वे मनोयोग के बिना ही आहार ग्रहण करते हैं, तब अनाभोगनिर्वर्तित आहार यानी लोमाहार करते हैं । एकेन्द्रिय जीवों में अत्यन्त अल्प और अपटु मनोद्रव्यलब्धि होती है, इसलिए पटुतम मनोयोग न होने के कारण उनके आभोगनिर्वर्तित आहार नहीं होता। तृतीय पुद्गलज्ञानद्वार ___ २०४०. णेरइया णं भंते ! जे पोग्गले आहारत्ताए गेहंति ते किं जाणंति पासंति आहारेंति ? उयाहु ण जाणंति ण पासंति आहारेंति ? गोयमा ! ण जाणंति ण पासंति, आहारेंति। [२०४० प्र.] भगवन् ! नैरयिक जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, क्या वे उन्हें जानते हैं, देखते हैं और उनका आहार करते हैं, अथवा नहीं जानते, नहीं देखते हैं किंतु आहार करते हैं ? [२०४० उ.] गौतम ! वे न तो जानते हैं और न देखते हैं, किन्तु उनका आहार करते हैं। २०४१. एवं जाव तेइंदिया। [२०४१] इसी प्रकार (असुरकुमारादि से लेकर) त्रीन्द्रिय तक (कहना चाहिए।) २०४२. चउरिंदियाणं पुच्छा। गोयमा ! अत्थेगइया ण जाणंति पासंति आहारेंति, अत्थेगइया ण जाणंति ण पासंति आहारेंति। [२०४२ प्र.] चतुरिन्द्रियजीव क्या आहार के रूप में ग्रहण किये जाने वाले पुद्गलों को जानते-देखते हैं और आहार करते हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न है। [२०४२ उ.] गौतम ! कई चतुरिन्द्रिय आहार्यमाण पुद्गलों को नहीं जानते, किन्तु देखते हैं और आहार करते हैं, कई चतुरिन्द्रिय न तो जानते हैं, न देखते हैं, किन्तु आहार करते हैं। २०४३. पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। गोयमा ! अत्थेगइया जाणंति पासंति आहारेंति १ अत्थेगइया जाणंति ण पासंति आहारेंति २ अत्थेगइया ण जाणंति पासंति आहारेंति ३ अत्थेगइया ण जाणंति ण पासंति आहारेंति ४। __[२०४३ प्र.] पंचेन्द्रियतिर्यंचों के विषय में (आहार सम्बन्धी) पूर्ववत् प्रश्न है। [२०४३ उ.] गौतम ! कतिपय पंचेन्द्रियतिर्यञ्च (आहार्यमाण पुद्गलों को) जानते हैं, देखते हैं और आहार करते हैं १, कतिपय जानते हैं, देखते नहीं और आहार करते हैं, २, कतिपय जानते नहीं, देखते हैं और आहार करते हैं ३, कई पंचेन्द्रियतिर्यञ्च न तो जानते हैं और न ही देखते हैं, किन्तु आहार करते हैं ४ । २०४४. एवं मणूसाण वि। १. प्रज्ञापना. (प्रमेयन्बोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ८३१-८३२ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [चौतीसवाँ परिचारणापद] [२०३ [२०४४] इसी प्रकार मनुष्यों के विषय में (जानना चाहिए।) २०४५. वाणमंतर-जोतिसिया जहा णेरइया (सु. २०४०)। [२०४५] वाणव्यन्तरों और ज्योतिष्कों का कथन नैरयिकों के समान (समझना चाहिए।) २०४६. वेमाणियाणं पुच्छा। गोयमा ! अत्थेगइया जाणंति पासंति आहारेंति १ अत्थेगइया ण जाणंति ण पासंति आहारेंति २। से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चति अत्थेगइया जाणंति पासंति आहारेंति, अत्थेगइया ण जाणंति ण . पासंति आहारेंति? गोयमा! वेमाणिया दविहा पण्णत्ता.तं जहा-माइमिच्छद्दिविउववण्णगाय अमाइसम्मबिटिउववण्णगा य, एवं जहा इंदियउद्देसए पढमे भणियं (सु. ९९८) तहा भाणियव्वं जाव से तेणढेणं गोयमा ! एवं वुच्चति०। [२०४६ प्र.] भगवन् ! वैमानिक देव जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, क्या वे उनको जानते हैं, देखते हैं और आहार करते हैं? अथवा वे न जानते हैं, न देखते हैं और आहार करते हैं ? __ [२०४६ उ.] गौतम ! (१) कई वैमानिक जानते हैं, देखते हैं और आहार करते हैं और (२) कई न तो जानते हैं, न देखते हैं, किन्तु आहार करते हैं। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि (१) कई वैमानिक (आहार्यमाण पुद्गलों को) जानतेदेखते हैं और आहार करते हैं और (२) कई वैमानिक उन्हें न तो जानते हैं, न देखते हैं किन्तु आहार करते हैं? [उ.] गौतम ! वैमानिक देव दो प्रकार के कहे गए हैं। यथा-मायोमिथ्यादृष्टि-उपपन्नक और अमायीसम्यग्दृष्टिउपपन्नक। इस प्रकार जैसे (सू. ९९८ में उक्त) प्रथम इन्द्रिय - उद्देशक में कहा है, वैसे ही यहाँ सब-'इस कारण से है गौतम ! ऐसा कहा गया है', यहाँ तक कहना चाहिए। विवेचन-चौबीसदण्डकवर्ती जीवों द्वारा आहार्यमाण पुद्गलों के जानने-देखने पर - यहाँ विचार किया गया है। नीचे एक तालिका दी जा रही है, जिससे आसानी से जाना जा सके१. नैरयिक जानते हैं, देख र करते हैं नहीं जानते, न देखते आहार करते हैं भवनवासी वाणव्यन्तर ज्योतिष्क एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय २. चतुरिन्द्रिय जीव (१) कई जानते, देखते, आहार करते हैं। (२) कई जानते हैं, देखते नहीं, Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४] [प्रज्ञापनासूत्र] आहार करते हैं। ३. पंचेन्द्रियतिर्यञ्च, मनुष्य (१) कई जानते, देखते व आहार (३) कई जानते नहीं, देखते हैं। करते हैं। और आहार करते हैं। (२) कई जानते हैं, देखते नहीं, (४) न देखते, न जानते और आहार करते हैं। आहार करते हैं। ४. वैमानिक देव (१) कई जानते, देखते और (२) कई नहीं जानते, नहीं आहार करते हैं। देखते, आहार करते हैं। स्पष्टीकरण - नैरयिक और भवनवासीदेव एवं एकेन्द्रिय आदि जीव जिन पुद्गलों का आहार करते हैं, उन्हें नहीं जानते, क्योंकि उनका लोमाहार होने से अत्यन्त सूक्ष्मता के कारण उनके ज्ञान का विषय नहीं होता। वे देखते भी नहीं। क्योंकि वह दर्शन का विषय नहीं होता। अज्ञानी होने के कारण द्वीन्द्रिय सम्यग्ज्ञान से रहित होते हैं, अतएव उन पुद्गलों को भी वे नहीं जानते-देखते । उनका मति-अज्ञान भी इतना अस्पष्ट होता है कि स्वयं जो प्रक्षेपाहार वे ग्रहण करते हैं, उसे भी नहीं जानते। चक्षुरिन्द्रिय का अभाव होने से वे उन पुद्गलों को देख भी नहीं सकते। ___चतुरिन्द्रिय के दो भंग-कोई चतुरिन्द्रिय आहार्यमाण पुद्गलों को जानते नहीं, किन्तु देखते हैं, क्योंकि उनके चक्षुरिन्द्रिय होती है और आहार करते हैं। किन्हीं चतुरिन्द्रिय के आँख होते हुए भी अन्धकार के कारण उनके चक्षु काम नहीं करते, अत: वे देख नहीं पाते, किन्तु आहार करते हैं। पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों और मनुष्यों में आहार्य पुद्गलों को जानने-देखने के सम्बन्ध में चार भंग पाए जाते हैं। प्रक्षेपाहार की दृष्टि से चार भंग - (१) कोई जानते हैं, देखते हैं और आहार करते हैं। पंचेन्द्रियतिर्यञ्च और मनुष्य प्रक्षेपाहारी होते हैं, इसलिए इनमें जो सम्यग्ज्ञानी होते हैं, वे वस्तुस्वरूप के ज्ञाता होने के कारण प्रक्षेपाहार को जानते हैं तथा चक्षुरिन्द्रिय होने से देखते भी हैं और आहार करते हैं । यह प्रथम भंग हुआ। (२) कोई जानते नहीं हैं, देखते नहीं और आहार करते हैं । सम्यग्ज्ञानी होने से कोई-कोई जानते तो हैं, किन्तु अन्धकार आदि के कारण नेत्र के काम न करने से देख नहीं पाते । यह द्वितीय भंग हुआ। (३) कोई जानते नहीं हैं, किन्तु देखते हैं और आहार करते हैं। कोई-कोई मिथ्याज्ञानी होने से जानते नहीं हैं, क्योंकि उनमें सम्यग्ज्ञान नहीं होता, किन्तु वे चक्षुरिन्द्रिय के उपयोग से देखते हैं। यह तृतीय भंग हुआ। (४) कोई जानते भी नहीं, देखते भी नहीं, किन्तु आहार करते हैं । कोई मिथ्याज्ञानी होने से जानते नहीं तथा अन्धकार के कारण नेत्रों का व्याघात हो जाने के कारण देखते भी नहीं पर आहर करते हैं । यह चतुर्थ भंग हुआ। लोमाहार की अपेक्षा से चार भंग – (१) कोई-कोई तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय एवं मनुष्य विशिष्ट अवधिज्ञान के कारण लोमाहार को भी जानते हैं और विशिष्ट क्षयोपशम होने से इन्द्रियपटुता अति विशुद्ध होने के कारण देखते भी १. पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. १, पृ. ४२० २. (क) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ५४५ (ख) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका), भा. ५, पृ. ८३३-८३४ ३. (क) वही, भा. ५, पृ. ८३५ से ८३९ (ख) प्रज्ञापना. मलयगिरिवृत्ति, पत्र ५४५ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [चौतीसवाँ परिचारणापद] [२०५ हैं और आहार करते हैं। (२) कोई कोई जानते तो हैं, किन्तु इन्द्रियपाटव का अभाव होने से देखते नहीं हैं। (३) कोई जानते नहीं, किन्तु इन्द्रियपाटव होने के कारण देखते हैं। (४) कोई मिथ्याज्ञानी होने से अवधिज्ञान के अभाव में जानते नहीं और इनिद्रयपाटव का अभाव होने से देखते भी नहीं पर आहार करते हैं। वैमानिकों में दो भंग- (१) कोई जानते नहीं, देखते नहीं, किन्तु आहार करते हैं । जो मायी-मिथ्यादृष्टिउपपन्नक होते हैं, वे नौ ग्रैवेयक देवों तक पाये जाते हैं, वे अवधिज्ञान से मनोमय आहार के योग्य पुद्गलों को जानते नहीं हैं, क्योंकि उनका विभंगज्ञान उन पुद्गलों को जानने में समर्थ नहीं होता और इन्द्रियपटुता के अभाव के कारण चक्षुरिन्द्रिय से वे देख भी नहीं पाते। (२) जो वैमानिक देव अमायी-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक होते हैं, वे भी दो प्रकार के होते हैं-अनन्तरोपपन्नक और परम्परोपपन्नक। इन्हें क्रमशः प्रथमसमयोत्पन्न और अप्रथमसमयोत्पन्न भी कह सकते हैं। अनन्तरोपपन्नक नहीं जानते और नहीं देखते हैं, क्योंकि प्रथम समय में उत्पन्न होने के कारण उनके अवधिज्ञान का तथा चक्षुरिन्द्रिय का उपयोग नहीं होता। परम्परोपपन्नकों में भी जो अपर्याप्त होते हैं, वे नहीं जानते और न ही देखते हैं, क्योंकि पर्याप्तियों की अपूर्णता के कारण उनके अवधिज्ञानादि का उपयोग नहीं लग सकता। पर्याप्तकों में भी जो अनुपयोगवान् होते हैं, वे नहीं जानते, न ही देखते हैं । जो उपयोग लगाते हैं, वे ही वैमानिक आहार के योग्य पुद्गलों को जानते-देखते हैं और आहार करते हैं। पांच अनुत्तरविमानवासी देव अमायी-सम्यग्दृष्टिउपपन्नक ही होते हैं और उनके क्रोधादि कषाय बहुत ही मन्दतर होते हैं, या वे उपशान्तकषायी होते हैं, इसलिए अमायी भी होते हैं। चतुर्थ अध्यवसायद्वार २०४७. णेरइयाणं भंते! केवतिया अज्झवसाणा पण्णत्ता? . गोयमा! असंखेज्जा अज्झवसाणा पण्णत्ता। ते णं भंते! किं पसत्था अप्पसत्था? गोयमा! पसत्था वि अप्पसत्था वि। [२०४७ प्र.] भगवन् ! नारकों के कितने अध्यवसान (अध्यवसाय) कहे गए हैं ? [२०४७ उ.] गौतम! उनके असंख्येय अध्यवसान कहे हैं। [प्र.] भगवान् ! (नारकों के) वे अध्यवसान प्रशस्त होते हैं या अप्रशस्त होते हैं ? [उ.] गौतम! वे प्रशस्त भी होते हैं, अप्रशस्त भी होते हैं। २०४८. एवं जाव वेमाणियाणं। [२०४८] इसी प्रकार वैमानिकों तक कथन जानना चाहिए? विवेचन - अध्यवसायद्वार के सम्बन्ध में यत्किंचित् – चौबीस दण्डकवर्ती जीवों के अध्यवसाय १. (क) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ४४६ (ख) प्रज्ञापना . (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ८५१ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६] [ प्रज्ञापनासूत्र ] . असंख्यात बताए हैं। वे अध्यवसाय प्रशस्त, अप्रशस्त दोनों प्रकार के असंख्यात होते रहते हैं। प्रत्येक समय में पृथक्-पृथक् संख्यातीत अध्यवसाय लगातार होते हैं। पंचम सम्यक्त्वाभिगमद्वार २०४९. रइया णं भंते ! किं सम्मत्ताभिगमी मिच्छत्ताभिगमी सम्मामिच्छत्ताभिगमी ? गोयमा ! सम्मत्ताभिगमी वि मिच्छत्ताभिगमी वि सम्मामिच्छत्ताभिगमी वि। [२०४९ प्र.] भगवन् ! नारक सम्यक्त्वाभिगमी होते हैं, अथवा मिथ्यात्वाभिगमी होते हैं, या सम्यग्मिथ्यात्वाभिगमी भी होते हैं । [२०४९ उ.] गौतम ! वे सम्यक्त्वाभिगमी भी हैं, मिथ्यात्वाभिगमी भी हैं और सम्यग्मिथ्यात्वाभिगमी भी होते ' हैं। २०५०. एवं जाव वेमाणिया । णवरं एगिंदिय - विगलिंदिया णो सम्मत्ताभिगमी, मिच्छत्ताभिगमी, णो सम्मामिच्छत्ताभिगमी । [२०५० ] इसी प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त जानना चाहिए। विशेष यह है कि एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय केवल मिथ्यात्वाभिगमी होते हैं, वे न तो सम्यक्त्वाभिगमी होते हैं और न ही सम्यग्मिथ्यात्वाभिगमी होते हैं। विवेचन – पंचमद्वार का आशय - - - प्रस्तुत द्वार में नारक आदि चौबीस दण्डकों के विषय में सम्यक्त्वाभिगमो ( अर्थात् सम्यग्दर्शन की प्राप्ति वाले), मिथ्यात्वाभिगमी ( अर्थात् मिथ्यादृष्टि की प्राप्ति वाले) अथवा सम्यग्मिथ्यात्वाभिगमी (अर्थात् मिश्रदृष्टि वाले) हैं, ये प्रश्न हैं । - एकेन्द्रिय मिथ्याभिगमी ही क्यों ? – एकेन्द्रिय जीव सम्यग्दृष्टि नहीं होते, इसलिए वे केवल मिध्यादृष्टि ही होते हैं। किसी-किसी विकलेन्द्रिय में सास्वादन सम्यक्त्व पाया जाता हैं, तथापि अल्पकालिक होने के यहाँ उसकी विवक्षा नहीं की गई है, क्योंकि वे मिथ्यात्व की ओर ही अभिमुख होते हैं। छठा परिचारणाद्वार २०५१. देवा णं भंते! किं सदेवीया सपरियारा सदेवीया अपरियारा अदेवीया सपरियारा अदेवीया अपरियारा ? गोयमा! अत्थेगइया देवा सदेवीया सपरियारा १ अत्थेगइया देवा अदेवीया सपरियारा २ अत्थेगइया देवा अदेवीया अपरियारा ३ णो चेव णं देवा सदेवीया अपरियारा । १. (क) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ४४६ (ख) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका), भा. ५, पृ. ८४१ २. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका), भा. ५, पृ. ८४२ (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति पत्र ५४६ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ चौतीसवाँ परिचारणापद ] [२०७ सेकेणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चति अत्थेगइया देवा सदेवीया सपरियारा तं चैव जाव णो चेव णं देवा सदेवीया अपरियारा ? गोयमा ! भवणवति - वाणमंतर - जोतिस - सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु देवा सदेवीया सपरियारा, सणंकुमारमाहिंद-बंभलोग-लंतग- महासुक्क - सहस्सार - आणय-पाणय- आरण-अच्चुएसु कप्पेसु देवा अदेवीया सपरियारा, गेवेज्जऽणुत्तरोववाइयदेवा अदेवीया अपरियारा, णो चेव णं देवा सदेवीया अपरियारा, से तेणट्ठेणं गोयमा ! एवं वुच्चति अत्थेगइया देवा सदेवीया सपरियारा तं चेव जाव णो चेव णं देवा सदेवीया अपरियारा । [२०५१ प्र.] भगवन्! (१) क्या देव देवियों सहित और सपरिचार (परिचारयुक्त) होते हैं ?, (२) अथवा वे देवियों सहित एवं अपरिचार (परिचाररहित) होते हैं ?, (३) अथवा वे देवीरहित एवं परिचारयुक्त होते हैं ? या (४) देवीरहित एवं परिचाररहित होते हैं ? [२०५१ उ.] गौतम! (१) कई देव देवियों सहित सपरिचार होते हैं, (२) कई देव देवियों के बिना सपरिचार होते हैं और (३) कई देव देवीरहित और परिचाररहित होते हैं, किन्तु कोई भी देव देवियों सहित अपरिचार (परिचाररहित) नहीं होते हैं । [प्र.] भगवन्! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि कई देव देवीसहित सपरिचार होते हैं, इत्यादि यावत् देवियों सहित परन्तु अपरिचार नहीं होते । [उ.] गौतम ! भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और सौधर्म तथा ईशानकल्प के देव देवियों सहित और परिचारसहित होते हैं। सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युतकल्पों में देव, देवीरहित कितु परिचारसहित होते हैं। नौ ग्रैवेयक और पंच अनुत्तरौपपातिक देव देवीरहित और परिचाररहित होते हैं । किन्तु ऐसा कदापि नहीं होता कि देव देवीसहित हों, साथ ही परिचार- रहित हों । २०५२. [१] कतिविहा णं भंते ! परियारणा पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचविहा पण्णत्ता । तं जहा कायपरियारणा १ फासपरियारणा २ रूवपरियारणा ३ सद्दपरियारणा ४ मणपरियारणा ५ । - से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चति पंचविहा परियारणा पण्णत्ता तं जहा कायपरियारणा जाव मणपरियारणा ? - ! गोयमा! भवणवति-वाणमंतर - जोइस - सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु देवा कायपरियारगा, सणकुमारमाहिंदेसु कप्पेसु देवा फासपरियारगा, बंभलोय-लंतगेसु कप्पेसु देवा रूवपरियारगा, महासुक्क सहस्सारेसु देवा सद्दपरियारगा, आणय-पाणय-आरण-अच्चुएसु कप्पेसु देवा मणपरियारगा, गेवेज्जअणुत्तरोववाइया देवा अपरियारगा, से तेणट्ठेणं गोयमा ! तं चेव जाव मणपरियारगा । [२०५२ - १ प्र. ] भगवन् ! परिचारणा कितने प्रकार की कही गई है ? Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८] [प्रज्ञापनासूत्र] [२०५२ १ उ.] गौतम! परिचारणा पांच प्रकार की कही गई है। यथा – (१) कायपरिचारणा, (२) स्पर्शपरिचारणा, (३) रूपपरिचारणा, (४) शब्दपरिचारणा और (५) मन:परिचारणा।। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा गया कि परिचारणा पांच प्रकार की है, यथा - कायपरिचारणा यावत् मनःपरिचारणा? [उ.] गौतम! भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और सौधर्म-ईशानकल्प के देव कायपरिचारक होते हैं। सनत् कुमार और माहेन्द्रकल्प में देव स्पर्शपरिचारक होते हैं । ब्रह्मलोक और लान्तककल्प में देव रूपपरिचारक होते हैं। महाशुक्र और सहस्रारकल्प में देव शब्द-परिचारक होते हैं। आनत, प्राणत, आरण और अच्युत कल्प में देव मन:परिचारक होते हैं। नौ ग्रैवेयकों के और पांच अनुत्तरौपपातिक देव अपरिचारक होते हैं । हे गौतम ! इसी कारण से कहा गया है कि यावत् आनत आदि कल्पों के देव मन:परिचारक होते हैं। [२] तत्थ णं जे ते कायपरियारगा देवा तेसिंणं इच्छामणे समुप्पज्जइ - इच्छामो णं अच्छराहिं सद्धिं कायपरियारणं करेत्तए, तए णं तेहिं देवेहिं एवं मणसीकए समाणे ख्रिप्पामेव ताओ अच्छराओ ओरालाई सिंगाराइं मणुण्णाई मणोहराई उत्तरवेउव्वियाई रूवाई विउव्वंति, विउव्वित्ता तेसिं देवाणं अंतियं पादुब्भवंति, तए णं ते देवा ताहिं अच्छराहिं सद्धिं कायपरियारणं करेंति, से जहाणामए सीया पोग्गला सीयं पप्प सीयं चेव अतिवतित्ता णं चिट्ठति, उसिणा वा पोग्गला उसिणं पप्प उसिणं चेव अइवइत्ता णं चिट्ठति एवामेव तेहिं देवेहिं ताहिं अच्छराहिं सद्धिं कायपरियारणे कते समाणे से इच्छामणे खिप्पमेवावेति । अस्थि णं भंते ! तेसिं देवाणं सुक्कपोग्गला? हंता अत्थि। तेणं भंते तासिं अच्छाराणं कीसत्ताए भुज्जो २ परिणमंति ? गोयमा! सोइंदियत्ताए चक्खिदियत्ताए घाणिंदियत्ताए रसिंदियत्तााए फासिंदियत्ताए इट्ठताए कंतत्ताए मणुण्णत्ताए मणामत्ताए सुभगत्ताए सोहग्ग-रूव-जोव्वण-गुणलावण्णत्ताए ते तासिं भुजो भुजो परिणमंति। [२०५२-२] उनमें से कायपरिचारक (शरीर से विषयभोग सेवन करने वाले) जो देव हैं, उनके मन में (ऐसी) इच्छा समुत्पन्न होती है कि हम अप्सराओं के शरीर से परिचार (मैथुन) करना चाहते हैं। उन देवों द्वारा इस प्रकार मन से सोचने पर वे अप्सराएँ उदार आभूषणादियुक्त (शृंगारयुक्त), मनोज्ञ, मनोहर एवं मनोरम उत्तरवैक्रिय रूप विक्रिया से बनाती हैं। इस प्रकार विक्रिया करके वे उन देवों के पास आती हैं। तब वे देव उन अप्सराओं के साथ कायपरिचारणा (शरीर से मैथुन सेवन) करते हैं। जैसे शीत पुद्गल शीतयोनि वाले प्राणी को प्राप्त होकर अत्यन्त शीत-अवस्था को प्राप्त करके रहते हैं, अथवा उष्ण पुद्गल जैसे उष्णयोनि वाले प्राणी को पाकर अत्यन्त उष्णअवस्था को प्राप्त करके रहते हैं, इसी प्रकार उन देवों द्वारा अप्सराओं के साथ काया से परिचारणा करने पर उनका इच्छामन (इच्छाप्रधान) शीघ्र ही हट जाता – तृप्त हो जाता है। १. 'काय-प्रवीचारा आ ऐशानात् ।' 'शेषाः स्पर्श-रूप-शब्द-मनःप्रवीचारा द्वयोर्द्वयोः।' - तत्त्वार्थ. अ. ४, सू. ८-९ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [चौतीसवाँ परिचारणापद] [२०९ [प्र.] भगवन् ! क्या उन देवों के शुक्र- पुद्गल होते हैं ? [उ.] हाँ (गौतम !) होते हैं। [प्र.] भगवन् ! उन अप्सराओं के लिए वे किस रूप में बार-बार परिणत होते हैं? [उ.] गौतम! श्रीनेन्द्रियरूप से, चक्षुरिन्द्रियरूप से, घ्राणेन्द्रियरूप से, रसेन्द्रियरूप से, स्पर्शेन्द्रियरूप से, इष्टरूप से, कमनीयरूप से, मनोज्ञरूप से, अतिशय मनोज्ञ (मनाम) रूप से, सुभगरूप से, सौभाग्यरूप-यौवन-गुणलावण्यरूप से वे उनके लिए बार-बार परिणत होते हैं। __ [३] तत्थ णं जे ते फासपरियारगा देवा तेसिं णं इच्छामणे समुप्पज्जइ, एवं जहेव कायपरियारगा तहेव निरवसेसं भाणियव्वं। [२०५२-३] उनमें जो स्पर्शपरिचारकदेव हैं, उनके मन में इच्छा उत्पन्न होती है, जिस प्रकार काया से परिचारणा करने वाले देवों की वक्तव्यता कही गई है, उसी प्रकार (यहाँ भी) समग्र वक्तव्यता कहनी चाहिए। _ [४] तत्थ णं जे ते रूवपरियारगा देवा तेसिं णं इच्छामणे समुप्पज्जइ - इच्छामो णं अच्छराहिं सद्धिं रूवपरियारणं करेत्तए, तए णं तेहिं देवेहिं एवं मणसीकए समाणे तहेव जाव उत्तरवेउव्वियाई रूवाई विउव्वंति, विउव्वित्ता जेणामेव ते देवा तेणामेव उवागच्छंति, तेणामेव उवागच्छित्ता तेसिं देवाणं अदूरसामंते ठिच्चा ताई ओरालाई जाव मणोरमाइं उत्तरवेउब्बियाई रूवाइं उवदंसेमाणीओ उवदंसेमाणीओ चिट्ठति, तए णं ते देवा ताहिं अच्छराहिं सद्धिं रूवपरियारणं करेंति, सेसं तं चेव जाव भुजो भुजो परिणमंति। [२०५२-४] उनमें जो रूपपरिचारक देव हैं, उनके मन में इच्छा समुत्पन्न होती है कि हम अप्सराओं के साथ रूपपरिचारणा करना चाहते हैं। उन देवों द्वारा मन से ऐसा विचार किये जाने पर (वे देवियाँ) उसी प्रकार (पूर्ववत्) यावत् उत्तरवैक्रिय रूप की विक्रिया करती हैं। विक्रिया करके जहाँ वे देव होते हैं, वहाँ जा पहुँचती हैं और फिर उन देवों के न बहुत दूर और न बहुत पास स्थित होकर उन उदार यावत् मनोरम उत्तरवैक्रिय-कृत रूपों को दिखलातीदिखलाती खड़ी रहती हैं। तत्पश्चात् वे देव उन अप्सराओं के साथ रूपपरिचारणा करते हैं। शेष सारा कथन उसी प्रकार (पूर्ववत्) वे बार-बार परिणत होते हैं, (यहाँ तक कहना चाहिए ।) [५] तत्थ णं जे ते सहपरियारगा देवा तेसिं णं इच्छामणे समुप्पजइ-इच्छामो णं अच्छाराहिं सद्धिं सद्दपरियारणं करेत्तए, तए णं तेहिं देवेहिं एवं मणसीकए समाणे तहेव जाव उत्तरवेउव्वियाई रूवाई विउव्वंति, विउव्वित्ता जेणामेव ते देवा तेणामेव उवागच्छंति, तेणामेव उवागच्छित्ता तेसिं देवाणं अदूरसामंते ठिच्चा अणुत्तराई उच्चावयाई सद्दाई समुदीरेमाणीओ समुदीरेमाणीओ चिट्ठति, तए णं ते देवा ताहिं अच्छराहिं सद्धिं सद्दपरियारणं करेंति, सेसं तं चेव जाव भुजो भुजो परिणमंति। [२०५२-५] उनमें जो शब्दपरिचारक देव होते हैं, उनके मन में इच्छा उत्पन्न होती है कि हम अप्सराओं के साथ शब्दपरिचारणा करना चाहते हैं। उन देवों के द्वारा इस प्रकार मन में विचार करने पर उसी प्रकार (पूर्ववत्) यावत् उत्तरवैक्रिय रूपों की विक्रिया करके जहाँ वे देव होते हैं, वहाँ देवियां जा पहुँचती हैं। फिर वे उन देवों के न अति दूर न अति निकट रुककर सर्वोत्कृष्ट उच्च-नीच शब्दों का बार-बार उच्चारण करती रहती हैं। इस प्रकार वे Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१०] [प्रज्ञापनासूत्र] देव उन अप्सराओं के साथ शब्दपरिचारणा करते हैं। शेष कथन उसी प्रकार (पूर्ववत्) यावत् बार-बार परिणत होते [६] तत्थ णं जे ते मणपरियारगा देवा तेसिं इच्छामणे समुप्पजइ – इच्छामो णं अच्छाराहिं सद्धिं मणपरियारणं करेत्तए, तए णं तेहिं देवेहिं एवं मणसीकए समाणे खिप्पामेव ताओ अच्छराओ तत्थगताओ चेव समाणीओ अणुत्तराई उच्चावयाइं मणाई संपहारेमाणीओ संपहारेमाणीओ चिट्ठति, तए णं ते देवा ताहिं अच्छराहिं सद्धिं मणपरियारणं करेंति, सेसं णिरवसेसं तं चेव जाव भुजो २ परिणमंति। [२०५२-६] उनमें जो मन:परिचारक देव होते हैं, उनके मन में इच्छा उत्पन्न होती है – हम अप्सराओं के साथ मन से परिचारणा करना चाहते हैं। तत्पश्चात् उन देवों के द्वारा मन में इस प्रकार अभिलाषा करने पर वे अप्सराएँ शीघ्र ही, वहीं (अपने स्थान पर) रही हुई उत्कृष्ट उच्च-नीच मन को धारण करती हुई रहती हैं। तत्पश्चात् वे देव उन अप्सराओं के साथ मन से परिचारणा करते हैं। शेष सब कथन पूर्ववत् यावत् बार-बार परिणत होते हैं, (यहाँ तक कहना चाहिए। सप्तम अल्पबहुत्वद्वार २०५३. एतेसि णं भंते! देवाणं कायपरियारगाणं जाव मणपरियारगाणं अपरियारगाण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा ४? गोयमा ! सव्वत्थोवा देवा अपरियारगा, मणपरियारगा संखेजगुणा, सद्दपरियारगा असंखेजगुणा, रूवपरियारगा असंखेजगुणा, फासपरियारगा असंखेजगुणा, कायपरियारगा असंखेजगुणा। . [२०५३ प्र.] भगवन् ! इन कायपरिचारक यावत् मन:परिचारक और अपरिचारक देवों में से कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं? [२०५३ उ.] गौतम! सबसे कम अपरिचारक देव हैं, उनसे संख्यातगुणे मनःपरिचारक देव हैं, उनसे असंख्यातगुणे शब्दपरिचारकदेव हैं, उनसे रूपपारिचारक देव असंख्यातगुणे हैं, उनसे स्पर्शपरिचारक देव असंख्यातगुणे हैं और उनसे कायपरिचारक देव असंख्यातगुणे हैं। ॥ पण्णवणाए भगवतीए चउतीसइमं पवियारणापयं समत्तं ॥ विवेचन - विविध पहलुओं से देव-परिचारणा पर विचार – प्रस्तुत 'परिचारणा' नामक छठे द्वार में मुख्यतया चार पहलुओं से देवों की परिचारणा पर विचार किया गया है - (१) देव देवियों सहित ही परिचार करते हैं या देवियों के बिना भी ? तथा क्या देव अपरिचारक भी होते हैं ? (२)परिचारणा के पाँच प्रकार, कौन देव किस प्रकार की परिचारणा करते हैं और कौन देव अपरिचारक हैं ? (३)कायपरिचारणा से लेकर मनःपरिचारणा तक का स्वरूप, तरीका और परिणाम। और अन्त में (४) परिचारक-अपरिचारक देवों का अल्पबहुत्व। १. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ८४५ से ८५३ (ख) पण्णवणासुत्तं भा. १ (मूलपाठ टिप्पण), पृ. ४२१ से ४४३ तक Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [चौतीसवाँ परिचारणापद] [२११ निष्कर्ष – (१) कोई भी देव ऐसा नहीं होता, जो देवियों के साथ रहते हुए परिचाररहित हो, अपितु कतिपय देव देवियों सहित परिचार वाले होते हैं, कई देव-देवियों के बिना भी परिचारवाले होते हैं। कुछ देव ऐसे होते हैं, जो देवियों और परिचार, दोनों से रहित होते हैं। (२) भवनवासी वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और सौधर्म-ईशानकल्प के वैमानिकदेव सदेवीक भी होते हैं और परिचारणा से युक्त भी। अर्थात् देवियाँ वहाँ जन्म लेती हैं। अत: वे देव उन देवियों के साथ रहते हैं और परिचार भी करते हैं। किन्तु सनत्कुमार से लेकर अच्युतकल्प तक के वैमानिक देव देवियों के साथ नहीं रहते, क्योंकि इन देवलोकों में देवियों का जन्म नहीं होता। फिर भी वे परिचारणासहित होते हैं। ये देव सौधर्म और ईशानकल्प में उत्पन्न देवियों के साथ स्पर्श, रूप, शब्द और मन से परिचार करते हैं। भवनवासी से लेकर ईशानकल्प तक के देव शरीर से परिचारणा करते हैं, सनत्कुमार और माहेन्द्रकल्प के देव स्पर्श से, ब्रह्मलोक और लान्तक कल्प के देव रूप से, महाशुक्र और सहस्रारकल्प के देव शब्द से और आनत, प्राणत, आरण और अच्युत कल्प के देव मन से परिचारणा करते हैं। नौ ग्रैवेयक और पांच अनुत्तरविमानवासी देव देवियों और परिचारणा दोनों से रहित होते हैं। उनका पुरुषवेद अतीव मन्द होता है। अतः वे मन से भी परिचारणा नहीं करते। इस पाठ से यह स्पष्ट है कि मैथुनसेवन केवल कायिक ही नहीं होता, वह स्पर्श, रूप, शब्द और मन से भी होता है। कायपरिचारक देव काय से परिचारणा मनुष्य नर-नारी की तरह करते हैं, असुरकुमारों से लेकर ईशानकल्प तक के देव संक्लिष्ट उदयवाले पुरुषवेद के वशीभूत होकर मनुष्यों के समान वैषयिक सुख में निमग्न होते हैं और उसी से उन्हें तृप्ति का अनुभव होता है अन्यथा तृप्ति-सन्तुष्टि नहीं होती। स्पर्शपरिचारक देव भोग की अभिलाषा से अपनी समीपवर्तिनी देवियों के स्तन, मुख, नितम्ब आदि का स्पर्श करते हैं और इसी स्पर्शमात्र से उन्हें कायपरिचारणा की अपेक्षा अनन्तगुणित सुख एवं वेदोपशान्ति का अनुभव होता है। रूपपरिचारक देव देवियों के सौन्दर्य, कमनीय एवं काम के आधारभूत दिव्य-मादकरूप को देखने मात्र से कायपरिचारणा की अपेक्षा अनन्तगुणित वैषयिक सखानभव करते हैं। इतने से ही उनका वेद (काम) उपशान्त हो जाता है। शब्दपरिचारक देवों का विषयभोग शब्द से ही होता है। वे अपनी प्रिय देवांगनाओं के गीत, हास्य, भावभंगिमायुक्त मधुर स्वर, आलाप एवं नूपुरों आदि की ध्वनि के श्रवणमात्र से कायिकपरिचारणा की अपेक्षा अनन्तगुणित सुखानुभव करते हैं, उसी से उनका वेद उपशान्त हो जाता है। मनःपरिचारक देवों का विषयभोग मन से ही हो जाता हैं। वे कामविकार उत्पन्न होने पर मन से अपनी मनोनीत देवांगनाओं की अभिलाषा करते हैं और उसी से उनकी तृप्ति हो जाती है। कायिकविषयभोग की अपेक्षा उन्हें मानसिकविषयभोग से अनन्तगुणा सुख प्राप्त होता है, वेद भी उपशान्त हो जात है। अप्रवीचारक नौ ग्रैवेयकों तथा पांच अनुत्तरविमानों के देव अपरिचारक होते हैं। उनका मोहोदय या वेदोदय अत्यन्त मन्द होता है। अतः वे अपने प्रशमसुख में निमग्न रहते हैं। परन्तु चारित्र-परिणाम का अभाव होने से वे ब्रह्मचारी नहीं कहे जा सकते। दो प्रश्नः (१) किस प्रकार की तृप्ति ? – देवों को अपने-अपने तथाकथित विषयभोग से उसी प्रकार की १. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ४५९ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२] [प्रज्ञापनासूत्र] तृप्ति एवं भोगाभिलाषा निवृत्त हो जाती है, जिस प्रकार शीतपुद्गल अपने सम्पर्क से शान्तस्वभाव वाले प्राणी के लिए अत्यन्त सुखदायक होते हैं अथवा उष्णपुद्गल उष्णस्वभाव वाले प्राणी को अत्यन्त सुखशान्ति के कारण होते हैं। इसी प्रकार की तृप्ति, सुखानुभूति अथवा विषयाभिलाषानिवृत्ति हो जाती है। आशय यह है कि उन-उन देवियों के शरीर, स्पर्श, रूप, शब्द और मनोनीत कल्पना का सम्पर्क पाकर आनन्ददायक होते हैं। (२) कायिक मैथुनसेवन से मनुष्यों की तरह शुक्रपुद्गलों का क्षरण होता है, परन्तु वह वैक्रियशरीरवर्ती होने से गर्भाधान का कारण नहीं होता, किन्तु देवियों के शरीर में उन शुक्रपुद्गलों के संक्रमण से सुख उत्पन्न होता है तथा वे शुक्रपुद्गल देवियों के लिए पांचों इन्द्रियों के रूप में तथा इष्ट, कान्त, मनोज्ञ, मनोहर रूप में तथा सौभाग्य, रूप, यौवन, लावण्य के रूप में बारबार परिणत होते हैं। कठिन शब्दार्थ - इच्छामणे - दो अर्थ – (१) इच्छाप्रधान मन, (२) मन में इच्छा या अभिलाषा । मणसीकए समाणे - मन करने पर। उच्चावयाई: - दो अर्थ - (१) उच्च तथा नीच - ऊबड़-खाबड़, (२) न्यूनाधिक - विविध । उवदंसेमाणीओ – दिखलाती हुई। समुदीरेमाणीओ – उच्चारण करती हुई। सिंगाराई - शृंगारयुक्त । तत्थगताओ चेव समाणीओ - अपने-अपने विमानों में रही हुई। अणुत्तराई उच्चावयाइं मणाई संपहारेमाणीओ चिट्ठति - उत्कट सन्तोष उत्पन्न करने वाले एवं विषय में आसक्त, अश्लील कामोद्दीपक मन करती हुई। ॥ प्रज्ञापना भगवती का चौतीसवाँ पद सम्पूर्ण॥ १. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका), भा. ५, पृ. ८४५ से ८५३ (ख) पण्णवणासुत्तं भा. १ (मूलपाठ टिप्पण), पृ. ४२१ से ४३ तक २. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ४५९ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचतीसइमं वेयणापयं पैंतीसवाँ वेदनापद प्राथमिक * प्रज्ञापनासूत्र के वेदनापद में संसारी जीवों को अनुभूत होने वाली सात प्रकार की वेदनाओं की चौबीस दण्डक के माध्यम से प्ररूपणा की गई है। * इस संसार में जब तक जीव छद्मस्थ है, तब तक विविध प्रकार की अनुभूतियाँ होती रहती हैं। इन अनुभूतियों का मुख्य केन्द्र मन है। मन पर विविध प्रकार की वेदनाएँ अंकित होती रहती हैं। वह जिस रूप में जिस वेदना को ग्रहण करता है, उसी रूप में उसकी प्रतिध्वनि अनुभूति के रूप में व्यक्त होती है। यही कारण है कि शास्त्रकार ने इस पद में विविध निमित्तों से मन पर अंकित होने वाली विविध वेदनाओं का दिग्दर्शन कराया हैं। * · वेदना के विभिन्न अर्थ मिलते हैं । यथा - ज्ञान, सुख-दुःखादि का अनुभव, पीड़ा, दुःख, संताप, रोगादिजनित वेदना, कर्मफल-भोग, साता-आसातारूप अनुभव, उदयावलिकाप्रविष्ट कर्म का अनुभव आदि। * इन सभी अर्थों के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत पद में वेदना-सम्बन्धी सात द्वार प्रस्तुत किये गये हैं, जिनमें विविध वेदनाओं का निरूपण है। वे सात द्वार इस प्रकार हैं – (१) प्रथम शीतवेदनाद्वार है, जिसमें शीत, उष्ण और शीतोष्ण वेदना का निरूपण है, (२) द्वितीय द्रव्यद्वार है, जिसमें द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से होने वाली वेदना का निरूपण है, (३) तृतीय शरीरवेदनाद्वार है, जिसमें शारीरिक, मानसिक और शारीरिक-मानसिक वेदना का वर्णन है, (४) चतुर्थ सातावेदनाद्वार है, जिसमें साता असाता और साता-असाता वेदना का निरूपण है, (५) पंचम दुःखवेदनाद्वार है, इसमें दुःखरूप, सुखरूप तथा दुःख-सुखरूप वेदना का प्रतिपादन है, (६) छठा आभ्युपगमिकी और औपक्रमिकीवेदनाद्वार है, जिसमें इन दोनों प्रकार की वेदनाओं का निरूपण है तथा (७) सातवाँ निदा-अनिदावेदनाद्वार है, जिसमें इन दोनों प्रकार की वेदनाओं की प्ररूपणा है।' * इसके पश्चात् यह बताया गया है कि कौनसी वेदना क़िस-किस जीव को होती है और किसको नहीं? यथा-एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय तथा असंज्ञीपंचेन्द्रिय जीव मानसवेदना से रहित होते हैं। शेष सभी द्वारों में वेदना का अनुभव सभी संसारी जीवों को होता है। * इन सात द्वारों में से छठे और सातवें द्वार की वेदनाएँ जानने योग्य हैं। जो वेदनाएँ सुखपूर्वक स्वेच्छा से १. (क) पाइअसद्दमहण्णवो, पृ. ७७३ (ख) अभि. रा. कोष, भा. ६, पृ. १४३८ २. पण्णवणासुत्तं भा. १ (मू. पा. टिप्पण), पृ. ४२४ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रज्ञापनासूत्र ] स्वीकार की जाती हैं, यथा - केशलोचादि, वे आभ्युपगमिकी होती हैं, किन्तु जो वेदनाएँ कर्मों की उदीरणा द्वारा वेदनीयकर्म का उदय होने से होती हैं, वे औपक्रमिकी हैं। ये दोनों वेदनाएँ कर्मों से सम्बन्धित हैं। सातवें द्वार में निदा अनिदा दो प्रकार की वेदना का निरूपण है। जिसमें चित्त पूर्ण रूप से लग जाए या जिसका ध्यान भलीभांति रखा जाए, उसे निदा और इससे विपरीत जिसकी ओर चित्त बिल्कुल न हो, उसे अनिदा वेदना कहते हैं । अथवा चित्तवती सम्यक्विवेकवती वेदना निदा है, इसके विपरीत वेदना अनिदा है। वस्तुतः इन दोनों वेदनाओं का सम्बन्ध आगे चलकर क्रमश: संज्ञी और असंज्ञी से जोड़ा गया है। . निदावेदना का फलितार्थ वृत्तिकार ने यह बताया है कि पूर्वभव सम्बन्धी शुभाशुभ कर्म, वैरविरोध या विषयों का स्मरण करने में असंज्ञी जीवों के अनिदा और संज्ञी जीवों के निदावेदना अनुभव के आधार पर होती है। इसी प्रकार एक रहस्य यह भी बताया गया है कि जो जीव मायीमिथ्यादृष्टि हैं, वे अनिदा और अमायीसम्यग्दृष्टि निदा वेदना भोगते हैं। २१४] - कुछ स्पष्टीकरण – (१) शीतोष्ण वेदना का उपयोग (अनुभव) क्रमिक होता है अथवा युगपत् ? इसका समाधान वृत्तिकार ने किया है कि वस्तुतः उपयोग क्रमिक ही हैं, परन्तु शीघ्र संचार के कारण अनुभव करने में क्रम प्रतीत नहीं होता है। (२) इसी प्रकार शीतोष्ण आदि वेदना समझनी चाहिए। इसी प्रकार अदुःखाअसुखा अथवा दुःखसंज्ञा नहीं दी जा सकती। इसी तरह शारीरिक-मानसिक संज्ञा, साता असाता, सुखदुख इत्यादि के विषय में समझ लेना चाहिए। (३) साता असांता और सुख-दुःख इन दोनों में क्या अन्तर है ? इसका उत्तर वृत्तिकार ने यह दिया है कि वेदनीयकर्म के पुद्गलों का क्रमप्राप्त उदय होने से जो वेदना हो, वह साता - असाता है। परन्तु जब दूसरा कोई उदीरणा करे तथा उससे साता-असाता का अनुभव हो, उसे सुख-दुःख कहते हैं। षट्खण्डागम में 'बज्झमाणिया वेयणा, उदिण्णा वेयणा, उवसंता वेयणा', इन तीनों का उल्लेख है। B * Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचतीसइमं वेयणापयं पैंतीसवाँ वेदनापद पैंतीसवें पद का अर्थाधिकार प्ररूपण २०५४. सीता १ य दव्व २ सारीर ३ सात ४ तह वेदणा हवति दुक्खा ५ । अब्भूवगमोवक्कमिया ६ णिदा य अणिदा य ७ णायव्वा ॥२२५॥ सातमसातं सव्वे सुहं च दुक्खं अदुक्खमसुहं च। माणसरहियं विगलिंदिया उ से सा दुविहमेव ॥२२६॥ [२०५४ संग्रहणी-गाथार्थ ] - (पैंतीसवें वेदनापद के) सात द्वार (इस प्रकार) समझने चाहिए - (१) शीत, (२), द्रव्य, (३) शरीर, (४) साता, (५) दुःखरूप वेदना, (६) आभ्युपगमिकी और औपक्रमिकी वेदना तथा (७) निदा और अनिदा वेदना ॥२२५ ॥ साता और असाता वेदना सभी जीव (वेदते हैं।) इसी प्रकार सुख, दुःख और अदुःख-असुख वेदना भी (सभी जीव वेदते हैं।) विकलेन्द्रिय मानस वेदना से रहित हैं। शेष सभी जीव दोनों प्रकार की वेदना वेदते हैं। २२६॥ विवेचन - सात द्वारों का स्पष्टीकरण – (१) सर्वप्रथम शीतवेदनाद्वार है, च शब्द से उष्णवेदना और शतोष्णवेदना भी कही जाएगी, (२) द्वितीय द्रव्यद्वार है, जिसमें द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से वेदना का निरूपण है। (३) तृतीय शरीर वेदनाद्वार है, जिसमें शारीरिक, मानसिक और शरीर मानसिक वेदना का वर्णन है। (४) चतुर्थ सातावेदनाद्वार है, जिसमें साता, असाता और साता-असाता उभयरूप वेदना का वर्णन है, (५) पंचम दुःखवेदनाद्वार है, जिसमें दुःखरूप, सुखरूप और अदुःख-असुखरूप वेदना का प्रतिपादन है, (६) छठा आभ्युपगमिकी और औपक्रमिकीवेदनाद्वार है, जिसमें इन दोनों वेदनाओं का वर्णन है ओर (७) सप्तम निदा-अनिदावेदनाद्वार है, जिसमें इन दोनों प्रकार की वेदनाओं के सम्बन्ध में प्ररूपणा है। ___कौन-सा जीव किस-किस वेदना से युक्त? – द्वितीय गाथा में बताया है कि सभी जीव साता-असाता एवं साता-असाता वेदना से युक्त हैं। इसी प्रकार सभी जीव सुखरूप, दुःखरूप या अदुःख असुखरूप वेदना वेदते हैं। विकलेन्द्रिय तथा असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव मानसवेदना से रहित (मनोहीन) वेदना वेदते हैं। शेष जीव दोनों प्रकार की अर्थात् - शारीरिक और मानसिक वेदना वेदते (भोगते) हैं। १. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ८७४-८७५ ___ (ख) पण्णवणासुत्तं भा. १. (मूलपाठ-टिप्पण), पृ. ४२४ २. (क) वही, पृ. २२४ (ख) प्रज्ञापना (प्रमेयबोधिनी टीका), भाग ५, पृ. ८७३-७४ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६] प्रथम : शीतादि-वेदनाद्वार [ प्रज्ञापनासूत्र ] २०५५. कतिविहाणं भंते! वेदणा पण्णत्ता ? गोयमा ! तिविहा वेदणा पण्णत्ता । तं जहा - सीता १ उसिणा २ सीतोसिणा ३ | [२०५५ प्र.] भगवन् ! वेदना कितने प्रकार की कही गई है ? [२०५५ उ.] गौतम ! वेदना तीन प्रकार की कही है यथा (१) शीतवेदना, (२) उष्णवेदना और (३) शीतोष्णवेदना । २०५६. णेरड्या णं भंते! किं सीतं वेदणं वेदेति, उसिणं वेदणं वेदेंति, सीतोसिणं वेदणं वेदेंति ? गोयमा ! सीयं पि वेदणं वेदेंति उसिणं पि वेदणं वेदेंति, णो सीतोसिणं वेदणं वेदेति । [२०५६ प्र.] भगवन् ! नैरयिक शीतवेदना वेदते हैं, उष्णवेदना वेदते हैं, या शीतोष्णवेदना वेदते हैं ? [२०५६ उ.] गौतम ! (नैरयिक) शीतवेदना भी वेदते हैं और उष्णवेदना भी वेदते हैं, शीतोष्णवेदना नहीं वेदते । २०५७. [ १ ] केई एक्केक्कीए पुढवीए वेदणाओ भांति [२०५७ - १] कोई-कोई प्रत्येक (नरक) पृथ्वी में वेदनाओं के विषय में कहते हैं - [ २ ] रयणप्पभापुढविणेरड्या णं भंते! ० पुच्छा । गोयमा ! णो सीयं वेदणं वेदेंति, उसिणं वेदणं वेदेंति, णो सीतोसिणं वेदणं वेदेंति । एवं जाव वालुयप्पभापुढविणेरड्या | [२०५७-२ प्र.] भगवन्! रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक शीतवेदना वेदते हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न है । [२०५७-२ उ.] गौतम ! वे शीतवेदना नहीं वेदते और न शीतोष्णवेदना वेदते हैं किन्तु उष्णवेदना वेदते हैं। इसी प्रकार वालुकाप्रभा (तृतीय नरकपृथ्वी) के नैरयिकों तक कहना चाहिए। [ ३ ] पंकप्पभापुढविणेरइयाणं पुच्छा । गोयमा! सीयं पिवेदणं वेदेंति, उसिणं पि वेदणं वेदेंति, णो सीओसिणं वेदणं वेदेंति । ते बहुयतरागा जे उसिणं वेदणं वेदेंति, ते थोवतरागा जे सीयं वेदणं वेदेंति । [२०५७-३ प्र.] भगवन्! पंकप्रभापृथ्वी के नैरयिक शीतवेदना वेदते हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न है। [२०५७-३ उ.] गौतम! वे शीतवेदना भी वेदते हैं और उष्णवेदना भी वेदते हैं, किंतु शीतोष्णवेदना नहीं वेदते । वे नारक बहुत हैं जो उष्णवेदना वेदते हैं और वे नारक अल्प हैं जो शीतवेदना वेदते हैं। [ ४ ] धूमप्पभाए एवं चेव दुविहा। नवरं ते बहुयतरागा जे सीयं वेदणं वेदेंति, ते थोवतरागा जेउसि वेदेंति । [२०५७-४] धूमप्रभापृथ्वी के (नैरयिकों) में भी दोनों प्रकार की वेदना कहनी चाहिए। विशेष यह है कि Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पैतीसवाँ वेदनापद] [२१७ इनमें वे नारक बहुत हैं, जो शीतवेदना वेदते हैं तथा वे नारक अल्प हैं, जो उष्णवेदना वेदते हैं। [५] तमाए तमतमाए य सीयं वेदणं वेदेति, णो उसिणं वेदणं वेदेति, णो सीओसिणं वेदणं वेदेति। [२०५७-५] तमा और तमस्तमा पृथ्वी के नारक शीतवेदना वेदते हैं, किन्तु उष्णवेदना तथा शीतोष्णवेदना नहीं वेदते। २०५८. असुरकुमाराणं पुच्छा। गोयमा! सीयं पि वेदणं वेदेति, उसिणं पि वेदणं वेदेति, सीतोसिणं पि वेदणं वेदेति। [२०५८ प्र.] भगवन् ! असुरकुमारों के विषय में (पूर्ववत्) वेदना वेदन सम्बन्धी प्रश्न है । [२०५८ उ.] गौतम! वे शीतवेदना भी वेदते हैं, उष्णवेदना भी वेदते हैं और शीतोष्णवेदना भी वेदते हैं। २०५९. एवं जाव वेमाणिया। [२०५९] इसी प्रकार वैमानिकों तक (कहना चाहिए)। विवेचन - शीतादि त्रिविध वेदना और उनका अनुभव - वेदना एक प्रकार की अनुभूति है, वह तीन प्रकार की है - शीत, उष्ण और शीतोष्ण । शीतल पुद्गलों के सम्पर्क से होने वाली वेदना शीतवेदना, उष्ण पुद्गलों के संयोग से होने वाली वेदना उष्णवेदना और शीतोष्ण पुद्गलों के संयोग से उत्पन्न होने वाली वेदना शीतोष्णवेदना कहलाती हैं। सामान्यतया नारक शीत या उष्ण वेदना का अनुभव करते हैं किन्तु शीतोष्णवेदना का अनुभव नहीं करते। प्रारम्भ की तीन नरकपृथ्वियों के नारक उष्णवेदना वेदते हैं, क्योंकि उनके आधारभूत नारकावास खैर के अंगारों के समान अत्यन्त लाल, अतिसंतप्त एवं अत्यन्त उष्ण पुद्गलों के बने हुए हैं। चौथी पंकप्रभापृथ्वी में कोई नारक उष्णवेदना और कोई शीतवेदना का अनुभव करते हैं, क्योकि वहाँ के कोई नारकवास शीत और कोई उष्ण होते हैं। इसलिए वहाँ उष्णवेदना अनुभव करने वाले नारक अत्यधिक हैं, क्योंकि उष्णवेदना बहुत अधिक नारकवासों में होती है, जबकि शीतवेदना वाले नारक अत्यल्प हैं, क्योंकि थोड़े-से नारकावासों में ही शीतवेदना होती हैं। धूमप्रभापृथ्वी में कोई नारक शीतवेदना और कोई उष्णवेदना का अनुभव करते हैं, किन्तु वहाँ शीतवेदना वाले नारक अत्यधिक हैं और उष्णवेदना वाले नारक स्वल्प हैं, क्योंकि वहाँ अत्यधिक नारकावासों में शीतवेदना ही रहती हैं, उष्णवेदना वाले नारक स्वल्प हैं, उष्णवेदना वाले नारकावास बहुत ही कम हैं। छठी और सातवीं नरकपृथ्वियों में नारक शीतवेदना का ही अनुभव करते हैं, क्योंकि वहाँ के सभी नारक उष्ण स्वभाव वाले हैं और नारकावास हैं अत्यधिक शीतल । असुरकुमारों से लेकर वैमानिकों तक शीत आदि तीनों ही प्रकार की वेदना वेदते हैं। तात्पर्य यह है कि असुरकुमार आदि भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क अथवा वैमानिक देव शीतल जल से पूर्ण महाहद आदि में जब जलक्रीडा आदि करते हैं, तब शीतवेदना वेदते हैं। जब कोई महर्द्धिक देव क्रोध के वशीभूत होकर अत्यन्त विकराल भ्रुकुटि चढ़ा लेता है या मानो प्रज्वलित करता हुआ देख कर मन ही मन संतप्त होता हैं, तब उष्णवेदना १. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका), भा. ५, पृ. ८८५-८८६ (ख) प्रज्ञापना. म. वृत्ति, अ. रा.कोष. भाग ६, पृ. १४३८-३९ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८] [ प्रज्ञापनासूत्र] वेदता है। जैसे ईशानेन्द्र ने बलिचंचा राजधानी के निवासी असुरकुमारों को संतप्त कर दिया था अथवा उष्ण पुद्गलों के सम्पर्क से भी वे उष्णवेदना वेदते हैं। _____ जब शरीर के विभिन्न अवयवों में एक साथ शीत और उष्ण पुद्गलों का सम्पर्क होता हैं, तब वे शीतोष्णवेदना वेदते हैं । पृथ्वीकायिकों से लेकर मनुष्य पर्यन्त बर्फ आदि पड़ने पर शीतवेदना वेदते हैं, अग्नि आदि का सम्पर्क होने पर उष्णवेदना वेदते हैं तथा विभिन्न अवयवों में दोनों प्रकार के पुद्गलों का संयोग होने पर शीतोष्णवेदना वेदते हैं।' द्वितीय द्रव्यादि-वेदनाद्वार २०६०. कतिविहा णं भंते ! वेदणा पण्णत्ता? गोयमा! चउव्विहा वेदणा पण्णत्ता। तं जहा--दव्वओ खेत्तओ कालओ भावतो। [२०६० प्र.] भगवान् ! वेदना कितने प्रकार की कही गई है ? [२०६० उ.] गौतम! वेदना चार प्रकार की कही गई है, यथा – (१) द्रव्यतः, (२) क्षेत्रतः, (३) कालत: और (४) भावतः (वेदना)। २०६१. णेरइया णं भंते ! किं दव्वओ वेदणं वेदेति जाव किं भावओ वेदणं वेदेति ? गोयमा! दव्वओ वि वेदणं वेदेति जाव भावओ वि वेदणं वेदेति । [२०६१ प्र.] भगवान् ! नैरयिक क्या द्रव्यत: वेदना वेदते हैं यावत् भावतः वेदना वेदते हैं ? [२०६१ उ.] गौतम ! वे द्रव्य से भी वेदना वेदते हैं, क्षेत्र से भी वेदते हैं यावत् भाव से भी वेदना वेदते हैं। २०६२. एवं जाव वेमाणिया। [२०६२] इसी प्रकार का कथन वैमानिकों पर्यन्त करना चाहिए। विवेचन-चतुर्विध वेदना का तात्पर्य- वेदना की उत्पत्ति द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव रूप सामग्री के निमित्त से होती है, इसलिए द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से चार प्रकार से वेदना कही है। किसी पुद्गल आदि द्रव्य के संयोग से उत्पन्न होने वाली वेदना द्रव्यवेदना कहलाती है। नारक आदि उपपातक्षेत्र आदि से होने वाली वेदना क्षेत्रवेदना कही जाती है। ऋतु, दिन-रात आदि काल के संयोग से होने वाली वेदना कालवेदना कहलाती है और वेदनीयकर्म के उदयरूप प्रधान कारण से उत्पन्न होने वाली वेदना भाववेदना कहलाती है। चौबीस ही दण्डकों के जीव पूर्वोक्त चारों प्रकार से वेदना का अनुभव करते हैं।' तृतीय शारीरादि-वेदनाद्वार .. २०६३. कतिविहा णं भंते! वेयणा पण्णत्ता? गोयमा! तिविहा वेदणा पण्णत्ता। तं जहा-सारीरा १ माणसा २ सारीरमाणसा ३। १. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भाग ५, पृ. ८८६-८८७ २. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका), भा. ५, पृ. ८८८ (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि. रो.कोष. भाग ६, पृ. १४३९ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पैतीसवाँ वेदनापद ] [२०६३ प्र.] भगवन् ! वेदना कितने प्रकार की कही गई है ? [२०६३ उ.] गौतम ! वेदना तीन प्रकार की कही गई है । यथा - १. शारीरिक, २. मानसिक और ३. शारीरिकमानसिक । २०६४. णेरइया णं भंते! किं सारीरं वेदणं वेदेंति माणसं वेदणं वेदेंति सारीरमाणसं वेदणं वेदेंति ? गोयमा ! सारीरं पि वेयणं वेदेंति, माणसं पि वेदणं वेदेंति, सारीरमाणसं पि वेदणं वेदेंति । [२०६४ प्र.] भगवान्! नैरयिक शारीरिकवेदना वेदते हैं, मानसिकवेदना वेदते हैं अथवा शारीरिक-मानसिक वेदना वेदते हैं ? - [२०६४ उ. ] गौतम ! वे शारीरिकवेदना भी वेदते हैं, मानसिकवेदना भी वेदते हैं और शारीरिक-मानसिकवेदना भी वेदते हैं। २०६५. एवं जाव वेमाणया । णवरं एगिंदिय - विगलिंदिया सारीरं वेदणं वेदेंति, णो माणसं वेदणं वेदेति णो सारीरमाणसं वेयणं वेदेंति । [२०६५] इसी प्रकार वैमानिकों पर्यन्त कहना चाहिए - विशेष शारीरिकंवेदना ही वेदते हैं, किन्तु मानसिकवेदना या शारीरिक मानसिकवेदना नहीं वेदते । [२१९ - विवेचन प्रकारान्तर से त्रिविध वेदना का स्वरूप शरीर में होने वाली वेदना शारीरिक वेदना, मन में होने वाली वेदना मानसिक तथा शरीर और मन दोनों में होने वाली वेदना शारीरिक मानसिकवेदना कहलाती है। एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय को छोड़कर शेष समस्त दण्डकवर्ती जीवों में तीनों ही प्रकार की वेदना पाई जाती हैं। एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय में मानसिक और शरीर मानसवेदना नहीं होती । चतुर्थ सातादि-वेदनाद्वार - एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय केवल २०६६. कतिविहा णं भंते ! वेयणा पण्णत्ता ? गोयमा ! तिविहा वेयणा पण्णत्ता । तं जहा - साया १ असाया २ सायासाया ३ । [२०६६ प्र.] भगवन्! वेदना कितने प्रकार की कही गई है ? [२०६६ उ.] गौतम! वेदना तीन प्रकार की कही गई है, यथा - (१) साप्ता, (२) असाता और (३) साता असाता । १. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका), भा. ५, पृ. ८८९ (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि. रो. कोष भाग ६, पृ. १४४० २०६७. णेरइया णं भंते! किं सायं वेदणं वेदेति असायं वेदणं वेदेति सायासायं वेदणं वेदेति ? गोयमा ! तिविहं पि वेयणं वेदेंति । [२०६७ प्र.] भगवन्! नैरयिक क्या सातावेदना वेदते हैं, असातावेदना वेदते हैं, अथवा साता-असातावेदना वेदते हैं ? Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२०] [२०६७ उ.] गौतम ! तीनों प्रकार की वेदना वेदते हैं। २०६८. एवं सव्वजीवा जाव वेमाणिया । [२०६८] इसी प्रकार वैमानिकों तक सभी जीवों की वेदना के विषय में ( जानना चाहिए ।) - विवेचन - सातादि त्रिविध वेदना सुखरूप वेदना को सातावेदना, दुःखरूप वेदना को असातावेदना और सुख-दुःखरूप वेदना को उभयरूप वेदना कहते हैं। नारक से वैमानिक देव पर्यन्त तीनों प्रकार की वेदना वेदते हैं। नारकजीव तीर्थंकर के जन्मदिवस आदि के अवसर पर साता और अन्य समयों में असाता वेदते हैं। पूर्वसांगतिक देव या असुरों के मधुर-मधुर आलापरूपी अमृत की वर्षा होने पर मन में सातावेदना और क्षेत्र के प्रभाव से असुर के कठोर व्यवहार से असातावेदना होती है। इन दोनों की अपेक्षा से साता-असातारूप वेदना होती है। सभी जीवों को त्रिविध वेदना होती है। पृथ्वीकायिक आदि को जब कोई उपद्रव नहीं होता, तब वे सातावेदना का अनुभव करते हैं। उपद्रव होने पर असाता का तथा जब एकदेश से उपद्रव होता है, तब साता - असाता - उभयरूप वेदना का अनुभव होता हैं। देवों को सुखानुभव के समय सातावेदना, च्यवनादि के समय असातावेदना तथा दूसरे देव के वैभव को देखकर मात्सर्य होने से असातावेदना, साथ ही अपनी प्रिय देवी के साथ मधुरालापादि करते समय सातावेदना; यों दोनों प्रकार की वेदना होती हैं।' पंचम दुःखादि-वेदनाद्वार सुखा । हैं । [ प्रज्ञापनासूत्र ] २०६१. कतिविहाणं भंते! वेयणा पण्णत्ता ? गोयमा ! तिविहा वेयणा पण्णत्ता । तं जहा- दुक्खा सुहा अदुक्खसुहा । [२०६१ प्र.] भगवन् ! वेदना कितने प्रकार की कही गई है ? [२०६१ उ.] गौतम! वेदना तीन प्रकार की कही गई है, यथा - - (१) सुखा, (२) दुःखा और (३) अदुःख २०७०. णेरड्या णं भंते! किं दुक्खं वेदणं वेदेंति ० पुच्छा | गोयमा ! दुक्खं पि वेदणं वेदेंति, सुहं पि वेदणं वेदेंति, अदुक्खसुहं पि वेदणं वेदेंति । [२०७० प्र.] भगवन्! नैरयिक जीव दुःखवेदना वेदते हैं, सुखवेदना वेदते हैं अथवा अदुःख-असुखावेदना वेदते हैं ? [२०७० उ.] गौतम! वे दुःखवेदना भी वेदते हैं, सुखवेदना भी वेदते हैं और अदुःख - असुखावेदना भी वेदते २०७१. एवं जाव वेमाणिया । [२०७१] इसी प्रकार वैमानिकों पर्यन्त कहना चाहिए । १. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका), भा. ५, पृ. ८९३-८९४ (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ५५६ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पैतीसवाँ वेदनापद ] [२२१ विवेचन – दुःखादि त्रिविध वेदना का स्वरूप जिसमें दुःख का वेदन हो वह दुःखा, जिसमें सुख का वेदन हो वह सुखा और जिसमें सुख भी विद्यमान हो और जिसे दुःखरूप भी न कहा जा सके, ऐसी वेदना अदुःखअसुखरूपा कहलाती है। साता, असाता और सुख, दुःख में अन्तर स्वयं उदय में आए हुए वेदनीयकर्म के कारण जो अनुकूल और प्रतिकूल वेदन होता है, उसे क्रमशः साता और असाता कहते हैं तथा दूसरे के द्वारा उदीरित (उत्पादित ) साता और असाता को सुख और दुःख कहते हैं, यही इन दोनों में अन्तर है। सभी जीव इन तीनों प्रकार की वेदना को वेदते हैं । - छठा आभ्युपगमिकी और औपक्रमिकी वेदनाद्वार २०७२. कतिविहा णं भंते ! वेदणा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा वेदणा पण्णत्ता । तं जहा अब्भोवगमिया य ओवक्कमिया य । [२०७२ प्र.] भगवान्! वेदना कितने प्रकार की कही गई है ? [२०७२ उ.] गौतम ! वेदना दो प्रकार की कही गई । यथा - आभ्युपगमिकी और औपक्रमिकी । २०७३. णेरड्या णं भंते! किं अब्भोवगमियं वेदणं वेदेति ओवक्कमियं वेदणं वेदेति ? गोयमा ! णो अब्भोवगमियं वेदणं वेदेंति, ओवक्कमियं वेदणं वेदेति । - - - [२०७३. प्र.] भगवान् ! नैरयिक आभ्युपगमिकी वेदना वेदते हैं या औपक्रमिकी वेदना वेदते हैं ? [२०७३ उ.] गौतम ! वे आभ्युपगमिकी वेदना नहीं वेदते, औपक्रमिकी वेदना वेदते हैं। २०७४. एवं जाव चउरिंदिया । [२०७४] इसी प्रकार चतुरिन्द्रियों तक कहना चाहिए। २०७५. पंचेंदियतिरिक्खजोणिया मणूसा य दुविहं पि वेदणं वेदेति । [२०७५] पंचेन्द्रियतिर्यञ्च और मनुष्य दोनों प्रकार की वेदना का अनुभव करते हैं। २०७६. वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया जहा णेरड्या (सु. २०७३) । [२०७६] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों के विषय में (सू. २०७३ में उक्त) नैरयिकों के समान कहना चाहिए । - विवेचन दो प्रकार की विशिष्ट वेदना: स्वरूप और अधिकारी • स्वेच्छापूर्वक अंगीकार की जाने वाली वेदना आभ्युपगमिकी कहलाती है। जैसे- साधुगण केशलोच, तप, आतापना आदि से होने वाली शारीरिक पीड़ा स्वेच्छा से स्वीकर करते हैं। जो वेदना स्वयमेव उदय को प्राप्त अथवा उदीरित वेदनीयकर्म से उत्पन्न होती है, वह औपक्रमिकी कहलाती है, जैसे नारक आदि की वेदना । १. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ८९३-८९४ (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ५५६ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२] [प्रज्ञापनासूत्र] _ नारकों से लेकर चतुरिन्द्रिय जीवों तक की वेदना औपक्रमिकी होती है, इसी तरह वाणव्यन्तर ज्योतिष्क और वैमानिक की वेदना भी औपक्रमिकी होती है। पंचेन्द्रियतिर्यंचों और मनुष्यों की वेदना दोनों ही प्रकार की होती हैं।' सप्तम निदा-अनिदा-वेदनाद्वार २०७७. कतिविहा णं भंते! वेदणा पण्णत्ता? गोयमा! दुविहा वेयणा पण्णत्ता। तं जहा - णिदा य अणिदा य। [२०७७ प्र.] भगवन् ! वेदना कितने प्रकार की कही गई है? [२०७७ उ.] गौतम ! वेदना दो प्रकार की कही गई है, यथा – निदा और अनिदा। २०७८. णेरइया णं भंते ! किं णिदायं वेदणं वेदेति अणिदायं वेदणं वेदेति ? गोयमा! णिदायं पि वेदणं वेदेति अणिदायं पि वेदणं वेदेति। से केणढेणं भंते ! एवं वुच्चति णेरइया णिदायं पि वेदणं वेदेति अणिदायं पि वेदणं वेदेति? गोयमा! णेरइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा – सण्णिभूया य असण्णिभूया। तत्थ णं जे ते सण्णिभूया ते णं निदायं वेदणं वेदेति, तत्थ णं जे ते असण्णिभूया ते णं अणिदायं वेदणं वेदेति, से तेणठेणं गोयमा! एवं वुच्चति णेरइया निदायं पि वेदणं वेदेति अणिदायं पि वेदणं वेदेति। [२०७८ प्र.] भगवन् ! नारक निदावेदना वेदते हैं, या अनिदावेदना वेदते हैं ? [२०७८ उ.] गौतम! नारक निदावेदना भी वेदते हैं और अनिदावेदना भी वेदते हैं। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि नारक निदावेदना भी वेदते हैं और अनिदावेदना भी वेदते . ___ [उ.] गौतम! नारक दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा – संज्ञीभूत और असंज्ञीभूत । उनमें जो संज्ञीभूत नारक होते हैं, वे निदावेदना को वेदते हैं और जो असंज्ञीभूत नारक होते हैं, वे अनिदावेदना वेदते हैं। इसी कारण हे गौतम! ऐसा कहा जाता है कि नारक निदावेदना भी वेदते हैं और अनिदावेदना भी वेदते हैं। २०७९. एवं जाव थणियकुमारा। [२०७२] इसी प्रकार स्तनितकुमारों पर्यन्त कहना चाहिए। २०८०. पुढविक्काइयाणं पुच्छा। गोयमा! णो निदायं वेदणं वेदेति, अणिदायं वेदणं वेदेति। से केणट्टेणं भंते! एवं वुच्चति पुढविक्काइया णो णिदायं वेदणं वेदेति अणिदायं वेयणं वेदेति ? गोयमा! पुढविक्काइया सव्वे असण्णी असण्णिभूतं अणिदायं वेदणं वेदेति, से तेणढेणं गोयमा! १. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ९०१-९०२ (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ५५७ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पैतीसवाँ वेदनापद] [२२३ एवं वुच्चति पुढविक्काइया णो णिदायं वेयणं वेदेति, अणिदायं वेदणं वेदेति। [२०८० प्र.] भगवन्! पृच्छा है-पृथ्वीकायिक जीव निदावेदना वेदते हैं या अनिदावेदना वेदते हैं ? [२०८० उ.] गौतम! वे निदावेदना नहीं वेदते, किन्तु अनिदावेदना वेदते हैं। [प्र.] भगवन्! किस कारण से यह कहा जाता है कि पृथ्वीकायिक जीव निदावेदना नहीं वेदते, किन्तु अनिदावेदना वेदते हैं? [उ.] गौतम! सभी पृथ्वीकायिक असंज्ञी और असंज्ञीभूत होते हैं, इसलिए अनिदावेदना वेदते हैं, (निदा नहीं), इस कारण से हे गौतम! ऐसा कहा जाता है कि पृथ्वीकायिक जीव निदावेदना नहीं वेदते, किन्तु अनिदावेदना वेदते हैं। २०८१. एवं जाव चउरिदिया। [२०८१] इसी प्रकार चतुरिन्द्रिय पर्यन्त (कहना चाहिए ।) २०८२. पंचेन्द्रियतिरिक्खजोणिया मणूसा वाणमंतरा जहा णेरइया (सू. २०७८ )। [२०८२] पंचेन्द्रियतिर्यञ्च, मनुष्य और वाणव्यन्तर देवों का कथन (सू. २०७८ में उक्त) रयिकों के कथन के समान जानना चाहिए। २०८३. जोइसियाणं पुच्छा। गोयमा! णिदायं पिं वेदणं वेदेति अणिदायं पि वेदणं वेदेति। से केणठेणं भंते! एवं वुच्चति जोइसिया णिदायं पि वेदणं वेदेति अणिदायं पि वेदणं वेदेति? गोयमा! जोइसिया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा -- माइमिच्छद्दिट्ठिउववण्णगा य अभाइसम्मद्दिट्ठिउववण्णगा य, तत्थ णं जे ते माइमिच्छद्दिट्ठिउववण्णगा ते णं अणिदायं वेदणं वेदेति, तत्थ णंजे ते अमाइसम्मद्दिट्ठिउववण्णगा ते णं णिदायं वेदणं वेदेति, से तेणट्टेणं गोयमा! एवं वुच्चति जोतिसिया दुविहं पि वेदणं वेदेति। [२०८३ प्र.] भगवन् ! ज्योतिष्कदेव निदावेदना वेदते हैं या अनिदावेदना वेदते हैं ? [२०८३ उ.] गौतम ! वे निदावेदना भी वेदते हैं और अनिदावेदना भी वेदते हैं। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि ज्योतिष्क देव निदावेदना भी वेदते हैं और अनिदावेदना भी वेदते हैं? . [उ.] गौतम! ज्योतिष्क देव दो प्रकार के कहे है, यथा - मायिमिथ्यादृष्टिउपपन्नक और अमायिसम्यग्दृष्टिउपपन्नक। उनमें से जो मायिमिथ्यादृष्टिउपपन्नक हैं, वे अनिदावेदना वेदते हैं और जो अमायिसम्यग्दृष्टिउपपन्नक हैं, निदावेदना वेदते है। इस कारण से हे गौतम! यह कहा जाता है कि ज्योतिष्क देव दोनों प्रकार की वेदना वेदते हैं। २०८४. एवं वेमाणिया वि। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४] [प्रज्ञापनासूत्र] [२०८४] वैमानिक देवों के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार कहना चाहिए। ॥ पण्णवणाए भगवतीए पंचतीसइमं वेयणापयं समत्तं ॥ विवेचन-निदा और अनिदा : स्वरूप और अधिकारी-जिसमें पूर्ण रूप से चित्त लगा हो, जिसका भली भांति ध्यान हो, उसे निदावेदना कहते है, जो इससे बिल्कुल भिन्न हो, अर्थात्-जिसकी ओर चित्त बिल्कुल न हो, वह अनिदावेदना कहलाती है। जो संज्ञी जीव मरकर नारक हुए हों, वे संज्ञीभूत नारक और जो असंज्ञी जीव मरकर नारक हुए हों , वे असंज्ञीभूत कहलाते हैं । इनमें से संज्ञीभूत नारक निदावेदना और असंज्ञीभूत नारक अनिदावेदना वेदते हैं । इसी प्रकार पंचेन्द्रियतिर्यञ्च, मनुष्य और वाणव्यन्तर देवों का कथन है। ज्योतिष्क देवों में जो मायिमिथ्यादृष्टि हैं, वे अनिदावेदना वेदते हैं और जो अमायिसम्यग्दृष्टि हैं, वे निदावेदना वेदते हैं। पृथ्वीकायिक से लेकर चतुरिन्द्रियपर्यन्त सभी अनिदावेदना वेदते है, निदावेदना नहीं, क्योंकि असंज्ञी होने से इनके मन नहीं होता, इस कारण ये अनिदावेदना ही वेदते है। असंज्ञी जीवों को जन्मान्तर में किये हुए शुभाशुभ कर्मों का अथवा वैर आदि का स्मरण नहीं होता। तथ्य यह है कि केवल तीव्र अध्यवसाय से किये गए कर्मो का ही स्मरण होता है, किन्तु पहले के असंज्ञीभव में पृथ्वीकायिकादि का अध्यवसाय तीव्र नहीं था, क्योंकि वे द्रव्यमन से रहित थे। इस कारण असंज्ञी नारक पूर्वभवसम्बन्धी विषयों का स्मरण करने में कुशलचित्त नहीं होता, जबकि संज्ञी नारक पूर्वभवसम्बन्धी कर्म या वैरविरोध का स्मरण करते हैं। इस कारण वे निदावेदना वेदते हैं। सभी पृथ्वीकायिक आदि जीव असंज्ञी होने से विवेकहीन अनिदावेदना वेदते हैं। ॥ प्रज्ञापना भगवती का पैंतीसवाँ वेदनापद समाप्त ॥ १. (क) प्रज्ञपना. (प्रमेयबोधिनी टीका), भाग ५, पृ. ९०३ से ९०५ तक (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ५५७ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * छत्तीसइमं समुग्घायपयं छत्तीसवाँ समुद्घातपद . प्राथमिक प्रज्ञापनासूत्र का यह छत्तीसवाँ समुद्घातपद है। इसमें समुद्घात, उसके प्रकार तथा चौबीस दण्डकों में से किसमें कौन-सा समुद्घात होता है, इसकी विचारणा की गई है। समुद्घात जैन शास्त्रों का पारिभाषिक शग्द है। इसका अर्थ शब्दाशास्त्रानुसार होता है-एकीभावपूर्वक प्रबलता से वेदनादि पर घात-चोट करना। इसकी व्याख्या वृत्तिकार ने इस प्रकार की है-वेदना आदि के अनुभवरूप परिणामों के साथ आत्मा का उत्कृष्ट एकीभाव। इसका फलितार्थ यह है कि तदितरपरिणामों से विरत होकर वेदनीयादि उन-उन कर्मो के बहुत-से प्रदेशों को उदीरणा के द्वारा शीघ्र उदय में लाकर, भोग कर उसकी निर्जरा करना-यानी आत्मप्रदेशों से उनको पृथक् करना, झाड़ डालना। वस्तुतः देखा जाए तो समुद्घात का कर्मों के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। आत्मा पर लगे हुए ऐसे कर्म, जो चिरकाल बाद भोगे जाकर क्षीण होने वाले हों, उन्हें उदीरणा करके उदयावलिका में लाकर वेदनादि के साथ एकीभूत होकर निर्जीर्ण कर देना-प्रबलता से उन कर्मों पर चोट करना समुद्घात है। जैनदर्शन आत्मा पर लगे हुए कर्मों को क्षय किये बिना आत्मा का विकास नहीं मानता। आत्मा की शुद्धि एवं विकासशीलता समुद्घात के द्वारा कर्मनिर्जरा करने से शीघ्र हो सकती है। इसलिए समुद्घात एक ऐसा आध्यात्मिक शस्त्र है, जिसके द्वारा साधक जाग्रत रह कर,कर्मफल का समभावपूर्वक वेदन कर सकता है, कर्मों को शीघ्र ही क्षय कर सकता है। इसी कारण समुद्घात सात प्रकार का बताया गया है-(१) वेदनासमुद्घात, (२) कषायसमुद्घात, (३) मारणान्तिकसमुद्घात, (४) वैक्रियसमुद्घात, (५)तैजससमुद्घात, (६) आहारकसमुद्घात और (७) केवलिसमुद्घात। वृत्तिकार ने बताया है कि कौन सा समुद्घात किस कर्म के आश्रित है ? यथा-वेदनासमुद्घात असातावेदनीयकर्माश्रित है, कषायसमुद्घात चारित्रमोहनीय-कर्माश्रित है, मारणन्तिक-समुद्घात आयुष्य-कर्माश्रित है, वैक्रियसमुद्घात वैक्रियशरीरनामकर्माश्रित है, तैजस समुद्घात तैजसशरीरनामकर्माश्रित है, आहारकसमुद्घात आहारकशरीरनामकर्माश्रित है और केवलिसमुद्घात शुभ-अशुभनामकर्म, साता-असातावेदनीय तथा उच्चनीचगोत्र-कर्माश्रित है। १. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ५५९ २. (क) पण्णवणासुत्तं भा. १, पृ. ४२८ (ख) प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्र ५५९ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६] [प्रज्ञापनासूत्र] * इसके पश्चात् इन सातों समुद्घातों में से कौन-से समुद्घात की प्रक्रिया क्या है और उसके परिणामस्वरूप उस समुद्घात से सम्बन्धित कर्म की निर्जरा आदि कैसे होती है, इसका संक्षेप में निरूपण है। तदनन्तर वेदनासमुद्घात आदि सातों में से कौन-सा समुद्घात कितने समय का है, इसकी चर्चा है। इनमें केवलिसमुद्घात ८ समय का है, शेष समुद्घात असंख्यात समय के अन्तर्मुहूर्त-काल के हैं। इसके पश्चात् यह स्पष्टीकरण किया गया है कि सात समुद्घातों में से किस जीव में कितने समुद्घात पाये जाते हैं? तदनन्तर यह चर्चा विस्तार से की गई है कि एक-एक जीव में, उन-उन दण्डकों के विभिन्न जीवों में अतीतकाल में कितनी संख्या में कौन-कौन से समुद्घात होते हैं तथा भविष्य में कितनी संख्या में सम्भवित * उसके बाद बताया गया है कि एक-एक दण्डक के जीव को तथा उन-उन दण्डकों के जीवों को (स्वस्थान में) उस-उस रूप मे और अन्य दण्डक के जीवरूप (परस्थान) में अतीत-अनागत काल में कितने समुद्घात संभव हैं? इसके पश्चात् समुद्घात की अपेक्षा से जीवों के अल्पबहुत्व का विचार किया गया है। तत्पश्चात् कषायसमुद्घात चार प्रकार के बताकर उनकी अपेक्षा से भूत-भविष्यकाल के समुद्घातों की विचारणा की गई है। इसमें भी स्वस्थान-परस्थान की अपेक्षा से अतीत-अनागत कषायसमुद्घातों की एवं अल्पबहुत्व की विचारणा की गई है। इसके पश्चात् वेदना आदि समुद्घातों का अवगाहन और स्पर्श की दृष्टि से विचार किया गया है। इसमें यह बताया गया है कि उस-उस जीव की अवगाहना (क्षेत्र) तथा (काल) स्पर्शना कितनी कितने काल की होती है तथा किस समुद्घात के समय उस जीव को कितनी क्रियाएँ लगती हैं ? अन्त में केवलिसमुद्घात सम्बन्धी चर्चा विभिन्न पहलुओं से की गई है। सयोगी केवली जब तक मनवचन-काय-योग का निरोध करके अयोगिदशा प्राप्त नहीं करता तब तक सिद्ध नहीं होता। साथ ही सिद्धत्वप्राप्ति की प्रक्रिया का सूक्ष्मता से प्रतिपादन किया गया है। अन्त में सिद्धों के स्वरूप का निरूपण किया गया १. (क) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ५९० (ख) पण्णवणासुत्तं भा. २, पृ. १५१-१५२ २. पण्णवणासुत्तं भा. १, पृ. ४४६ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छत्तीसइमं समुग्घायपयं छत्तीसवाँ समुद्घातपद समुद्घात-भेद-प्ररूपणा २०८५. वेयण १ कसाय २ मरणे ३ वेउव्विय ४ तेयए य ५ आहारे ६। केवलिए ७ चेव भवे जीव-मणुस्साण सत्तेव ॥ २२७ ॥ [२०८५संग्रहणी गाथार्थ] जीवों और मनुष्यों के ये सात ही समुद्घात होते हैं-(१) वेदना, (२) कषाय, (३) मरण (मारणान्तिक) (४) वैक्रिय, (५) तैजस, (६) आहार (आहारक) और (७) केवलिक। २०८६. कति णं भंते! समुग्घाया पण्णत्ता ? गोयमा! सत्त समुग्घाया पण्णत्ता। तं जहा-वेदणासमुग्घाए १ कसायसमुग्घाए २ मारणंतियसमुग्घाए ३ वेउव्वियसमुग्घाए ४ तेयासमुग्घाए ५ आहारगसमुग्घाए ६ केवलिसमुग्घाए । [२०८६ प्र.] भगवन् ! समुद्घात कितने कहे गए हैं ? [२०८६ उ.] गौतम! समुद्घात सात कहे हैं, यथा – (१) वेदनासमुद्घात, (२) कषायसमुद्घात, (३) मारणान्तिकसमुद्घात, (४) वैक्रियसमुद्घात, (५) तैजससमुद्घात, (६) आहारकसमुद्घात और (७) केवलिसमुद्घात । विवेचन-समुद्घात : स्वरूप और प्रकार-समुद्घात में सम+उद्+घात, ये तीन शब्द हैं। इनका व्याकरणानुसार अर्थ होता है-एकीभावपूर्वक, उत्-प्रबलता से, घात-घात करना । तात्पर्य यह हुआ कि एकाग्रतापूर्वक प्रबलता के साथ घात करना। भावार्थ यह है कि वेदना आदि के साथ उत्कृष्टरूप से एकीभूत हो जाना। फलितार्थ यह हुआ कि वेदना आदि समुद्घात के समय आत्मा वेदनादिज्ञानरूप में परिणत हो जाता है, उसे अन्य कोई भान नहीं रहता। जब जीव वेदनादि समुद्घातों में परिणत हो जाता है, तब कालान्तर में अनुभव करने योग्य वेदनीयादि कर्मो के प्रदेशों को उदीरणाकरण के द्वारा खींचकर, उदयावलिका में डालकर, उनका अनुभव करके निर्जीर्ण कर डालता है, अर्थात-आत्मप्रदेशों से पृथक कर देता है। यही घात की प्रबलता है। पूर्वकृत कर्मों का झड़ जाना, आत्मा से पृथक् हो जाना ही निर्जरा है। समुद्घात सात प्रकार के है-(१) वेदना, (२) कषाय, (३) मारणांतिक, (४) वैक्रिय, (५) तैजस, (६) आहारक और (७) केवली। कौन समुद्घातम किस कर्म के आश्रित है ? - इनमें से वेदनासमुद्घात असातावेदनीय - कर्माश्रित है, कषायसमुद्घात चारित्रमोहनीय - कर्माश्रित है, मारणान्तिकसमुद्घात अन्तर्मुहूर्त शेष आयुष्य-कर्माश्रित है, वैक्रियसमुद्घात वैक्रियशरीरनाम-कर्माश्रित है, तैजससमुद्घात तैजसशरीरनाम - कर्माश्रित है,आहारकसमुदघात आहारकशरीरनाम-कर्माश्रित है और केवलिसमुद्घात साता-असातावेदनीय, शुभ-अशुभनामकर्म और उच्च-नीचगोत्रकर्माश्रित है। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८] [ प्रज्ञापनासूत्र] १. वेदनासमुद्घात की प्रक्रिया और परिणाम-वेदनासमुद्घात करने वाला जीव असातावेदनीय कर्म के पुद्गलों की परिशाटना (निर्जरा) करता है। आशय यह है कि वेदना से पीड़ित जीव अनन्तानन्त कर्मपुद्गलों से व्याप्त अपने आत्मप्रदेशों को शरीर से बाहर निकालता है और मुख एवं उदर आदि छिद्रों को तथा कान स्कन्ध आदि के अपान्तरालों (बीच के रिक्त स्थानों) को परिपूरित करके, लम्बाई और विस्तार में शरीरमात्र क्षेत्र को व्याप्त करके अन्तर्मुहूर्त तक रहता है। उस अन्तर्मुहूर्त में वह बहुत-से असातावेदनीयकर्म के पुद्गलों को निर्जीर्ण कर डालता है। २. कषायसमुद्घात की प्रक्रिया और परिणाम-कषायसमुद्घात करने वाला जीव कषाय-चारित्रमोहनीयकर्म के पुद्गलों का परिशाटन करता है-कषाय के उदय से युक्त जीव अपने प्रदेशों को बाहर निकालता है। उन प्रदेशे से मुख, उदर आदि छिद्रों को तथा कान, स्कन्ध आदि अन्तरालों को पूरित करता है। लम्बाई तथा विस्तार से शरीरमात्र क्षेत्र को व्याप्त करके रहता है। ऐसा करके वह बहुत-से कषायकर्मपुद्गलों का परिशाटन करता है-झाड़ देता है। ३. मारणान्तिकसमुद्घात की प्रक्रिया और परिणाम-मारणान्तिकसमुद्घात करने वाला जीव आयुकर्म के पुद्गलों का परिशाटन करता है। इस समुद्घात में यह विशेषता है कि मारणान्तिक समुद्घात करने वाला जीव अपने प्रदेशों को बाहर निकाल कर मुख तथा उदर आदि के छिद्रों को तथा कान, स्कन्ध अन्तरालों को पूरित करके विस्तार और मोटाई में अपने शरीरप्रमाण होकर किन्तु लम्बाई में अपने शरीर के अतिरिक्त जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग तक और उत्कृष्ट असंख्यात योजन तक एक दिशा के क्षेत्र को व्याप्त करके रहता है। ४. वैक्रियसमुद्घात की प्रक्रिया और परिणाम-वैक्रियसमुद्घात करने वाला जीव अपने प्रदेशों को शरीर से बाहर निकाल कर शरीर के विस्तार और मोटाई के बराबर तथा लम्बाई में संख्यातयोजन प्रमाण दण्ड निकालता है। फिर यथासम्भव वैक्रियशरीरनामकर्म के स्थूल पुद्गलों का परिधाटन करता है। ५. तैजससमुद्घात की प्रक्रिया और परिणाम-तैजससमुद्घात करने वाला जीव तेजोलेश्या के निकालने के समय तैजसशरीरनामकर्म के पुद्गलों का परिशाटन करता है। ६. आहारकसमुद्घात की प्रक्रिया और परिणाम-आहारकसमुद्घात करने वाला आहारकशरीरनामकर्म के पुद्गलों का परिशाटन करता है। ___७. केवलिसमुद्घात की प्रक्रिया और परिणाम-केवलिसमुद्घात करने वाला जीव साता-असातावेदनीय आदि कर्मों के पुद्गलों का परिशाटन करता है। केवली ही केवलिसमुद्घात करता है। इसमें आठ समय लगते हैं। केवलिमुद्घात करने वाला केवली प्रथम समय में मोटाई में अपने शरीर प्रमाण आत्मप्रदेशों का दण्ड ऊपर और नीचे लोकान्त तक रचता है। दूसरे समय में पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशा में कपाट की रचना करता है। तीसरे समय में मन्थान (मथानी) की रचना करता है। चौथे समय में अवकाशान्तरों को पूरित करता (भरता) है। पांचवें समय में उन अवकाशान्तरों को सिकोड़ता है, छठे समय में मन्थान को सिकोड़ता है, सातवें समय में कपाट को संकुचित करता है और आठवें समय में दण्ड का संकोच करके आत्मस्थ हो जाता है। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ छत्तीसवाँ समुद्घातपद ] समुद्घात-काल- प्ररूपणा २०८७. [ १ ] वेदणासमुग्धाए णं भंते! कतिसमइए पण्णत्ते ? गोयमा! असंखेज्जसमइए अंतोमुहुत्तिए पण्णत्ते । [२०८७-१ प्र.] भगवन् ! वेदनासमुद्घात कितने समय का कहा गया है ? [२०८७ - १ उ.] गौतम ! वह असंख्यात समयों वाले अन्तर्मुहूर्त का कहा है । [२] एवं जाव आहारगसमुग्धाए । [२०८७ - २] इसी प्रकार आहारकसमुद्घात पर्यन्त कथन करना चाहिए। २०८८. केवलिसमुग्धाए णं भंते! कतिसमइए पण्णत्ते ? गोयमा ! अट्ठसमइए पण्णत्ते । [२०८८ प्र.] भगवन्! केवलिसमुद्घात कितने समय का कहा है ? [२०८८ उ.] गौतम! वह आठ समय का कहा है। विवेचन—निष्कर्ष—वेदनासमुद्घात से लेकर आहारकसमुद्घात तक समुद्घातकाल अन्तर्मुहूर्त का है, किन्तु वह अन्तर्मुहूर्त असंख्यात समयों का समझना चाहिए। केवलिसमुद्घात का काल आठ समय का है।' चौवीस दण्डकों में समुद्घात - संख्या- प्ररूपणा २०८९. णेरइयाणं भंते! कति समुग्धाया पण्णत्ता ? गोयमा! चत्तरि समुग्धाया पण्णत्ता । तं जहा - वेदणासमुग्धाए १ कसायसमुग्धाए २ मारणंतियसमुग्धाए ३ वेव्वियसमुग्धाए ४ । [२०८९. प्र.] भगवन्! नैरयिकों के कितने समुद्घात कहे हैं ? [२२९ [२०८९. उ.] गौतम! उनके चार समूद्घात कहे हैं । यथा - (१) वेदनासमुद्घात, (२) कषायसमुद्घात, (३) मारणान्तिकसमुद्घात एवं (४) वैक्रियसमुद्घात । २०९०. [ १ ] असुरकुमारणं भंते! कति समुग्घाया पण्णत्ता ? गोयमा ! पंच समुग्घाया पण्णत्ता! तं जहा ३ वेउव्वियसमुग्घाए ४ तेयासमुग्धाए ५ । [२०९० प्र.] भगवन्! असुरकुमारों के कितने समुद्घात कहे है ? - - वेदणासमुग्धाए १ कसायसमुग्धाए २ मारणंतियसमुग्धाए १. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ९१९ - ९२० [२०९० उ.] गौतम! उनके पांच समुद्घात कहे हैं। यथा - (१) वेदनासमुद्घात, (२) कषायसमुद्घात, (३) मारणान्तिकसमुद्घात (४) वैक्रियसमुद्घात और (५) तैजससमुद्घात । Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३०] [प्रज्ञापनासूत्र] [२] एवं जाव थणियकुमाराणं। [२०९०-२] इसी प्रकार स्तनितकुमारों पर्यन्त कहना चाहिए। २०९१. [१] पुढविक्काइयाणं भंते! कति समुग्घाया पण्णत्ता ? . गोयमा!तिण्णि समुग्घाया पण्णत्ता।तं जहा - वेदणासमुग्घाए १ कसायसमुग्घाए २ मारणंतियसमुग्घाए [२०९१-१ प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों के कितने समुद्घात कहें हैं ? [२०९१-१ उ.] गौतम! उनके तीन समुद्घात कहे हैं। यथा-(१) वेदनासमुद्घात, (२) कषायसमुद्घात और (३) मारणान्तिकसमुद्घात। [२] एवं जाव चउरिदियाणं ।णवरं वाउक्काइयाणं चत्तारि समुग्घाया पण्णत्ता, तं जहा-वेदणासमुग्याए १ कसायसमुग्घाए २ मारणंतियसमुग्घाए ३ वेउव्वियसमुग्घाए । [२०९१-२] इसी प्रकार चतुरिन्द्रियों पर्यन्त जानना चाहिए। विशेष यह है कि वायुकायिक जीवों के चार समुद्घात कहे हैं, यथा-(१) वेदनासमुद्घात, (२) कषायसमुद्घात, (३) मारणान्तिकसमुद्घात ओर (४) वैक्रियसमुद्घात। २०९२. पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं जावं वेमाणियाणं भंते! कति समुग्घाया पण्णता? गोयमा! पंच समुग्घाया पण्णत्ता। तं जहा-वेदणासमुग्घाए १ कसायसमुग्घाए २ मारणंतियसमुग्घाए ३ वेउब्वियसमुग्याए ४ तेयासमुग्याए ५। णवंर मणूसाणं सत्तविहे समुग्घाए पण्णत्ते, तं जहा-वेदणासमुग्धाए १ कसायसमुग्घाए २ मारणंतियसमुग्घाए ३ वेउव्वियसमुग्घाए ४ तेयासमुग्घाए ५ आहारगसमुग्घाए ६ केवलिसमुग्याए । [२०९२ प्र.] भगवन् ! पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों से लेकर वैमानिकों पर्यन्त कितने समुद्घात कहे है ? [२०९२ उ.] गौतम! उनके पांच समुद्घात कहे है। यथा-(१) वेदनासमुद्घात, (२) कषायसमुद्घात, (३) मारणान्तिकसमुद्घात (४) वैक्रियसमुद्घात और (५) तैजससमुद्घात। विशेष यह है कि मनुष्यों के सात समुद्घात कहे है, यथा-(१) वेदनासमुद्घात, (२) कषायसमुद्घात, (३) मारणान्तिकसमुद्घात (४) वैक्रियसमुद्घात और (५) तैजससमुद्घात (६) आहारकसमुद्घात और (७) केवलिसमुद्घात। विवेचन-समुद्घात : किसमें कितने और क्यों ?-नारकों में आदि के ४ समुद्घात होते हैं, क्योंकि नारकों में तेजोलब्धि, आहारकलब्धि और केवलित्व का अभाव होने से तैजस, आहारक और केवलिसमुद्घात नहीं होते। असुरकुमारादि दस भवनवासी देवों में प्रारम्भ के चार और पांचवाँ तैजससमुद्घात भी हो सकता है। पृथ्वीकायिकादि पांच स्थावरों में प्रारम्भ के तीन समुद्घात होते हैं, किन्तु वायुकायिक जीवों में पहले के तीन और एक वैक्रियसमुद्घात, यों चार समुद्घात होते हैं। पंचेन्द्रितिर्यञ्चों से लेकर वेमानिकों तक प्रारम्भ के पांच समुद्घात पाये जाते है। किन्तु मनुष्यों में सातों ही समुद्घात पाये जाते हैं । तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों से लेकर वेमानिकों तक पांच समुद्घात इसलिए पाये Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [छत्तीसवाँ समुद्घातपद] [२३१ जाते है कि तिर्यञ्चपंचेद्रियों आदि में आहारकलब्धि और केवलित्व नहीं होते। अत: अन्तिम दो समुद्घात उनमें नहीं पाये जाते। चौवीस दण्डकों में एकत्वरूप से अतीतादि-समुद्घात-प्ररूपणा २०९३. [१] एगमेगस्स णं भंते! णेरइयस्स केवतिया वेदणासमुग्घाया अतीता ? गोयमा! अणंता। केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा! कस्सइ अस्थि कस्सइ णत्थि, जस्स अत्थि जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेजा वा असंखेजा वा अणंता वा। [२०९३-१ प्र.] भगवन् ! एक-एक नारक के कितने वेदनासमुद्घात अतीत-व्यतीत हुए हैं ? [२०९३-१ उ.] हे गौतम! वे अनन्त हुए हैं। [प्र.] भगवन्! वे भविष्य में (आगे) कितने होने वाले हैं ? [उ.] गौतम! किसी के होते हैं और किसी के नहीं होते। जिसके होते हैं, उसके जघन्य एक, दो या तीन होते हैं और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात या अनन्त होते हैं। [२] एवं असुरकुमारस्स वि, णिरंतरं जाव वेमाणियस्स। [२०९३-२] इसी प्रकार असुरकुमार के विषय में भी जानना चाहिए। यहाँ से लगाकर वैमानिक पर्यन्त इसी प्रकार कहना चाहिए। २०९४. [१] एवं जाव तेयगसमुग्घाए। [२०९४-१] इसी प्रकार तैजससमुद्घात तक (जानना चाहिए।) [२] एवं एते पंच चउवीसा दंडगा। [२०९४-२] इसी प्रकार ये पांचों समुद्घात (वेदना, कषाय, मारणान्तिक, वैक्रिय और तैजस) भी चौवीस दण्डकों के क्रम से समझ लेने चाहिए। २०९५. [१] एगमेगस्स णं भंते ! णेरइयस्स केवतिया आहारगसमुग्घाया अतीता? गोयमा! कस्सइ अस्थि कस्सइ णत्थि, जस्सत्थि जहण्णेणं एक्को वा दो वा, उक्कोसेणं तिण्णि । केवतिय पुरेक्खडा? कस्सइ अस्थि कस्सइ णत्थि, जस्सत्थि जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं चत्तारि। [२०९५-१ प्र.] भगवन्! एक-एक नारक के अतीत आहारकसमुद्घाात कितने हैं ? १. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि. रा. कोष भा. ७, पृ. ४३६ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२] [ प्रज्ञापनासूत्र ] [२०९५-१ उ.] गौतम ! वे किसी के होते हैं और किसी के नहीं होते। जिसके ( अतीत आहारक समुद्घात) होते हैं, उसके भी जघन्य एक या दो या तीन होते है और उत्कृष्ट चार होते है । [प्र.] भगवन्! एक-एक नारक के भावी समुद्घात कितने होते हैं ? [उ.] गौतम! किसी के होते हैं और किसी के नहीं होते। जिसके होते हैं, उसके जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट चार समुद्घात होते हैं। [२] एवं णिरंतरं जाव वेमाणियस्स । नवरं मणूसस्स अतीता वि पुरक्खडा वि जहा णेरइयस्स पुरेक्खडा । [२०९५-२] इसी प्रकार (असुरकुमारों से लेकर) लगातार वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिए। विशेष यह है कि मनुष्य के अतीत और अनागत नारक के ( अतीत और अनागत आहारकसमुद्घात के) समान हैं 1 २०९६. [ १ ] एगमेगस्स णं भंते! णेरइयस्स केवतिया केवलिसमुग्धाया अतीया ? गोयमा ! णत्थि । केवतिया पुरेक्खडा ? गोमा ! कस्सइ अत्थि कस्सइ णत्थि, जस्सऽत्थि एक्को । [२०९६-१ प्र.] भगवन्! एक-एक नारक के अतीत केवलिसमुद्घात कितने हुए हैं ? [२०९६-१ उ.] गौतम ! ( एक भी नारक के एक भी अतीत केवलिसमुद्घात) नहीं हैं। [प्र.] भगवन्! (एक-एक नारक के) भावी (केवलिसमुद्घात) कितने होते हैं ? [.] गौतम! किसी (नारक) के (भावी केवलिसमुद्घात) होता है, किसी के नहीं होता। जिसके होता है, उसके एक ही होता है । [ २ ] एवं जाव वेमाणियस्स । णवरं मणूसस्स अतीता कस्सइ अत्थि कस्सइ णत्थि । जस्सऽत्थि एक्को। एवं पुरेक्खडा वि। [२०९६-२] इसी प्रकार वैमानिक पर्यन्त ( अतीत और अनागत केवलिसमुद्घातविषयक कथन करना चाहिए।) विशेष यह है कि किसी मनुष्य के अतीत केवलिसमुद्घात होता है, किसी के नहीं होता। जिसके होता है, उसके एक ही होता है। इसी प्रकार (अतीत केवलिसमुद्घात के समान मनुष्य के) भावी (केवलिसमुद्घात) का भी ( कथन जान लेना चाहिए)। विवेचन एक-एक जीव के अतीत- अनागत समुद्घात कितने ? प्रस्तुत प्रकरण में एक-एक जीव के कितने वेदनादि समुद्घात अतीत हो चुके हैं और कितने भविष्य में होने वाले हैं ?, इसका चौबीस दण्डकों के क्रम से निरूपण किया गया हैं। - (१) वेदनासमुद्घात - एक-एक नारक के अनन्त वेदनासमुद्घात अतीत हुए हैं, क्योंकि नारकादि स्थान अनन्त हैं। एक-एक नारक स्थान को अनन्तबार प्राप्त किया है और एक बार नारक स्थान की प्राप्ति के समय एक I Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [छत्तीसवाँ समुद्घातपद] । [२३३ नारक के अनेक बार वेदनासमुद्घात हुए हैं । यह कथन बाहुल्य की अपेक्षा से समझना चाहिए। बहुत-से जीवों को अव्यवहार-राशि से निकले अनन्तकाल व्यतीत हो चुका है। उनकी अपेक्षा से एक-एक नारक के अनन्त वेदनासमुद्घात अतीत कहे गए हैं। जिन जीवों को व्यवहारराशि से निकले अल्पसमय व्यतीत हुआ है, उनकी अपेक्षा से यथा सम्भव संख्यात या असंख्यात वेदनासमुद्घात व्यतीत हुए समझने चाहिए। एक-एक नारक के भावी समुद्घात के विषय में कहा गया है कि किसी नारक के भावीसमुद्घात होते हैं, किसी के नहीं होते। तात्पर्य यह है कि जो जीव पृच्छा के समय के पश्चात् वेदनासमुद्घात के बिना ही नरक से निकल कर अनन्तर मनुष्यभव प्राप्त करके वेदनासमुद्घात किये बिना ही सिद्धि प्राप्त करेगा, उसकी अपेक्षा से एक भी वेदनासमुद्घात नहीं है। जो इस पृच्छा के समय के पश्चात् आयु शेष होने के कारण कुछ काल तक नरक में स्थित रह कर फिर मनुष्यभव प्राप्त करके सिद्ध होगा, उसके एक, दो या तीन वेदनासमुद्घात सम्भव हैं। संख्यातकाल तक संसार में रहने वाले नारक के संख्यात तथा असंख्यातकाल तक संसार में रहने वाले के असंख्यात और अनन्तकाल तक संसार में रहने वाले के अनन्त भावी समुद्घात होते हैं। नारकों के समान ही असुरकुमारादि भवनवासियों, पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रियों, विकलेन्द्रियों, पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों, मनुष्यों, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिकों के भी अनन्त वेदनासमुद्घात अतीत हुए हैं तथा भावी वेदनासमुद्घात किसी के होते हैं, किसी के नहीं होते। जिसके होते हैं, वे जघन्य एक, दो या तीन होते हैं, उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात या अनन्त होते हैं।' [२-३-४-५] वेदनासमुद्घात की तरह कषाय, मारणान्तिक, वैक्रिय एवं तैजस-समुद्घात-विषयक कथन चौबीस दण्उडकों के क्रम से समझ लेना चाहिए। (६) आहारकसमुद्घात - एक-एक नारक के अतीत आहारक-समुद्घात के प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि आहारकसमुद्घात किसी-किसी का होता है, किसी का नहीं होता। जिस नारक के अतीत आहारकसमुद्घात होता है, उसके भी जघन्य एक या दो होते हैं और उत्कृष्ट तीन होते हैं। जिस नारक ने पहले मनुष्यभव प्राप्त कर के अनुकूल सामग्री के अभाव में चौदह पूर्वो का अध्ययन नहीं किया अथवा चौदह पूर्वो का अध्ययन होने पर भी आहारकलब्धि के अभाव में या वैसा कोई विशिष्ट प्रयोजन न होने से आहारकशरीर का निर्माण नहीं किया, उसके अतीत आहारकसमुद्घात नहीं होते। उससे भिन्न प्रकार के नारक के जघन्य एक या दो और उत्कृष्ट तीन आहारकसमुद्घात होते हैं । चार नहीं हो सकते, क्योंकि चार बार आहारकशरीर का निर्माण करने वाला जीव नरक में नहीं जा सकता। __ भावी आहारकसमुद्घात भी किसी के होते हैं, किसी के नहीं। जिनके होते हैं, उनके जघन्य एक, दो या तीन होते हैं और उत्कृष्ट चार होते हैं। नारक मनुष्यभव को प्राप्त करके अनुकूल सामग्री न मिलने से चौदह पूर्वो का अध्ययन नहीं करेगा या अध्ययन करके भी आहारकसमुद्घात नहीं करेगा और सिद्ध हो जाएगा, उसके भावी १. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका), भा. ५, पृ. ९२७ से ९२९ तक (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति. अभिधान रा. कोष भा. ७, पृ. ४३७ २. (क) वही, अ. रा. कोष भा.७, पृ. ४३७ (ख) प्रज्ञापना (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ९३० Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४] [प्रज्ञापनासूत्र] आहारकसमुद्घात नहीं होते। इससे भिन्न नारक के जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट चार भावी आहारकसमुद्घात होते हैं। इससे अधिक भावी आहारकसमुद्घात किये बिना ही सिद्धि प्राप्त कर लेता है। - इसी प्रकार असुरकुमारादि भवनवासियों से लेकर वैमानिकों तक के अतीत और अनागत आहारकसमुद्घात के विषय में समझ लेना चाहिए। परन्तु मनुष्य के अतीत और अनागत आहारक समुद्घात नारक के अतीत और अनागत जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट चार हैं, इसी प्रकार मनुष्य के हैं।' . (७) केवलिसमुद्घात - एक-एक नारक के अतीत केवलिसमुद्घात एक भी नहीं है, क्योंकि केवलिसमुद्घात के पश्चात् नियम से अन्तर्मुहूर्त में ही जीव को मोक्ष-प्राप्ति हो जाती है। फिर उसका नरक में जाना और नारक होना सम्भव नहीं है। अतएव किसी भी नारक के अतीत केवलिसमुद्घाात सम्भव नहीं है। अब रहा नारक के भावी केवलिसमुद्घात का प्रश्न-यह किसी के होता है, किसी के नहीं होता। जिस नारक के होता है, उसके एक ही केवलिसमुद्घात होता है। एक से अधिक नहीं हो सकता, क्योंकि एक केवलिसमुद्घात के द्वारा ही चारों अघातिक कर्मों की स्थिति समान करके केवली अन्तर्मुहूर्त में ही मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। फिर दूसरी बार किसी को भी केवलिसमुद्घात की आवश्यकता नहीं होती। मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं । जो नारक भवभ्रमण करके मुक्तिपद प्राप्त करने का अवसर पायेगा, उस समय उसके अघातिकर्मों की स्थित विषम होगी तो उसे सम करने के लिए वह केवलिसमुद्घात करेगा। यह उसका भावी केवलिसमुद्घात होगा। जो नारक केवलिसमुद्घात के बिना ही मुक्ति प्राप्त करेगा अथवा जो (अभव्य) कभी मुक्ति प्राप्त कर ही नहीं सकेगा, उसकी अपेक्षा से भावी केवलिसमुद्घात नहीं होता। ____ मनुष्य के अतिरिक्त भवनवासी, पृथ्वीकायिक आदि एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रियतिर्यञ्च, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव के भी अतीत केवलिसमुद्घात नहीं होता। भावी केवलिसमुद्घात किसी के होता है, किसी के नहीं होता। जिसके होता है, एक ही होता है। युक्ति पूर्ववत् समझना चाहिए। किसी मनुष्य के अतीत केवलिसमुद्घात होता है, किसी के नहीं। केवलिसमुद्घात जिसके होता है, एक ही होता है । जो मनुष्य केवलिसमुद्घात कर चुका है और अभी तक मुक्त नहीं हुआ है-अन्तर्मुहूर्त में मुक्त होने वाला है, उसकी अपेक्षा से अतीत केवलिसमुद्घात है, किन्तु जिस मनुष्य ने केवलिसमुद्घात नहीं किया है, उसकी अपेक्षा से नहीं है। अतीत केवलिसमुद्घात के समान मनुष्य के भावी केवलिसमुद्घात का कथन भी जान लेना चाहिए। अतीत की तरह भावी केवलिसमुद्घात भी किसी का होता है, किसी का नहीं। जिसका होता है, उसका एक ही होता है, अधिक नहीं। चौवीस दण्डकों में बहुत्व की अपेक्षा से अतीत-अनागत-समुद्घात-प्ररूपणा २०९७. [१] णेरइयाणं भंते! केवतिया वेदणासमुग्घाया अतीता ? १. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका), भा.५, पृ. ९३० से ९३२ तक (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति. अ. रा. कोष भा. ७, पृ. ४३८ २. (क) वही, अ. रा. कोष भा. ७. पृ. ४३८ (ख) प्रज्ञापना (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ९३३ से ९३५ तक Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ छत्तीसवाँ समुद्घातपद ] गोयमा ! अनंता । केवतिया पुरेक्खडा ? गोयमा! अनंता । [२०९७ -१ प्र.] भगवन् ! नारकों के कितने वेदनासमुद्घात अतीत हुए हैं ? [२०९७ - १ उ.] गौतम ! वे अनन्त हुए है। [प्र.] भगवन् ! (उनके) भावी वेदनासमुद्घात कितने होते हैं ? [उ.] गौतम! वे भी अनन्त होते हैं। [२] एवं जाव वेमाणियाणं । [२०९७-२] इसी प्रकार वैमानिकों (के वेदनासमुद्घात) तक (के विषय में जानना चाहिए ) । २०९८. [ १ ] एवं जाव तेयगसमुग्धाए । [२०९८-२] इसी प्रकार ( वेदनासमुद्घात के समान) तैजसमुद्घात पर्यन्त समझना चाहिए । [२] एवं एते वि पंच चउवीसा दंडगा । [२०९८-२] इस प्रकार इन ( वेदना से लेकर तैजस तक) पांचों समुद्घातों का (कथन) चौबीसों दण्डकों में ( बहुवचन के रूप में समझ लेना चाहिए।) २०९९. [ १ ] णेरइयाणं भंते ! केवतिया आहारगसमुग्धाया अतीया ? गोयमा ! असंखेज्जा । [२३५ केवतिया पुरेक्खडा ? गोयमा ! असंखेज्जा । [२०९९-१ प्र.] भगवान् ! नारकों के कितने आहारकसमुद्घात हुए हैं ? . [२०९९-१ उ.] गौतम! वे असंख्यात हुए हैं। [प्र.] भगवान् ! उनके आगामी आहारकसमुद्घात कितने होते हैं ? [उ.] गौतम ! वे भी असंख्यात होते हैं । [२] एवं जाव वेमाणियाणं णवरं वणस्सइकाइयाणं मणूसाण य इमं णाणत्तं । वणस्सइकाइयाणं भंते! केवतिया आहारगसमुग्धाया अतीता ? गोयमा ! अनंता । मणूसाणं भंते! केवतिया आहारगसमुग्धाया अतीता ? गोयमा! सिय संखेज्जा सिय असंखेज्जा । एवं पुरेक्खडा वि। Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६] [प्रज्ञापनासूत्र] [२०९९-२] इसी प्रकार (नारकों के समान) वैमानिकों तक का कथन समझ लेना चाहिए। विशेषता यह है कि वनस्पतिकायिकों और मनुष्यों की वक्तव्यता में इनसे भिन्नता है, यथा [प्र.] भगवन्! वनस्पतिकायिक जीवों के कितने आहारकसमुद्घात अतीत हुए हैं ? [उ.] गौतम! (उनके) अनन्त (आहारकसमुद्घात अतीत हुए हैं)। [प्र.] भगवन्! मनुष्यों के कितने आहारकसमुद्घात अतीत हुए हैं ? [उ.] गौतम! (उनके आहारकसमुद्घात) कथंचित् संख्यात और कथंचित् असंख्यात (हुए हैं।) इसी प्रकार उनके भावी आहारकसमुद्घात भी समझ लेने चाहिए। २१००. [१] णेरइयाणं भंते! केवतिया केवलिसमुग्घाया अतीया ? गोयमा! णत्थि। केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा! असंखेजा। [२१००-१ प्र.] भगवन् ! नैरयिकों के कितने केवलिसमुद्घात अतीत हुए हैं ? . [२१००-१ उ.] गौतम! एक भी नहीं है। [प्र.] भगवन् ! नारकों के कितने केवलिसमुद्घात आगामी हैं ? [उ.] गौतम! वे असंख्यात हैं। [२] एवं जाव वेमाणियाणं। णवरं वणस्सइकाइय-मणूसेसु इमं णाणत्तं। वणस्सइकाइयाणं भंते! केवतिया केवलिसमुग्धाया अतीता ? गोयमा! णत्थि। केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! अणंता। मणूसाणं भंते! केवतिया केवलिसमुग्घाया अतीया ? गोयमा! सिय अस्थि सिय णत्थि। जदि अस्थि जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं सयपुहत्तं। केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा! सिय संखेजा सिय असंखेजा। [२१००-२ प्र.] इसी प्रकार वैमानिकों तक समझना चाहिए। विशेष यह है कि वनस्पतिकायिकों और मनुष्यों में (केवलिसमुद्घात के विषय में पूर्वकथन से) भिन्नता है, यथा- . Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [छत्तीसवाँ समुद्घातपद] [२३७ [प्र.] भगवन् ! वनस्पतिकायिकों के कितने केवलिसमुद्घात अतीत हैं ? [उ.] गौतम! (इनके केवलिसमुद्घात अतीत) नहीं हैं। [प्र.] भगवन् ! इनके कितने भावी केवलिसमुद्घात हैं ? [उ.] गौतम! वे अनन्त हैं। [प्र.] भगवन् ! मनुष्यों के कितने केवलिसमुद्घात अतीत हैं ? ___ [उ.] गौतम! कथञ्चित् हैं और कथञ्चित् नहीं हैं। यदि हैं तो जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट शतपृथक्त्व हैं। [प्र.] भगवन् ! उनके भावी केवलिसमुद्घात कितने कहे हैं? [उ.] गौतम! कथञ्चित् संख्यात हैं और कथञ्चित् असंख्यात हैं। विवेचन - नारकादि में बहुत्व की अपेक्षा से वेदनासमुद्घात आदि का निरूपण- नारकों के वेदनासमुद्घात अनन्त अतीत हुए हैं, क्योंकि बहुत-से नारकों को व्यवहारराशि से निकले अनन्तकाल हो चुका है। इनके भावी समुद्घात भी अनन्त हैं, क्योंकि बहुत से नारक अनन्तकाल तक संसार में स्थित रहेंगे। ___ असुरकुमारादि भवनवासियों, पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रियों, विकलेन्द्रियों, तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों, मनुष्यों, वाणव्यन्तरों, ज्योतिष्कों और वैमानिकों के भी वेदनासमुद्घात अतीत और अनागत (भावी) में अनन्त होते हैं। वेदनासमुद्घात की भांति कषाय, मारणान्तिक, वैक्रिय और तैजस समुद्घात की वक्तव्यता भी समझ लेनी चाहिए।' इन सबका निरूपण चौबीस दण्डकों में बहुवचन के रूप में करना चाहिए। आहारकसमुद्घात-नारकों के अतीत आहारकसमुद्घात असंख्यात हैं। तात्पर्य यह है कि यद्यपि सभी नारक असंख्यात हैं, तथापि उनमें भी कुछ असंख्यात नारक ऐसे होते हैं, जो पहले आहारकसमुद्घात कर चुके हैं, उनकी अपेक्षा से नारकों के अतीत आहारकसमुद्घात असंख्यात कहे हैं। इसी प्रकार नारकों के भावी आहारकसमुद्घात भी पूर्वोक्त युक्ति से असंख्यात समझ लेना चाहिए। __वनस्पतिकायिकों और मनुष्यों को छोड़कर शेष दण्डकों में वैमानिकों पर्यन्त अतीत और अनागत आहारकसमुद्घात पूर्ववत् असंख्यात हैं। वनस्पतिकायिकों के अतीत आहारकसमुद्घात-बहुवचन की अपेक्षा से अनन्त हैं, क्योंकि ऐसे वनस्पतिकायिक जीव अनन्त हैं, जिन्होंने चौदह पूर्वो का ज्ञान भूतकाल में किया था, किनतु प्रमाद के वशीभूत होकर संसार की वृद्धि करके वनस्पतिकायिकों में विद्यमान हैं। वनस्पतिकायिकों के भावी आहारकसमुद्घात भी अनन्त हैं, क्योंकि पृच्छा के समय जो जीव वनस्पतिकाय में हैं, उनमें से अनन्त जीव वनस्पतिकायिकों में से निकल कर मनुष्यभव पाकर चौदह पूर्वो का ज्ञान प्राप्त करके आहारकसमुद्घात करके सिद्धिगमन करेंगे। मनुष्यों के अतीत-अनागत आहारकसमुद्घात- बहुवचन की अपेक्षा से कदाचित् संख्यात और कदाचित् Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८] [ प्रज्ञापनासूत्र ] असंख्यात हैं। तात्पर्य यह है कि संमूच्छिम और गर्भज मनुष्य मिलाकर उत्कृष्ट संख्या में अंगुलमात्र क्षेत्र में जितने प्रदेशों की राशि है, उसके प्रथम वर्गमूल का तृतीय वर्गमूल से गुणाकार करने पर जो परिमाण आता है, उतने प्रदेशों वाले खण्ड-घनीकृत लोक की एकप्रदेश वाली श्रेणी में जितने मनुष्य होते हैं, उनमें से एक कम करने पर जितने मनुष्य हों, उतने ही हैं। ये मनुष्य नारक आदि अन्य जीवराशियों की अपेक्षा कम हैं। उनमें भी ऐसे मनुष्य कम हैं, जिन्होंने पूर्वभवों में आहारकशरीर बनाया हो, इस कारण वे कदाचित् संख्यात और कदाचित् असंख्यात होते हैं। इसी प्रकार मनुष्यों के भावी आहारकसमुद्घात भी पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार कदाचित् संख्यात और कदाचित् असंख्यात समझने चाहिए। केवलिसमुद्घात - नारकों के अतीत केवलिसमुद्घात एक भी नहीं होता, क्योंकि जिन जीवों ने केवलिसमुद्घात किया है, उनका नरक में जाना और नारक होना सम्भव नहीं है। नारकों के भावी केवलिसमुद्घात असंख्यात हैं, क्योंकि पृच्छा के समय सदैव भविष्य में केवलिसमुद्घात करने वाले नारक असंख्यात ही होते हैं । केवलज्ञान से ऐसा ही जाना जाता है। नारकों के समान ही वनस्पतिकायिकों एवं मनुष्यों को छोड़कर असुरकुमारादि भवनवासियों से लेकर वैमानिकों तक भी इसी प्रकार समझना चाहिए। इनके भी अतीत केवलिसमुद्घात नहीं होते और भावी केवलिसमुद्घात असंख्यात होते हैं। वनस्पतिकायिकों के अतीत केवलिसमूद्धात पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार नहीं होते । पृच्छा के समय अगर केवलिसमुद्घात से निवृत्त कोई मनुष्य (केवली) विद्यमान हों तो अतीत केवलिसमुद्घात होते हैं, अन्य समय में नहीं होते। यदि अतीत केवलिसमुद्घात हों तो वे जघन्यतः एक, दो या तीन होते हैं और उत्कृष्टतः शतपृथक्त्व अर्थात् दो सौ से लेकर नौ सौ तक होते हैं। मनुष्यों के भावी केवलिसमुद्घात कदाचित् संख्यात और कदाचित् असंख्यात होते हैं। समूच्छिम और गर्भज मनुष्यों में पृच्छा के समय बहुत से अभव्य भी होते हैं, जिनके भावी केवलिसमुद्घात सम्भव नहीं, इस अपेक्षा से भावी केवलिसमुद्घात संख्यात होते हैं। कदाचित् वे असंख्यात भी होते हैं, क्योंकि उस समय भविष्य में केवलिसमुद्घात करने वाले मनुष्य बहुत होते हैं। चौवीस दण्डकों की चौवीस दण्डक पर्यायों में एकत्व की अपेक्षा से अतीतादि समुद्घातप्ररूपणा २१०१. [ १ ] एगमेगस्स णं भंते! णेरइयस्स णेरइयत्ते केवतिया वेदणासमुग्धाया अतीया ? गोयमा ! अनंता । केवतिया पुरेक्खडा ? गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ णत्थि, जस्सऽत्थि तस्स सिय संखेजा सिय असंखेज्जा सिय अनंता वा । [२१०१ प्र.] भगवन्! एक-एक नैरयिक के नारकत्व में (अर्थात् - - नारक - पर्याय में रहते हुए) कितने १. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति. अ. रा. कोष भा. ७, पृ. ४३९ २. वही. अ. रा. कोष भा. ७. पू. ४३९ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ छत्तीसवाँ समुद्घातपद ] वेदनासमुद्घात अतीत हुए हैं। [२१०१ उ.] गौतम ! वे अनन्त हुए हैं। 1 [२३९ [प्र.] भगवन्! (एक-एक नारक के नारकत्व में) कितने भावी ( वेदनासमुद्घात) होते हैं। [उ.] गौतम ! वे किसी के होते हैं, किसी के नहीं होते। जिसके होते हैं, उसके जघन्य एक, दो या तीन होते हैं और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त होते हैं। हैं ? हैं ? [२१०२ प्र.] भगवन्! एक-एक असुरकुमार के नारकत्व में (रहते हुए) कितने वेदनासमुद्घात अतीत हुए [[२१०२ उं.] गौतम! वे अनन्त हो चुके हैं। [प्र.] भगवन्! भावी वेदनासमुद्घात कितने होते हैं ? [उ.] गौतम! किसी के होते हैं और किसी के नहीं होते हैं, जिसके होते हैं, उसके कदाचित् संख्यात, कदाचित् असंख्यात और कदाचित् अनन्त होते हैं । २१०३. [ १ ] एगमेगस्स णं भंते ! असुरकुमारस्स असुरकुमारत्ते केवतिया वेदणासमुग्धाया अतीया ? गोयमा! अणंता । केवतिया पुरेक्खडा ? गोमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ णत्थि, जस्सऽत्थि जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा । [२१०३-१ प्र.] भगवन् ! एक-एक असुरकुमार के असुरकुमारपर्याय में कितने वेदनासमुद्घात अतीत हुए [२१०३ - १ उ.] गौतम ! वे अनन्त हुए हैं। [प्र.] भगवन् ! उनके भावी वेदनासमुद्घात कितने होते हैं ? [उ.] गौतम ! किसी के होते हैं और किसी के नहीं होते हैं, जिसके होते हैं, उसके जघन्य एक, दो या तीन होते हैं और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त होते हैं। [ २ ] एवं णागकुमारत्ते वि जाव वेमाणियत्ते । [२१०३ - २] इसी प्रकार नागकुमारपर्याय से यावत् वैमानिकपर्याय में रहते हुए अतीत और अनागत वेदनासमुद्घात समझने चाहिए। २१०४. [ १. ] एवं जाव वेदणासमुग्धाएणं असुरकुमारे णेरइयादि-वेमाणियपज्जवसाणेसु भणिए तहा णागकुमारादीया अवसेसेसु सट्ठाण - परट्ठाणेसु श्राणियव्वा जाव वेमाणियस्स वेमाणियत्ते । [२१०४-१] जिस प्रकार असुरकुमार के नारकपर्याय से लेकर वैमानिकपर्याय पर्यन्त वेदनासमुद्घात कहे हैं, उसी प्रकार नागकुमार आदि से लेकर शेष सब स्वस्थानों और परस्थानों में वेदनासमुद्घात यावत् वैमानिक के Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४०] [प्रज्ञापनासूत्र] वैमानिकपर्याय पर्यन्त कहने चाहिए। [२] एवमेते चउव्वीसं चउव्वीसा दंडगा भवंति। [२१०४-२.] इसी प्रकार चौबीस दण्डकों में से प्रत्येक के चौबीस दण्डक होते हैं। २१०५. एगमेस्स णं भंते! णंरइयस्स जेरइयत्ते केवतिया कसायसमुग्घाया अतीया? गोयमा! अणंता। केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा! कस्सइ अस्थि कस्सइ णत्थि, जस्सऽत्थि एगुत्तरियाए जाव अणंता। [२१०५ प्र.] भगवन्! एक-एक नारक के नारकपर्याय (नारकत्व) में कितने कषायसमुद्घात अतीत हुए [२१०५-उ.] गौतम! वे अनन्त हुए हैं। [प्र.] भगवन्! भावी कषायसमुद्घात कितने होते हैं ? [उ.] गौतम! किसी के होते हैं और किसी के नहीं होते। जिसके होते हैं, उसके एक से लेकर यावत् अनन्त हैं। २१०६. एगमेस्स णं भंते! नेरइयस्स असुरकुमारत्ते केवतिया कसायसमुग्घाया अतीया? गोयमा! अणंता। केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा! कस्सइ अस्थि कस्सइ णत्थि, जस्सऽस्थि सिय संखेजा सिय असंखेजा सिय अणंता। [२१०६ प्र.] भगवन् ! एक-एक नारक के असुरकुमारपर्याय में कितने कषायसमुद्घात अतीत होते हैं ? [२१०६-उ.] गौतम! अनन्त होते हैं। [प्र.] भगवन् ! (उसके) भावी (कषायसमुद्घात) कितने होते हैं ? [उ.] गौतम! वे किसी के होते हैं, किसी के नहीं होते। जिसके होते हैं, उसके कदाचित् संख्यात, कदाचित् असंख्यात और कदाचित् अनन्त होते हैं। २१०७. एवं जाव णेरइयस्स थणियकुमारत्ते। पुढविकाइयत्ते एगुत्तरियाए णेयव्वं, एवं जाव मणूसत्ते। वाणमंतरत्ते जहा असुरकुमारत्ते (सु. २१०६)। जोतिसियत्ते अतीया अणंता, पुरेक्खडा कस्सइ अस्थि कस्सइ णत्थि। जस्सऽस्थि सिय असंखेज्जा सिय अणंता। एवं वेमाणियत्ते वि सिय असंखेजा सिय अणंता। [२१०७] इसी प्रकार नारक का यावत् स्तनितकुमारपर्याय में (अतीत-अनागत कषायसमुद्घात समझना चाहिए। नारक का पृथ्वीकायिकपर्याय में एक से लेकर जानना चाहिए। इसी प्रकार यावत् मनुष्यपर्याय में समझना Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [छत्तीसवाँ समुद्घातपद] [२४१ चाहिए। वाणव्यन्तरपर्याय में नारक के असुरकुमारत्व (सु. २१०६ में उक्त) के समान जानना। ज्योतिष्कदेवपर्याय में अतीत कषायसमुद्घात अनन्त हैं तथा भावी कषायसमुद्घात किसी का होता है, किसी का नहीं होता। जिसका होता, उसका कदाचित् असंख्यात और कदाचित् अनन्त होता है। इसी प्रकार वैमानिकपर्याय में भी कदाचित् असंख्यात और कदाचित् अनन्त (भावी कषायसमुद्घात) होते हैं। २१०८. असुरकुमारस्स णेरइयत्ते अतीता अणंता, पुरेक्खडा कस्सइ अस्थि कस्सइ णत्थि। जस्सऽस्थि सिय संखेज्जा सिय असंखेजा सिय अणंता। [२१०८] असुरकुमार के नैरयिकपर्याय में अतीत कषायसमुद्घात अनन्त होते हैं। भावी कषायसमुद्घात किसी के होते हैं और किसी के नहीं होते। जिसके होते हैं, उसके कदाचित् संख्यात, कदाचित् असंख्यात और कदाचित् अनन्त होते हैं। २१०९. असुरकुमारस्स असुरकुमारत्ते अतीया अणंता। पुरेक्खडा एगुत्तरिया। ___ [२१०९] असुरकुमार के असुरकुमारपर्याय में अतीत (कषायसमुद्घात) अनन्त हैं और भावी (कषायसमुद्घात) एक से लेकर कहने चाहिए। २११० एवं नागकुमारत्ते निरंतरं जाव वेमाणियत्ते जहा णेरइयस्स भणियं (सु. २१०७) तहेव भाणियव्वं। [२११०] इसी प्रकार नागकुमारत्व से लेकर लगातार वैमानिकत्व तक जैसे (२१०७ सूत्र में) नैरयिक के लिए कहा है, वैसे ही कहना चाहिए। २१११. एवं जाव थणियकुमारस्स वि [ जाव] वेमाणियत्ते। णवरं सव्वेसिं सट्ठाणे एगुत्तरिए परट्ठाणे जहेव असुरकुमारस्स (सु. २१०८-१०)। [२१११] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार तक भी यावत् वैमानिकत्व में पूर्ववत् कथन समझना चाहिए। विशेष यह है कि इन सबके स्वस्थान में भावी कषायसमुद्घात एक से लगा कर (उत्तरोत्तर अनन्त तक) हैं और परस्थान में (सू. २१०८-१० के अनुसार) असुरकुमार के (भावी कषायसमुद्घात के) समान हैं। २११२. पुढविक्काइयस्स रइयत्ते जाव थणियकुमारत्ते अतीता अणंता। पुरेक्खडा कस्सइ अस्थि कस्सइ णत्थि, जस्सऽत्थि सिय संखेजा सिय असंखेजा सिय अणंता। [२११२ ] पृथ्वीकायिक जीव के नारकपर्याय में यावत् स्तनितकुमारपर्याय में अनन्त (कषायसमुद्घात) अतीत हुए हैं, किसी के होते हैं, किसी के नहीं होते हैं, जिसके होते हैं, उसके कदाचित् संख्यात, कदाचित् असंख्यात और कदाचित् अनन्त होते हैं। २११३. पुढविक्काइयस्स पुढविक्काइयत्ते जाव मणूसत्ते अतीता अणंता। पुरेक्खडा कस्सइ अस्थि कस्सइ णत्थि, जस्सऽस्थि एगुत्तरिया। वाणमंतरत्ते जहा णेरइयत्ते (सु. २११२)। जोतिसिय-वेमाणियत्ते अतीया अणंता, पुरेक्खडा कस्सइ अस्थि कस्सइ णत्थि, जस्सऽस्थि सिय असंखेजा सिय अणंता। Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२] [प्रज्ञापनासूत्र] [२११३] पृथ्वीकायिक के पृथ्वीकायिक अवस्था में यावत् मनुष्य-अवस्था में (कषायसमुद्घात) अतीत अनन्त हैं। इसके भावी (कषायसमुद्घात) किसी के होते हैं, किसी के नहीं होते। जिसके होते हैं, उसके एक से लगा कर अनन्त होते हैं। वाणव्यन्तर-अवस्था में (सु. २११२ में उक्त) नारक-अवस्था के समान जानना चाहिए। ज्योतिष्क और वैमानिक-अवस्था में (कषायसमुद्घात) अनन्त अतीत हुए हैं। (उसके) भावी (कषायसमुद्घात) किसी के होते हैं, किसी के नहीं होते। जिसके होते हैं, उसके कदाचित् असंख्यात और कदाचित् अनन्त होते हैं। २११४. एवं जाव मणूसे वि णेयव्वं। [२११४ ] इसी प्रकार (पृथ्वीकायिक के समान) मनुष्यत्व तक में भी जान लेना चाहिए। २११५.[१] वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारे (सू. २१०८-१०)। णवरं सट्टाणे एगुत्तरियाए भाणियव्वा जाव वेमाणियस्स वेमाणियत्ते। [२११५-१]वाणव्यन्तरों, ज्योतिष्कों और वैमानिकों की वक्तव्यता (सू. २१०८-१० में उक्त) असुरकुमारों की वक्तव्यता के समान समझना चाहिए। विशेष बात यह है कि स्वस्थान में (सर्वत्र) एक से लेकर समझना तथा . वैमानिक के वैमानिकत्व पर्यन्त कहना चाहिए। [२] एवं एते चउवीसं चउवीसा दंडगा। [२११५-२] इस प्रकार ये सब पूर्वोक्त चौबीसों दण्डक चौबीसों दण्डकों में कहने चाहिए। २११६. [१] मारणंतियसमुग्धाओ सट्ठाणे वि परट्ठाणे वि एगुत्तरियाए नेयव्वो जाव वैमाणियस्स वेमाणियत्ते। [२११६-१] मारणान्तिकसमुद्घात स्वस्थान में भी और परस्थान में भी पूर्वोक्त एकोतरिका से (अर्थात्-एकसे लगाकर) समझ लेना चाहिए । यावत् वैमानिक का वैमानिकपर्याय में (यहाँ तक अन्तिम दण्डक कहना चाहिए। [२] एवमेते चउवीसं चउवीसा दंडगा भाणियव्वा।। इसी प्रकार ये चौबीस दण्डक चौबीसों दण्डकों में कह देना चाहिए। २११७. [१] वेउव्वियसमुग्घाओ जहा कसायसमुग्घाओ (सु. २१०५-१५) तहा णिरवसेसो भाणियव्वो। णवरं जस्स णत्थि तस्स ण वुच्चति। [२११७-१] वैक्रियसमुद्घात की समग्र वक्तव्यता कषायसमुद्घात (सू. २१०५ से २११५ तक में उक्त) के समान कहनी चाहिए। विशेष यह है कि जिसके (वैक्रियसमुद्घात) नहीं होता, उसके विषय में कथन नहीं करना चाहिए। [२] एत्थ वि चउवीसं चउवीसा दंडगा भाणियव्वा। .. [२११७-२] यहाँ भी चौबीस दण्डक चौबीस दण्डकों में कहने चाहिए। २११८. [१] तेयगसमुग्घाओ जहा मारणंतियसमुग्धाओ (सु. २११६)। णवरं जस्स अत्थि। Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ छत्तीसवाँ समुद्घातपद ] [२४३ · [२११८ - १] तैजससमुद्घात का कथन (सू. २११६ में उक्त) मारणान्तिकसमुद्घात के समान कहना चाहिए। विशेष यह है कि जिसके वह होता है, ( उसी के कहना चाहिए ) । [२] एवं एते वि चउवीसं चउवीसा दंडगा भाणियव्वा । [२११८-२] इस प्रकार ये भी चौबीसों दण्डकों में घटित करना चाहिए। २११९. [ १ ] एगमेगस्स णं भंते! णेरइयस्स णेरइयत्ते केवतिया आहारगसमुग्धाया अतीया ? गोयमा ! णत्थि । केवतिया पुरेक्खडा ? गोयमा ! णत्थि । [२११९-१ प्र.] भगवन् ! एक-एक नारक के नारक अवस्था में कितने आहारकसमुद्घात अतीत हुए हैं ? [२११९-१] गौतम! (नारक के नारकपर्याय में अतीत आहारकसमुद्घात) नहीं होते हैं। [प्र.] भगवान् ! उसके भावी आहारकसमुद्घात कितने होते हैं ? [.उ.] गौतम! (भावी आहारकसमुद्घात भी) नहीं होते । [ २ ] एवं जाव वेमाणियत्ते । णवरं मणूसत्ते अतीया कस्सइ अत्थि, कस्सइ णत्थि, जस्सऽत्थि जहण्णेणं एक्को वा दो वा, उक्कोसेणं तिण्णि । केवतिया पुरेक्खडा ? गोयमा ! कस्सइ अत्थि कस्सइ णत्थि, जस्सत्थि जहण्णेणं एक्की वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं चत्तारि । 1 [२११९-२] इसी प्रकार (मारक के ) यावत् वैमानिक अवस्था में (अतीत और अनागत आहारकसमुद्घात का कथन समझना चाहिए) । विशेष यह है कि ( नारक के) मनुष्यपर्याय में अतीत (आहारकसमुद्घात) किसी के होता है, किसी के नहीं होता। जिसके होता है, उसके जघन्य एक अथवा दो और उत्कृष्ट तीन होते हैं। [प्र.] भगवन्! (नारक के मनुष्यपर्याय में) भावी (आहारकसमुद्घात) कितने होते हैं ? [उ.] गौतम ! किसी के होते हैं, किसी के नहीं होते। जिसके होते हैं, उसके जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट चार होते हैं। [ ३ ] एवं सव्वजीवाणं मणूसेसु भाणियव्वं । [२११९-३] इसी प्रकार समस्त जीवों और मनुष्यों के ( अतीत और भावी आहरकसमुद्घात के विषय में जानना चाहिए।) [४] मणूसस्स मणूसत्ते अतीया कस्सइ अत्थि, कस्सइ णत्थि, जस्सऽत्थि जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं चत्तारि । एवं पुरेक्खडा वि । Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४] [ प्रज्ञापनासूत्र ] [२११९-४] मनुष्य के मनुष्यपर्याय में अतीत आहारकसमुद्घात किसी के हुए हैं, किसी के नहीं हुए। जिसके होते हैं, उसके जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट चार होते हैं। इसी प्रकार भावी (आहारकसमुद्घात) जानना चाहिए । [५] एवमेते वि चडवीसं चडवीसा दंडगा जाव वेमाणियस्स वेमाणियत्ते । [२११९-५] इस प्रकार ये चौवीस दण्डक चौवीसों दण्डकों में यावत् वैमानिकपर्याय में (आहारकसमुद्घात तक) कहना चाहिए। २१२०. [ १ ] एगमेगस्स णं भंते! णेरइयस्स णेरइयत्ते केवतिया केवलिसमुग्धाया अतीया ? गोयमा । णत्थि । केवतिगा पुरेक्खडा ? गोयमा ! णत्थि । [२१२०-१ प्र.] भगवन्! एक-एक नैरयिक के नारकत्वपर्याय में कितने केवलिसमुद्घात अतीत हु [२१२०-१ उ.] गौतम! नहीं हुए है । [प्र.] भगवन्! इसके भावी (केवलिसमुद्घात) कितने होते हैं ? [.] गौतम! वे भी नहीं होते । हैं ? [२] एवं जाव वेमाणियत्ते । णवरं मणूसत्ते अतीया णत्थि, पुरेक्खडा कस्सइ अस्थि कस्सइ णत्थि, जस्सऽत्थि एक्को । [२१२०-२] इसी प्रकार वैमानिकपर्याय तक में (केवलिसमुद्घात कहना चाहिए ।) विशेष यह है कि मनुष्यपर्याय में अतीत (केवलिसमुद्घात) नहीं होता। भावी (केवलिसमुद्घात) किसी के होता है, किसी के नहीं होता है। जिसके होता है, उसके एक होता है। [३] मणूसस्स मणूसत्ते अतीया कस्सइ अस्थि कस्सइ णत्थि, जस्सऽत्थि इक्को। एवं पुरेक्खडा वि। [२१२०-३] मनुष्य के मनुष्यपर्याय में अतीत केवलिसमुद्घात किसी के होता है, किसी के नहीं होता । जिसके होता है, उसके एक होता है। इसी प्रकार भावी (केवलिसमुद्घात के विषय में भी कहना चाहिए।) [४] एवमेते चउवीसं चउवीसा दंडगा । [२१२०-४] इस प्रकार ये चौवीसों दण्डक चौवीसों दण्डकों में (जानना चाहिए।) पहले विवेचन - एक - एक जीव के नारकत्वादि पर्याय में अतीत- अनागत-समुद्घात-प्ररूपणा यह प्रश्न किया गया था कि नारक के अतीत समुद्घात कितने है ? यहाँ यह प्रश्न किया जा रहा है कि नारक ने नारक अवस्था में रहते हुए कितने वेदना समुद्घात किए ? अर्थात् - पहले नारकजीव के द्वारा चौवीस दण्डकों में से किसी भी दण्डक में किए हुए वेदनासमुद्घातों की गणना विवक्षित थी, जबकि यहां पर केवल नारकपर्याय में किए Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [छत्तीसवाँ समुद्घातपद] [२४५ हुए वेदनासमुद्घातों की गणना विवक्षित है। वर्तमान में जो नारकजीव है, उसने नारकेतरपर्याय में जो वेदनासमुद्घात किये, वे यहाँ विवक्षित नहीं। इसी प्रकार परस्थानों में भी एक-एक पर्याय ही विवक्षित है। यथा-नारक ने असुरकुमार अवस्था में जो वेदनासमुद्घात किये, उन्हीं की गणना की जाएगी, अन्य अवस्थाओं में किये हुए वेदनासमुद्घात विवक्षित नहीं होगें। इस प्रकरण में सर्वत्र यह विशेषता ध्यान में रखनी चाहिए। (१) वेदनासमुद्घात - नारकपर्याय में रहे हुए एक नारक के अनन्त वेदनासमुद्घात हुए हैं, क्योंकि उसने अनन्त वार नारकपर्याय प्राप्त की है और एक-एक नारकभव में भी कम से कम संख्यात वेदनासमुद्घात होते हैं। साथ ही किसी एक नारक के मोक्षपर्यन्त अनागतकाल की अपेक्षा से नारकपर्याय में भावी वेदनासमुद्घात होते हैं, किसी के नहीं होते। जिस नारक की मृत्यु निकट है, वह कदाचित् वेदनासमुद्घात किये बिना ही, मारणान्तिकसमुद्घात के द्वारा नरक से उद्वर्तन करके मनुष्यभव पाकर मुक्त हो जाता है, उस नारक को नारकपर्याय सम्बन्धी भावी वेदनासमुद्घात नहीं होता। जिस नारक के नरकपर्यायसम्बन्धी भावी समुद्घात है, उसके जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात या अनन्त होते हैं। जैसे नारकों के नारकपर्यायसम्बन्धी वेदनासमुद्घातों का निरूपण किया गया, उसी प्रकार नारक के असुरकुमारपर्यायों में स्तनितकुमार पर्यन्त भवनवासीदेवपर्याय में, पथ्वीकायिक आदि एकेन्द्रियपर्याय में, विकलेन्द्रियपर्याय में, मनष्यपर्याय में, वाणव्यन्तर. ज्योतिष्क और वैमानिकपर्याय में भी सम्पूर्ण अतीतकाल की अपेक्षा अनन्त वेदनासमुद्घात अतीत होते हैं । भावी वेदनासमुद्घात किसी के होते हैं, किसी के नहीं होते। जिसके होते हैं, उसके जघन्य एक, दो या तीन होते हैं और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात या अनन्त होते हैं। इनमें से जिनकी शेष आयु क्षीण हो गई है और जो उसी भव में मोक्ष जाने वाले हैं, उनकी अपेक्षा से एक, दो या तीन भावी वेदनासमुद्घात कहे गए हैं। जो जीव पुनः नरक में उत्पन्न होनेवाला होता है, उसके जघन्यरूप से भी संख्यात भावी वेदनासमुद्घात होते हैं । ये संख्यात समुद्घात भी उसी नारक के समझने चाहिए, जो एक ही वार और वह भी जघन्प्य स्थिति वाले नरक में उत्पन्न होने वाला हो। जो अनेक वार और दीर्घस्थितिकरूप में उत्पन्न होने वाला हो, उसके भावी वेदनासमुद्घात असंख्यात होते हैं, जो अनन्तवार उत्पन्न होने वाला हो उसके अनन्त होते हैं। __एक-एक असुरकुमार के नैरयिक अवस्था में अनन्त वेदनासमुद्घात अतीत हुए हैं, क्योंकि उसने अतीतकाल में अनन्तवार नारक अवस्था प्राप्त की है और एक-एक नारकभव में संख्यात वेदनसमुद्घात होते हैं। एक-एक असुरकुमार के नारक अवस्था में भावी वेदनासमुद्घात किसी के होते हैं, किसी के नहीं होते हैं। जिसके होते हैं, उसके कदाचित् संख्यात, कदाचित् असंख्यात और कदाचित् अनन्त वेदनासमुद्घात होते हैं। जो असुरकुमार के भव से निकल कर नारकभव मे कभी जन्म नहीं लेगा, किन्तु अनन्तर भव में या फिर परम्परा से मनुष्यभव प्राप्त करके सिद्ध हो जाएगा, उसके नारक पर्यायभावी आगामी वेदनासमुद्घात नहीं होते, क्योंकि उसके नारकपर्याय ही प्राप्त होने वाला नहीं है। जो असुरकुमार उस भव के पश्चात् परम्परा से नरक में जाएगा, उसके भावी वेदनासमुद्घात होते हैं तथा उनमें से जो एक बार जघन्य स्थिति वाले नारक में उत्पन्न होगा, उस असुरकुमार के जघन्य भी संख्यात वेदनासमुद्घात होते हैं। क्योंकि नरक में वेदना की बहुलता होती है। कई बार जघन्यस्थिति वाले नरक में जाने वर असंख्यात वेदनासमुद्घात होंगे और अनन्तवार नरक में जाए तो अनन्त वेदनासमुद्घात होंगे। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६] [प्रज्ञापनासूत्र] एक-एक असुरकुमार के असुरकुमारावस्था में अतीतकाल में (यानी जब वह असुरकुमारपर्याय में था, तब) अनन्त वेदनासमुद्घात अतीत हुए हैं तथा इसी अवस्था में भावी वेदनासमुद्घात किसी के होते हैं, किसी के नहीं होते। जिसके होते हैं, उसके जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात या अनन्त भावी वेदनासमुद्घात होते हैं। इनमें से जो असुरकुमार संख्यातवार, असंख्यातवार या अनन्तवार पुनः-पुनः असुरकुमाररूप में उत्पन्न होगा, उसके भावी वेदनासमुद्घात क्रमशः संख्यात, असंख्यात या अनन्त होंगे। ___ जैसे असुरकुमार के असुरकुमारावस्था में वेदनंसमुद्घात कहे हैं, उसी प्रकार असुरकुमार के नागकुमारावस्था में भी यावत् वैमानिक अवस्था में अनन्त वेदनासमुद्घात अतीत हुए हैं । भावी समुद्घात किसी के होते है, किसी के नहीं होते। जिसके होते हैं, उसके जघन्य एक, दो या तीन तथा उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात या अनन्त होते हैं। युक्ति पूर्ववत् समझनी चाहिए। जिस प्रकार असुरकुमार के नारक अवस्था से लेकर वैमानिक अवस्था तक में वेदनासमुद्घात का प्रतिपादन किया गया है, उसी प्रकार नागकुमार आदि के वेदनासमुद्घात का प्ररूपण भी समझ लेना चाहिए। तात्पर्य यह है कि असुरकुमार के असुरकुमाररूप स्वस्थान में कितने अतीत-अनागत वेदनासमुद्घात हैं ? इस विषय में जैसे ऊपर बतलाया गया है, उसी प्रकार नागकुमार आदि से लेकर वैमानिकों तक भी स्वस्थानों में वेदनासमघात समझ लेने चाहिए। इस प्रकार चौवीस दण्डकों में से प्रत्येक दण्डक का २४ दण्डकों को लेकर कथन करने पर १०५६ आलापक होते हैं, क्योंकि २४ को २४ से गुणा करने पर १०५६ संख्या होती है। कषायसमुद्घात-एक-एक नारक के नारकावस्था में अनन्त कषायसमुद्घात सम्पूर्ण अतीतकाल की अपेक्षा से व्यतीत हुए हैं तथा भावी कषायसमुद्घात किसी के होते हैं, किसी के नहीं। जिसके होता है, उसके जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात या अनन्त हैं। प्रश्न के समय में जो नारक अपने भव के अन्तिम काल में वर्तमान है, वह अपनी नरकायु का क्षय करके कषायसमुद्घात किये बिना ही नरकभव से निकलकर अनन्तर मनुष्यभव या परम्पर से मनुष्यभव पाकर मोक्ष प्राप्त करेगा, अर्थात् पुनः कदापि नारकभव में नहीं आएगा, उस नारक के नारकपर्यायसम्बन्धी भावी कषायसमुद्घात नहीं है। जो नारक ऐसा नहीं है, अर्थात् जिसे नरकभव में दीर्घकाल तक रहना है, अथवा जो पुनः कभी नरकभव को प्राप्त करेगा, उसके भावी कषायसमुद्घात होते हैं। उनमें भी जिनकी लम्बी नरकायु व्यतीत हो चुकी है, केवल थोडी-सी शेष है, उनके एक, दो या तीन कषायसमुद्घात होते हैं, किन्तु जिनकी आयु संख्यातवर्ष की या असंख्यातवर्ष की शेष है, या जो पुन: नरकभव में उत्पन्न होने वाले हैं, उनके क्रमशः संख्यात, असंख्यात या अनन्त भावी कषायसमुद्घात समझने चाहिए। एक-एक नारक के असुरकुमारपर्याय में अनन्त कषायसमुद्घात अतीत हुए हैं। जो नारक भविष्य में असुरकुमार में उत्पन्न होगा, उस नारक के असुरकुमारपर्याय सम्बन्धी भावी कषायसमुद्घात है और जो नहीं उत्पन्न होगा, उसके नहीं है। जिसके है, उसके कदाचित् संख्यात, असंख्यात या अनन्त भावी कषायसमुद्घात होते हैं। जो १. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि. रा. कोष, भा. ७, पृ. ४४० Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ छत्तीसवाँ समुद्घातपद ] [ २४७ नारक भविष्य में जघन्य स्थिति वाला असुरकुमार होगा, उसकी अपेक्षा से संख्यात कषायसमुद्घात जानने चाहिए, क्योंकि जघन्य स्थिति में संख्यात समुद्घात ही होते हैं, इसका कारण यह है कि उसमें लोभादि कषाय का बाहुल्य पाया जाता है। असंख्यात कषायसमुद्घात उस असुरकुमार की अपेक्षा से कहे हैं, जो एक बार दीर्घकालिक रूप में अथवा कई बार जघन्य स्थिति के रूप में उत्पन्न होगा। जो नारक भविष्य में अनन्तबार असुरकुमारपर्याय में उत्पन्न होगा, उसकी अपेक्षा से अनन्त कषायसमुद्घात समझना चाहिए। जैसे नारक के असुरकुमारपने में भावी कषायसमुद्घात कहे हैं, वैसे ही नागकुमार से स्तनितकुमारपर्याय तक में अनन्त अतीत कषायसमुद्घात कहने चाहिए । भावी जिसके हो, उसके जघन्य संख्यात उत्कृष्ट असंख्यात या अनन्त समझने चाहिए । नारक के पृथ्वीकायिकपर्याय में अतीत कषायसमुद्घात अनन्त हैं तथा भावी कषायसमुद्घात किसी के हैं, किसी के नहीं हैं। पूर्ववत् एक से लगाकर हैं। अर्थात् जघन्य एक, दो या तीन हैं और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात या अनन्त हैं। जो नारक नरक से निकल कर पृथ्वीकायिक होगा, उसके इस प्रकार से भावी कषायसमुद्घात होंगे, यथा- जो पंचेन्द्रियतिर्यञ्च भव से, मनुष्यभव से अथवा देवभव से कषायसमुद्घात को प्राप्त होकर एक ही बार पृथ्वी कायिकभव में गमन करेगा, उसका एक, दो बार गमन करने वाले के दो, तीन बार गमन करने वाले के तीन, संख्यात बार जाने वाले के संख्यात, असंख्यात बार गमन करने वाले के असंख्यात और अनन्त बार गमन करने वाले के अनन्त भावी कषायसमुद्घात समझने चाहिए। जो नारक नारकभव से निकल कर पुनः कभी पृथ्वीकायिक का भव ग्रहण नहीं करेगा, उसके भावी कषायसमुद्घात नहीं होते । जैसे नारक के पृथ्वीकायिकरूप में कषायसमुद्घात कहे, उसी प्रकार नारक के अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रियतिर्यञ्च और मनुष्य के रूप में अतीत कषायसमुद्घात अनन्त होते हैं। भावी कषायसमुद्घात किसी के होते हैं, किसी के नहीं होते हैं । युक्ति पूर्ववत् है । जिसके होते हैं, उसके जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात या अनन्त होते हैं । नारक के असुरकुमारपर्याय में जैसे अतीत- अनागत कषायसमुद्घातों का प्रतिपादन किया है, वैसे ही यहाँ (वाणव्यन्तर-अवस्था में) कहना चाहिए। नारक के ज्योतिष्क और वैमानिक पर्याय में अतीत कषायसमुद्घात अनन्त हैं और भावी कषायसमुद्घात किसी के होते हैं, किसी के नहीं होते हैं। जिसके होते हैं, उसके कदाचित् असंख्यात और कदाचित् अनन्त होते हैं । यहां तक नारक जीव के चौवीस दण्डकों के रूप में अतीत और उनागत काल की अपेक्षा से कषायसमुद्घात का निरूपण किया गया। असुरकुमार के नारकपने में सकल अतीतकाल की अपेक्षा अतीत कषायसमुद्घात अनन्त हैं, भावी कषायसमुद्घात किसी के होते है, किसी के नहीं होते। जिस असुरकुमार को नारकरूप में भावी कषायसमुद्घात हैं, उसके कदाचित् संख्यात, कदाचित् असंख्यात और कदाचित् अनन्त हैं । असुरकुमार के असुरकुमाररूप में अतीत कषायसमुद्घात अनन्त हैं। वर्तमान में जो जीव असुरकुमारपर्याय में है, वह भूतकाल में असुरकुमारपर्याय में अनन्तबार कषायसमुद्घात कर चुका है। भावी कषायसमुद्घात किसी के होते हैं, किसी के नहीं होते हैं। जिसके होते हैं, उसके जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त कहने Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८] [ प्रज्ञापनासूत्र ] चाहिए। इसी प्रकार नागकुमारपर्याय में चावत् लगातार वैमानिकपर्याय में जैसे नारक के कषायसमुद्घात कहे हैं, वैसे ही असुरकुमार के भी कहने चाहिए। असुरकुमार के अतीत और भावी कषायसमुद्घात के समान नागकुमार से लेकर स्तनितकुमार तक भी नारकपने से लेकर वैमानिकपने तक चौवीस दण्डकों में अतीत और भावी कषायसमुद्घात जानने चाहिए। विशेष यह है कि इन सबके स्वस्थानों में भावी कषायसमुद्घात जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त कहने चाहिए। उदाहारणार्थ - असुरकुमारों का असुरकुमारपर्याय और नागकुमारों का नागकुमारपर्याय स्वस्थान है। शेष तेईस दण्डक परस्थान हैं। पृथ्वीकायिक के असुरकुमारपर्याय में यावत् स्तनितकुमारपर्याय में सकल अतीतकाल की अपेक्षा से अतीत कषायसमुद्घात अनन्त हैं। भावी कषायसमुद्घात किसी के होते हैं, किसी के नहीं होते हैं। जिसके होते हैं, उसके कदाचित् संख्यात, कदाचित् असंख्यात और कदाचित् अनन्त होते हैं । पृथ्वीकायिक के पृथ्वीकायिक पर्याय में यावत् अप्कायिकत्व, तेजस्कायिकत्व, वायुकायिकत्व, वनस्पतिकायिकत्व से मनुष्यपर्याय तक में अतीत कषायसमुद्घात अनन्त हैं । भावी कषायसमुद्घात किसी के होते हैं, किसी के नहीं। जिसके होते हैं, उसके जघन्य एक, दो या तीन होते हैं और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त हैं । पृथ्वीकायिक के वाणव्यन्तरपन में अतीत और अनागत कषायसमुद्घात उतने ही समझने चाहिए, जितने नारकपन में कहे हैं। ज्योतिष्क और वैमानिक पर्याय में अतीत कषायसमुद्घात अनन्त होते है तथा भावी किसी के होते हैं और किसी के नहीं होते हैं। जिस पृथ्वीकायिक के होते हैं, उसके जघन्य असंख्यात और उत्कृष्ट अनन्त होते हैं। पृथ्वीकायिक की तरह यावत् अप्कायिक के नारकपन में भवनवासीपन में, एकेन्द्रियपन में, विकलेन्द्रियपन में, पंचेंन्द्रियतिर्यञ्चपन में और मनुष्यपन में भी जान लेना चाहिए। वाणव्यन्तरों, ज्योतिष्कों और वैमानिकों की कषायसमुद्घातसम्बन्धी वक्तव्यता असुरकुमारों के समान समझनी चाहिए । विशेषता यही है कि स्वस्थान में सर्वत्र एक से लेकर कहना चाहिए। अर्थात् किसी के होते हैं, किसी के नहीं होते हैं। जिसके होते हैं, उसके जघन्य एक, दो अथवा तीन होते हैं और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त होते हैं। इसी प्रकार तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रियतिर्यञ्च से लेकर वैमानिकपर्यन्त के नारक पन से लेकर यावत् वैमानिकपन तक में अतीत कषायसमुद्घात अनन्त हैं और भावी कषायसमुद्घात जघन्य एक, दो या तीन हैं और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त हैं। इस प्रकार ये सब पूर्वोक्त चौवीसों दण्डक चौवीसों दण्डकों में घटाये जाते हैं। अतः सब मिलकर १०५६ दण्डक होते है । मारणान्तिकसमुद्घात स्वस्थान में और परस्थान में भी पूर्वोक्त एकोत्तरिका से समझने चाहिए। चौवी दण्डकों के वाच्य नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक के नारकपन आदि स्वस्थानों में और असुरकुमारपन आदि परस्थानों में अतीत मारणान्तिकसमुद्घात अनन्त हैं। तात्पर्य यह है कि नारक के स्वस्थान नारकपर्याय और परस्थान असुरकुमारादि पर्याय में अर्थात् वैमानिक तक के सभी स्थानों में अतीत मारणान्तिकसमुद्घात अनन्त होते हैं । भावी १ (क) अभि. रा. कोष. भा ७, पृ. ४४१ (ख) प्रज्ञापना (प्रमेयबोधिनी टीका), भा. ५ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [छत्तीसवाँ समुद्घातपद] [२४९ मारणान्तिकसमुद्घात किसी के होते हैं, किसी के नहीं होते हैं। जिसके होते हैं, उसके जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात और अनन्त होते हैं। जैसे नारक के नारकत्व आदि चौवीस स्व-परस्थानों में अतीत और अनागत मारणान्तिक समुद्घात का कथन किया है, उसी प्रकार असुरकुमारों से लेकर वैमानिकों तक चौवीस दण्डकों के क्रम से स्व-परस्थानों में, अतीतअनागत-कालिक मारणान्तिकसमुद्घात का प्ररूपण कर लेना चाहिए। इस प्रकार कुल मिलाकर ये १०५६ आलापक होते हैं। वैक्रियसमुद्घात का कथन पूर्णरूप से कषायसमुद्घात के समान ही समझना चाहिए। इसमें विशेष बात यह है कि जिस जीव में वैक्रियलब्धि न होने से वैक्रियसमुद्घात नहीं होता उसको वैक्रियसमुद्घात नहीं कहना चाहिए। जिन जीवों में वह सम्भव है, उन्हीं में कहना चाहिए। इस प्रकार वायुकायिकों के सिवाय पृथ्वीकायिक आदि चार एकेन्द्रियों और विकलेन्द्रियों में वैक्रियसमुद्घात नहीं कहना चाहिए, क्योंकि इनमें वैक्रियलब्धि नहीं होती। अतएव इनके अतिरिक्त नारकों, भवनपतियों, वायुकायिकों, पंचेन्द्रियतिर्यंचों, मनुष्यों, वाणव्यन्तरों, ज्योतिष्कों और वैमानिकों में वैक्रियसमुद्घात कहना चाहिए। इसी दृष्टि से यहां कहा गया है- एत्थ विचउवीसं चउवीसा दंडगा भाणियव्वा। वैक्रियसमुद्घात में भी चौवीसों दण्डकों की चौवीसों दण्डकों में प्ररूपणा करनी चाहिए। इस प्रकार कुल मिलाकर १०५६ आलापक होते हैं। तैजससमुद्घात की प्ररूपणा मारणान्तिकसमुद्घात के सदृश जानना चाहिए। किन्तु इसमें भी विशेषता यह है कि जिस जीव में तैजससमुद्घात हो, उसी का कथन करना चाहिए। जिसमें तैजससमुद्घात सम्भव ही न हो, उसका कथन नहीं करना चाहिए। नारकों, पृथ्वीकायिकादि पांच एकेन्द्रियों एवं विकलेन्द्रियों में तैजससमुद्घात सम्भव ही नहीं है, अतएव उनमें कथन नहीं करना चाहिए। पूर्वोक्त प्रकार से किसी दण्डक में विधिरूप से किसी में निषेधरूप से आलापक कहने से कुल १०५६ आलापक होते हैं । ये आलापक चौवीस दण्डकों के क्रम से चौवीसों दण्डकों के कथन के हैं। आहारकसमुद्घात-नारकों के नारकपर्याय में आहारकसमुद्घात सम्भव न होने से अतीत आहारकसमुद्घात नहीं होता। इसी प्रकार भावी आहारकसमुद्घात भी नहीं होता, क्योंकि नारकपर्याय में जीव को आहारकलब्धि नहीं हो सकती और उसके अभाव में आहारकसमुद्घात भी नहीं हो सकता। इसी प्रकार असुरकुमारादि भवनपतिपर्याय में, पृथ्वीकायिकादि, एकेन्द्रियपर्याय में, विकलेन्द्रियपर्याय, पंचेन्द्रियतिर्यञ्चपर्याय में तथा वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क, वैमानिक पर्याय में भी भावी आहारकसमुद्घात नहीं होते, क्योंकि इन सब पर्यायों में आहारकसमुद्घात का निषेध है। विशेष यह है कि जब कोई नारक पूर्वकाल में मनुष्यपर्याय में रहा, उस पर्याय की अपेक्षा किसी के आहारकसमुद्घात होते हैं, किसी के नहीं होते। जिसके होते हैं, उसके जघन्य एक या दो और उत्कृष्ट तीन होते हैं। १ (क) वही, भा. ५ (ख) प्रज्ञापना मलयवृत्ति, अभि.रा.कोष, भा. ७. पृ. ४४१ २ (क) अभि.रा.कोष. भा ७, पृ. ४४३ (ख) प्रज्ञापना (प्रमेयबोधिनी टीका), भा. ५ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५०] [ प्रज्ञापनासूत्र ] किसी नारक के मनुष्यपर्याय में भावी आहारकसमुद्घात किसी के होते हैं, किसी के नहीं होते। जिसके होते हैं, उसके जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट चार होते हैं। जिस प्रकार नारक के मनुष्यपर्याय में आहारकसमुद्घात कहे हैं, उसी प्रकार असुरकुमार आदि सभी जीवों के अतीत एवं भावी मनुष्यपर्याय में भी कहना चाहिए। किन्तु मनुष्यपर्याय में किसी मनुष्य के अतीत आहारकसमुद्घात होते हैं, किसी के नहीं होते हैं। जिसके होते हैं, उसके जघन्य एक, दो या तीन आहारकसमुद्घात होते हैं। अतीत आहारकसमुद्घात की तरह भावी आहारकसमुद्घात ' भी किसी के होते हैं, किसी के नहीं होते हैं। जिसके होते हैं, उसके जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट चार आहारकसमुद्घात होते हैं। इस प्रकार इन २४ दण्डकों में से प्रत्येक को चौबीस दण्डकों में क्रमश: घटित करके कहना चाहिए। ये सब मिलाकर १०५६ अलापक होते हैं। यह ध्यान रहे कि मनुष्य के सिवाय किसी में भी आहारकसमुद्घात नहीं होता । केवलिसमुद्घात - नारक के नारकपर्याय में अतीत अथवा अनागत केवलिसमुद्घात नहीं होता, क्योंकि नारक केवलिसमुद्घात कर ही नहीं सकता। इसी प्रकार यावत् वैमानिकपर्याय में वैमानिक के अतीत और अनागत केवलिसमुद्घात का अभाव है, क्योंकि इनमें केवलिसमुद्घात का होना कदापि सम्भव नहीं है। हाँ, नारक आदि के मनुष्यपर्याय में केवलिसमुद्घात होता है, किन्तु उसमें भी अतीत केवलिसमुद्घात नहीं होता । भावी केवलिसमुद्घात किसी नारक के मनुष्यपर्याय में होता है, किसी के नहीं होता। जिसके होता है, उसके एक ही होता है। मनुष्य के मनुष्यपर्याय में अतीत और भावी केवलिसमुद्घात किसी के होता है, किसी के नहीं होता। जिसके होता है, एक ही होता है। इस प्रकार मनुष्यपर्याय के सिवास सभी स्व-पर-स्थानों में केवलिसमुद्घात का अभाव कहना चाहिए। इस प्रकार इस केवलिसमुद्घात सम्बन्धी चौबीस दण्डकों में से प्रत्येक में चौबीस दण्डक घटित किए गए हैं। ये सब विधिनिषेध के कुल आलाप १०५६ हैं । चौबीस दण्डकों की चौवीस दण्डक-पर्यायों में बहुत्व की अपेक्षा से अतीतादि समुद्घात प्ररूपणा हैं ? २१२१. [ १ ] णेरइयाणं भंते! णंरइयत्ते केवतिया वेदणासमुग्धाया अतीया ? गोयमा ! अनंता । केवतिया पुरेक्खडा ? गोयमा! अणंता। एवं जाव वेमाणियत्ते । [२१२१-१ प्र.]भगवन्! (बहुत-से) नारकों के नारकपर्याय में रहते हुए कितने वेदनासमुद्घात अतीत हुए [२१२१-१ उ.] गौतम! वे अनन्त हुए हैं। [प्र.] भगवन्! (नारकों के) भावी (वेदनासमुद्घात) कितने होते हैं ? १. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि. रा. कोष, भा. ७, पृ. ४४३ २. अ. रा. कोष. भाग ७, पृ. ४४३ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [छत्तीसवाँ समुद्घातपद] [२५१ [उ.] गौतम! अनन्त होते हैं । इसी प्रकार वैमानिकपर्याय तक में (भी अतीत और अनागत अनन्त होते हैं।) [२] एवं सव्वजीवाणं भाणियव्वं जाव वेमाणियाणं वेमाणियत्ते। [२१२१-१] इसी प्रकार सर्व जीवों के (अतीत और अनागत वेदनासमुद्घात) यावत् वैमानिकों के वैमानिक पर्याय में (कहने चाहिए।) . २१२२. एवं जाव तेयगसमुग्घाओ। णवरं उवउजिऊण णेयव्वं जस्सऽत्थि वेउव्विय-तेयगा। __ [२१२२] इसी प्रकार तैजसमुद्घात पर्यन्त कहना चाहिए। विशेष उपयोग लगा कर समझ लेना चाहिए कि जिसके वैक्रिय और तैजसमुद्घात सम्भव हों, (उसी के कहना चाहिए।) २१२३ [१] णेरइयाणं भंते! णेरइयत्ते केवतिया आहारगसमुग्घाया अतीया? गोयमा! णत्थि। केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा! नत्थि। . [२१२३-१ प्र.] भगवन्! (बहुत) नारकों के नारकपर्याय में रहते हुए कितने आहारकसमुद्घात अतीत हुए [२१२३-१ उ.] गौतम! एक भी नहीं हुआ है। [प्र.] भगवन्! (नारकों के) भावी (आहारकसमुद्घात) कितने होते हैं ? [उ.] गौतम! नहीं होते। [२] एवं जाव वेमाणियत्ते। णवरं मणूसत्ते अतीया असंखेजा, पुरेक्खडा असंखेजा। [२१२३-२] इसी प्रकार यावत् वैमानिकपर्याय में (अतीत अनागत आहारकसमुद्घात का कथन करना चाहिए।) विशेष यह है कि मनुष्यपर्याय में असंख्यात अतीत और असंख्यात भावी (आहारकसमुद्घात होते हैं।) [३] एवं जाव वेमाणियाणं। णवरं वणस्सइकाइयाणं मणूसत्ते अतीया अणंता, पुरेक्खडा अणंता। मणूसाणं अतीया सिय संखेज्जा सिय असंखेजा, एवं पुरेक्खडा वि। सेसा सव्वे जहा णेरइया। [२१२३-१] इसी प्रकार यावत् वैमानिकों तक (कहना चाहिए।) विशेष यह है कि वनस्पतिकायिकों के मनुष्यपर्याय में अनन्त अतीत और अनन्त भावी (आहारकसमुद्घात) होते हैं। मनुष्यों के मनुष्यपर्याय में कदाचित् संख्यात और कदाचित् असंख्यात अतीत (आहारकसमुद्घात) होते हैं। इसी प्रकार भावी (आहारकसमुद्घात भी समझने चाहिए।) शेष सब नारकों के (कथन के) समान (समझना चाहिए)। [४] एवं एते चउवीसं चउवीसा दंडगा। [२१२३-४] इस प्रकार इन चौबीसों के चौबीस दण्डक होते हैं। २१२४. [१] णेरइयाणं भंते! णेरइयत्ते केवतिया केवलिसमुग्घाया अतीया? Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२] [प्रज्ञापनासूत्र] गोयमा! णत्थि। केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा! णत्थि। [२१२४-१ प्र.] भगवन्! नारकों के नारकपर्याय में रहते हुए कितने केवलिसमुद्घात अतीत हुए हैं ? [२१२४-१ उ.] गौतम! नहीं हुए हैं। [प्र.] भगवन् ! कितने भावी (केवलिसमुद्घात) होते हैं ? [उ.] गौतम! वे भी नहीं होते हैं। [२] एवं जाव वेमाणियत्ते। णवरं मणूसत्ते अतीता णत्थि, पुरेक्खडा असंखेजा। [२१२४-२] इसी प्रकार वैमानिकपर्याय पर्यन्त कहना चाहिए। विशेष यह है कि मनुष्यपर्याय में अतीत केवलिसमुद्घात) नहीं होते, किन्तु भावी असंख्यात होते हैं। [३] एवं जाव वेमाणिया। णवरं वणस्सइकाइयाणं मणूसत्ते अतीया णत्थि, पुरेक्खडा अणंता। पणूसाणं मणूसत्ते अतीया सिय अत्थि सिय णत्थि। जदि अत्थि जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं सयपुहत्तं। केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा! सिय संखेजा सिय असंखेजा। [२१२४-३] इसी प्रकार वैमानिकों तक (समझना चाहिए।) विशेष यह है कि वनस्पतिकायिकों के मनुष्यपर्याय में अतीत (केवलिसमुद्घात) नहीं होते। भावी अनन्त होते हैं। मनुष्यों के मनुष्यपर्याय में अतीत (केवलिसमुद्घात) कदाचित् होते हैं, कदाचित् नहीं होते। जिसके होते हैं, उसके जघन्य, एक, दो या तीन और उत्कृष्ट शत-पृथक्त्व होते [प्र.] भगवन् ! (मनुष्यों के) भावी (केवलिसमुद्घात) कितने होते हैं ? [उ.] गौतम ! वे कदाचित् संख्यात और कदाचित् असंख्यात होते हैं। [४] एवं एते चउवीसं चउवीसा दंडगा सव्वे पुच्छाए भाणियव्वा जाव वेमाणियाणं वेमाणियत्ते। [२१२४-४] इस प्रकार इन चौबीस दण्डकों में चौबीस दण्डक घटित करके पृच्छा के अनुसार वैमानिकों के वैमानिकपर्याय में, यहाँ तक कहने चाहिए। विवेचन-बहुत्व की अपेक्षा से अतीत-अनागत वेदनादिसमुद्घात निरूपण-इससे पूर्व एक-एक नैरयिक आदि के नैरयिकादि पर्याय में अतीत-अनागत वेदनादि समुद्घातों का निरूपण किया गया था। अब बहुत्व की अपेक्षा से नारकादि के उस-उस पर्याय में रहते हुए अतीत-अनागत वेदनादि समुद्घातों का निरूपण किया गया है। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [छत्तीसवाँ समुद्घातपद] [२५३ (१) वेदनादि पांच समुद्घात-नारकों के नारकपर्याय में रहते हुए अतीत वेदनासमुद्घात अनन्त हुए हैं, क्योंकि अनेक नारकों को अव्यवहारराशि से निकले अनन्तकाल व्यतीत हो चुका है। इसी प्रकार उनके भावी वेदनासमुद्घात भी अनन्त हैं, क्योंकि वर्तमानकाल में जो नारक हैं, उनमे से बहुत-से नारक अनन्तबार पुन: नरक में उत्पन्न होंगे। नारकों के नारकपर्याय में वेदनासमुद्घात कहे हैं, वैसे ही असुरकुमारादि भवनवासीपर्याय में, पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रियपर्याय में, विकलेन्द्रियपर्याय में, पंचेन्द्रियतिर्यञ्चपर्याय में, मनुष्यपर्याय में, वाणव्यन्तरपर्याय में ज्योतिष्कपर्याय में और वैमानिकपर्याय में, अर्थात् इन सभी पर्यायों में रहते हुए नारकों के अतीत और अनागत वेदनासमुद्घात अनन्त हैं। नारकों के समान नारकपर्याय से वैमानिकपर्याय तक में रहे हुए असुरकुमारादि भवनवासियों से लेकर वैमानिकों तक के अतीत-अनागत वेदनासमुद्घात का कथन करना चाहिए। अर्थात् नारकों के समान ही वैमानिकों तक सभी जीवों के स्वस्थान और परस्थान में (चौबीस दण्डकों में) अतीत और अनागत वेदनासमुद्घात कहने चाहिए। इस प्रकार बहुवचन सम्बन्धी वेदनासमुद्घात के आलापक भी कुल मिलाकर १०५६ होते हैं। वेदनासमुद्घात से समान अतीत और अनागत कषाय, मारणान्तिक, वैक्रिय और तैजस समुद्घात भी नारकों से लेकर वैमानिकों तक तथा नारकपर्याय से लेकर वैमानिकपर्याय तक चौबीस दण्डकों में कहना चाहिए। इस प्रकार कषायसमुद्घात आदि के भी प्रत्येक के १०५६ आलापक होते हैं। विशेष सूचना – उपयोग लगाकर अर्थात् ध्यान रखकर जो समुद्घात जिसमें (जहाँ) सम्भव है, उसमें (वहाँ) वे ही अतीत अनागत समुद्घात कहने चाहिए। इसका अर्थ यह हुआ कि जहाँ जिसमें जो समुद्घात सम्भव न हों, वहाँ उसमें वे समुद्घात नहीं कहने चाहिए। इसी का स्पष्टीकरण करते हुए कहा गया - उवउजिऊण णेयव्वं, जस्सऽत्थि वेउव्विय-तेयगा- अर्थात् जिन नारकादि में वैक्रिय और तैजस समुद्घात सम्भव हैं, उन्हीं में उनका कथन करना चाहिए। उनके अतिरिक्त पृथ्वीकायिकादि में नहीं कहना चाहिए, क्योंकि उनमें वे सम्भव नहीं हैं। अतीत और अनागत कषायसमुद्घात एवं मारणान्तिकसमुद्घात का कथन वेदनासमुद्घात की तरह सर्वत्र समानरूप से कहना चाहिए। - आहारकसमुद्घात - नारकों के नारक-अवस्था में अतीत और अनागत आहारकसमुद्घात नहीं होते हैं। इसका कारण यह है कि आहारकसमुद्घात आहरकशरीर से ही होता है और आहारकशरीर आहारकलब्धि की विद्यमानता में ही होता हैं। आहारकलब्धि चतुर्दशपूर्वधर मुनियों को ही प्राप्त होती है, चौदह पूर्वो का ज्ञान मनुष्यपर्याय में ही हो सकता है, अन्य पर्याय में नहीं। इस कारण मनुष्येतर पर्यायों में सर्वत्र अतीत अनागत आहारकसमुद्घात का अभाव है। जैसे नारकों के नारक पर्याय में आहारकसमुद्घात सम्भव नहीं है, उसी प्रकार नारकों के असुरकुमारादि भवनवासीपर्याय में, पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रियपर्याय में, विकलेन्द्रियपर्याय में, तिर्यञ्चपंचेन्द्रियपर्याय में, वाणव्यन्तर१. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका),भा. ५, पृ. ९९२-९९३ (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि.रा.कोष भा. ७, पृ. ४४४ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रज्ञापनासूत्र ] ज्योतिष्क-वैमानिकपर्याय में भी नारकों के अतीत और भावी आहारकसमुद्घात भी पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार नहीं २५४] हैं। विशेष - (नारकों के) मनुष्यपर्याय में अतीत और अनागत आहारकसमुद्घात असंख्यात हैं, क्योंकि पृच्छा के समय जो नारक विद्यमान हैं, उनमें से असंख्यात नारक ऐसे हैं, जिन्होंने पूर्वकाल में कभी-न-कभी मनुष्यपर्याय प्राप्त की थी, जो चौदह पूर्वों के ज्ञाता थे और जिन्होंने एक बार या दो-तीन बार आहारकसमुद्घात भी किया था। इस कारण नारकों के मनुष्यावस्था में असंख्यात अतीत आहारकसमुद्घात कहे गए हैं। इसी प्रकार पृच्छा के समय विद्यमान नारकों में से असंख्यात ऐसे हैं, जो नारक से निकल कर अनन्तरभव में या परम्परा से मनुष्यभव प्राप्त करके चौदह पूर्वों के धारक होंगे और आहारकलब्धि प्राप्त करके आहारकसमुद्घात करेंगे। इसी कारण नारकों के मनुष्यपर्याय में भावी समुद्घात असंख्यात कहे गए हैं। नारकों के समान असुरकुामरों से लेकर वैमानिकों तक चौबीसों दण्डकां के क्रम से स्व-पर-स्थानों में आहारकसमुद्घातों का (मनुष्यपर्याय को छोड़कर) निषेध करना चाहिए। विशेषता यह है कि वनस्पतिकायिकों के मनुष्यपर्याय में अतीत और अनागत आहारकसमुद्घात अनन्त कहना चाहिए, क्योंकि अनन्त जीव ऐसे हैं, जिन्होंने मनुष्यभव में चौदह पूर्वों का अध्ययन किया था और यथासम्भव एक, दो या तीन बार आहारकसमुद्घात भी किया था, किन्तु अब वे वनस्पतिकायिक अवस्था में हैं। अनन्त जीव ऐसे भी हैं, जो वनस्पतिकाय से निकल कर मनुष्यभव धारण कर भविष्य में आहारकसमुद्घात करेंगे। मनुष्यों के मनुष्यावस्था में पृच्छा समय से पूर्व अतीत समुद्घात कदाचित् संख्यात हैं और कदाचित् असंख्यात हैं। इसी प्रकार मनुष्यों के मनुष्यपर्याय में रहते हु भावी आहारकसमुद्घात कदाचित् असंख्यात होते हैं, क्योंकि वे पृच्छा के समय उत्कृष्टरूप से भी सबसे कम श्रेणी के असंख्यातवें भाग में रहे हुए आकाशप्रदेशों की राशि के बराबर हैं। इस कारण प्रश्न के समय कदाचित् असंख्यात समझना चाहिए तथा प्रत्येक ने यथासम्भव एक, दो या तीन बार आहारकसमुद्घात किया है, या करेंगे, इस दृष्टि से कदाचित् संख्यात भी हैं। मनुष्यों के अतिरिक्त शेष सब असुरकुमारों आदि का कथन नारकों के समान समझना चाहिए । इस प्रकार यहाँ चौबीसों दण्डकों में से प्रत्येक को चौबीस ही दण्डकों पर घटित करना चाहिए। सब मिलकर १०५६ आलापक होते हैं । केवलिसमुद्घात - नारकों के नारकपर्याय में अतीत और भावी केवलिसमुद्घात नहीं होता, क्योंकि केवलिसमुद्घात केवल मनुष्यावस्था में ही हो सकता हैं। मनुष्य के अतिरिक्त अन्य अवस्था में वह सम्भव ही नहीं है। जो जीव केवलिसमुद्घात कर चुका हो, वह संसार - परिभ्रमण नहीं करता, क्योकि केवलिसमुद्घात के पश्चात् अन्तर्मुहूर्त्त में ही नियम से मोक्ष प्राप्त हो जाता है। अतएव नारकों के मनुष्य से भिन्न अवस्था में अतीत और अनागत केवलिसमुद्घात ही नहीं है। इसी प्रकार असुरकुमारादि से लेकर (मनुष्यपर्याय के सिवाय) वैमानिक अवस्था में भी अतीत केवलिसमुद्घात नहीं हो सकता । अभिप्राय यह है कि जो मनुष्य केवलिसमुद्घात कर चुके हों, उनका १. (क) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि.रा.कोष भा. ७, पृ. ४४४ (ख) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ९९५ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [छत्तीसवाँ समुद्घातपद] [२५५ नरक में गमन नहीं होता। अतः मनुष्यावस्था में भी अतीत केवलिसमुद्घात सम्भव नहीं है। पृच्छा के समय में जो नारक विद्यमान हों, उनमें से असंख्यात ऐसे हैं, जो मोक्षगमन के योग्य हैं। इस दृष्टि से भावी केवलिसमुद्घात असंख्यात कहे गए हैं। इसी प्रकार असुरकुमार आदि भवनवासियों के पृथ्वीकायिक आदि चार एकेन्द्रियों (वनस्पतियों के सिवाय), तीन विकलेन्द्रियों, पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों, वाणव्यन्तरों, ज्योतिष्कों और वैमानिकों के भी मनुष्येतरपर्याय में अतीत अथवा अनागत केवलिसमुद्घात पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार नहीं हो सकते । वनस्पतिकायिकों के मनुष्यावस्था में अतीत केवलिसमुद्घात तो नहीं होते, क्योंकि केवलिसमुद्घात के पश्चात् उसी भव में मुक्ति प्राप्त हो जाती है, फिर वनस्पतिकायिकों में जन्म लेना सम्भव नहीं है, किन्तु भावी केवलिसमुद्घात अनन्त हैं। इसका कारण यह है कि पृच्छा के समय जो वनस्पतिकायिक जीव हैं, उनमें अनन्त जीव ऐसे भी हैं, जो वनस्पतकाय से निकल कर अनन्तरभव में या परम्परा से केवलिसमुद्घात करके सिद्धि प्राप्त करेंगे। ___ मनुष्यों के मनुष्यावस्था में अतीत केवलिसमुद्घात कदाचित् होता है, कदाचित् नहीं होता। जब कई मनुष्य केवलिसमुद्घात कर चुके हों और मुक्त हो चुके हों और अन्य किसी केवली ने केवलिसमुद्घात न किया हो, तब केवलिसमुद्घात का अभाव समझना चाहिए। जब मनुष्यों के मनुष्यपर्याय में केवलिसमुद्घात होते हैं तब जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट शत-पृथक्त्व (दो सौ से नौ सौ तक) होते हैं। ___ मनुष्यों के मनुष्यपर्याय में रहते हुए भावी केवलिसमुद्घात कदाचित् संख्यात और कदाचित् असंख्यात होते हैं। पृच्छा के समय में कदाचित् असंख्यात भी हो सकते हैं। इस प्रकार के चौवीस-चौवीस दण्डक हैं, जिनमें अतीत और अनागत केवलिसमुद्घातों का प्रतिपादन किया गया है। ये सब मिलकर १०५६ आलापक होते हैं । ये आलापक नैरयिकपर्याय के लेकर वैमानिकपर्याय तक स्वपरस्थानों में कहने चाहिए। विविध-समुद्घात-समवहत-असमवहत जीवादि के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा २१२५. एतेसि णं भंते! जीवाणं वेयणासमुग्याएणं कसायसमुग्घाएणं मारणंतियसमुग्घाएणं वेउब्वियसमुग्घाएणं आहारगसमुग्घाएणं केवलिसमुग्घाएणं समोहयाणं असमोहयाण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? . गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा आहारगसमुग्याएणं समोहया, केवलिसमुग्घाएणं समोहया, संखेजगुणा, तेयगसमुग्घाएणं समोहया असंखेजगुणा वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहया असंखेजगुणा, वेदणासमुग्घाएणं समोहया विसेसाहिया, असमोहया असंखेजगुणा। ___ [२१२५ प्र.] भगवन् ! इन वेदनासमुद्घात से, कषायसमुद्घात से, मारणान्तिकसमुद्घात से, वैक्रियसमुद्घात से, तैजससमुद्घात से, आहारकसमुद्घात से और केवलिसमुद्घात से समवहत एवं असमवहत (अर्थात् जो किसी भी समुद्घात से युक्त नहीं हैं - सर्वसमुद्घात से रहित) जीवों में कौन किससे अल्प, बहुत तुल्य अथवा १. (क) वही, भा. ५, पृ. ९९९ से १००१ (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि.रा.कोष. भा. ७, पृ. ४४४ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६] [प्रज्ञापनासूत्र] विशेषाधिक हैं? । [२१२५ उ.] गौतम ! सबसे कम आहारकसमुद्घात से समवहत जीव हैं, (उनसे) केवलिसमुद्घात से समवहत जीव संख्यातगुणा हैं, (उनसे ) तैजससमुद्घात से समवहत जीव असंख्यातगुणा हैं, (उनसे) वैक्रियसमुद्घात से समवहत जीव असंख्यातगुणा हैं, (उनसे) मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत जीव अनन्तगुणा हैं, (उनसे) कषायसमुद्घात से समवहत जीव असंख्यातगुणा हैं, (उनसे) वेदनासमुद्घात से समवहत जीव विशेषाधिक हैं और (इन सबसे) असमवहत जीव असंख्यातगुणा हैं। २१२६. एतेसि णं भंते ! णेरइयाणं वेदणासमुग्घाएणं कसायसमुग्घाएणं मारणंतियसमुग्घाएणं वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहयाणं असमोहयाणं य कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा णेरइया मारणंतियसमुग्घाएणं समोहया, वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहया असंखेजगुणा, कसायसमुग्घाएणं समोहया संखेजगुणा, वेदणासमुग्घाएणं समोहया संखेजगुणा, असमोहया संखेजगुणा। [२१२६ प्र.] भगवन् ! इन वेदनासमुद्घात से, कषायसमुद्घात से, मारणान्तिकसमुद्घात से एवं वैक्रियसमुद्घात से समवहत और असमवहत नैरयिकों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? ___[२१२६ उ.] गौतम ! सबसे कम मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत नैरयिक हैं, (उनसे ) वैक्रियसमुद्घात से समवहत नैरयिक असंख्यातगुणा हैं, (उनसे) कषायसमुद्घात से समवहत नैरयिक संख्यातगुणा हैं, (उनसे) वेदनासमुद्घात से समवहत नारक संख्यातगुणा हैं और (इन सबसे) असमवहत नारक संख्यातगुणा हैं। . २१२७.[१] एतेसिणं भंते! असुरकुमाराणं वेदणासमुग्घाएणं कसायसमुग्घाएणं मारणंतियसमुग्घाएणं वेउब्वियसमुग्घाएणं तेयगसमुग्घाएणं समोहयाणं असमोहयाण य कतरे कतरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवा असुरकुामरा तेयगसमुग्घाएणं समोहया, मारणंतियसमुग्धाएणं समोहया असंखेज्जगुणा, वेयणासमुग्घाएणं समोहया असंखेजगुणा, कसायसमुग्घाएणं समोहया संखेजगुणा, वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहया संखेजगुणा, असमोहया असंखेजगुणा। [२१२७-१ प्र.] भगवन् ! इन वेदनासमुद्घात से, कषायसमुद्घात से, मारणान्तिकसमुद्घात से, वैक्रियसमुद्घात से तथा तैजससमुद्घात से समवहत एवं असमवहत असुरकुमारों में से कौन किससे अल्प बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं? [२१२७-१ उ.] गौतम! सबसे कम तैजससमुद्घात से समवहत असुरकुमार हैं, (उनसे) मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत असुरकुमार असंख्यातगुणा हैं, (उनसे) वेदनासमुद्घात से समवहत असुरकुमार असंख्यातगुणा हैं, (उनसे) कषायसमुद्घात से समवहत असुरकुमार संख्यातगुणा हैं, (उनसे) वैक्रियसमुद्घात से समवहत असुरकुमार संख्यातगुणा हैं और (इन सबसे) असंख्यातगुणा अधिक हैं-असमवहत असुरकुमार। Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [छत्तीसवाँ समुद्घातपद] [२५७ [२] एवं जाव थणियकुमारा। [२१२७-२] इसी प्रकार (का कथन नागकुमार से लेकर) स्तनितकुमारों तक जानना चाहिए। २१२८. [१] एतेसि णं भंते! पुढविक्काइयाणं वेदणासमुग्घाएणं कसायसमुग्घाएणं मारणंतियसमुग्घाएणं समोहयाणं असमोहयाण य कयरे० ? गोयमा! सव्वत्थोवा पुढविक्काइया मारणंतियसमुग्घाएणं समोहया, कसायसमुग्घाएणं समोहया संखेजगुणा, वेदणासमुग्घाएणं समोहया विसेसाहिया, असमोहया असंखेजगुणा। [२१२८-१ प्र.] भगवन् ! इन वेदनासमुद्घात से, कषायसमुद्घात से एवं मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत तथा असमवहत पृथ्वीकायिकों मे कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [२१२८-१ उ.] गौतम! सबसे कम मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत पृथ्वीकायिक हैं, उनसे कषायसमुद्घात से समवहत पृथ्वीकायिक संख्यातगुणा हैं, उनसे वेदनासमुद्घात से समवहत पृथ्वीकायिक विशेषाधिक हैं और इन सबसे असमवहत पृथ्वीकायिक असंख्यातगुणा हैं। [२] एवं जाव वणस्सइकाइया। णवरं सव्वत्थोवा वाउक्काइया वेउव्विसमुग्घाएणं समोहया, मारणंतियसमुग्घाएणं समोहया असंखेजगुणा, कसायसमुग्घाएणं समोहया असंखेजगुणा, वेदणासमुग्घाएणं समोहया विसेसाहिया, असमोहया असंखेज्जगुणा। [२१२८-२] इसी प्रकार (अप्कायिक से लेकर) वनस्पतिकायिक तक पृथ्वीकायिकवत् समझना चाहिए। विशेष यह है कि वायुकायिक जीवों में सबसे कम वैक्रियसमुद्घात से समवहत वायुकायिक हैं, उनसे मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत वायुकायिक असंख्यातगुणा हैं, उनसे कषायसमुद्घात से समवहत वायुकायिक असंख्यातगुणा हैं और उनसे वेदनासमुद्घात से समवहत वायुकायिक विशेषाधिक हैं तथा (इन सबसे) असंख्यातगुणा अधिक हैं असमवहत वायुकायिक जीव। २१२९. [१] बेइंदियाणं भंते! वेयणासमुग्घाएणं कसायसमुग्घाएणं मारणंतियसमुग्घाएणं समोहयाणं असमोहयाण य कतरेहिंतो अप्पा वा ४? गोयमा! सव्वत्थोवा बेइंदिया मारणंतियसमुग्घाएणं समोहया, वेदणासमुग्घाएणं समोहया असंखेजगुणा, कसायसमुग्घाएणं समोहया संखेजगुणा, असमोहया संखेजगुणा। [२१२९-१ प्र.] भगवन् ! इन वेदनासमुद्घात से, कषायसमुद्घात से तथा मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत एवं असमवहत द्वीन्द्रिय जीवों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [२१२९-१ उ.] गौतम ! सबसे कम मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत द्वीन्द्रिय जीव हैं। उनसे वेदनासमुद्घात से समवहत द्वीन्द्रिय असंख्यातगुणा हैं, उनसे कषायसमुद्घात से समवहत द्वीन्द्रिय संख्यातगुणा और इन सबसे असमवहत द्वीन्द्रिय संख्यातगुणा अधिक हैं। [२] एवं जाव चउरिं दिया। Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८] [प्रज्ञापनासूत्र] [२१२९-२] इसी प्रकार (त्रीन्द्रिय और) यावत् चतुरिन्द्रिय तक (का अल्पबहुत्व जानना चाहिए)। ___२१३०. पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते! वेदणासमुग्घाएणं कसायसमुग्घाएणं मारणंतियसमुग्घाएणं वेउव्वियसमुग्घाएणं तेयासमुग्घाणं समोहयाणं असमोहयाण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा ४ ? गोयमा ! सव्वत्थोवा पंचेंदियतिरिक्खजोणिया तेयासमुग्घाएणं समोहया, वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहया असंखेजगुणा, मारणंतियसमुग्घाएणं समोहया असंखेज्जगुणा, वेदणासमुग्घाएणं समोहया असंखेन्जगुणा, कसायसमुग्घाएणं समोहया संखेज्जगुणा, असमोहंया संखेजगुणा। [२१३० प्र.] भगवन् ! वेदनासमुद्घात से, कषायसमुद्घात से, मारणान्तिकसमुद्घात से, वैक्रियसमुद्घात से तथा तैजससमुद्घात से समवहत एवं असमवहत पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक होते हैं? [२१३० उ.] गौतम! सबसे कम तैजससमुद्घात से समवहत पंचेन्द्रियतिर्यञ्च हैं, उनसे वैक्रियसमुद्घात से समवहत पंचेन्द्रियतिर्यञ्च असंख्यातगुणा हैं, उनसे मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत पंचेन्द्रियतिर्यञ्च असंख्यातगुणा हैं, उनसे वेदनासमुद्घात से समवहत पंचेन्द्रियतिर्यञ्च असंख्यातगुणा हैं तथा उनसे कषायसमुद्घात से समवहत पंचेन्द्रियतिर्यञ्च संख्यातगुणा हैं और इन सबसे संख्यातगुणा अधिक हैं, असमवहत पंचेन्द्रियतिर्यञ्च। २१३१. मणुस्साणं भंते! वेदणासमुग्घाएणं कसायसमुग्घाएणं मारणंतियसमुग्याएणं वेउव्वियसमुग्धाएणं तेयगसमुग्घाएणं आहारगसमुग्घाएणं केवलिसमुग्घाएणं समोहयाणं असमोहयाण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा ४? गोयमा ! सव्वत्थोवा मणूसा आहारगसमुग्घाएणं समोहया, केवलिसमुग्घाणं समोहया संखेजगुणा, तेयगसमुग्घाएणं समोहया संखेजगुणा, वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहया संखेन्जगुणा, मारणंतियसमुग्घाएणं समोहया असंखेन्जगुणा, वेयणासमुग्घाएणं समोहया असंखेज्जगुणा, कसायसमुग्घाएणं समोहया संखेजगुणा, असमोहया असंखेजगुणा। [२१३१ प्र.] भगवन् ! वेदनासमुद्घात से, कषायसमुद्घात से, मारणान्तिकसमुद्घात से, वैक्रियसमुद्घात से, तैजससमुद्घात से, आहारकसमुद्घात से तथा केवलिसमुद्घात से समवहत एवं असमवहत मनुष्यों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [२१३१ उ.] गौतम! सबसे कम आहारकसमुद्घात से समवहत मनुष्य हैं, उनसे केवलिसमुद्घात से समवहत मनुष्य संख्यातगुणा हैं, उनसे तैजससमुद्घात से समवहत मनुष्य संख्यातगुणा हैं, उनसे वैक्रियसमुद्घात से समवहत मनुष्य संख्यातगुणा हैं, उनसे मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत मनुष्य असंख्यातगुणा हैं, उनसे वेदनासमुद्घात से समवहत मनुष्य असंख्यातगुणा हैं तथा उनसे कषायसमुद्घात से समवहत मनुष्य संख्यातगुणा हैं और इन सबसे असमवहत मनुष्य असंख्यातगुणा हैं। Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [छत्तीसवाँ समुद्घातपद] [२५९ २१३२. वाणव्यन्तर-जोतिसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा। [२१३२] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों के (समुद्घात विषयक अल्पबहुत्व की वक्तव्यता) असुरकुमारों के समान (समझनी चाहिए।) विवेचन - समवहत जीवों की न्यूनाधिकता का कारण - आहारकसमुद्घात किए हुए जीव सबसे कम इसलिए हैं कि लोक में आहारकशरीरधारकों का विरहकाल छह मास का बताया गया है। अतएव किसी समय नहीं भी होते हैं । जब होते हैं, तब भी जघन्य एक, दो अथवा तीन और उत्कृष्ट सहस्रपृथक्त्व (दो हजार से नौ हजार तक) ही होते हैं। फिर आहारकसमुद्घात आहारकशरीर के प्रारम्भकाल में ही होता है, अन्य समय में नहीं, इस कारण आहारकसमुद्घात से समवहत जीव भी थोड़े ही कहे गए हैं। आहारकसमुद्घात वालों की अपेक्षा केवलिसमुद्घात से समवहत जीव संख्यातगुणा अधिक हैं, क्योंकि वे एक साथ शतपृथक्त्व की संख्या में उपलब्ध होते हैं। ___ उनकी अपेक्षा वैक्रियसमुद्घात समवहत जीव असंख्यातगुणा होते हैं, क्योंकि वैक्रियसमुद्घात नारकों, वायुकायिकों, तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों, मनुष्यों और देवों में भी पाया जाता है। वैक्रियलब्धि से युक्त वायुकायिकजीव देवों से भी असंख्यातगुणा हैं और बादरपर्याय वायुकायिक स्थलचर पंचेन्द्रियों की अपेक्षा भी असंख्यातगुणा हैं, स्थलचरपंचेन्द्रिय, देवों से भी असंख्यात गुणा हैं। इस कारण तैजससमुद्घात समवहत जीवों की अपेक्षा वैक्रियसमुद्घात से समवहत जीव असंख्यातगुणे अधिक समझने चाहिए। वैक्रियसमुद्घात से समवहत जीवों की अपेक्षा मारणान्तिकसमुद्घात वाले जीव अनन्तगुणा हैं, क्योंकि निगोद के अनन्तजीवों का असंख्यातवाँ भाग सदा विग्रहगति की अवस्था में रहता है और वे प्रायः मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत होते हैं। इनसे कषायसमुद्घात समवहत जीव असंख्यातगुणा हैं, क्योंकि विग्रहगति को प्राप्त अनन्त निगोदजीवों की अपेक्षा भी असंख्यातगुणा अधिक निगोदिया जीव सदैव कषायसमुद्घात से युक्त उपलब्ध होते हैं । इनसे वेदनासमुद्घात से समवहत जीव विशेषाधिक हैं, क्योंकि कषायसमुद्घात समवहत उन अनन्त निगोदजीवों से वेदनासमुद्घातसमवहत जीव कुछ अधिक ही होते हैं। वेदनासमुद्घात-समवहत जीवों की अपेक्षा असमवहत (अर्थात् जो किसी भी समुद्घात से युक्त नहीं हों, ऐसे समुद्घात रहित जीव) असंख्यातगुणा होते हैं, क्योंकि वेदना, कषाय और मारणान्तिक समुद्घात से समवहत जीवों की अपेक्षा समुद्घात रहित) अकेले निगोदजीव ही असंख्यातगुणा अधिक पाए जाते हैं।' नारकों में समुद्घातजनित अल्पबहुत्व - सबसे कम मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत नारक हैं, क्योंकि मारणान्तिकसमुद्घात मरण के समय ही होता हैं और मरने वाले नारकों की संख्या, जीवित नारकों की अपेक्षा अल्प १. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. १०१४ से १०१६ तक (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि.रा.कोष, भा. ७, पृ. ४४६ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६०] [प्रज्ञापनासूत्र] ही होती है। मरने वालों में भी मारणान्तिकसमुद्घात वाले नारक अत्यल्प ही होते हैं, सब नहीं होते। अत: मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत जीव सबसे कम होते हैं। उनसे वैक्रियसमुद्घात से समवहत नारक असंख्यातगुणा अधिक हैं, क्योंकि रत्नप्रभा आदि सातों नरकपृथ्वियों में से प्रत्येक में बहुत-से नारक परस्पर वेदना उत्पन्न करने के लिए निरन्तर उत्तरवैक्रिय करते रहते हैं । वैक्रियसमुद्घात समवहत नारकों की अपेक्षा कषायसमुद्घात वाले नारक असंख्यातगुणा अधिक होते हैं, क्योंकि वे परस्पर क्रोधादि से सदैव ग्रस्त रहते हैं। कषायसमुद्घात से समवहत नारकों की अपेक्षा वेदनासमुद्घात से समवहत नारक संख्यातगुणा अधिक होते हैं, क्योंकि यथासम्भव क्षेत्रजन्य वेदना, परमाधार्मिकों द्वारा उत्पन्न की हुई और परस्पर उत्पन्न की हुई वेदना के कारण प्रायः बहुत-से नारक सदा वेदनासमुद्घात से समवहत रहते हैं। इनकी अपेक्षा भी असमवहत नारक संख्यातगणा अधिक हैं, क्योंकि बहत-से नारक वेदनासमदघात के बिना भी वेदना का वेदन करते हैं। इस अपेक्षा से असमवहत नारक सर्वाधिक हैं।' असुरकुमारादि भवनवासियों में समुद्घात की अपेक्षा अल्पबहुत्व- सबसे कम तैजससमुद्घात वाले हैं, क्योंकि अत्यन्त तीव्र क्रोध उत्पन्न होने पर ही कदाचित कोई असुरकुमार तैजससमुद्घात करते हैं। उनकी अपेक्षा मारणान्तिकसमुद्घात वाले असुरकुमारादि असंख्यातगुणा अधिक हैं, क्योंकि मारणान्तिकसमुद्घात मरणकाल में होता है। उनकी अपेक्षा वेदनासमुद्घातसमवहत असुरकुमारादि असंख्यातगुणा हैं, क्योंकि पारस्परिक संग्राम आदि किसी न किसी कारण से बहुत-से असुरकुमार वेदनासमुद्घात करते हैं। उनकी अपेक्षा कषायसमुद्घात और वैक्रियसमुद्घात से समवहत असुरकुमारादि क्रमश: उत्तरोत्तर संख्यातगुणा अधिक होते हैं। उनसे भी असमवहत असुरकुमारादि असंख्यातगुणा हैं। असुरकुमारों के समान ही नागकुमार आदि स्तनितकुमार पर्यन्त भवनवासी देवों का कथन समझना चाहिए। ___ पृथ्वीकायिकादि चार एकेन्द्रियों का समुद्घात की अपेक्षा अल्पबहुत्व - सबसे कम मारणान्तिक समद्घात-समवहत पृथ्वी-कायादि (वायुकाय को छोड़कर) चार हैं, क्योंकि यह समद्घात मरण के समय ही होता है और वह भी किसी को होता है किसी को नहीं। उनकी अपेक्षा कषायसमुद्घात से समवहत पृथ्वीकायिक पूर्वोक्त युक्तिवश पूर्ववत् ही समझ लेना चाहिए। उनकी अपेक्षा वेदनासमुद्घात से समवहत पृथ्वीकायिक विशेषाधिक हैं और उनकी अपेक्षा असमवहत पृथ्वीकायिकादि असंख्यातगुणा अधिक हैं। वायुकायिकों में समुद्घात की अपेक्षा अल्पबहुत्व - सबसे कम वैक्रियसमुद्घात से समवहत वायुकायिक हैं । क्योंकि वैक्रियलब्धि वाले वायुकायिक अत्यल्प ही होते हैं । उनसे मारणान्तिकसमुद्घात-समवहत वायुकायिक असंख्यात गुणा हैं, क्योंकि मारणान्तिकसमुद्घात पर्याप्त, अपर्याप्त, बादर एवं सूक्ष्म सभी वायुकायिकों में हो सकता हैं। उनकी अपेक्षा कषायसमुद्घात से समवहत वायुकायिक असंख्यातगुणा होते हैं, उनसे वेदनासमुद्घात-समवहत १. (क) वही, मलयवृत्ति अ.रा.कोष भा. ७, पृ. ४४६ (ख) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. १०१७ से १०१९ तक २. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अ.रा.कोष भा. ७, पृ. ४४६ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [छत्तीसवाँ समुद्घातपद] [२६१ वायुकायिक विशेषाधिक होते हैं, इन सबसे असमवहत वायुकायिक असंख्यात गुणा अधिक होते हैं, क्योंकि सकलसमुद्घातों वाले वायुकायिकों की अपेक्षा स्वभावस्थ वायुकायिक स्वभावतः असंख्यातगुणा पाये जाते हैं। द्वीन्द्रियादि विकलेन्द्रियों में सामुद्घातिक अल्पबहुत्व – सबसे कम मारणान्तिकसमुद्घातसमवहत द्वीन्द्रिय हैं, क्योंकि पृच्छासमय में प्रतिनियत द्वीन्द्रिय ही मारणान्तिकसमुद्घात-समवहत पाए जाते हैं। उनसे वेदनासमुद्घातसमवहत द्वीन्द्रिय असंख्यातगुणे हैं। क्योंकि सर्दी-गर्मी आदि के सम्पर्क से अत्यधिक द्वीन्द्रियों में वेदनासगुद्घात होता है। उनकी अपेक्षा कषायसमुद्घात से समवहत द्वीन्द्रिय संख्यातगुणे हैं, क्योंकि अत्यधिक द्वीन्द्रिय में लोभादि कषाय के कारण कषायसमुद्घात होता हैं। इन सबसे भी असमवहत द्वीन्द्रिय पूर्वोक्तयुक्ति से संख्यातगुणा हैं। द्वीन्द्रिय के समान त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय समवहत-असमवहत का अल्पबहुत्व समझ लेना चाहिए। ____पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में सामुद्घातिक अल्पबहुत्व - सबसे कम तैजससमुद्घात से समवहत पंचेन्द्रियतिर्यञ्च हैं, क्योंकि तेजोलब्धि बहुत थोड़ों में होती है। उनकी अपेक्षा वैक्रियसमुद्घात-समवहत पंचेन्द्रियतिर्यञ्च असंख्यातगुणा हैं, क्योंकि वैक्रियलब्धि अपेक्षाकृत बहुतों में होती है। उनसे मारणान्तिकसमुद्घात-समवहत असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि वैक्रियलब्धि से रहित सम्मूछिम जलचर, स्थलचर और खेचर, प्रत्येक में पूर्वोक्त वैक्रियसमुद्घातिकों की अपेक्षा मारणान्तिकसमुद्घात समवहत असंख्यातगुणे होते हैं। किन्हीं-किन्हीं वैक्रियलब्धि से रहित या सहित गर्भज तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय में भी मारणान्तिकसमुद्घात पाया जाता है। उनकी अपेक्षा भी वेदनासमुद्घात से समवहत तिर्यंचपंचेन्द्रिय असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि मरते हुए जीवों की अपेक्षा न मरते हुए असंख्यातगुणे हैं। उनकी अपेक्षा भी कषायसमुद्घात-समवहत पंचेन्द्रियतिर्यञ्च संख्यात गुणा हैं और इन सबकी अपेक्षा असमवहत पंचेन्द्रियतिर्यञ्च पूर्वोक्तयुक्ति से संख्यातगुणे हैं। मनुष्यों में वेदनादि-समुद्घात सम्बन्धी अल्पबहुत्व - सबसे कम आहारकसमुद्घात-समवहत मानव हैं, क्योंकि आहारकशरीर का प्रारम्भ करने वाले मनुष्य अत्यल्प ही होते हैं । केवलिसमुद्घात समवहत मनुष्य उनसे संख्यातगुणे अधिक हैं क्योंकि वे शतपृथक्त्व (दो सौ से नौ सौ तक) की संख्या में पाये जाते हैं। उनकी अपेक्षा तैजससमुद्घात-समवहत, वैक्रियसमुद्घात-समवहत एवं मारणान्तिक-समुद्घात-समवहत मनुष्य उत्तरोत्तर क्रमशः संख्यातगुणा, संख्यातगुणा और असंख्यातगुणा अधिक होते हैं, क्योंकि पूर्वोक्त दोनों की अपेक्षा मारणान्तिकसमुद्घातसमवहत मनुष्य इसलिये अधिक हैं कि वह सम्मूछिम-मनुष्यों में भी पाया जाता है। उनसे वेदनासमुद्घातसमवहत मनुष्य असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि म्रियमाण मनुष्यों की अपेक्षा अम्रियमाण संख्यातगुणा अधिक होते हैं और वेदनासमुद्घात अम्रियमाण मनुष्यों में भी होता है। उनकी अपेक्षा कषायसमुद्घात-समवहत मनुष्य संख्यातगुणे अधिक होते हैं और इन सबसे असमवहत (समुद्घातों से रहित) मनुष्य असंख्यातगुणा अधिक होते हैं, क्योंकि १. (क) वही, मलयवृत्ति अ.रा.कोष भा. ७, पृ. ४४६ (ख) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. १९२१ से १९२३ तक २. (क) वही, भा. ५, पृ. १९२३-१९२४ (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि.रा.कोष, भा. ७, पृ. ४४७ ३. (क) अभि. रा.कोष भा. ७, पृ. ४४७ (ख) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. १९२५ से १९२७ तक Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२] [ प्रज्ञापनासूत्र ] अल्पकषायवाले सम्मूर्च्छिम मनुष्य, उत्कट कषायवालों से सदा असंख्यातगुणा होते हैं । वाणव्यन्तरों, ज्योतिष्कों और वैमानिकों में सामुद्घातिक अल्पबहुत्व की वक्तव्यता असुरकुमारों के समान समझनी चाहिए। २१३३. कति णं भंते! कसायसमुग्धाया पण्णत्ता ? - गोयमा ! चत्तारि कसायसमुग्धाया पण्णत्ता । तं जहा – कोहसमुग्धाए १ माणसमुग्धाए, २ मायासमुग्धाए ३ लोभसमुग्धा ४ । [२१३३ प्र.] भगवन्! कषायसमुद्घात कितने कहे हैं ? [२१३३ उ.] गौतम! कषायसमुद्घात चार कहे हैं, यथा (१) क्रोधसमुद्घात, (२) मानसमुद्घात (३) मायासमुद्घात और (४) लोभसमुद्घात । २१३४. [ १ ] णेरइयाणं भंते! कति कसायसमुग्घाया पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि कसायसमुग्धाया पण्णत्ता ? [२१३४-१ प्र.] भगवन्! नारकों के कितने कषायसमुद्घात कहे हैं ? [२१३४ उ.] गौतम! उनमें चारों कषायसमुद्घात कहे हैं । [२] एवं जाव वेमाणियाणं । [२१३४-२] इसी प्रकार (असुरकुमारों से लेकर) वैमानिकों तक (प्रत्येक दण्डक में चार-चार कषायसमुद्घात कहे गये हैं) । २१३५. [ १ ] एगमेगस्स णं भंते! णेरइयस्स केवइया कोहसमुग्धाया अतीता ? गोयमा ! अनंता । केवतिया पुरेक्खडा ? गोयमा ! कस्सइ अत्थि कस्सइ णत्थि, जस्सऽत्थि जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा । [२१३५-१ प्र.] भगवन् ! एक-एक नारक के कितने क्रोधसमुद्घात अतीत हुए हैं ? [२१३५-२ उ.] गौतम ! वे अनन्त हुए हैं। [प्र.] भगवन्! (उसके) भावी (क्रोधसमुद्घात) कितने होते हैं ? [उ.] गौतम ! ( भावी क्रोधसमुद्घात) किसी के होते हैं और किसी के नहीं होते हैं। जिसके होते हैं, उसके जघन्य एक, दो अथवा तीन और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त होते हैं । [२] एवं जाव वेमाणियस्स । १. (क) वही, भा. ५, पृ. १९२७ - १९२८ (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि. रा. कोष, भा. ७, पृ. ४४७ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२६३ [छत्तीसवाँ समुद्घातपद] [२१३५-२] इसी प्रकार (एक-एक असुरकुमार से लेकर एक-एक) वैमानिक तक (समझना चाहिए।) २१३६. एवं जाव लोभसमुग्घाए। एते चत्तारि दंडगा। [२१३६] इसी प्रकार (क्रोधसमुद्घात के समान) लोभसमुद्घात तक (नारक से लेकर वैमानिक तक प्रत्येक के अतीत और अनागत का कथन करना चाहिए।) इस प्रकार ये चार दण्डक हुए। २१३७. [१] णेरइयाणं भंते ! केवतिया कोहसमुग्घाया अतीया ? गोयमा! अणंता। केवतिया पुरेक्खडा ? गोयमा! अणंता। [२१३७-१ प्र.] भगवन् ! (बहुत) नैरयिकों के कितने क्रोधसमुद्धात अतीत हुए हैं ? [२१३७-२ उ.] गौतम! वे अनन्त हुए हैं। [प्र.] भगवन् ! उनके भावी क्रोधसमुद्घात कितने होते हैं ? • [उ.] गौतम! वे भी अनन्त होते हैं। [२ ] एवं जाव वेमाणियाणं। [२१३७-२] इसी प्रकार वैमानिकों तक की वक्तव्यता जाननी चाहिए । २१३८. एवं जाव लोभसमुग्घाए। एए वि चत्तारि दंडगा। [२१३८) इसी प्रकार (क्रोधसमुद्घात के समान) लोभसमुद्घात तक समझना चाहिए। इस प्रकार ये चार दण्डक हुए। २१३९. एगमेगस्स णं भंते! णेरइयस्स णेरइयत्ते केवतिया कोहसमुग्घाया अतीया ? गोयमा! अणंता, एवं जहा वेदणासमुग्घाओ भणिओ (सु. २१०१-४) तहा कोहसमुग्घाओ वि भाणियव्वो णिरवसेसंजाव वेमाणियत्ते।माणसमुग्घाओ मायासमुग्घाओ य णिरवसेसं जहा मारणंतियसमुग्धाओ (सु. २११६)। लोभसमुग्घाओ जहा कसायसमुग्घाओ (सु. २१०५-१५)। णवरं सव्वजीवा असुरादी णेरइएसु लोभकसाएणं एगुत्तरिया णेयव्वा। [२१३९ प्र.] भगवन्! एक-एक नैरयिक के नारकपर्याय में कितने क्रोधसमुद्घात अतीत हुए हैं ? __ [२१३९-उ.] गौतम! वे अनन्त हुए हैं। जिस प्रकार (सू. २१०१-४ में) वेदनासमुद्घात का कथन किया है, उसी प्रकार यहाँ क्रोधसमुद्घात का भी समग्र रूप से यावत् वैमानिकपर्याय तक कथन करना चाहिए। इसी पाकर मानसमुद्घात एवं मायासमुद्घात के विषय में समग्र कथन (सू. २११६ में उक्त) मारणान्तिकसमुद्घात के समान कहना चाहिए। लोभसमुद्घात का कथन (सू. २१०५-१५ में उक्त) कषायसमुद्घात के समान करना चाहिए। विशेष यह है कि असुरकुमार आदि सभी जीवों का नारकपर्याय में लोभकषायसमुद्घात की प्ररूपणा एक से लेकर करनी चाहिए। Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४] [प्रज्ञापनासूत्र] २१४०. [१] णेरइयाणं भंते! णेरइयत्ते केवतिया कोहसमुग्घाया अतीया? गोयमा! अणंता। केवतिया पुरेक्खडा। गोयमा! अणंता। . [२१४०-१ प्र.] भगवन् ! नारकों के नारकपर्याय में कितने क्रोधसमुद्घात अतीत हुए हैं ? [२१४०-१ उ.] गौतम! वे अनन्त हुए हैं । [प्र.] भगवन् ! भावी (क्रोधसमुद्घात) कितने होते हैं ? [उ.] गौतम! वे अनन्त होते हैं। [२] एवं जाव वेमाणियत्ते। [२१४०-२] इसी प्रकार वैमानिकपर्याय तक कहना चाहिए । २१४१. एवं सट्ठाण-परट्ठाणेसु सव्वत्थ वि भाणियव्वा सव्वजीवाणं चत्तारि समुग्घाया जाव लोभसमुग्घातो जाव वेमाणियाणं वेमाणियत्ते। ___ [२१४१] इसी प्रकार स्वस्थान-परस्थानों में सर्वत्र (क्रोधसमुद्घात से लेकर) लोभसमुद्घात तक यावत् वैमानिकों के वैमानिकपर्याय में रहते हुए सभी जीवों के चारों समुद्घात कहने चाहिए । २१४२. एतेसि णं भंते ! जीवाणं कोहसमुग्घाएणं माणसमुग्घाएणं मायासमुग्घाएणं लोभसमुग्धारण य समोहयाणं अकसायसमुग्घाएणं समोहयाणं असमोहयाण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा ४ ? . गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा अकसायसमुग्याएणं समोहया, माणसमुग्याएणं समोहया अणंतगुणा, कोहसमुग्घाएणं समोहया विसेसाहिया, मायासमुग्घाएणं समोहया विसेसाहिया, लोभसमुग्घाएणं समोहया विसेसाहिया, असमोहया संखेजगुणा। [२१४२ प्र.] भगवन्! क्रोधसमुद्घात से, मानसमुद्घात से, मायासमुद्घात से और लोभसमुद्घात से तथा अकषायसमुद्घात (अर्थात्-कषायसमुद्घात से भिन्न छह समुद्घातों में से किसी भी समुद्घात) से समवहत और असमवहत जीवों से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [२१४२ उ.] गौतम! सबसे कम अकषायसमुद्घात से समवहत जीव हैं, (उनसे) मानकषाय से समवहत जीव अनन्तगुणे हैं, (उनसे) क्रोधसमुद्घात से समवहत जीव विशेषाधिक हैं, (उनसे) मायासमुद्घात से समवहत जीव विशेषाधिक हैं. (उनसे) लोभसमदघात से समवहत जीव विशेषाधिक हैं और (इन सबसे) असमवहत जीव संख्यातगुणा हैं। २१४३. एतेसि णं भंते ! णेरइयाणं कोहसमुग्घाएणं माणसमुग्घाएणं मायासमुग्घाएणं लोभसमुग्घाएणं समोहयाणं असमोहयाण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा ४? गोयमा! सव्वत्थोवा णेरड्या लोभसमुग्घाएणं समोहया, मायासमुग्घाएणं समोहया संखेज्जगुणा, Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२६५ [ छत्तीसवाँ समुद्घातपद ] माणसमुग्धाएणं समोहया संखेज्जगुण, कोहसमुग्धाएणं समोहया संखेज्जगुणा, असमोहया संखेज्जगुणा । [२१४३ प्र.] भगवन्! इन क्रोधसमुद्घात से, मानसमुद्घात से, मायासमुद्घात से और लोभसमुद्घात से समवहत और असमवहत नारकों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [२१४३ उ.] गौतम ! सबसे कम लोभसमुद्घात से समवहत नारक हैं, उनसे संख्यातगुणा मायासमुद्घात समवहत नारक हैं, उनसे संख्यातगुणा मानसमुद्घात से समवहत नारक हैं, उनसे संख्यातगुणा क्रोधसमुद्घात से समवहत नारक हैं और इन सबसे संख्यातगुणा असमवहत नारक हैं । २१४४. [ १ ] असुरकुमाराणं पुच्छा । गोयमा! सव्वत्थोवा असुरकुमारा कोहसमुग्धाएणं समोहया, माणसमुग्धाएणं समोहया संखेज्जगुणा, · मायासमुग्धाएणं समोहया संखेज्जगुणा, लोभसमुग्धाएणं समोहया संखेज्जगुणा, असमोहया संखेज्जगुणा । [२१४४-१ प्र.] भगवन् ! क्रोधादिसमुद्घात से समवहत और असमवहत असुरकुमारों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [२१४४ - १ उ.] गौतम! सबसे थोड़े क्रोधसमुद्घात से समवहत असुरकुमार हैं, उनसे मानसमुद्घात से समवहत असुरकुमार संख्यातगुणा हैं, उनसे मायासमुद्घात से समवहत असुरकुमार संख्यातगुण हैं और उनसे लोभसमुद्घात से समवहत असुरकुमार संख्यातगुण हैं तथा इन सबसे असमवहत असुरकुमार संख्यातगुणा हैं। [२] एवं सव्वदेवा जाव वेमाणिया । [२१४४-२] इसी प्रकार वैमानिकों तक सर्वदेवों के क्रोधादिसमुद्घात के अल्पबहुत्व का कथन करना चाहिए । २१४५. [ १ ] पुढविक्काइयाणं पुच्छा । गोमा! सव्वथवा पुढविक्काइया माणसमुग्धाएणं समोहया, कोहसमुग्धाएणं समोहया विसेसाहिया, मायासमुग्घाएणं समोहया विसेसाहिया, लोभसमुग्धाएणं समोहया विसेसाहिया, असमोहया संखेज्जगुणा । [२१४५-१ प्र.] भगवन् ! क्रोधादिसमुत्वात से समवहत और असमवहत पृथ्वीकायिकों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [२१४५ -१ उ.] गौतम! सबसे कम मानसमुद्घात से समवहत पृथ्वीकायिक हैं, उनसे क्रोधसमुद्घात से समवहत पृथ्वीकायिक विशेषाधिक हैं, उनसे मायासमुद्घात से समवहत पृथ्वीकायिक विशेषाधिक हैं और उनसे लोभसमुद्घात से समवहत पृथ्वीकायिक विशेषाधिक हैं तथा इन सबसे असमवहत पृथ्वीकायिक संख्यातगुणा हैं। [२] एवं जाव पंचेदियतिरिक्खजोणिया । [२१४५-२] इसी प्रकार पंचेन्द्रियतिर्यञ्च तक के अल्पबहुत्व के विषय में समझना चाहिए । २१४६. मणुस्सा जहा जीवा (सु. २१४२ ) । णवरं माणसमुग्घाएणं समोहया असंखेज्जगुणा । [२१४६] मनुष्य की (अल्पबहुत्व-सम्बन्धी वक्तव्यता सू. २१४२ में उक्त) समुच्चय जीवों के समान है। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६] विशेष यह है कि मानसमुद्घात से समवहत मनुष्य असंख्यातगुणा हैं । विवेचन- - निष्कर्ष - सर्वप्रथम कषायसमुद्घात के चार प्रकार तथा नैरयिक से लेकर वैमानिक पर्यन्त चौबीस दण्डकों में चारों प्रकार के कषायों के अस्तित्व की प्ररूपणा की गई हैं। तदनन्तर चौबीस दण्डकों में एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा क्रोधादि चारों समुद्घातों के अतीत - अनागत की प्ररूपणा की गई हैं। नारक से लेकर वैमानिक तक प्रत्येक में अनन्त अतीत क्रोधादि समुद्घात हैं तथा प्रत्येक में भावी क्रोधादि समुद्घात किसी के होते हैं, किसी के नहीं होते हैं। जो नारक आदि नारकादि भव के अन्तिम समय में वर्तमान हैं और जो स्वभाव से ही मन्दकषायी हैं, वह कषायसमुद्धात किये बिना ही मुत्यु को प्राप्त होकर नरक से निकल कर मनुष्यभव में उत्पन्न होने वाला है और कषायसमुद्घात किये बिना ही सिद्ध हो जाएगा, उसके भावी कषायसमुद्घात नहीं होता। उससे भिन्न प्रकार का जो नारक है, उसके भावी कषायसमुद्घात जघन्य एक, दो या तीन होते हैं और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात और अनन्त होते हैं। संख्यातकाल तक संसार में रहने वाले के संख्यात, असंख्यातकाल तक संसार में रहने वाले के असंख्यात और अनन्तकाल तक संसार में रहने वाले के अनन्त भावी कषायसमुद्घात होते हैं। बहुत्व की अपेक्षा से नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक के अतीत और अनागत क्रोधादि समुद्घात अनन्त हैं । अनागत अनन्त इसलिए हैं कि पृच्छा के समय बहुत से नारकादि ऐसे होते हैं, जो अनन्तकाल तक संसार में रहेंगे। इस प्रकार एकवचन और बहुवचन से सम्बन्धित चौबीस दण्डकों के प्रत्येक के चार-चार आलापक होते हैं। यों कुल मिलाकर २४x ४ = ९६ आलापक होते हैं। [ प्रज्ञापनासूत्र ] इसके पश्चात् चौबीस दण्डकों संबंधी नैरयिक आदि स्व- परपर्यायों में एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से अतीत अनागत क्रोधादि कषायसमुद्घात की प्ररूपणा की गई है। विशेष- अत्यन्त तीव्र पीड़ा में निरन्तर उद्विग्न रहने वाले नारकों में प्राय: लोभसमुद्घात होता नहीं है। होते हैं तो भी वे अल्प होते हैं । इसके पश्चात् क्रोध, मान, माया और लोभ समुद्घात से समवहत और असमवहत समुच्चय जीव एवं चौबीस दण्डकवर्ती जीवों के अल्पबहुत्व की चर्चा की गई है। अल्पबहुत्व की चर्चा और स्पष्टीकरण – (१) समुच्चयजीव - सबसे कम अकषायसमुद्घात के समवहत हैं। कषायसमुद्घात का अर्थ है- कषायसमुद्घात से भिन्न या रहित छह समुद्घातों में से किसी भी एक समुद्घात से समवहत। अकषायसमुद्घात से समवहत जीव कदाचित् कोई-कोई ही पाए जाते हैं। वे यदि उत्कृष्ट संख्या में हों तो भी कषायसमुद्घात से समवहत जीवों के अनन्तवें भाग ही होते हैं। उनकी अपेक्षा मानसमुद्घातों से समवहत जीव अनन्तगुणा अधिक हैं। क्योंकि अनन्त वनस्पतिकायिक जीव पूर्वभव के संस्कारों के कारण मानसमुद्घात में वर्तमान रहते हैं। उनकी अपेक्षा क्रोधसमुद्घात से समवहत जीव विशेषाधिक हैं, क्योंकि मानी जीवों की अपेक्षा क्रोधी जीव विशेषाधिक होते हैं। उनसे मायासमुद्घात - समवहत जीव विशेषाधिक होते हैं। उनसे भी लोभसमुद्घात - समवहत जीव विशेषाधिक होते हैं, क्योंकि मायी जीवों की अपेक्षा लोभी जीव बहुत अधिक १. (क) प्रज्ञापना, (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. १०५४ तक (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि. रा. कोष, भा. ७, पृ. ४५२ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ छत्तीसवाँ समुद्घातपद] [२६७ होते हैं। उनसे भी असमवहत जीव संख्यातगुणा हैं। क्योंकि चारों गतियों में समुद्घात युक्त जीवों की अपेक्षा समुद्घातरहित जीव संख्यातगुणा अधिक पाये जाते हैं । सिद्ध जीव एकेन्द्रियों के अनन्तवें भाग हैं, किन्तु यहाँ उनकी विवक्षा नहीं की गई है। (२) नारकों में कषायसमुद्घातों का अल्पबहुत्व - नारकों में लोभसमुद्घात सबसे कम है, क्योंकि नारकों को प्रिय वस्तुओं का संयोग नहीं मिलता। अतः उनमें लोभसमुद्घात, होता भी है तो भी अन्य क्रोधादि समुद्घातों से बहुत ही कम है। उसकी अपेक्षा मायासमुद्घात, मानसमुद्घात, क्रोधसमुद्घात क्रमशः उत्तरोत्तर संख्यातगुणा अधिक हैं। असमवहत नारक इन सबसे संख्यातगुणा हैं। (३) असुरकुमारादि में कषायसमुद्घातों का अल्पबहुत्व – देवों में स्वभावतः लोभ की प्रचुरता होती है। उससे मानकषाय, क्रोधकषाय एवं मायाकषाय की उत्तरोत्तर अल्पता होती है। इसलिए असुरकुमारादि भवनवासी देवों में सबसे कम क्रोध समुद्घाती, उससे उत्तरोत्तर मान, माया और लोभ से समवहत अधिक बताए हैं और सबसे अधिक-संख्यातगुणे अधिक असमवहत असुरकुमार हैं। पृथ्वीकायिकों में अल्पबहुत्व-मान, क्रोध, माया और लोभ समुद्घात उत्तरोत्तर अधिक हैं। असमवहत पृथ्वीकायिक संख्यातगुण अधिक हैं। पृथ्वीकायिकों के समान अन्य एकेन्द्रिय के तथा विकलेन्द्रिय एवं पंचेन्द्रियतिर्यञ्च की भी वक्तव्यता समझ लेनी चाहिए। मनुष्यों में कषायसमुद्घात समवहत संबंधी अल्पबहुत्व - समुच्चयजीवों के समान समझना चाहिए। परन्तु एक बात विशेष है, कि अकषायसमुद्घात से समवहत मनुष्यों की अपेक्षा मानसमुद्घात से समवहत मनुष्य असंख्यातगुणा हैं । क्योंकि मनुष्यों में मान की प्रचुरता पाई जाती हैं।' चौवीस दण्डकों में छाद्मस्थिकसमुद्घात प्ररूपणा २१४७. कति णं भंते! छाउमत्थिया समुग्घाया पण्णत्ता ? गोयमा ! छाउमत्थिया छ समुग्घाया पण्णत्ता। तं जहा-वेदणासमुग्घाए १ कसायसमुग्घाए २ मारणंतियसमुग्घाए ३ वेउव्वियसमुग्घाए ४ तेयगसमुग्घाए ५ आहारगसमुग्घाए ६। [२१४७ प्र.] भगवन् ! छानस्थिकसमुद्घात कितने कहे गए हैं ? [२१४७ उ.] गौतम! छाद्मस्थिकसमुद्घात छह कहे गए हैं, वे इस प्रकार - (१) वेदनासमुद्घात, (२) कषायसमुद्घात, (३) मारणान्तिकसमुद्घात, (४) वैक्रियसमुद्घात, (५) तैजससमुद्घात और (६) आहरकसमुद्घात । २१४८.णेरइयाणं भंते! कति छाउमत्थिया समुग्घाया पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि छाउमत्थिया समुग्घाया पण्णत्ता। तं जहा-वेदणासमुग्याए १ कसायसमुग्घाए २ मारणंतियसमुग्याए ३ वेउव्वियसमुग्याए । [२१४८ प्र.] भगवन्! नारकों में कितने छाद्मस्थिकसमुद्घात कहे गए है ? Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८] [२१४८ उ.] गौतम ! छाद्मस्थिकसमुद्घात चार कहे गए हैं, यथा कषासयमुद्घात (३) मारणान्तिकसमुद्घात और (४) वैक्रियसमुद्घात । २१४९. असुरकुमाराणं पुच्छा । गोयमा! पंच छाउमत्थिया समुग्धाया पण्णत्ता । तं जहा - वेदणासमुग्धाए १ कसायसमुग्धाए २ मारणंतियसमुग्धाए ३ वेडव्वियसमुग्धाए ४ तेयगसमुग्धाए ५ । [२१४९ प्र.] असुरकुमारों में छाद्मस्थिकसमुद्घातों की पूर्ववत् पृच्छा । [ प्रज्ञापनासूत्र ] यथा—(१) वेदनासभुद्घात (२) [२१४९ उ.] गौतम! असुरकुमारों में पांच छाद्मस्थिकसमुद्घात कहे हैं यथा - (१) वेदनासमुद्घात, (२) कषायसमुद्घात (३) मारणान्तिकसमुद्घात, (४) वैक्रियसमुद्घात और (५) तैजससमुद्घात । २१५०. एगिंदिय - विगलिंदियाणं पुच्छा । गोयमा! तिण्णि छाउमत्थिया समुग्धाया पण्णत्ता । तं जहा - वेदणासमुग्धाए १ कसायसमुग्धा २ मारणंतियसमुग्धाए ३ । णवरं वाउक्काइयाणं चत्तारि समुग्धाया पण्णत्ता । तं जहा - वेदणासमुग्धाए १ कसायसमुग्घाए २ मारणंतिसमुग्धाए ३ वेडव्वियसमुग्धाए ४ । [२१५० प्र.] भगवन्! एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवों में कितने छाद्मस्थिकसमुद्घात कहे है ? [२१५० उ. ] गौतम! इनमें तीन समुद्घात कहे हैं, यथा - (१) वेदनासमुद्घात, (२) कषायसमुद्घात, (३) मारणान्तिकसमुद्घात । २१५१. पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा । गोयमा! पंच समुग्धाया पण्णत्ता । तं जहा-वेदणासमुग्धाए १ कसायसमुग्धाए २ मारणंतियसमुग्धाए ३ वेव्वियसमुग्घा ४ तेयगसमुग्धाए ५ । [२१५१ प्र.] भगवन्! पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में कितने छाद्मस्थिकसमुद्घात होते हैं ? [२१५१ उ.] गौतम! इनमें पांच छाद्मस्थिकसमुद्घात कहे हैं, यथा - (१) वेदनासमुद्घात, (२) कषायसमुद्घात, (३) मारणान्तिकसमुद्घात, (४) वैक्रियसमुद्घात और (५) तैजसमुद्घात। २१५२. मणूसाणं भंते! कति छाउमत्थिया समुग्धाया पण्णत्ता ? गोयमा! छ छाउमत्थिया समुग्धाया पण्णत्ता । तं जहा - वेदणासमुग्धाए १ कसायसमुग्धाए २ मारणंतियसमुग्धाए ३ वेडव्वियसमुग्धाए ४ तेयगसमुग्धाए ५ आहारगसमुग्धाए ६ । [२१५२ प्र.] भगवन्! मनुष्यों में कितने छास्थिकसमुद्घात कहे हैं ? [२१५२ उ.] गौतम! इनमें छह छाद्मस्थिकसमुद्घात कहे गए हैं, यथा - (१) वेदनासमुद्घात, (२) १. (क) प्रज्ञापना, (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. १०५७ से (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि. रा. कोष भा. ३, पृ. १३५४ १०६१ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [छत्तीसवाँ समुद्घातपद] [२६९ कषायसमुद्घात, (३) मारणान्तिकसमुद्घात, (४) वैक्रियसमुद्घात और (५) तैजसमुद्घात (६) आहारकसमुद्घात । विवेचन-चौवीस दण्डकों में छाद्यस्थिकसमुद्घात-छद्मस्थ को होने वाले या छद्मस्थ (जिसे केवलज्ञान न हुआ हो) से सम्बन्धित समुद्घात छाद्मस्थिकसमुद्घात कहलाते हैं। केवलीसमुद्घात को छोड़कर शेष छहों छाद्मस्थिकसमुद्घात हैं। नारकों में तेजोलब्धि और अहारकलबिध न होने से तैजस और आहरकसमुद्घात के सिवाय शेष ४ छाद्यस्थिकसमुद्घात पाये जाते है। असुरकुमारादि भवनपतियों तथा शेष तीन प्रकार के देवों में पांचपांच छाद्मस्थिकसमुद्घात पाये जाते हैं, क्योंकि देव चौदह पूर्वो के ज्ञान तथा आहारकलब्धि से रहित होते हैं अतएव उनमें आहारकसमुद्घात नहीं पाया जाता। पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में भी ये ही पांच समुद्घात पाये जाते हैं। वायुकायिकों के सिवाय शेष ४ एकेन्द्रियों और विकलेन्द्रियों में वैक्रिय, तैजस और आहारक को छोड़कर शेष ३ समुद्घात पाये जाते हैं। वायुकायिकों में वैक्रियसमुद्घात अधिक होता है। मनुष्यों में ६ ही छाद्यस्थिकसमुद्घात पाए जाते हैं। वेदना एवं कषाय-समुद्घात से समवहत जीवादि के क्षेत्र, काल एवं क्रिया की प्ररूपणा २१५३. [१] जीवे णं भंते! वेदणासमुग्घाएणं समोहए समोहणित्ता जे पोग्गले णिच्छुभति तेहिं णं भंते! पोग्गलेहिं केवतिए खेत्ते अफुण्णे? केवतिए खेत्ते फुडे ? • गोयमा! सरीरपमाणमेत्ते विक्खंभ-बाहल्लेणं णियमा छद्दिसिं एवइए खेत्ते अफुण्णे एवइए खेत्ते फुडे। [२१५३-१ प्र.] भगवन् ! वेदनासमुद्घात से समवहत हुआ जीव समवहत होकर जिन पुद्गलों कों (अपने शरीर से बाहर) निकलता है, भंते ! उन पुद्गलों से कितना क्षेत्र परिपूर्ण होता है तथा कितना क्षेत्र स्पृष्ट होता है ? [२१५३-१ उ.] गौतम! विस्तार (विष्कम्भ) और स्थूलता (बाहल्य) की अपेक्षा शरीरप्रमाण क्षेत्र को नियम से छहों दिशाओं मे व्याप्त (परिपूर्ण) करता है। इतना क्षेत्र आपूर्ण (परिपूर्ण) और इतना ही क्षेत्र स्पृष्ट होता है। [२] से णं भंते! खेत्ते केवइकालस्स अफुण्णे केवइकालस्स फुडे? गोयमा! एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा तिग्गहेण वा एबइकालस्स अफुण्णे एवइकालस्स फुडे। [२१५३-२ प्र.] भगवन्! वह क्षेत्र कितने काल में आपूर्ण और कितने काल में स्पृष्ट हुआ ? [२१५३-२ उ.] गौतम! एक समय, दो समय अथवा तीन समय के विग्रह में (जितना काल होता है) इतने काल में आपूर्ण हुआ और इतने ही काल में स्पृष्ट होता है। [३] ते णं भंते! पोग्गला केवइकालस्स णिच्छुभति ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तस्स, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तस्स। [२१५३-३ प्र.] भगवन् ! (जीव) उन पुद्गलों को कितने काल में (आत्मप्रदेशों से बाहर) निकालता है ? _[२१५३-३ उ.] गौतम! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त में (वह उन पुद्गलों को बाहर निकालता है। Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७०] [प्रज्ञापनासूत्र] [४] ते णं भंते! पोग्गला णिच्छूढा समाणा जाई तत्थ पाणाइं भूयाइं जीवाइं सत्ताइं अभिहणंति वत्तेति लेसेंति संघाएंति संघटुंति परिया-ति किलावेंति उद्दवेंति तेंहितो णं भंते! से जीवे कतिकिरिए? गोयमा! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय पंचकिरिए। [२१५३-४ प्र.] भगवन्! वे बाहर निकले हुए पुद्गल वहाँ (स्थित) जिन प्राण, भूत, जीव ओर सत्त्वों का अभिघात करते हैं, आवर्तपतित करते (चक्कर खिलाते) हैं, थोड़ा-सा छूते हैं, संघात (एक जगह इकट्ठा) करते हैं, संघट्टित करते हैं, परिताप पहुँचाते हैं, मूर्च्छित करते हैं और घात करते हैं, हे भगवन् ! इनसे वह जीव कितनी क्रिया वाला होता है? __[२१५३-४ उ.] गौतम! वह कदाचित् तीन क्रिया वाला, कदाचित् चार क्रिया वाला और कदाचित् पांच क्रिया वाला होता है। [५] ते णं भंते! जीवा ताओ जीवाओ कतिकिरिया ? गोयमा ! सिय तिकिरिया वि चउकिरिया वि पंचकिरिया वि । [२१५३-५ प्र.] भगवन् ! वह जीव और वे जीव अन्य जीवों का परम्परा से घात करने से कितनी क्रिया वाले होते हैं? [२१५३-५ उ.] गौतम! वे तीन क्रिया वाले भी होते हैं, चार क्रिया वाले भी होते हैं और पांच क्रिया वाले भी होते हैं। [६] से णं भंते ! जीवे ते य जीवा अण्णेसिं जीवाणं परंपराघाएणं कतिकिरिया ? गोयमा ! तिकिरिया वि चउकिरिया वि पंचकिरिया वि। [२१५३-६ प्र.] भगवन् ! वह जीव और वे जीव अन्य जीवों का परम्परा से घात करने से कितनी क्रिया वाले होते हैं ? [२१५३-६ उ.] गौतम! वे तीन क्रिया वाले भी होते हैं, चार क्रिया वाले भी होते हैं और पांच क्रिया वाले भी होते हैं। २१५४. [१] णेरइए णं भंते! वेदणासमुग्घाएणं समोहए० ? एवं जहेव जीवे (सु. २१५३ )। णवरं णेरइयाभिलावो। [२१५४-१ प्र.] भगवन् ! वेदनासमुद्घात से समवहत हुआ नारक समवहत होकर जिन पुद्गलों को (अपने शरीर से बाहर) निकालता है, उन पुद्गलों से कितना क्षेत्र आपूर्ण होता है तथा कितना क्षेत्र स्पृष्ट होता है ? इत्यादि पूर्ववत् समग्र (छहों) प्रश्न ? [२१५४-१ उ.] गौतम! जैसा (सू. २१५३/१-२-३-४-५-६ में) समुच्चय जीव के विषय में कहा था, वैसा १. (क) पण्णवणासुत्तं, भा. १ (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. ४३९-४४० (ख) प्रज्ञापना (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. १०६८ से १०७४ तक १. वही, भाग. ५, पृ. १०७१ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [छत्तीसवाँ समुद्घातपद] [२७१ ही यहाँ कहना चाहिए। विशेष यह है कि यहाँ 'जीव' के स्थान में 'नारक' शब्द का प्रयोग करना चाहिए। [२] एवं णिरवसेसं जाव वेमाणिए। [२१५४-२] समुच्चय जीव सम्बन्धी वक्तव्यता के समान ही वैमानिक पर्यन्त (चौवीस दण्डकों सम्बन्धी) समग्र वक्तव्यता कहनी चाहिए। २१५५. एवं कसायसमुग्घातो वि भाणियव्वो। [२१५५] इसी प्रकार (वेदनासमुद्घात के समान) कषायसमुद्घात का भी (समग्र) कथन करना चाहिए। विवेचन-वेदना एवं कषाय समुद्घात से सम्बन्धित क्षेत्र-काल-क्रियादि की प्ररूपणा-प्रस्तुत । प्रकरण में वेदनासमुद्घात से सम्बन्धित ६ बातों की चर्चा की गई है-(१) शरीर से बाहर निकाले जाने वाले पुद्गलों से कितना क्षेत्र परिपूर्ण और स्पृष्ट (व्याप्त) होता है ? (२) वह क्षेत्र कितने काल में आपूर्ण और स्पृष्ट होता है ? (३) उन पुद्गलों को कितने काल में जीव आत्मप्रदेशों से बाहर निकालता है ? (४) बाहर निकाले हुए वे पुद्गल उस क्षेत्र मे रहे हुए प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों का अभिधातादि करते हैं, इससे वेदनासमुद्घातकर्ता जीव को कितनी क्रियाएं लगती हैं ? (५) वे जीव उस जीव के निमित्त से कितनी क्रिया वाले होते हैं ? तथा (६) वह जीव और वे जीव अन्य जीवो का परम्परा से घात करने से कितनी क्रिया वाले होते हैं। कठिन शब्दों का भावार्थ-णिच्छुभति-(शरीर से बाहर) निकलाता है। अफुण्णे-आपूर्ण परिपूर्ण हुआ। फुडे-स्पृष्ट हुआ। विक्खंभ बाहल्लेणं-विस्तार और स्थूलता (मोटाई) की अपेक्षा से। अभिहणंति अभिहनन करते हैं-सामने से आते हुए का घात करते हैं, चोट पहुंचाते हैं। वत्तेति-आवर्त-पतित करते हैं-चक्कर खिलाते हैं। संघटेंति-परस्पर मर्दन कर देते हैं। परिया-ति-परितप्त करते है। किलावेंति-थका देते हैं, या मूछित कर देते है। उद्दवेंति-भयभीत कर देते या निष्प्राण कर देते हैं।' छह प्रश्नों का समाधान-(१) वेदनासमुद्घात से समवहत हुआ जीव जिन वेदनायोग्य पुद्गलों को अपने शरीर से बाहर निकालता है, वे पुद्गल विस्तार और स्थूलता की अपेक्षा शरीरप्रमाण होते हैं, वे नियम से छहों दिशाओं को व्याप्त करते हैं । अर्थात्-शरीर का जितना विस्तार और जितनी मोटाई होती है, उतना ही क्षेत्र उन पुद्गलों से परिपूण और स्पृष्ट होता है। (२) अपने शरीर प्रमाणमात्र विस्तार और मोटाई वाला क्षेत्र सतत एक समय, दो समय अथवा तीन समय की विग्रहगति से, जितना क्षेत्र व्याप्त किया जाता है उतनी दूर तक वेदना-उत्पादक पुद्गलों से आपूर्ण और स्पृष्ट होता है। आशय यह है कि अधिक से अधिक तीन समय के विग्रह द्वारा जितना क्षेत्र व्याप्त किया जाता है, उतना क्षेत्र आत्मप्रदेशों से बाहर निकले हुए वेदना उत्पन्न करने योग्य पुद्गलों द्वारा परिपूर्ण होता है। इतने ही काल में पूर्वोक्त क्षेत्र आपूर्ण और स्पष्ट होता है। (३) जीव उन वेदनाजनक पुद्गलों को जघन्य अन्तर्मुहूर्त ओर उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त से कुछ अधिक काल में बाहर निकालता है। अभिप्राय यह है कि जैसे तीव्रतर दाहज्वर से पीडित व्यक्ति सूक्ष्म पुद्गलों को शरीर से बाहर निकालता है, उसी प्रकार वेदनासमुद्घात-समवहत जीव भी जघन्य और उत्कृष्ट रूप से अन्तर्मुहूर्त काल में वेदना से पीडित होकर वेदना उत्पन्न करने योग्य शरीरवर्ती पुद्गलों को आत्मप्रदेशों से बाहर निकालता है। (४) बाहर निकाले हुए वे पुद्गल प्राण अर्थात्-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२] [ प्रज्ञापनासूत्र ] जीव, जैसे जलौक, चींटी, मक्खी आदि तथा भूत अर्थात् - वनस्पतिकायिक जीव, जीव- अर्थात्-पंचेन्द्रिय प्राणी, जैसे-छिपकली, सर्प आदि तथा सत्व अर्थात् - पृथ्वीकायिक अप्कायिक, तेजस्कायिक और वायुकायिक प्राणी को आहत आदि करने के कारण वेदना समुद्घातकर्ता जीव को कदाचित् तीन, कदाचित् चार और कदाचित् पाँच क्रियाएं लगती हैं। आशय यह है कि जब वह किसी जीव को परिताप नहीं पहुंचाता, न ही जान से मारता है, तब तीन क्रिया वाला होता है। जब किन्हीं जीवों का परितापन करता है, या मारता है, तब भी जिन्हें आबाधा नहीं पहुंचाता, उनकी अपेक्षा से तीन क्रिया वाला होता है। जब किसी को परिताप पहुँचाता है, तब चार क्रियाओं वाला होता है और जब किन्हीं जीवों का घात करता है, तो उनकी अपेक्षा से पांच क्रियाओं वाला होता है । (५) वेदनासमुद्घात करने वाले जीव के पुद्गलों से स्पृष्ट जीव वेदना - समुद्घातकर्त्ता जीव की अपेक्षा से कदाचित् तीन क्रियाओं वाले, कदाचित् चार क्रियाओं वाले और कदाचित् पांच क्रियाओं वाले होते हैं। जब वे समुद्घातकर्ता जीव को कोई बाधा उत्पन्न करने में समर्थ नहीं होते, तब तीन क्रियाओं वाले होते हैं। जब स्पृष्ट होकर वे उस वेदनासमवहत जीव को परिताप पहुंचाते हैं, तब चार क्रियाओं वाले होते हैं। शरीर से स्पृष्ट होने वाले बिच्छू आदि परितापजनक होते हैं, यह प्रत्यक्षसिद्ध है। किन्तु वे स्पृष्ट होने वाले जीव जब उसे प्राणों से रहित कर देते हैं, तब पांच क्रियाओं वाले होते हैं। शरीर से स्पृष्ट होने वाले सर्प आदि अपने दंश द्वारा प्राणघातक होते हैं, यह भी प्रत्यक्षसिद्ध है। वे पांच क्रियाएं ये हैं— (१) कायिकी, (२) आधिकरणिकी, (३) प्राद्वेषिकी, (४) पारितापनिकी और (५) प्राणातिपातिकी । (६) वेदनासमुद्घात करने वाले जीव के द्वारा मारे जाने वाले जीवों के द्वारा जो अन्य जीव मारे जाते हैं और अन्य जीवों द्वारा मारे जाने वाले वेदनासमुद्घात प्राप्त जीव के द्वारा मारे जाते हैं, उन जीवों की अपेक्षा से संक्षेप में – वेदनासमुद्घात को प्राप्त वह जीव और वेदनासमुद्घात को प्राप्त जीव सम्बन्धी पुद्गलों से स्पृष्ट वे जीव, अन्य जीवों के परम्परागत आघात से, पूर्वोक्तयुक्ति के अनुसार कदाचित् तीन, कदाचित् चार एवं कदाचित् पांच क्रियाओं वाले होते हैं । वेदनासमुद्घातसम्बन्धी इन्हीं छह तथ्यों का समग्र कथन नैरयिक से लेकर वैमानिकपर्यन्त चौवीस दण्डकों में करना चाहिए । कषायसमुद्घातसम्बन्धी कथन भी वेदनासमुद्घात के पूर्वोक्त कथन के समान जानना चाहिए। मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत जीवादि के क्षेत्र, काल एवं क्रिया की प्ररूपणा २१५६. [ १ ] जीवे णं भंते! मारणंतियसमुग्धाएणं समोहए समोहणित्ता जे पोग्गले णिच्छुभति तेहि णं भंते! पोग्गलेहिं केवलिए खेत्ते अफुण्णे केवतिए खेत्ते फुड़े ? गोयमा ! सरीरपमाणमेत्ते विक्खंभ-बाहल्लेणं, आयामेणं जहणणेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं, उक्कोसेणं असंखेज्जाई जोयणाई एगदिसिं एवइए खेत्ते अफुण्णे एवतिए खेत्ते फुडे । १. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. १०६८ से १०७६ तक (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि. रा. कोष, भा. ७, पृ. ४५३ २. पण्णवणासुत्तं भा. १ ( मू. पा. टि.) पृ. ४४० Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [छत्तीसवाँ समुद्घातपद] [२७३ [२१५६-१ प्र.] भगवन् ! मारणान्तिकसमुद्घात के द्वारा समवहत हुआ जीव, समवहत होकर जिन पुद्गलों को आत्मप्रदेशों से पृथक् करता (बाहर निकलता) है, उन पुद्गलों से कितना क्षेत्र आपूर्ण होता है तथा कितना क्षेत्र स्पृष्ट (निरन्तर व्याप्त) होता है? [२१५६-१ उ.] गौतम ! विस्तार और बाहल्य (मोटाई) की अपेक्षा से शरीरप्रमाण क्षेत्र तथा लम्बाई (आयाम) में जघन्य अंगुल का असंख्यातवां भाग क्षेत्र तथा उत्कृष्ट असंख्यात योजन तक का क्षेत्र एक दिशा में आपूर्ण और व्याप्त (स्पृष्ट) होता है। इतना क्षेत्र आपूर्ण होता है तथा इतना क्षेत्र (व्याप्त) होता है। [२] से णं भंते ! खेत्ते केवतिकालस्स अफुण्णे केवतिकालस्स फुडे ? गोयमा ! एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा चउसमइएण वा विग्गहेणं एवतिकालस्स अफुण्णे एवतिकालस्स फुडे। सेसं तं चेव जाव पंचकिरिया। [२१५६-२ प्र.] भगवन् ! वह क्षेत्र कितने काल में पुद्गलों से आपूर्ण होता है तथा कितने काल में स्पृष्ट होता है ? [२१५६-२] गौतम ! वह (उत्कृष्ट असंख्यातयोजन लम्बा क्षेत्र) एक समय, दो समय, तीन समय और चार समय के विग्रह से इतने काल में (उन पुद्गलों से) आपूर्ण और स्पृष्ट हो जाता है। तत्पश्चात् शेष वही (पूर्वोक्त पांच तथ्यों से युक्त) कथन (कदाचित् तीन, कदाचित् चार और) कदाचित् पांच क्रियाएं लगती हैं; (यहां तक करना चाहिए।). २१५७. एवं णेरइए वि। णवरं आयामेणं जहण्णेणं सातिरेगं जोयणसहस्सं उक्कोसेणं असंखेजाइं जोयणाई एगदिसिं एवतिए खेत्ते अफुण्णे एवतिए खेत्ते फुडे; विग्गहेणं एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा, णवरं चउसमइएण ण भण्णति। सेसं तं चेव जाव पंचकिरिया वि। [२१५७] समुच्चय जीव के समान नैरयिक की भी वक्तव्यता समझ लेनी चाहिए। विशेष यह है कि लम्बाई में जघन्य कुछ अधिक हजार योजन और उत्कृष्ट असंख्यात योजन एक ही दिशा में उक्त पुद्गलों से आपूर्ण होता है तथा इतना ही क्षेत्र स्पृष्ट होता है तथा एक समय, दो समय या तीन समय के विग्रह से (उस क्षेत्र का आपूर्ण और व्याप्त होना) कहना चाहिए, चार समय के विग्रह से नहीं कहना चाहिए। तत्पश्चात् शेष वही (पूर्वोक्त पाँच तथ्यों से युक्त) कथन (कदाचित् तीन, कदाचित् चार और) कदाचित् पांच क्रियाएं होती हैं यहाँ तक करना चाहिए। २१५८. [१] असुरकुमारस्स जहा जीवपए (सु. २१५६)। णवरं विग्गहो तिसमइओ जहा णेरइयस्स (सु. २१५७)। सेसं तं चेव। [२१५८-१] असुरकुमार की वक्तव्यता भी (सू. २१५६ में समुच्चय) जीवपद के मारणान्तिकसमुद्घातसम्बन्धी वक्तव्यता के अनुसार समझनी चाहिए। विशेष यह है कि असुरकुमार का विग्रह (सू. २१५७ में उक्त) नारक के विग्रह के समान तीन समय का समझ लेना चाहिए। शेष सब पूर्ववत् है। _[२] जहा असुरकुमारे एवं जाव वेमाणिए। णवरं एगिदिए जहा जीवे णिरवसेसं। Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४] [प्रज्ञापनासूत्र] [२१५८-२] जिस प्रकार असुरकुमार के विषय में कहा है, उसी प्रकार यहाँ (आगे की सब वक्तव्यता) वैमानिक देव तक (कहनी चाहिए।) विशेष यह है कि एकेन्द्रिय का (मारणान्तिकसमुद्घातसम्बन्धी) समग्र कथन समुच्चय जीव के समान (कहना चाहिए।) विवेचन-निष्कर्ष-मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत होकर जीव तैजसशरीर आदि के अन्तर्गत जो पुद्गल अपने आत्मप्रदेशों से पृथक् करता है (शरीर से निकालता है), उन पुद्गलों से शरीर का जितना विष्कम्भ (विस्तार) और बाहल्य (मोटाई) होता है, उतना क्षेत्र तथा लम्बाई में जघन्य अपने शरीर से अंगुल का असंख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट असंख्यात योजन तक का क्षेत्र एक दिशा में परिपूर्ण और व्याप्त होता है। यहाँ यह समझ लेना चाहिए कि उक्त क्षेत्र एक ही दिशा में आपूर्ण और व्याप्त होता है, विदिशा में नहीं, क्योंकि जीव के प्रदेश स्वभावतः दिशा में ही गमन करते हैं। जघन्य और उत्कृष्ट आत्मप्रदेशों द्वारा भी इतने ही क्षेत्र का परिपूरित होना सम्भव है। उत्कृष्टतः लम्बाई में संख्यात योजन जितना क्षेत्र विग्रहगति की अपेक्षा उत्कृष्ट चार समयों में आपूर्ण और स्पृष्ट होता है। इसके पश्चात् मारणान्तिकसमुद्घात से सम्बन्धित शेष सभी तथ्यों का कथन वेदनासमुद्घात गत कथन के समान करना चाहिए। ___नारक से लेकर वैमानिक तक सभी कथन यावत् 'पांच क्रियाएं लगती हैं', यहाँ तक कहना चाहिए। इसमें विशेष अन्तर यह है - लम्बाई में जघन्य कुछ अधिक हजार योजन और उत्कृष्ट असंख्यात योजन जितना क्षेत्र एक दिशा में आपूर्ण और व्याप्त होता है तथा चार समयों में नहीं, किन्तु अधिक से अधिक तीन समयों में विग्रहगति की अपेक्षा वह क्षेत्र आपूर्ण और स्पृष्ट होता है। असुरकुमार से लेकर वैमानिक तक समुच्चय जीवों के समान वक्तव्यता है, किन्तु विग्रहगति की अपेक्षा अधिक से अधिक तीन समयों में यह क्षेत्र आपूर्ण और व्याप्त हो जाता है, यह कहना चाहिये । नारकादि का विग्रह अधिक से अधिक तीन समय का ही होता है। जैसे कोई नारक वायव्यदिशा में और भारत क्षेत्र में वर्तमान हो तथा पूर्वदिशा में पंचेन्द्रियतिर्यञ्च अथवा मनुष्य के रूप में उत्पन्न होने वाला हो तो वह प्रथम समय में ऊपर जाता है, दूसरे समय में वायव्यदिशा से पश्चिमदिशा में जाता है और फिर पश्चिम दिशा से पूर्व दिशा में जाता है। इस तरह तीन समय का ही विग्रह होता है, जिसे वैमानिक तक समझ लेना चाहिए।' ____ असुरकुमारों से लेकर ईशानदेवलोक तक के देव पृथ्वीकायिक, अप्कायिक या वनस्पतिकायिक के रूप में भी उत्पन्न होते हैं । जब कोई संक्लिष्ट अध्यवसाय वाला असुरकुमार अपने ही कुण्डलादि के एकदेश में पृथ्वीकायिक के रूप में उत्पन्न होने वाला हो और वह मारणान्तिकसमुद्घात करे तो लम्बाई की अपेक्षा जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग-क्षेत्र को ही व्याप्त करता है। एकेन्द्रिय की सारी वक्तव्यता समुच्चय जीव के समान समझनी चाहिए। १. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. १०७८ से १०७९ तक (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि. रा. कोष, भा. ७, पृ. ४५४ २. (क) वही, भा. ७, पृ. ४५५ (ख) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. १०८१-८२ ३. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. १०८३-८४ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२७५ [छत्तीसवाँ समुद्घातपद] वैक्रियसमुद्घात से समवहत जीवादि के क्षेत्र, काल एवं क्रिया की प्ररूपणा २१५९. [१] जीवे णं भंते! वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहए समोहणित्ता जे पोग्गले णिच्छुभति तेहि णं भंते! पोग्गलेहिं केवतिए खेत्ते अफुण्णे केवतिए खेत्ते फुडे ? __गोयमा! सरीरप्पमाणमेत्ते विक्खंभ-बाहल्लेणं, आयामेण जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजतिभागं उक्कोसेणं संखेजाइं जोयणाई एगदिसिं विदिसिं वा एवतिए अफुण्णे एवतिए खेत्ते फुडे। __ [२१५९-१ प्र.] भगवन् ! वैक्रियसमुद्घात से समवहत हुआ जीव, समवहत होकर (वैक्रिययोग्य शरीर के अन्दर रहे हुए) जिन पुद्गलों को बाहर निकालता है (आत्मप्रदेशों से पृथक् करता है), उन पुद्गलों से कितना क्षेत्र आपूर्ण होता है, कितना क्षेत्र स्पृष्ट होता है ? [२१५९-१ उ.] गौतम! जितना शरीर का विस्तार और बाहल्य (स्थूलत्व) है, उतना तथा लम्बाई में जघन्य 'अंगुल के असंख्यातवें भाग तथा उत्कृष्ट संख्यात योजन जितना क्षेत्र एक दिशा या विदिशा में आपूर्ण होता है और उतना ही क्षेत्र व्याप्त होता है। [२] से णं भंते! खेत्ते केवतिकालस्स अफुण्णे केवतिकालस्स फुडे ? गोयमा! एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसइएण वा विग्गहेण एवतिकालस्स अफुण्णे एवतिकालस्स फुडे। सेसं तं चेव जाव पंचकिरिया वि। ___[२१५९-२ प्र.] भगवन् ! वह (पूर्वोक्त) क्षेत्र कितने काल में आपूर्ण होता है और कितने काल में स्पृष्ट होता [२१५९-२ उ.] गौतम! एक समय, दो समय या तीन समय के विग्रह से, अर्थात् इतने काल से (वह क्षेत्र) आपूर्ण और स्पृष्ट हो जाता है। शेष सब कथन पूर्ववत् 'पाँच' क्रियाएँ लगती हैं, यहां तक कहना चाहिए। २१६०. एवं णेरइए वि। णवरं आयामेणं जहण्णेणं अंगुलस्स संखेजइभागं, उक्कोसेणं संखेजाई जोयणाई एगदिसिं एवतिए खेत्ते०। केवतिकालस्स० तं चेव जहा जीवपए (सु. २१५९)। __ [२१६०] इसी प्रकार नैरयिकों की (वैक्रियसमुद्घात सम्बन्धी वक्तव्यता) भी कहनी चाहिए। विशेष यह है कि लम्बाई में जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग तथा उत्कृष्ट संख्यातयोजन जितना क्षेत्र एक दिशा में आपूर्ण और स्पृष्ट होता है । यह क्षेत्र कितने काल में आपूर्ण एवं स्पृष्ट होता हैं ?, इसके उत्तर में (सू. २१५९ में उक्त समुच्चय) जीवपद के समान कथन किया गया है । २१६१. एवं जहा णेरइयस्स (सु. २१६०) तहा असुरकुमारस्स। णवरं एगदिसिं विदिसिं वा। एवं जाव थणियकुमारस्स। ___[२१६१] जैसे नारक का वैक्रियसमुद्घातसम्बन्धी कथन किया है, वैसे ही असुरकुमार का समझना चाहिए। विशेष यह है कि एक दिशा या विदिशा में (उतना क्षेत्र आपूर्ण एवं स्पृष्ट होता है।) इसी प्रकार स्तनितकुमार पर्यन्त ऐसा ही कथन समझना चाहिए। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६] [प्रज्ञापनासूत्र] २१६२. वाउक्काइयस्स जहा जीवपदे (सु. २१५९)। णवरं एगदिसिं। [२१६२] वायुकायिक का (वैक्रियसमुद्घात सम्बन्धी) कथन समुच्चय जीवपद के समान (सु. २१५९ के अनुसार) समझना चाहिए। विशेष यह है कि एक ही दिशा में (उक्त क्षेत्र आपूर्ण एवं स्पृष्ट होता है।) २१६३. पंचेंदियतिरिक्खजोणियस्स णिरवसेसं जहा णेरइयस्स (सु. २१६०)। [२१६३] जिस प्रकार (सू. २१६० में) नैरयिक का (वैक्रियसमुद्घात सम्बन्धी कथन) किया गया है, वैसे ही पंचेन्द्रियतिर्यञ्च का समग्र कथन करना चाहिए। २१६४.. मणूस-वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणियस्स णिरवसेसं जहा असुरकुमारस्स (सु. २१६१)। __ [२१६४] मनुष्य, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक का (वैक्रियसमुद्घात सम्बन्धी) सप्पूर्ण कथन (सू. २१६१ में उक्त) असुरकुमार के समान कहना चाहिए। विवेचन - वैक्रियसमुद्घात की क्षेत्रस्पर्शना, कालपरिमाण और क्रिया प्ररूपणा - (१) वैक्रियसमुद्घात से समवहत जीव वैक्रिययोग्य शरीर के अन्दर रहे हुए पुद्गलों को बाहर निकालता है (अपने से पृथक् करता है), तब उन पुद्गलों से, शरीर का जितना विस्तार तथा स्थूलत्व है, उतना तथा लम्बाई में जघन्य अंगुल का असंख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट संख्यात योजन क्षेत्र एक दिशा में अथवा विदिशा में आपूर्ण एवं व्याप्त (स्पृष्ट) होता है। यहाँ लम्बाई में जो उत्कृष्ट संख्यात योजन-प्रमाण क्षेत्र का व्याप्त होना कहा गया है, वह वायुकायिकों को छोड़कर नारक आदि की अपेक्षा से समझना चाहिए, क्योंकि नारक आदि जब वैक्रियसमुद्घात करते हैं, तब तथाविध प्रयत्न विशेष से संख्यात योजन-प्रमाण आत्मप्रदेशों के दण्ड की रचना करते हैं, असंख्यात योजन-प्रमाण दण्ड की रचना नहीं करते। किन्तु वायुकायिक जीव वैक्रियसमुद्घात के समय जघन्य और उत्कृष्ट अंगुल के असंख्यातवें भाग का ही दण्ड रचते हैं। इतने प्रमाण वाले दण्ड की रचना करते हुए नारक आदि उतने प्रदेश में तैजसशरीर आदि के पुद्गलों को आत्मप्रदेशों से बाहर निकालते हैं, ऐसी स्थिति में उन पुद्गलों से आपूर्ण और व्याप्त वह क्षेत्र लम्बाई में उत्कृष्ट रूप से संख्यात योजन ही होता है। क्षेत्र का यह प्रमाण केवल वैक्रियसमुद्घात से उत्पन्न प्रयत्न की अपेक्षा से कहा गया है। ___ जब वैक्रियसमुद्घात प्राप्त कोई जीव मारणान्तिकसमुद्घात को प्राप्त होता है और फिर तीव्रतर प्रयत्न के बल से उत्कृष्ट देश में तीन समय के विग्रह से उत्पत्तिस्थान में आता है, उस समय असंख्यात योजन लम्बा क्षेत्र समझना चाहिए। यह असंख्यात योजन-प्रमाण क्षेत्र को आपूर्ण करना मारणान्तिकसमुद्घात-जन्य होने से यहाँ विविक्षित नहीं है। इसी कारण वैक्रियसमुद्घात-जन्य क्षेत्र को संख्यात योजन ही कहा गया है। इसी प्रकार नारक, पंचेन्द्रियतिर्यञ्च एवं वायुकायिक की अपेक्षा से पूर्वोक्त प्रमाणयुक्त लम्बे क्षेत्र का आपूर्ण होना नियमतः एक दिशा में ही समझना चाहिए। नारक जीव पराधीन और अल्पऋद्धिमान होते हैं। पंचेन्द्रियतिर्यञ्च भी अल्पऋद्धिमान होते हैं और वायुकायिक जीव विशिष्ट चेतना से विकल होते हैं। ऐसी स्थिति में जब वे वैक्रियसमुद्घात का प्रारम्भ करते हैं, तब स्वभावतः ही आत्मप्रदेशों का दण्ड निकलता है और आत्मप्रदेशों से पृथक् होकर स्वभावतः पुद्गलों का गमन १. प्रज्ञापना. 'मलयवृत्ति, अभि.रा.कोष भा. ७, पृ. ४५६ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ छत्तीसवाँ समुद्घातपद] [२७७ श्रेणी के अनुसार होता है, विश्रेणी में गमन नहीं होता। इस कारण नारकों, पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों और वायुकायिकों का पूर्वोक्त आयाम क्षेत्र एक दिशा में ही समझना चाहिए, विदिशा में नहीं, किन्तु भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव तथा मनुष्य स्वेच्छापूर्वक विहार करने वाले हैं-स्वच्छन्द हैं और विशिष्टलब्धि से सम्पन्न भी होते हैं, अतः वे विशिष्ट प्रयत्न द्वारा विदिशा में भी आत्मप्रदेशों का दण्ड निकालते हैं। इसी दृष्टि से कहा गया है - ‘णवरं एगदिसिं विदिसिं वा' अर्थात् – असुरकुमारादि भवनवासी आदि चारों निकायों के देव और मनुष्य एक दिशा में भी पूर्वोक्त क्षेत्र को आपूर्ण और व्याप्त करते हैं।' (२) पूर्वोक्त प्रमाण वाला क्षेत्र, विग्रहगति से उत्पत्तिदेश पर्यन्त एक समय, दो समय अथवा तीन समय में विग्रहगति से आपूर्ण एवं व्याप्त होोत है। इस प्रकार विग्रहगति की अपेक्षा से मरणसमय से लेकर उत्पत्तिदेश पर्यन्त पूर्वोक्त प्रमाण क्षेत्र का आपूरण अधिक से अधिक तीन समय में हो जाता है, उसके चौथा समय नहीं लगता। वैक्रियसमुद्घातगत वायुकायिक भी प्रायः त्रसनाडी में उत्पन्न होता है और त्रसनाडी की विग्रहगति अधिक से अधिक तीन समय की होती है। इसलिए यहाँ कहा गया है, कि इतने (एक, दो या तीन) समय में पूर्वोक्त प्रमाण वाला क्षेत्र आपूर्ण एवं स्पृष्ट होता है।' __ (३-४-५-६) इसके पश्चात् क्रियासम्बन्धी चार तथ्यों का प्ररूपण वेदनासमुद्घात सम्बन्धी कथन के समान ही समझना चाहिए। तैजससमुद्घात-समवहत जीवादि के क्षेत्र, काल एवं क्रिया की प्ररूपणा २१६५. जीवे णं भंते ! तेयगसमुग्घाएणं समोहए समोहणित्ता जे पोग्गले णिच्छुभइ तेहि णं भंते! पोग्गलेहिं केवतिए खेत्ते अफुण्णे०? एवं जहेव वेउब्वियसमुग्घाए (सु० २१५९-६४) तहेव। णवरं आयामेणं जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजतिभागं, सेसं तं चेव। एवं जाव वेमाणियस्स, णवरं पंचेंदियतिरिक्खजोणियस्स एगदिसिं एवतिए खेत्ते अफुण्णे०? [२१६५ प्र.]भगवन् ! तैजसमुद्घात से समवहत जीव समवहत होकर जिन पुद्गलों को (अपने शरीर से बाहर) निकालता है, भगवन् ! उन पुद्गलों से कितना क्षेत्र आपूर्ण और कितना क्षेत्र स्पृष्ट (व्याप्त) होता हैं ? ___ [२१६५ उ.] गौतम! जैसे (सू. २१५९-६४ में) वैक्रियसमुद्घात के विषय में कहा है, उसी प्रकार तैजसमुद्घात के विषय में कहना चाहिए। विशेष यह है कि तैजससमुद्घात निर्गत पुद्गलों में लम्बाई में जघन्यतः अंगुल का असंख्यातवाँ भाग क्षेत्र आपूर्ण एवं स्पृष्ट होता है। (तैजससमुद्घातसम्बन्धी) शेष वक्तव्यता वैक्रियसमुद्घात की वक्तव्यता के समान है। इस प्रकार वैमानिक पर्यन्त वक्तव्यता समझनी चाहिए। विशेष यह है कि पंचेन्द्रियतिर्यञ्च एक ही दिशा में १. (क) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि. रा. कोष, भा. ७, पृ. ४५२ (ख) प्रज्ञापना (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. १०९३-१०९४ २. पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण) भा. १, पृ. ४४१ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८] पूर्वोक्त क्षेत्र को आपूर्ण एवं व्याप्त करते हैं । विवेचन – तैजससमुद्घात – तैजससमुद्घात चारों प्रकार के देवनिकायों, पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों और मनुष्यों में ही होता है। इसके अतिरिक्त नारक तथा एकेन्द्रिय, विकलेनिद्रय में नहीं होता । देवनिकाय आदि तीनों अतीव प्रयत्नशील होते हैं । अतः जब वे तैजसमुद्घात प्रारम्भ करते हैं, तब जघन्यत: लम्बाई में अंगुल का असंख्यातवाँ भाग क्षेत्र पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों को छोड़कर दिशा या विदिशा में आपूर्ण होता है। पंचेन्द्रियतिर्यञ्च द्वारा केवल एक दिशा में पूर्वोक्त क्षेत्र आपूर्ण एवं स्पृष्ट होता है। शेष सब कथन वैक्रियसमुद्घात के कथन के समान समझना चाहिए। आहारकसमुद्घात-समवहत जीवादि के क्षेत्र, काल एवं क्रिया की प्ररूपणा २१६६. [ १ ] जीवे णं भंते! आहारगसमुग्धाएणं समोहए समोहणित्ता जे पोग्गले णिच्छुभति तेहि णं भंते! पोग्गलेहिं केवतिए खेत्ते अफुण्णे केवतिए खेत्ते फुडे । [ प्रज्ञापनासूत्र ] गोमा ! सरीरपमाणमेत्ते विक्खंभ-बाहल्लेणं, आयामेणं, जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं उक्कोसेणं संखेज्जाई जोयणाई एगदिसिं एवइए खेत्ते ० । एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा विग्गहेणं एवतिकालस्स अफुण्णे एवतिकालस्स फुडे । [२१६६-१ प्र.] भगवन्! आहारकसमुद्घात से समवहत जीव समवहत होकर जिन (आहारकयोग्य) पुद्गलों को (अपने शरीर से) बाहर निकालता है, भगवन् ! उन पुद्गलों से कितना क्षेत्र आपूर्ण तथा कितना क्षेत्र स्पृष्ट (व्याप्त) होता है ? [२१६६-१ उ.] गौतम! विष्कम्भ और बाहल्य से शरीरप्रमाण मात्र (क्षेत्र) तथा लम्बाई में जघन्य अंगुल का असंख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट संख्यात योजन क्षेत्र एक दिशा में (उन पुद्गलों से) आपूर्ण और स्पृष्ट होता है। [२] ते णं भंते ! पोग्गला केवतिकालस्स णिच्छुभति ? गोयमा! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तस्स । [२१६६-२ प्र.] भगवन् ! (आहारकसमुद्घाती जीव) उन पुद्गलों को कितने समय में बाहर निकलता है ? [२१६६-२ उ.] गौतम! जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त में (वह उन पुद्गलों को) बाहर निकालता है। [ ३ ] ते णं भंते! पोग्गला णिच्छूढा समाणा जाई तत्थ पाणाई भूयाइं जीवाई सत्ताइं अभिहणंति जाव उद्दवेंति तओ णं भंते! जीवे कतिकिरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय पंचकिरिए । १. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ११००-११०१ (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि. रा. कोष, भा. ७, पृ. ४५६ २. पूरक पाठ - 'अफुण्णे एवइए खेत्ते फुडे । [प्र.] से णं भंते । केवइकालस्स अफुण्णे, केवइकालस्स फुडे ? [उ.] गोयमा ! Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [छत्तीसवाँ समुद्घातपद] [२७९ ते णं भंते! जीव तातो जीवाओ कतिकिरिया ? गोयमा! एवं चेव। [२१६६-३ प्र.] भगवन् ! बाहर निकाले हुए वे पुद्गल वहाँ जिन प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों का अभिघात करते हैं, यावत् उन्हें प्राणरहित कर देते हैं, भगवन् ! उनसे (समुद्घातकर्ता) जीव को कितनी क्रियाएं लगती हैं ? [२१६६-३ उ.] (ऐसी स्थिति में) वह कदाचित् तीन, कदाचित् चार और कदाचित् पांच क्रियाओं वाला होता है। ___ [प्र.] भगवन् ! वे आहारकसमुद्घात द्वारा बाहर निकाले हुए पुद्गलों से स्पृष्ट हुए जीव आहारकसमुद्घात करने वाले जीव के निमित्त से कितनी क्रियाओं वाले होते हैं ? [उ.] गौतम! इसी प्रकार समझना चाहिए। [४] से णं भंते! जीवे ते य जीवा अण्णेसिं जीवाणं परंपराघाएणं कतिकिरिया? गोयमा! तिकिरिया वि चउकिरिया वि पंचकिरिया वि। [२१६६-४ प्र.] (आहारकसमुद्घातकर्ता) वह जीव तथा (आहारकसमुद्घातगत पुद्गलों से स्पृष्ट) वे जीव, अन्य जीवों का परम्पर से घात करने के कारण कितनी क्रियाओं वाले होते हैं ? [२१६६-४ उ.] गौतम! (पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार) वे तीन क्रिया वाले, चार क्रिया वाले अथवा पांच क्रिया वाले भी होते हैं। २१६७. एवं मणूसे वि। [२१६७] इसी प्रकार मनुष्य के आहारकसमुद्घात की वक्तव्यता समझ लेनी चाहिए। विवेचन-आहारकसमुद्घात सम्बन्धी वक्तव्यता-शरीर के विस्तार और स्थौल्य जितना क्षेत्र विष्कम्भ और बाहल्य की अपेक्षा आपूर्ण और स्पृष्ट होता है। लम्बाई में जघन्य अंगुल का असंख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट संख्यात योजन क्षेत्र उन पुद्गलों से एक दिशा में आपूर्ण स्पृष्ट होता है। वे पुद्गल विदिशा में क्षेत्र को आपूर्ण या व्याप्त नहीं करते। विग्रह की अपेक्षा से पूर्वोक्त क्षेत्र एक समय, दो समय अथवा तीन समय की विग्रहगति से आपूर्ण एवं स्पृष्ट होता है। ___ आहारकसमुद्घात मनुष्यों में ही हो सकता हैं । मनुष्यों में भी उन्हीं को होता है, जो चौदहपूर्वो का अध्ययन कर चुके हों। चौदह पूर्वो के अध्येताओं में भी उन्हीं मुनियों को होता है, जो आहारकलब्धि के धारक हों। अतएव चौदह पूर्वो के पाठक और आहारकलब्धि के धारक मुनिवर जब आहारकसमुद्घात करते है, तब जघन्य और उत्कृष्ट रूप से पूर्वोक्त क्षेत्र को आत्मप्रदेशों से पृथक् किये पुद्गलों से एक दिशा में आपूर्ण और स्पृष्ट करते हैं, विदिशा में नहीं। विदिशा में जो आपूर्ण स्पृष्ट होता है, उसके लिए दूसरे प्रयत्न की आवश्यकता होती है, किन्तु १. (क) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि. रा. कोष, भा. ७, पृ. ४५६ (ख) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ११०२-११०३ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८०] [प्रज्ञापनासूत्र] आहारकलब्धि के धारक तथा आहारकसमुद्घात करने वाले मुनि इतने गम्भीर होते हैं कि उन्हें वैसा कोई प्रयोजन नहीं होता। अत: वे दूसरा प्रयत्न नहीं करते। - इसी प्रकार आहारकसमुद्घातगत कोई जीव मृत्यु को प्राप्त होता है और विग्रहगति से उत्पन्न होता है, और वह विग्रह अधिक से अधिक तीन समय का होता है। अन्य सब आहारकसमुद्घातगत कथन वेदनासमुद्घात के समान जानना चाहिए। दण्डकक्रम से आहरकसमुद्घात की वक्तव्यता क्यों?-यद्यपि आहारकसमुद्घात मनुष्यों को ही होता है, अतएव समुच्चय जीवपद में जो आहारकसमुद्घात की प्ररूपणा की गई है, उसमें मनुष्य का अन्तर्भाव हो ही जाता है. तथापि दण्डकक्रम से विशेषरूप से प्राप्त मनुष्य के आहारकसमदघात का भी उल्लेख किया गया है। इस कारण यहाँ पुनरुक्तिदोष की कल्पना नहीं करना चाहिए। केवलिसमुद्घात-समवहत अनगार के निर्जीर्ण अन्तिम पुद्गलों की लोकव्यापिता . २१६८. अणगारस्स णं भंते! भावियप्पणो केवलिसमुग्घाएणं समोहयस्स जे चरिमा णिजरापोग्गला सुहुमा णं ते पोग्गला पण्णत्ता समणाउसो! सव्वलोगं पि य णं ते फुसित्ता णं चिट्ठति? .. हंता गोयमा! अणगारस्स भावियप्पणो केवलिसमुग्घाएणं समोहयस्स जे चरिमा णिजरापोग्गला सुहुमा णं ते पोग्गला पण्णत्ता समणाउसो! सव्वलोगं पि य णं ते फुसित्ता णं चिट्ठति। [२१६८ प्र.] भगवन् ! केवलिसमुद्घात से समवहत भावितात्मा अनगार के जो चरम (अन्तिम) निर्जरापुद्गल हैं, हे आयुष्मन् श्रमण ! क्या वे पुद्गल सूक्ष्म कहे गए है, क्या वे समस्त लोक को स्पर्श करके रहते हैं ? [२१६८ उ.] हाँ, गौतम! केवलिसमुद्घात से समवहत भावितात्मा अनगार के जो चरम निर्जरा-पुद्गल होते हैं, हे आयुष्मन् श्रमण ! वे पुद्गल सूक्ष्म कहे गए हैं तथा वे समस्त लोक को स्पर्श करके रहते हैं। २१६९. छउमत्थे णं भंते! मणूसे तेसिं णिजरापोग्गलाणं किंचि वण्णेणं वण्णं गंधेणं गंधं रसेणं रसं फासेण वा फासं जाणति पासति ? गोयमा! णो इणढे समढे । से केणढेणं भंते! एवं वुच्चति छउमत्थे णं मणूसे तेसिं णिजरापोग्गलाणं णो किंचि वि वण्णेणं वण्णं गंधेणं गंधं रसेणं रसं फासेणं फासं जाणति पासति ? गोयमा! अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीव-समुद्दाणं सव्वब्भंतराए सव्वखुड्डाए वट्टे तेल्लापूयसंठाणसंठिए एगं जोयणसयसहस्सं आयाम-विक्खंभेणं, तिण्णि य जोयणसयसहस्साइं सोलस य सहस्साई दोण्णि य सत्तावीसे जोयणसत्ते तिण्णि य कोसे अट्ठावीसं च धणुसतं तेरस य अंगुलाई अद्धं च किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते। देवे णं महिड्ढीए जाव महासोक्खे एगं महं सविलेवणं गंधसमुग्गयं गहाय तं अवदालेति, तं महं एगं सविलेवणं गंधसमुग्गयं अवदालेत्ता इणामेव कटु केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं १.(क) वही भा. ७, पृ. ११०७ (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अ.रा. कोष, भा. ७, पृ. ४५६ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ छत्तीसवाँ समुद्घातपद ] [ २८१ तिंहि अच्छराणिवातेहिं तिसत्तखुत्तो अणुपरियट्टित्ता णं हव्वमागच्छेजा से णूणं गोयमा ! से केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे तेहिं घाणपोग्गलेहिं फुडे ? हंता फुडे । छउमत्थे णं गोतमा ! मणूसे तेसिं घाणपोग्गलाणं किंचि वण्णेणं वण्णं गंधेणं गंधं रसेणं रसं फासेणं फासं जाणति पासति ? भगवं! णो इणट्ठे समट्ठे । ट्ठे गोयमा ! एवं वुच्चति छउमत्थे णं मणूसे तेसिं णिज्जरापोग्गलाणं णो किंचि वण्णेणं वण्णं गंधेणं गंधं रसेणं रसं फासेणं फासं जाणति पासति, एसुहुमा णं ते पोग्गला पण्णत्ता समणाउसो ! सव्वलोगं पि य णं फुसित्ता णं चिट्ठति । [२१६९ प्र.] भगवन्! क्या छद्मस्थ मनुष्य उन निर्जरा - पुद्गलों के चक्षु इन्द्रिय (वर्ण) से किंचित् वर्ण को, घ्राणेन्द्रिय (गन्ध) से किंचित् गंध को रसनेन्द्रिय (रस) से रस को, अथवा स्पर्शेन्द्रिय से स्पर्श को जानता - देखता है ? [२१६९ उ.] गौतम ! यह अर्थ ( बात) शक्य (समर्थ) नहीं है। [प्र.] भगवन्! किस कारण ऐसा कहते हैं कि छद्मस्थ मनुष्य उन निर्जरा - पुद्गलों के चक्षु-इन्द्रिय से वर्ण को, घ्राणेन्द्रिय से गन्ध को, रसनेन्द्रिय से रस को तथा स्पर्शेन्द्रिय से स्पर्श को किचित् भी नहीं जानता- देखता ? [उ.] गौतम! यह जम्बूदीप नामक द्वीप समस्त द्वीप-समुद्रों के बीच में है, सबसे छोटा है, वृत्ताकार (गोल) है, तेल के पूए के आकार का है, रथ के पहिये (चक्र) के आकार सा गोल है, कमल की कर्णिका के आकार-सा गोल है, परिपूर्ण चन्द्रमा के आकार सा गोल है। लम्बाई और चौडाई (आयाम एवं विष्कम्भ ) में एक लाख योजन है । तीन लाख, सोलह हजार दो सो सत्ताईस योजन, तीन कोस, एक सौ अट्ठाईस धनुष, साढ़े तेरह अंगुल से कुछ विशेषाधिक परिधि से युक्त कहा है। एक महर्द्धिक चावत् महासौख्यसम्पन्न देव विलेपन सहित सुगन्ध की एक बड़ी डिविया को (हाथ में लेकर) उसे खोलता है। फिर विलेपनयुक्त सुगन्ध की खुली हुई उस बडी डिबिया को, इस प्रकार हाथ में लेकर के सम्पूर्ण जम्बूदीप नामक द्वीप को तीन चुटकियों मे इक्कीस बार घूम कर वापस शीघ्र जाय, तो हे गौतम! (यह बताओ कि ) क्या वास्तव में उन गन्ध के पुद्गलों से सम्पूर्ण जम्बूद्वीप स्पृष्ट हो जाता है ? [उ.] हाँ, भंते! स्पृष्ट (व्याप्त) हो जाता है। [प्र.] भगवन्! क्या छद्मस्थ मनुष्य (समग्र जम्बूद्वीप में व्याप्त) उन घ्राणको नासिका से, रस को रसेन्द्रिय से और स्पर्श को स्पर्शेन्द्रिय से किचित् जान -पुदगलों के वर्ण को चक्षु से गन्ध देख पाता है ? [उ.] हे गौतम! यह अर्थ समर्थ (शक्य) नहीं है। (भगवान्) इसी कारण से हे गौतम! ऐसा कहा जाता है कि छद्मस्थ मनुष्य उन निर्जरा- पुद्गलों के वर्ण को नेत्र से, गन्ध को नाक से रस को जिह्वा से और स्पर्श को स्पर्शेन्द्रिय से किंचित् भी नहीं जान-देख पाता । हे आयुष्मन् श्रमण ! वे (निर्जरा-) पुद्गल सूक्ष्म कहे गए हैं तथा वे समग्र लोक को स्पर्श करके रहे हुए हैं। विवेचन - के वलिसमुद्घात - समवहत भावितात्मा अनगार के चरम - निर्जरा - पुद् गल - प्रस्तुत Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२] [ प्रज्ञापनासूत्र ] केवलिसमुद्घात प्रकरण में दो बातों को स्पष्ट किया गया है - (१) यह बात यथार्थ है कि केवलिसमुद्घात से समवहत भावितात्मा अनगार के चरम (चतुर्थ) समवर्ती निर्जरा- पुद्गल अत्यन्त सूक्ष्म हैं तथा वे समग्र लोक को व्याप्त करके रहते हैं । (२) छद्मस्थ मनुष्य उन निर्जरा- पुद्गलों के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श को किचित् भी नहीं - देख सकते, क्योंकि एक तो वे पुद्गल अत्यन्त सूक्ष्म हैं, दूसरे वे पुद्गल समग्र लोक मे व्याप्त हैं, कहीं भी कोई ऐसी जगह नहीं है, जहाँ वे न हों और समग्र लोक तो बहुत ही बडा है। लोक का एक भाग जम्बूद्वीप से लेकर सभी द्वीप - समुद्रों का विस्तार दुगुना - दुगुना है। अर्थात् जम्बूद्वीप से आगे के लवणसमुद्र और धातकीखण्ड आदि द्वीप, अपने से पहले वाले द्वीप-समुद्रों से लम्बाई-चौडाई में दुगुने और परिधि में बहुत बड़े हैं। तेल में पकाये हुए पूए के समान या रथ के चक्र के समान अथवा कमलकर्णिका के समान आकार का या पूर्ण चन्द्रमा के समान गोल जम्बूद्वीप भी लम्बाई-चौडाई में एक लाख योजन का है। तीन लाख, सोलह हजार दो सौ सत्ताईस योजन तीन कोस, एक सौ अट्ठाईस धनुष तथा साढ़े तेरह अंगुल से कुछ अधिक की उसकी परिधि है । कोई महर्द्धिक एवं यावत् महासुखी, महावली देव विलेपन द्रव्यों से आच्छादित एवं गन्ध द्रव्यों से परिपूर्ण एक डिबिया को लेकर उसे खोले ओर फिर उसे लेकर सारे जम्बूद्वीप के, तीन चुटकियाँ बजाने जितने समय में इक्कीस बार चक्कर लगा कर आ जाए, इतने समय में ही सारा जम्बूद्वीप उन गंधद्रव्यों (पुद्गलों) से व्याप्त हो जाता है। सारे लोक में व्याप्त को तो दूर रहा, लोक के एक प्रदेश – जम्बूद्वीप मे व्याप्त गन्धपुद्गलों को भी जैसे छद्मस्थ मनुष्य पांचों इन्द्रियों से जान-देख नहीं सकता; इसी प्रकार छद्मस्थ मनुष्य केवलिसमुद्घात - समवहत केवली भगवान् द्वारा निर्जीर्ण अन्तिम पुद्गलों को नहीं जान- देख सकता, क्योंकि वे अत्यन्त सूक्ष्म हैं तथा सर्वत्र फैले हुए हैं। कठिन शब्दों का भावार्थ - चरमा णिज्जरापोग्गला - केवलीसमुद्घात के चौथे समय के निर्जीण पुद्गल । वण्णेणं-वर्णग्राहक नेत्रेन्द्रिय से । घाणेणं - गन्धग्राहक नासिका - घ्राणेन्द्रिय-से रसेणं - रसग्राहक रसनेन्द्रिय से। फासेणं - स्पर्शग्राहक स्पर्शेन्द्रिय से । सव्वब्धंतराए - सब के बीच में । सव्वखुड्डाए - सबसे छोटे । तेलापूयसंठाणंसंठिए - तेल के मालपूए के समान आकार का । रहचक्कवालसंठाणसंठिए - रथ के चक्र के समान गोलाकार। परिक्खेवेणं- परिधि से युक्त । केवलकप्पं- सम्पूर्ण । अच्छरा - णिवातेहिं – चुटकियाँ बजा कर । अणपरियट्टित्ता - चक्कर लगाकर या घूमकर । फुडे – स्पृष्ट है - व्याप्त है । आशय - इस प्रकरण को इस प्रकार से प्रारम्भ करने का आशय यह है कि केवलिसमुद्घात से समवहत मुनि के केवलिसमुद्घात के समय शरीर से बाहर निकाले हुए चरमनिर्जरा - पुद्गलों के द्वारा समग्र लोक व्याप्त है। जिसे केवलि ही जान-देख सकता है, छद्मस्थ मनुष्य नहीं । छद्मस्थ मनुष्य सामान्य या विशेष किसी भी रूप में उन्हें जान-देख नहीं सकता । केवलिसमुद्घात का प्रयोजन २१७०. [ १ ] कम्हा णं भंते! केवली समुग्धायं गच्छति ? १. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. १११३ से १११६ २. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. १९१४ से १११६ तक ३. पण्णवणासुत्तं भा. १, पृ. ४४३ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ छत्तीसवाँ समुद्घातपद ] [ २८३ - गोयमा ! केवलिस्स चत्तारि कम्मंसा अक्खीणा अवेदिया अणिज्जिण्णा भवंति । तं जहा - वेयणिजे १ आउए २ णामे ३ गोए ४ । सव्वबहुप्पएसे से वेदणिज्जे कम्मे भवति, सव्वत्थोवे से आउए कम्मे भवति ।, विसमं सम करेति बंधणेहिं ठितीहि य । विसमसमीकरणयाए बंधणेहिं ठितीहि य ॥ २२८ ॥ एवं खलु केवली समोहण्णति, एवं खलु समुग्धायं गच्छति । [२१७०-१ प्र.] भगवन् ! किस प्रयोजन से केवली समुद्घात करते हैं ? [२१७०-१ उ.] गौतम! केवली के चार कर्मांश क्षीण नहीं हुए है, वेदन नही किये (भोगे नहीं गए) है, निर्जरा को प्राप्त नहीं हुए हैं, ( चार कर्म ) इस प्रकार हैं (१) वेदनीय, (२) आयु, (३) नाम और (४) गोत्र । उनका वेदनीयकर्म सबसे अधिक प्रदेशों वाला होता है। उनका सबसे कम (प्रदेशों वाला) आयुकर्म होता है । - [गाथार्थ - ] वे बन्धनों और स्थितियों से विषम (कर्म) को सम करते हैं। ( वस्तुतः ) बन्धनों और स्थितियों के विषम कर्मों का समीकरण करने के लिए केवली केवलिसमुद्घात करते हैं तथा इसी प्रकार केवलिसमुद्घात को प्राप्त होते हैं । २] सव्वे विणं भंते! केवली समोहण्णंति ? सव्वे वि णं भंते! केवली समुग्धायं गच्छंति ? गोयमा! णो इणट्ठे समट्ठे, जस्साऽऽउएणतुल्लाइं बंधणेहिं ठितीहि य । भवोवग्गहकम्माई समुग्धायं से ण गच्छति ॥ २२९ ॥ अगंतूणं समुग्धायं अनंता केवली जिण । जर - मरणविप्यमुक्का सिद्धिं वरगतिं गता ॥ २३० ॥ [२१७०-२ प्र.] भगवन् ! क्या सभी केवली भगवान् समुद्घात करते हैं ? तथा क्या सब केवली समुद्घात को प्राप्त होते हैं ? [२१७०-२ उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । [गाथार्थ - ] जिसके भवोपग्राही कर्म बन्धन एवं स्थिति से आयुष्यकर्म के तुल्य होते हैं, वह केवली समुद्घात नहीं करता। समुद्घात किये बिना ही अनन्त केवलज्ञानी जिनेन्द्र जरा और मरण से सर्वथा रहित हुए हैं तथा श्रेष्ठ सिद्धिगति प्राप्त हुए हैं। विवेचन - केवली द्वारा केवलिसमुद्घात क्यों और क्यों नहीं ? - प्रश्न का आशय यह है कि केवली तो कृतकृत्य तथा अनन्तज्ञानादि से परिपूर्ण होते हैं, उनका प्रयोजन शेष नहीं रहता, फिर उन्हें केवलिसमुद्घात की क्या आवश्यकता ? Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४] [प्रज्ञापनासूत्र] इसका समाधान स्वयं शास्त्रकार करते हैं कि केवली अभी पूर्ण रूप से कृतकृत्य, आठों कों से रहित, सिद्ध-बुद्ध-मुक्त नहीं हुए, उनके भी चार अघातीकर्म शेष हैं, जो कि भवोपग्राही कर्म होते हैं। अतएव केवली के चार प्रकार के कर्म क्षीण नहीं हुए, क्योंकि उनका पूर्णतः वेदना नहीं हुआ। कहा भी है-'नाभुक्तं क्षीयते कर्म।' कर्मों का क्षय तो नियम से तभी होता है जब उनका प्रदेशों से या विपाक से वेदन कर लिया जाए, भोग लिया जाए। कहा भी है-"सव्वं च पएसतया भुजइ कम्ममणुभावओ भइयं" अर्थात् सभी कर्म प्रदेशों से भोगे जाते हैं, विपाक से भोगने की भजना है। केवली के ४ कर्म,जिन्हें भोगना बाकी है, ये हैं- वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र । चूंकि इन चारों कर्मों का वेदन नहीं हुआ, इसलिए उनकी निर्जरा नहीं हुई। अर्थात् वे आत्मप्रदेशों से पृथक् नहीं हुए। इन चारों में वेदनीयकर्म सर्वाधिक प्रदेशों वाला होता है। नाम और गोत्र भी अधिक प्रदेशों वाले हैं, परन्तु आयुष्यकर्म के बराबर नहीं। आयुष्यकर्म सबसे कम प्रदेशों वाला होता है। केवली के आयुष्यकर्म के बराबर शेष तीन कर्म न हों तो वे उन विषम स्थिति एवं बन्ध वाले कर्मों को आयुकर्म के बराबर करके सम करते हैं। ऐसे सम करने वाले केवली केवलीसमुद्घात करते हैं। वे विषम कर्मों को, जो कि बन्ध से और स्थिति से सम नहीं है, उन्हें सम करते हैं, ताकि चारों कर्मों का एक साथ क्षय हो सके। योग (मन, वचन, काया का व्यापार) के निमित्त से जो कर्म बंधते है, अर्थात् आत्मप्रदेशों के साथ एकमेक होते है, उन्हें बन्धन कहते हैं और कर्मो के वेदन के काल को स्थिति कहते है। बंधन और स्थिति, इन दोनों से केवली वेदनीय कर्मों को आयुष्यकर्म के बराबर करते हैं। कर्म द्रव्यबन्धन कहलाते हैं, जबकि वेदनकाल को स्थिति कहते हैं। यही केवलिसमुद्घात का प्रयोजन हैं। जिन केवलियों का आयुष्यकर्म बन्धन और स्थिति से भवोपग्राही अन्य कर्मों के तुल्य होता है, वे केवलिसमुद्घात नहीं करते, वे केवलिसमुद्घात किये बिना ही सर्व कर्म मुक्त होकर सिद्ध, बुद्ध एवं सर्व जरा-मृत्यु से मुक्त हो जाते हैं। ऐसे अनन्त सिद्ध हुए हैं। समुद्घात वे ही केवली करते हैं, जिनकी आयु कम होती है और वेदनीयादि तीन कर्मों की स्थिति एवं प्रदेश अधिक होते हैं तब उन सबको समान करने हेतु समुद्घात किया जाता है। समुद्घात करने से उक्त चारों कर्मो के प्रदेश और स्थितिकाल में समानता आ जाती है। यदि वे समुद्घात न करें तो आयुकर्म पहले ही समाप्त हो जाए और उक्त तीन कर्म शेष रह जाएँ। ऐसी स्थिति में या तो तीन कर्मों के साथ वे मोक्षगति में जाएँ या नवीन आयुकर्म का बन्ध करें, किन्तु ये दोनों ही बातें असम्भव हैं । मुक्तदशा में कर्म शेष नहीं रह सकते और न ही मुक्त जीव नये आयुकर्म का बन्ध कर सकते हैं। इसी कारण केवलिसमुद्घात के द्वारा वेदनीयादि तीन कर्मों के प्रदेशों की विशिष्ट निर्जरा करके तथा उनकी लम्बी स्थिति का घात करके उन्हें आयुष्यकर्म के बराबर कर लेते हैं, जिससें चारों का क्षय एक साथ हो सके। गौतम स्वामी विशेष परिज्ञान के लिए पुनः प्रश्न करते है-भगवन् ! क्या सभी केवली समुद्घात में प्रवृत्त होते है ? समाधान-न सभी केवली समुद्घात के लिए प्रवृत्त होते हैं और न ही सभी समुद्घात करते हैं। कारण ऊपर बताया जा चुका है। समस्त कर्मों का क्षय हो जाने पर आत्मा का अपने शुद्ध स्वभाव में स्थित होना सिद्धि है। जिसके चारों कर्म स्वभावतः समान होते हैं, वह एक साथ उनका क्षय करके समुद्घात किये बिना ही सिद्धि प्राप्त कर लेता १. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ११२५ से ११२८ (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अ.रा.कोष, भा. ७, पृ. ८२३ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [छत्तीसवाँ समुद्घातपद] [२८५ केवलिसमुद्घात के पश्चात् योगनिरोध आदि की प्रक्रिया २१७१. कतिसमइए णं भंते! आउज्जीकरणे पण्णत्ते? । गोयमा! असंखेजसमइए अंतोमुहुत्तिए आउजीकरणे पण्णत्ते। [२१७१ प्र.] भगवन् ! आवर्जीकरण कितने समय का कहा गया है? [२१७१ उ.] गौतम! आवर्जीकरण असंख्यात समय के अन्तर्मुहूर्त का कहा गया है। २१७२. कतिसमइए णं भंते! केवलिसमुग्घाए पण्णत्ते ? गोयमा! अट्ठसमइए पण्णत्ते। तं जहा-पढमे समए दंडं करेति, बिइए समए कवाडं करेति, ततिए समए मंथं करेति, चउत्थे समए लोगं पूरेइ, पंचमे समये लोयं पडिसाहरति, छठे समए मंथं पडिसाहरति, सत्तमे समए कवाडं पडिसाहरति, अट्ठमे समए दंडं पडिसाहरति, दंडं पडिसाहरित्ता ततो पच्छा सरीरत्थे भवति। [२१७२ प्र.] भगवन् ! केवलिसमुद्घात कितने समय का कहा गया है ? [२१७२ उ.] गौतम! वह आठ समय का कहा गया है, वह इस प्रकार है-प्रथम समय में दण्ड (की रचना) करता है, द्वितीय समय में कपाट करता है, तृतीय समय में मन्थान करता है, चौथे समय में लोक को व्याप्त करता है, पंचम समय में लोक-पूरण को सिकोडता है, छठे समय में मन्थान को सिकोडता है, सातवें समय में कपाट को सिकोडता है और आठवें समय मे दण्ड को सिकोडता है और दण्ड का संकोच करते ही (पूर्ववत्) शरीरस्थ हो जाता है। २१७३. [१] से णं भंते! तहासमुग्धायगते कि मणजोगं जुंजइ वइजोगं जुंजइ कायजोगं जुंजइ ? गोयमा! णो मणजोगं जुंजइ णो वइजोगं जुंजइ, कायजोगं जुंजइ। [२१७३-१ प्र.] भगवन् ! तथारूप से समुद्घात प्राप्त केवली क्या मनोयोग का प्रयोग करता है, वचनयोग का प्रयोग करता है, अथवा काययोग का प्रयोग करता है ? ___ [२१७३-१ उ.] गौतम! वह मनोयोग का प्रयोग नहीं करता, वचनयोग का प्रयोग नहीं करता, किन्तु काययोग का प्रयोग करता है। [२] कायजोगणं भंते! जुंजमाणे किं ओरालियसरीरकायजोगं जुंजइ ओरालियमीसासरीरकायजोगं जुंजइ ? किं वेउब्वियसरीरकायजोगं जुंजइ ? वेउब्वियमीसासरीरकायजोगं जुंजइ ? आहारगसरीरकायजोगं जुंजइ आहारगमीसासरीरकायजोगं जुंजइ ? किं कम्मगसरीरकायजोगं जुंजइ ? ___ गोयमा! ओरालियसरीरकायजोगं पि जंजड़ ओरालियमीसासरीरकायजोगं पि जुजइ, णो वेउब्वियसरीरकायजोगं जुंजइ णो वेउव्वियमीसासरीरकायजोगं जुंजइ, णो आहारगसरीरकायजोगं जुंजइ णो Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६] [प्रज्ञापनासूत्र] आहारगमीसासरीरकायजोगं जुंजइ, कम्मगसरीरकायजोगं पि जुंजइ, पढमट्ठमेसु समएसु ओरालियसरीरकायजोगं जुंजइ, बितिय-छट्ठ-सत्तमेसु ओरालियमीसगसरीरकायजोगं जुंजइ, ततिय-चउत्थ-पंचमेसु समएसु कम्मगसरीरकायजोगं जुंजइ। [२१७३-२ प्र.] भगवन्! काययोग का प्रयोग करता हुआ केवली क्या औदारिकशरीरकाययोग का प्रयोग करता है, औदारिकमिश्रशरीरकाययोग का प्रयोग करता है, वैक्रियशरीरकाययोग का प्रयोग करता है, वैक्रियमिश्रशरीरकाययोग का प्रयोग करता है, आहारकशरीरकाययोग का प्रयोग करता है, आहारकमिश्रशरीरकाययोग का प्रयोग करता है अथवा कार्मणशरीरकाययोग का प्रयोग करता है? [२१७३-२ उ.] गौतम! (काययोग का प्रयोग करता हुआ केवली) औदारिकशरीरकाययोग का भी प्रयोग करता है, औदारिकमिश्रशरीरकाययोग का भी प्रयोग करता है, किन्तु न तो वैक्रियशरीरकाययोग का प्रयोग करता है, न वैक्रियमिश्रशरीरकाययोग का प्रयोग करता है. न आहारकशरीरकाययोग का प्रयोग करता है और न ही आहारकमिश्रशरीरकाययोग का प्रयोग करता है, वह कार्मणशरीरकाययोग का प्रयोग करता है। प्रथम और अष्टम समय में औदारिकशरीरकाययोग का प्रयोग करता है, दूसरे, छठे, और सातवें समय में औदारिकमिश्रशरीरकाययोग का प्रयोग करता है तथा तीसरे, चौथे और पांचवें समय में कार्मणशरीरकाययोग का प्रयोग करता है। २१७४. [१] से णं भंते! तहासमुग्घायगते सिन्झइ बुझइ मुच्चई परिणिव्वाइ सव्वदुक्खाणं अंतं करेइ ? गोयमा! णो इणढे समढे, से णं तओ पडिनियत्तति, ततो पडिनियत्तित्ता ततो पच्छा मणजोगं पि जुंजइ वइजोगं पि जुंजइ कायजोगं पि जुंजइ । ___ [२१७४-१ प्र.] भगवन् ! तथारूप समुद्घात को प्राप्त केवली क्या सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और परिनिर्वाण को प्राप्त हो जाते हैं, क्या वह सभी दु:खों का अन्त कर देते हैं ? [२१७४-१ उ.] गौतम! यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य) नहीं है। पहले वे उससे (केवलिसमुद्घात से) प्रतिनिवृत्त होते हैं। तत्पश्चात् वे मनोयोग का उपयोग करते हैं, वचनयोग और काययोग का भी उपयोग करते हैं। [२] मणजोगणं जुंजमाणे किं सच्चमणजोगं जुंजइ मोसमणजोगं गुंजइ सच्चामोसमणजोगं जुंजइ असच्चामोसमणजोगं जुंजइ? गोयमा ! सच्चमणजोगं जुंजइ,णो मोसमणजोगं जुंजइ णो सच्चामोसमणजोगं जुंजइ, असच्चामोसमणजोगं पि जुंजइ। [२१७४-२ प्र.] भगवन् ! मनोयोग का उपयोग करता हुआ केवलिसमुद्घात करने वाला केवली क्या सत्यमनोयोग का उपयोग करता है, मृषामनोयोग का उपयोग करता है, सत्यामृषामनोयोग का उपयोग करता है, अथवा असत्यामृषामनोयोग का उपयोग करता है? । [२१७४-२ उ.] गौतम! वह सत्यमनोयोग का उपयोग करता है और असत्यामृषामनोयोग का भी उपयोग करता है, किन्तु न तो मृषामनोयोग का उपयोग करता है और न सत्यामृषामनोयोग का उपयोग करता है। Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ छत्तीसवाँ समुद्घातपद ] [ २८७ [ ३ ] वयजोगं जुंज़माणे किं सच्चवइजोगं जुंजइ मोसवइजोगं जुंजइ सच्चामोसवइजोगं जुंजइ असच्चामोसवइजोगं जुंजइ ? गोयमा! सच्चवइजोगं जुंजइ, णो मोसवइजोगं जुंजइ णो सच्चामोसवइजोगं जुंजइ असच्चामोसवइजोगं पि जुंजइ । [२१७४-३] भगवन्! वचनयोग का उपयोग करता हुआ केवली क्या सत्यवचनयोग का उपयोग करता है, मृषावचनयोग का उपयोग करता है, सत्यमृषावचनयोग का उपयोग करता है, अथवा असत्यामृषावचनयोग का उपयोग करता है ? [२१७४-३] गौतम! वह सत्यवचनयोग का उपयोग करता है और असत्यामृषावचनयोग का भी उपयोग करता है, किन्तु न तो मृषावचनयोग का उपयोग करता है और न ही सत्यमृषावचनयोग का उपयोग करता है। [४] कायजोगं जुंजमाणे आगच्छेज वा गच्छेज वा चिट्ठेज वा णिसीएज्ज वा तुयट्टेज वा उल्लंघेज्ज वा पलंघेज्ज वा पाडिहारियं पीढ - फलग - सेज्जा- संथारगं पच्चप्पिणेज्जा । [२१७४-४] काययोग का उपयोग करता हुआ (केवलिसमुद्घातकर्त्ता केवली) आता है, जाता है, ठहरता है, बैठता है, करवट बदलता है (या लेटता है), लांघता है, अथवा विशेष रूप से लांघता (छलांग मारता) है, या वापस लौटाये जाने वाले पीठ (चौकी), पट्टा, शैया ( वसति - स्थान), तथा संस्तारक (आदि सामान) वापस लौटता है। २१७५. से भंते! तहा सजोगी सिज्झति जाव अंतं करेति ? गोयमा! णो इणट्ठे समट्ठे । से णं पुव्वामेव सण्णिस्स पंचेंदियस्स पज्जत्तयस्स जहण्णजोगिस्स हेट्ठा असंखेज्जगुणपरिहीणं पढमं मणजोगं णिरुंभइ, तओ अणंतरं च णं बेइंदियस्स पज्जत्तगस्सं जहण्णजोगिस्स ट्ठा असंखेज्जगुणपरिहीणं दोच्चं वइजोगं णिरुं भति, तओ अणंतरं च णं सुहुमस्स पणगजीवस्स अपज्जत्तयस्स जहण्णजोगिस्स हेट्ठा असंखेज्जगुणपरिहीणं तच्चं कायजोगं णिरुंभति । से णं एतेणं उवाएणं पढमं मणजोगं णिरुंभित्ता व जोगं णिरुंभति, वइजोगं णिरुंभित्ता कायजोगं णिरुंभित । से णं एतेणं उवाएणं पढमं मणजोगं णिरुं भति जोगणिरोहं करेति, जोगणिरोहं करेत्ता अजोगयं पाउणति, अजोगयं पाउणित्ता ईसीहस्सपंचक्खरुच्चारणद्वाए असंखेज्जसमइयं अंतोमुहुत्तियं सेलेसिं पडिवज्जइ, पुव्वरइतगुणसेढीयं च णं तीसे सेलेसिमद्धाए असंखेज्जाहिं गुणसेढीहिं असंखेज्जे OOOOO 00000 OOOO 00000 OOOO कम्मं कम्मखंधे खवयति, खवइत्ता वेदणिज्जाऽऽउय - णाम-गोत्ते इच्चेते चत्तारि कम्मंसे जुगवं खवेति, जुगवं खवेत्ता ओरालियतेया- कम्मगाईं सव्वाहि विप्पजहणाहि विप्पजहति, विप्पजहित्ता उजुसेढीपडिवण्णे अफुसमाणगतीए एगसमएणं अविग्गणं उड्ढं गंता सागारोवउत्ते सिज्झति बुज्झति० । 00000 [२१७५ प्र.] भगवन्! वह तथारूप सयोगी (केवलिसमुद्घातप्रवृत्त केवली) सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, यावत् सर्वदुःखों का अन्त कर देते हैं ? १. अधिक पाठ - ' तत्थ सिद्धो भवति' अर्थात् वह वहाँ (सिद्धशिला में पहुँच कर ) सिद्ध (मुक्त) हो जाता है। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८] [प्रज्ञापनासूत्र] [२१७५ उ.] गौतम ! वह वैसा करने में समर्थ नहीं होते। वह सर्वप्रथम संज्ञीपंचेन्द्रियपर्याप्तक जघन्ययोग वाले के (मनोयोग से) भी नीचे (कम) असंख्यातगुणहीन मनोयोग का पहले निरोध करते हैं, तदनन्तर द्वीन्द्रियपर्याप्तक जघन्ययोग वाले के (वचनयोग से) भी नीचे (कम) असंख्यातगुणहीन वचनयोग का निरोध करते हैं। तत्पश्चात् अपर्याप्तक सूक्ष्म पनकजीव, जो जघन्ययोग वाला हैं, उसके (काययोग से) भी नीचे (कम) असंख्यातगुणहीन तीसरे काययोग का निरोध करते हैं। (इस -प्रकार) वह (केवली) इस उपाय से सर्वप्रथम मनोयोग का निरोध करते हैं, मनोयोग को रोक कर वचनयोग का निरोध करते हैं, वचनयोगनिरोध के पश्चात् काययोग का भी निरोध कर देते हैं । काययोगनिरोध करके वे (सर्वथा) योगनिरोध कर देते हैं। योगनिरोध करके वे अयोगत्व प्राप्त कर लेते हैं। अयोगत्वप्राप्ति के अनन्तर ही धीरे-से पांच ह्रस्व अक्षरों (अ इ उ ऋ लु) के उच्चारण जितने काल में असंख्यातसामयिक अन्तर्मुहूर्त तक होने वाले शैलेशीकरण को अंगीकार करते हैं। पूर्वरचित गुणश्रेणियों वाले कर्म को उस शैलेशीकाल में असंख्यात कर्मस्कन्धों का क्षय कर डालते हैं । क्षय करके वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र, इन चार (प्रकार के अघाती) कर्मों का एक साथ क्षय कर देते हैं । इन चार कर्मों को युगपत् क्षय करते ही औदारिक, तैजस और कार्मण शरीर का पूर्णतया सदा के लिए त्याग कर देते हैं। इन शरीरत्रय का पूर्णतः त्याग करके ऋजुश्रेणी को प्राप्त होकर अस्पृशत् गति से एक समय में अविग्रह (बिना मोड़ की गति) से ऊर्ध्वगमन कर साकारोपयोग (ज्ञानोपयोग) से उपयुक्त होकर वे सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और परिनिर्वृत्त हो जाते हैं तथा सर्वदुःखों का अन्त कर देते हैं। __विवेचन-केवलिसमुद्घात से पूर्व और पश्चात् केवली की प्रवृत्ति-इस प्रकरण में सर्वप्रथम आवर्जीकरण, तत्पश्चात् आठ समय का केवलिसमुद्घात, तदन्तर समुद्घातगत केवली के द्वारा योगत्रय में से काययोगप्रवृत्ति का उल्लेख और उसका क्रम भी बताया गया है। आवर्जीकरण के चार अर्थ यहाँ अभिप्रेत हैं-(१) आत्मा को मोक्ष के अभिमुख करना, (२) मन, वचन, काया के शुभ प्रयोग द्वारा मोक्ष को आवर्जित-अभिमुख करना और (३) आवर्जित अर्थात्-भव्यत्व के कारण मोक्षगमन के प्रति शुभ योगों को व्यापृत-प्रवृत्त करना आवर्जितकरण है तथा (४) आ-मर्यादा में केवली की दृष्टि से शुभयोगों का प्रयोग करना। केवलिसमुद्घात करने से पूर्व आवर्जीकरण किया जाता है, जिसमें असंख्यात समय का अन्तर्मुहूर्त लगता है। आवर्जीकरण के पश्चात् बिना व्यवधान के केवलिसमुद्घात प्रारम्भ कर दिया जात है, जो आठ समय का होता है। मूलपाठ में उसका क्रम दिया गया है। इस प्रक्रिया में प्रारम्भ के चार समयों में आत्मप्रदेशों को फैलाया जाता है, जब कि पिछले चार समयों में उन्हें सिकोड़ा जाता है। कहा भी है-केवली प्रथम समय में ऊपर और नीचे लोकान्त तक तथा विस्तार में अपने देहप्रमाण दण्ड करते हैं, दूसरे में कपाट, तीसरे में मनथान और चौथे समय में लोकपूरण करते हैं फिर प्रतिलोम रूप से संहरण अर्थात् विपरीत क्रम से संकोच करके स्वदेहस्थ हो जाते हैं। ___ (२) समुद्घातकर्ता केवली के द्वारा योगनिरोध आदि की प्रक्रिया से सिद्ध होने का क्रम-सिद्ध होने से पूर्व तक की केवली की चर्चा – दण्ड, कपाट आदि के क्रम से समुद्घात को प्राप्त केवली समुद्घात-अवस्था में सिद्ध (निष्ठितार्थ), बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त (कर्मसंताप से रहित हो जाने के कारण शीतीभूत) और १. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२८९ . [ छत्तीसवाँ समुद्घातपद] सर्वदुःखरहित नहीं होते। क्योंकि उस समय तक उनके योगों का निरोध नहीं होता और सयोगी को सिद्धि प्राप्त नहीं होती। सिद्धि प्राप्त होने से पूर्व तक वे क्या करते है ? इस विषय में कहते है-समुद्घातगत केवली केवलिसमुद्घात से निवृत्त होते हैं, फिर मनोयोग, वचनयोग और काययोग का प्रयोग करते हैं।' (३) केवलिसमुद्घातगत केवली द्वारा काययोग का प्रयोग-समुद्घातगत केवली औदारिकशरीरकाययोग, औदारिकमिश्रशरीरकाययोग तथा कार्मणशरीरकाययोग का प्रयोग कमशः प्रथम और अष्टम, द्वितीय, षष्ठ और सप्तम, तथा तृतीय, चतुर्थ और पंचम समय में करते है। शेष वैक्रिय-वैक्रियमिश्र, आहारक-आहरकमिश्र काययोग का प्रयोग वे नहीं करते। (४) केवलिसमुद्घात से निवृत्त होने के पश्चात् तीनों योगों का प्रयोग-निवृत्त होने के पश्चात् मनोयोग और उसमें भी सत्यमनोयोग, असत्यामृषामनोयोग का ही प्रयोग करते है, मृषामनोयोग और सत्यमृषामनोयोग का नहीं। तात्पर्य यह है कि जब केवली भगवान् वचनागोचर महिमा से युक्त केवलिसमुद्घात के द्वारा विषमस्थिति वाले नाम, गोत्र ओर वेदनीय कर्म को आयुकर्म के बराबर स्थिति वाला बना कर केवलिसमुद्घात से निवृत्त हो जाते हैं, तब अन्तर्मुहूर्त में ही उन्हें परमपद की प्राप्ति हो जाती है। परन्तु उस अवधि में अनुत्तरोपपातिक देवों द्वारा मन से पूछे हुए प्रश्न का समाधान करने हेतु मनोवर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके मनोयोग का प्रयोग करते हैं। वह मनोयोग सत्यमनोयोग या असत्यामृषामनोयोग होता है। समुद्घात से निवृत्त केवली सत्यवचनयोग या असत्यामृषावचनयोग का प्रयोग करते है, किन्तु मृषावचनयोग या सत्यमृषावचनयोग का नहीं। इसी प्रकार समुद्घातनिवृत्त केवली गमनागमनादि क्रियाएँ यतनापूर्वक करते हैं। यहां उल्लंघन और प्रलंघन क्रिया का अर्थ क्रमशः इस प्रकार है-स्वाभाविकचाल से जो डग भरी जाती है, उससे कुछ लम्बी डग भरना उल्लंघन है और अतिविकट चरणन्यास प्रलंघन है। किसी जगह उड़ते-फिरते जीव-जन्तु हों और भूमि उनसे व्याप्त हो, तब उनकी रक्षा के लिए केवली को उल्लंघन और प्रलंघन क्रिया करनी पड़ती है। (५) समग्र योगनिरोध के बिना केवली को भी सिद्धि नहीं-दण्ड, कपाट आदि के क्रम से समुद्घात को प्राप्त केवली समुद्घात से निवृत्त होने पर जब तक सयोगी-अवस्था है, तब तक वे सिद्ध, बुद्ध, मुक्त नहीं हो सकते। शास्त्रकार के अनुसार अन्तर्मुहूर्त काल में वे अयोग-अवस्था को प्राप्त करके सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हो जाते हैं, किन्तु अन्तर्मुहूर्तकाल तक तो केवली यथायोग्य तीनों योगों के प्रयोग से युक्त होते हैं। सयोगी-अवस्था में केवली सिद्ध-मुक्त नहीं हो सकते, इसके दो कारण हैं-(१) योगत्रय कर्मबन्ध के कारण है तथा (२) सयोगी परमनिर्जरा के कराणभूत शुक्लध्यान का प्रारम्भ नहीं कर सकते। (६) केवली द्वारा योगनिरोध का क्रम-योगनिरोध के क्रम में केवली भगवान् सर्वप्रथम मनोयोगनिरोध करते हैं। पर्याप्तक संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव के प्रथम समय में जितने मनोद्रव्य होते हैं और जितना उसका मनोयोग १. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ११४७-११५५ २. प्रज्ञापना, प्रमेयबोधिनी टीका, भा. ५, ११५५-११५६ ३. प्रज्ञापना (प्रमेयबोधिनी टीका) भाग ५, पृ. ११४७-११५५ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९०] [प्रज्ञापनासूत्र] व्यापार होता है, उससे भी असंख्यातगुणहीन मनोयोग का प्रति समय निरोध करते हुए असंख्यात समयों में मनोयोग का पूर्णतया निरोध कर देते हैं। ___ मनोयोग का निरोध करने के तुरंत बाद ही वे पर्याप्तक एवं जघन्ययोग वाले द्वीन्द्रिय के वचनयोग से कम असंख्यातगुणहीन वचनयोग का प्रतिसमय निरोध करते हुए असंख्यात समयों में पूर्णतया द्वितीय वचनयोग का निरोध करते हैं। ___ जब वचनयोग का भी निरोध हो जाता है, तब अपर्याप्तक सूक्ष्म पनकजीव, जो प्रथम समय में उत्पन्न हो तथा जघन्य योग वाला एवं सबकी अपेक्षा अल्पवीर्य वाला हो, उसके काययोग से भी कम असंख्यातगुणहीन काययोग का प्रतिसमय निरोध करते हुए असंख्यात समयों में पूर्णरूप से तृतीय काययोग का भी निरोध कर देते है। इस प्रकार काययोग का भी निरोध करके केवली भगवान समुच्छिन्न, सूक्ष्मक्रिय, अविनश्वर तथा अप्रतिपाती ध्यान में आरूढ़ होते हैं । इस परमशुक्लध्यान के द्वारा वे वदन और उदर आदि के छिद्रों को पूरित करके अपने देह के तृतीय भाग-न्यून आत्मप्रदेशों को संकुचित कर लेते हैं। काययोग की इस निरोधप्रक्रिया से स्वशरीर के तृतीय भाग का भी त्याग कर देते है। सर्वथा योगनिरोध करने के पश्चात्-वे अयोगिदशा प्राप्त कर लेते हैं। उसके प्राप्त होते ही शैलेशीकरण करते हैं। न अतिशीघ्र और न अतिमन्द, अर्थात् मध्यमरूप से पांच ह्रस्व (अ, इ, उ, ऋ, लूं) अक्षरों का उच्चारण करने में जितना काल लगता है, उतने काल तक शैलेशीकरण-अवस्था में रहते हैं। शील का अर्थ है-सर्वरूप चारित्र, उसका ईश-स्वामी शीलेश और शीलेश की अवस्था 'शैलेशी' है। उस समय केवली सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती तथा समुच्छिन्न क्रियाप्रतिपाती नामक शुक्लध्यान में लीन रहते हैं। उस समय केवली केवल शैलेशीकरण को ही प्राप्त नहीं करते, अपितु शैलेशीकरणकाल में पूर्वरचित गुणश्रेणी के अनुसार असंख्यातगुण-श्रेणियों द्वारा असंख्यात वेदनीयादि कर्मस्कन्धों का विपाक और प्रदेशरूप से क्षय भी करते हैं तथा अन्तिम समय में वेदनीयादि चार अघातिकर्मों का एक साथ सर्वथा क्षय होते ही औदारिक, तैजस और कार्मण इन तीनों शरीरों का पूर्णतया त्याग कर देते हैं। फिर ऋजुश्रेणी को प्राप्त हो कर, एक ही समय में बिना विग्रह (मोड़) के लोकान्त में जाकर ज्ञानोपयोग से उपयुक्त होकर सिद्ध हो जाते हैं। जितनी भी लब्धियाँ है, वे सब साकारोपयोग से उपयुक्त को ही प्राप्त होती हैं, अनाकारोपयोगयुक्तसमय में नहीं। सिद्धों के स्वरूप का निरूपण २१७६. ते णं तत्थ सिद्धा भवंति, असरीरा जीवघणा दंसण-णाणोवउत्ता णिट्ठियट्ठा णीरया णिरेयणा वितिमिरा विसुद्धा सासयमणागतद्धं कालं चिट्ठति। से केणठेणं भंते! एवं वुच्चति ते णं तत्थ सिद्धा भवंति असरीरा जीवघणा दंसण-णाणोवउत्ता णिट्ठियट्ठा णीरया णिरेयणा वितिमिरा विसुद्धा सासतमणागयद्धं कालं चिट्ठति? गोयमा! से जहाणामए बीयाणं अग्गिदड्डाणं पुणरवि अंकुरुप्पत्ती न हवइ एवमेव सिद्धाण २. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ११५५-५६ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२९१ [ छत्तीसवाँ समुद्घातपद ] वि कम्मबीएसु दड्ढेसु पुणरवि जम्मुप्पत्ति न हवति, से तेणट्ठेणं गोयमा ! एवं वुच्चति ते णं तत्थ सिद्धा भवंति असरीरा जीवघणा दंसण- णाणोवउत्ता निट्ठियट्ठा णीरया णिरे यणा वितिमिरा विसुद्धा सासयमणागयद्धं कालं चिट्ठति त्ति । णिच्छिण्णसव्वदुक्खा जाति-जरा-मरण - बंधणविमुक्का । सासयमव्वाबाहं चिट्ठेति सुही सुहं पत्ता ॥ २३१ ॥ [२१७६] वे सिद्ध वहां अशरीरी (शरीररहित) सघन आत्मप्रदेशों वाले दर्शन और ज्ञान में उपयुक्त, कृतार्थ (निष्ठितार्थ), नीरज (कर्मरज से रहित), निष्कम्प, अज्ञानतिमिर से रहित और पूर्ण शुद्ध होते हैं तथा शाश्व भविष्यकाल में रहते हैं । [प्र.] भगवन्! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि वे सिद्ध वहां अशरीर सघन आत्मप्रदेशयुक्त, कृतार्थ, . दर्शनज्ञानोपयुक्त, नीरज, निष्कम्प, वितिमिर एवं विशुद्ध होते हैं, तथा शाश्वत अनागतकाल तक रहते है ? [उ.] गौतम! जैसे अग्नि में जले हुए बीजों से फिर अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती, इसी प्रकार सिद्धों के भी कर्मबीजों के जल जाने पर पुनः जन्म से उत्पत्ति नहीं होती। इस कारण से हे गौतम! ऐसा कहा जाता है कि सिद्ध अशरीर सघन आत्मप्रदेशों वाले, दर्शन और ज्ञान से उपयुक्त, निष्ठितार्थ, नीरज, निष्कंप अज्ञानांधकार से रहित, पूर्ण विशुद्ध होकर शाश्वत भविष्यकाल तक रहते हैं। [गाथार्थ - ] सिद्ध भगवान् सब दुःखों से पार हो चुके हैं, वे जन्म, जरा, मृत्यु और बन्धन से विमुक्त हो चुके हैं। सुख को प्राप्त अत्यन्त सुखी वे सिद्ध शाश्वत ओर बाधारहित होकर रहते हैं. ॥ २३१ ॥ ॥ पण्णवणाए भगवतीए छत्तीसइमं समुग्घायपदं समत्तं ॥ ॥ पण्णवणा समत्ता ॥ विवेचन - सिद्धों का स्वरूप-सिद्ध वहां लोक के अग्रभाग में स्थित रहते हैं । वे अशरीर, अर्थात्औदारिक आदि शरीरों का त्याग कर देते हैं, क्यों कि सिद्धत्व के प्रथम समय में ही वे औदारिक आदि शरीरों का त्याग कर देते हैं। वे जीवघन होते हैं, अर्थात् उनके आत्मप्रदेश सघन हो जाते हैं। बीच में कोई छिद्र नहीं रहता, क्योंकि सूक्ष्मक्रिय-अप्रतिपाती ध्यान के समय में ही उक्त ध्यान के प्रभाव से मुख, उदर आदि छिद्रों (विवरों) को पूरित कर देते हैं । वे दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग में उपयुक्त होते हैं, क्योंकि उपयोग जीव का स्वभाव है। सिद्ध कृतार्थ (कृतकृत्य) होते हैं, नीरज ( वध्यमान कर्मरज से रहित) एवं निष्कम्प होते हैं, क्योंकि कम्पनक्रिया का वहाँ कोई कारण नहीं रहता । वे वितिमर अर्थात् कर्मरूपी या अज्ञानरूपी तिमिर से रहित होते हैं । विशुद्ध अर्थात्विजातीय द्रव्यों के संयोग से रहित - पूर्ण विशुद्ध होते हैं और सदा-सर्वदा सिद्धशिला पर विराजमना रहते है। सिद्धों के इन विशेषणों के कारण पर विश्लेषण - सिद्धों को अशरीर, नीरज, कृतार्थ, निष्कम्प, वितिमिर एव विशुद्ध आदि कहा गया है। उसका कारण यह है कि अग्नि में जले हुए बीजों से जैसे अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती, क्योंकि अग्नि उनके अंकुरोत्पत्ति के सामर्थ्य को नष्ट कर देती है। इसी प्रकार सिद्धों के कर्मरूपी बीज जब केवलज्ञानरूपी अग्नि क द्वारा भस्म हो चुकते हैं, तब उनकी फिर से उत्पत्ति नहीं होती, क्योंकि जन्म का कारण Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२] [प्रज्ञापनासूत्र] कर्म है और सिद्धों के कर्मों का समूलनाश हो जाता है। कारण के अभाव में कार्य की उत्पत्ति नहीं होती, कर्मबीज के कारण रागद्वेष हैं। सिद्धों के रागद्वेष आदि समस्त विकारों का सर्वथा अभाव हो जाने से पुनः कर्म का बन्ध भी सम्भव नहीं है। रागादि ही आयु आदि कर्मों के कारण हैं उनका तो पहले ही क्षय किया जा चुका है। रागादि की पुनः उत्पत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि निमित्तकारण का अभाव है। रागादि की उत्पत्ति में उपादान कारण स्वयं आत्मा है। उसके विद्यमान होने पर भी सहकारी कारण वेदनीय-कर्म आदि विद्यमान न होने से कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि दोनों कारणों से उत्पन्न होने वाला कार्य किसी एक कारण से नहीं हो सकता। .. सिद्धों में रागादि वेदनीयकर्मों का अभाव होता है, क्योंकि वे उन्हें शुक्लध्यानरूपी अग्नि से पहले ही भस्म कर चुकते हैं और उनके कारण संक्लेश भी सिद्धों में संभव नहीं है। रागादि वेदनीयकर्मों का अभाव होने से पुनः रागादि की उत्पत्ति की संभावना नहीं है। कर्मबन्ध के अभाव में पुनर्जन्म न होने के कारण सिद्ध सदैव सिद्धदशा में रहते हैं, क्योंकि रागादि का अभाव हो जाने से आयु आदि कर्मों की पुन: उत्पत्ति नहीं होती, इस कारण सिद्धों का पुनर्जन्म नही होता। अन्तिम मंगलाचरण-शिष्टाचारपरम्परानुसार ग्रन्थ के प्रारम्भ, मध्य और अन्त में मंगलाचरण करना चाहिए। अतएव यहाँ ग्रन्थ की समाप्ति पर परम मंगल सिद्ध भगवान् का स्वरूप बताया गया है, तथा शिष्य-प्रशिष्यादि की शिक्षा के लिए भी कहा गया है ___ "णिच्छिण्ण-सव्वदुक्खा...सुही सुहं पत्ता।' ॥ प्रज्ञापना भगवती का छत्तीसवां समुद्घातपद समाप्त ॥ ॥प्रज्ञापना सूत्र समाप्त ॥ १. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भाग ५, पृ. ११५७ २. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भाग ५, पृ. ११५९-६० Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञापना-परिशिष्ट परिशिष्ट-१ सूत्राङ्क १८६५ ११२३ .४६ २११ ५ २११ १००६ सद १८७ -- २६ गाथांश अगंतूण समुग्घायं अच्छि पव्वं बलिमोडओ अज्जोरुह वोडाणे अज्झयणमिणं चित्तं अडहुत्तरं च तीसं अणभिग्गहियकुदिट्ठी अणभिग्गहिया भासा . अणंतराय आहारे अस्थिय तिंदु कविढे अद्दाय असी य मणी अद्धतिवण्ण सहस्सा अप्फोया अइमुत्तय अयसी कुसुंभ कोद्दव अलोए पडिहया सिद्धा अवए पणंए सेवाले असरीरा जीवघणा असुरा नाग सुवण्णा असुरेसु होति रत्ता अस्सण्णी खलु पढमं अंधिय णेत्तिय मच्छिय अंबट्ठा य कलिंदा आणय-पाणयकप्पे आभरण-वत्थ-गंधे आमंतणि याऽऽणमणी आयपइट्ठिय खेत्तं आसीतं बत्तीसं गाथानुक्रम सूत्राङ्क गाथा २१७०[२] आहार भविय सण्णी ५४[८] आहार सम सरीरा ४९ आहारे उवओगे इक्खू य इक्खुवाडी १७४ इय सव्वकालतित्ता ११० इय सिद्धाणं सोक्खं ८६६ इंदियउवचय णिव्वत्तणा य २०३२ उत्तत्तकणगवण्णा ४१ एएहि सरीरेहिं ९७२ एक्कस्स उ जंगहणं १७४ एक्कारसुत्तरं हेट्ठिमेसु एगपएऽणेगाई ५० एगस्स दोण्ह तिण्ह व २११ एगा य होइ रयणी ५४[१] एगिंदियसरीरादी २११ एते चेव उ भावे १७७ एरंडे कुरुविंदे १८७ ओगाहणसंठाणे ६४७ ओगाहणाए अवाए ५८(१) ओगाहणाए सिद्धा १०३ कण्हे कंदे वज्जे २०६(२) कति पगडी कह बंधति १०० कहिं पडिहता सिद्धा कंगूया कदुइया ९७१ कंदा य कंदमूला य १७४ कंबू य कण्हकडबू .५४ . २११ १७९३ । .. ११० . १००६ २११ ५४ १६६४ २११ ५४ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४] काला असुरकुमारा काले य महाकाले किण्णर किपुरिसे खलु किमिरासि भद्दमुत्था कुत्थंभरि पिप्पलिया कुरु-मंदर-आवास केवलणाणुवत् कोहे माणे माया गति ठिति भवे य भासा गूढसिरायं पत्तं गोमेज य चरासी चट्ठी सट्ठी खलु १८७ १९२ १९२ ५४ ४२ १००३ २११ ८६३ ८२९[२] ५४ २४ २०६[२] १८७ ५४ २११ १८७ २४ ४१ १८७ १८७ ६७४ ८६२ जस्स बीयस्स भग्गस्स हीरो जस्स मूलस्स कट्ठाओ छल्ली तणुयतरी जस्स मूलस्स कट्ठाओ छल्ली बहलतरी जस्स मूलस्स भग्गस्स समो जस्स मूलस्स भग्गस्स हीरो जस्स सालस्स भग्गस्स समो जस्स सालस्स भग्गस्स हीरो साउएणतुल्ला जह अयगोलो धंतो जह णाम कोइ मेच्छो जह वा तिलपप्पडिआ जह सगलसरिसवाणं हव्वाल जंबुद्दी लवणे ठाणं तु हं जाई मोग्गर तह जुहिया LE चक्कागं भज्जमाणस्स चत्तारि य रयणीओ चमरे धरणे तह वेणुदेव चंदण गेरुय हंसे चंपगजाती णवणोइया चोत्तीसा चोयाला जाउलग माल परिली जीव गतिंदिय काए जसे तयाए भग्गा समो जसे तयाए भग्गाए हीरो जीसे सालाए कट्ठाओ छल्ली तणुयतरी ५४[६] जसे सालाए कट्ठाओ छल्ली बहलतरी ५४[४] छट्टि च इथियाओ जणवय-सम्मत-ठवणा जत्थय एगो सिद्धो जस्स कंदस्स कट्ठाओ छल्ली तणुयतरी जस्स कंदस्स कट्ठाओ छल्ली बहलतरी २११ जे नालियाबद्धा ५४ [५] ५४[८] ११० ५४ जो अत्थिकायधम्मं ११० ५४[५] ५४[३] ५४[४] जस्स कंदस्स भग्गस्स समो जस्स कंदस्स भग्गस्स हीरो जस्स खंधस्स कठ्ठाओ छल्ली तणुयतरी जस्स खंधस्स कट्ठाओ छल्ली बहलतरी जो जिदिट्ठे भावे एबीए जोयणसहस्स गाउयपुहत्त ५४[९] १५१२ १५१२ ५४[६] जोयणसहस्स छग्गाउयाई ५४[५] जो सुत्तमहिज्जतो जो उमयाणंतो ११० ११० जस्स खंधस्स भग्गस्स समो जस्स पत्तस्स भग्गस्स समो हीरो ५४[३] ५४ [४] ४१ ५३ जस्स पवालस्स भग्गस्स समो जस्स पवालस्स भग्गस्स हीरो ५४[३] ५४ [४] गोह दिखे ाणाविह संठा णिच्छिण्णसव्वदुक्खा णिच्छिन्नसव्वदुक्खा २१७६ २११ जस्स पुप्फस्स भग्गस्स समो जस्स पुप्फस्स भग्गस्स हीरो ५४[३] ५४ [४] द्धिस्स द्वेिण दुयाहिणं ९४८ जस्स बीयस्स भग्गस्स समो ५४[३] बिंब जंबु कौसंब ४० [ प्रज्ञापनासूत्र ] ५४[४] ५४ [६] ५४ [५] ५४[३] ५४ [४] ५४[३] ५४[४] २१७०[२] ५४[१०] २११ ५३ ५३ २११ १००३ २११ ४३ ४२ १२५९ ५४[३] Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [परिशिष्ट १-गाथानुक्रम] [२९५ ५४[८] ४२ ४५ २११ २०६[२] १८७ १०२ ५५९ ७९० ७९० ७९० . २१२ १२५९ ८५९ ११० णीलाणुरागवसणा णेरइणय अंतकिरिया णेरइया-तिरिय-मणुया तणमूल कंदमूले तत्थ वि य ते अवेदा तय छल्लि-पवालेसु य ताल तमाले तक्कलि तिण्णि सया तेतीसा तिलए लउए छत्तोह तीसा चत्तालीसा तीसा य पण्णवीसा तुलसी कण्ह उराले दमपिप्पली य दव्वी दव्वाण सव्वभावा दसण-नाण-चरित्ते दिसि गति इंदिय काए दीव-दिसा-उदहीणं दीहं वा हस्सं वा न वि अत्थि माणुसाणं निस्सग्गुवएसरुई निस्संकिय-निक्खंकिय पउमलता नागलता पउमुप्पलनलिणाणं पउमुप्पमल संघाडे पउमुप्पलिणीकंदे पढमो ततिओ नवमो पढमो ततिओ सप्तम पण्णवणा ठाणाई पत्तउरसीयउरए पत्तेया पजत्ता परमत्थसंथवोवा परिणाम-वण्ण-रस-गंध पलंडू लहसणकदंय पाढा मियवालुंकी पुट्ठीगाढ अणंतर पुरुवी य सक्करा वालुया १८७ पुत्तजीवयरिट्ठे १४०६ पुष्फा जलया थलया । १९७३ पुस्सफलं कालिगं ५४[२] पूईकरंज सेण्हा २११ पूसफली कालिंगी ५५[३] फुसई अणते सिद्धे ४८ बत्तीस अट्ठवीसा २११ बलि-भूयाणंदे वेणुदाली बारवती य सुरट्ठा .१८७ बारस चउवीसाई १७४ बि चउत्थ पंच छठें बि चउत्थ पंच छठें बि चउत्थ पंच छठें ११० भासग परित्त पज्जत भासग परित्त पज्जत २१२ भासा कओ य पहवति १८७ भासा सरीर परिणाम . २११ भुयरुक्ख हिगुरुक्खे २११ भूअत्थेणधिगया ११० भेद-विसय-संठाणे महुरा य सूरसेणा मासपण्णी मुग्गपण्णी ५४[८] मुद्दिय अप्पा भल्ली ५५[३] रायगिह मगह चंपा ५४[८] रुक्खा गुच्छा गुम्मा ७९० रुरु कंडुरिया जारू ७९० लोगागासपएसे णिगोयजीवं लोगागासपएसे परित्तजीवं वइराड वच्छ वरणा ५४[११] ववगयजर-मरणभए वंसेवेलू कणए १२१८ वाइंगण सल्लइ वोडइ ५४[८] विसमं समं करेति ५४[१] विहि-संठाण-पमाणं ८७७[३३] विंट समंसकडाहं २४ वेणु णल इक्खुवाडिय ४८ ११० १९८१ १०२ ५४[१] ११० १०२ ३८ ५४[१] ५४[११] ५४[११] १०२ ४२ ४६ २१७० १४७४ ५४[८] ५४[८] Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६] [प्रज्ञापनासूत्र] १०२ २०५४ ५० वेयण-कसाय-मरणे वेटं वाहिरपत्ता सचित्ताहारट्ठी सण वाण कास मद्दग सण्णिहिया सामाणा सत्तट्ट जातिकुलकोडिलक्ख सफाए सज्जाए समणिद्धयाए बंधो समयं वक्ताणं . सम्मत्तस्स अभिगमे सरीरप्पहवा भासा सव्वो विकिसलओ खलु ससविन्दु गोत्तफुसिया संजय अस्संजय मीसगा संठाणं बाहलं २०८५ साएय कोसला गयपुर ५४[८] सातमसातं सव्वे १७९३ साली वीही गोधूम ४२ साहारणमाहरो १९४ सिद्ध त्ति य बुद्ध त्ति य ९१[४] • सिद्धस्स सुहो रासी ५४[८] सिंघाडगस्स गुच्छो ९४८ सीता य दव्वसारीर ५४[१०] सुयरयणनिहाणं जिणवरेण २०३२ सुरगणसुहं समत्तं सेढिय भत्तिय होत्तिय ५४[९] सेयविया वि य णगरी ४५ सो होई अहिमरुई १९८० हरियाले हिंगुलए ९७२ हासे हासरई विय ५४[१०] २११ २११ ५४[२] २०५४ २११ ८५९ ४७ १०२ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट - २ शब्द अइकाय अकण्ण अकम्मभूमए अकसाई अकाइए अकिरिए अक्ख अक्खरपुट्ठिया अगुरुलहुअणाम अगुरुलहुए अग्गमहिसी अग्गिकुमार अग्गिमाणव अग्गिसीह अक्खुदंसण अचरिमसमय अरमंत अचरिम अचित्तजोणिय अचित्ता अच्चिमालि अच्चुए अच्चुतवडेंस अच्चुय देव अच्छर अच्छिरोड अजसोकित्तिणाम • अजहण्णमणुक्कोसगुणकक्खड अजीवदव्वदेस विशिष्ट शब्दसूची सूत्राङ्क शब्द १९२ ९५ अजीवपज्जव अजीवपण्णवणा ६४५ अजीवपरिणाम १३३४ अजीवमिस्सिया १२९० १५८८ १९७ अज्जल १०७ १६९४ १००५ १९९ अजोगी अजोणिय अज्झत्थवयण अज्झवसाण अट्ठ अट्ठपिट्ठणिट्ठिया १४० अट्ठफास १८७ अट्ठविहबंधए १८७ अट्ठविहवेदए ४४५ अट्ठिकच्छभ ११२ अडा अडिला ७७५ ७८१ अणगार ७६३ अणभिग्गहियकुदिट्ठी ७५४ अणभिगाहिया १९७ अणवण्णय ४२६ अनंतगुणकक्खड २०६ अनंतगुणकालए १५५१ अनंतगुणतित्तरस १८८ अनंतगुणलुक्ख ५८ अनंतगुणसीय १७०२ अनंतगुणसुब्भिगंध ५४५ अनंतजीव १००५ अणतपएसिए सूत्राङ्क ४३८ ३ ९२५ ८६५ २५२ ७५३ ९८ ८९६ २०३२ ९९४ १२३७ ८७७ १५८१ १७८८ ६४ ८८ ८७ ९७२ ११० ८६६ १८८ १८०० ५२३ ८७७ ५२४ ८७७ ८७७ ५४ ५१० Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८] [प्रज्ञापनासूत्र] ८४२ २७३ ११० १०१७ १७०२ १६३९ २०५४ २०५२ २०५१ १२२६ १६९४ ८६५ १७४४ १०७ ८६५ अणंतमिस्सिया (भाषाभेद) अणंतरागया आहार अणंतरोगाढ अणंतरोववन्नग अणंतसमयसिद्ध अणाएजणाम अणागारपस्सी अणागारोवउत्त अणाणुगामिए अण्णाणुपुव्वी अणादेजणाम अणाभोगणिव्वत्तिय अणाहारए अणिज्जिण्णा अणित्थंथ अणिदा (वेदनाभेद) अणियाण अणुतडियाभेद अणुत्तरविमाण अणुत्तरोववाइय अणुभावणामणिहत्ताउय अणुभाव अणुवउत्त अणुवरयंकाइया अणुवसंत अणुवसंपज्जमाणगति अणुवाय अणु अणेगसिद्ध अणेरइय अणोगाढ अणोवमा (मिष्ट खाद्यविशेष) अण्णतरद्वितिय अण्णलिंगसिद्ध अण्णाणी अतित्थगरसिद्ध ८६५ अतित्थसिद्ध २०३२ अतिराउल ८७७ अत्थिकाय ९९८ अस्थिकायधम्म १७ अत्थोग्गह १७०२ अथिरणाम १९५४ अदिण्णादाण २६२ अदुक्खमसुह(वेदनाभेद) २०२७ अदूरसामंत ८७७ अदेवीय १६९३ __ अद्दारिट्ठ ९६३ अद्धणारायसंघयणणाम १३६७ अद्धद्धमिस्सिय (भाषाभेद) २१७० अद्धपविट्ठ २११ अद्धमागह २०५४ अद्धामिस्सिय (भाषाभेद) १७७ अद्धासमय ८८१ अधम्मत्थिकाय २०९ अधेसत्तमपुढवी १५४४ अधोलोय ६८४ अपइट्ठाण १६७९ अपच्चक्खाणकिरिया ९९६ अपज्जत्त १५६८ अपज्जत्तगणाम ९६३ अपज्जत्तय ११०५ अपज्जवसिय ११०५ अपडिवाई ८७७ अपढमसमयसिद्ध १६ अपदेसट्टयाए ११९९ अपरित्त ८७७ अपरियार १२३८ अपसत्थविहायगतिणाम १७९७ अप्पबहु १६ अप्पाबहुदंडग ८२ अफुसमाणगति १६. अबंधय (क) ३४२ २८४ १७४ ११२९ ३५३ १७०२ ४२८ १२६५ २०२७ १७ ३३० २६५ २०५१ १७०२ २०३२ तिय .. ६९२ ११०५ १६४२ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ परिशिष्ट २ - शब्दानुक्रम ] अबाहा अब्भक्खाण अब्भवालुया अब्भोवंगमिया अभवसिद्धय अभिगम अमाइसम्मद्दिउिव्वण्णग अमूढदिट्ठी अयोमुह (अन्तर्वीप - मनुष्य) अरवाग (म्लेच्छ जातिविशेष) अरुणवर अवणीय-उवणीयवयण अवणीयवयण अवरविदेह अवाय अविग्गह अविरत अवेदअ अव्वोयडा असच्चामोसभासग असंखेष्पद्धप्पविट्ठ असंजयसम्मद्दि असातावेयणिज्ज असेलेसि पडिवण्णग अस्सातावेदग अहक्खाय अहर्मिद अ अहिगमरुई अहेलोइयगाम अंकलिवि अंगारग अंगुलपढमवग्गमूल अंगुलपयर अंतो १६९७ १५८० २४ २०७२ १३९३ २०३२ ९९८ ११० ९५ आणअ ९८ १००३ ८९६ अंधिय अंब आइल्लअ आउ आगरिस आगासत्थिकाय आगासथिग्गल आगासफलिओम १०९८ १००६ २१७५ ३३४ आणमणी आणय ८९६ आभरण आभासिय अणुपुव्विणाम १९५ ९२० ९१८ ९७६ ३३५ आभिणिबोहियणाणसागारोवओग आभोगणिव्वतिअ आयतसंठाण आयरिय १३३० ८६६ ९०० १७४४ आराहअ १५३३ आरिय १६९० आलावग ८६७ आवकहियसामाइय आयवणाम आरंभिया ३२५ आवत्त १३३ २०७ आसकण्ण १७८ आसमुह आवलिय ११० १५५१ १०७ आहच्च आहारअ आसालिय असीविस आहारगसमुग्धाअ आहारसरीरकायजोग आहारग आहारसण्णा [२९९ ५८ १०३ १६१४ ८५३ ५५९ ५ १००२ १२३८ ३३४ ८३४ १९६ १६९४ १००३ ९८ १९०९ ९६३ ८ १११८ १७०२ ११२९ ८९९ १०२ १२५८ १३४ ७१ ९१८ ९५ ९५ ७७ ७९ ११२४ ९०१ १०७७ २१७३ २६३ ७२५ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३००] [ प्रज्ञापनासूत्र] ८६३ ४३५ ६२२ ४३४ १४६ १२५ १११ ५५९ १६९४ १९६ २०५५ .९१० १७०२ ७० ५३ आहिकरणिया इच्छाणुलोमा इड्ढी इत्तिरिय इत्थिवेय इरियावहियबंधग इसिपाल इसिबाइय इसी इंद. .. इंदिय ईसर ईसाण ईसाणकप्प ईसिपब्भारा उक्कड (त्रीन्द्रिय जीव) उक्कलिय उक्कामुह उग्गह उच्चगोअ उड्ढलोअ उत्तरवेउव्वि उदधिवलय उदहिकुमार उद्दिस्सपविभत्तगति उद्देहिय उद्धकवाड उप्पडा उप्पण्णमिस्सिया उप्पणविगयमिस्सिया उप्पाय .. उरपरिसप्प उरूलुंचग उवओग उवओगद्धा उवघायणाम १६१९ उवघायणिस्सिय ८६६ उवरिमउवरिमगेवेजग ११९८ उवरिमगेवेजग १२१५ उवरिममज्झिमगेवेजग १६९१ उवरिमहेट्ठिमगेवेज्जग १६९९ उवसंतकसाय १९४ उवसंतकसायवीयरागदंसणारिय १८८ उव्वट्टण १९४ उसभणारायसंघयणणाम १९८ उसभंक २ उसिणा. १७७ उस्सप्पिणी ६२२ उस्सासणाम १९८. उस्सासविस (सर्पविशेष) २११ एगओवत्त (द्वीन्द्रिय जीव) ५७ एगखुर ५७ एगजीव. ९५ एगट्रिय १०४ एगिंदिय १६९५ एगिदियजाइणाम १४८ एरण्णवय ९८३. एरवय ओघसण्णा १४० ओभंजलिया ११०५ ओरालिया ५७ ओरालियमीसासरीरकायजोग १५५ ओहिदंसण ५७ कक्खड ८६५ कच्छभ. ८६५ कट्ठपाउयार ५७ कणग ३८१ कणिक्कामच्छ . ५७ कण्णत्तिया ९३२ कण्णपाउरण १००६ कप्प १७०२ कप्पातीय १२७२ १६९४ १२५७ १०५८ ७२५ १५४४ २१७३ १९२८ ५ १००३ १४५ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [परिशिष्ट २-शब्दानुक्रम] [३०१ ७७३ १८८ १००३ ९८ ५७ कुम्मुण्णया १०५ कुलक्ख ६६१ कुहंड (वाणव्यन्तरदेव जाति) १६६७ कूड २१७५ केकय १५५२ केवलकप्प १७४७ केवलणाण केवलिसमुग्घाय १०८७ कोडाकोडी ५६ कोडिगारा कोत्थलवाहग १६८२ कोलालिय २०८६ कोलाहा ८० कोंकणग १२४५ ४५२ २०८६ ९१८ खग्ग कप्पासट्ठिसमिजिय कप्पासिय कप्पोवग कम्म कम्मखंघ कम्मगसरीर कम्मभूमय कम्मारिय कम्मासरीरकायप्पओगगति कलुय कसाय कसायवेयणिज कसायसमुग्घाय कसाहीय (सर्पविशेष) कंका कंदलगा कंदिल काउलेसा कामंजुगा काय (म्लेच्छ जातिविशेष) कायजोग काल (समय) काल (महानरक) काल (वाणव्यन्तरेन्द्र) कालोय किण्णर किण्हपत्त किराय किरिया किंगिरिड किंपुरिस कुकुड कुक्कुह कुच्छिकिमिया कुच्छिपुहत्तिय कुच्छि ९८ १००३ १६९४ ९८ १६९३ १४८४ ७१ खरबादरपुढविकाय १८८ खस १५८५ खंडाभेअ ८८ खारा ९८ खासिय २१७३ खीर (वर) २११ खुज्जसठाणणाम १७४ गग्गर १९० गतिणाम १००३ गब्भववंतिय १९२ गयकण्ण ५८. गह ९८ गंडीपद २ गंधव्व ५७ गंधावति (पर्वत) १४१ गामाणिद्धमण ५८ गिहिलिंगसिद्ध ५८ गीतजस ५६ गीतरति (वाणव्यंतर देवेन्द्र) ८३ गुणसेढी ८३ गूढदंत ९५ १४२ ७० १८८ १०९८ १९२ १९२ २१७५ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२] [प्रज्ञापनासूत्र] १०६ गेवेज गोकण्ण (पशुविशेष) गोकण्ण (अन्तर्वीपज मनुष्य) गोजलोया गोणस (सर्पभेद) गोमयकीडग गोमुह गोमेज्जअ गोम्ही गोय ८४९ १०९८ १०३ ९८ १२३७ ११५ १८२४ ४४० .१०६ १०६ १११५ १३५ १६९४ गोरक्खर गोलोम गोंड गोधोडंब घओदअ घणदंत घणवाय घणोदधिवलय घुला घोस चउजमलपय चउट्ठाणवडिय चउत्थभत्त चउप्पाइया (भुजपरिसर्पविशेष) चउरंससंठाणपरिणत चमर चरिमंतपएण १९६ चित्तार ७२ चिलाय ९५ चिल्लल ५६ चिल्ललय चुल्लहिमवंत चुंचण ९५ चुंचय २४ चोयासव ५७ छउमत्थ १५८७ छट्ठभत्त ७१ छटाणवडिअ छत्तार छव्विय ९८ छायाणुवातगति २८ छेदोवट्ठावणिय छेवट्ठसंघयणणाम ३४ जणवयसच्च १५१ जमलपय ५६ जरुल .१८७ जलकंत ९२१ जलकंत (उदधिकुमारेन्द्र) ४४१ जलचारिय (चतुरिन्द्रिय जीव) १८०६ जलोउय ८५ जलोय ९ जलोया (चर्मपक्षिविशेष) ७२ जवण ७७९ जवणालिया १००३ . जसोकित्तिणाम ५६ जहण्णगुणकक्खड १२३७ जहण्णगुणकाल १०२, जहण्णगुणसीत १६७ जाइणाम ५८ जाइनामनिहत्ताउय ७४ जायणी जाहा जिज्झगार चंद १०७ १७०२ ५४५ चंदणा चंदप्पभा चंपा चिक्खल्ल चित्तपक्ख चित्तलग चित्तलिण ४५७ ५४७ १६९४ ६८८ ८६६ १०६ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [परिशिष्ट २-शब्दानुक्रम] [३०३ ८७ २०५४ १६८० १६८० १६९३ १७०९ १७०२ १०९८ ६८४ १००३ ५८ १६९५ णेडूर ९८ १६७९ जीवणिकाय जीवत्थिकाय जीवमिस्सिय जीवंजीव जोइसिय जोग जोगसच्च झिंगिरा ठवणासच्च ठितलेस्सा ठितीचरिम ठितीणामणिहत्ताउय डोंब डोंबिलग णक्खत 'णगरणिद्धमण णग्गोहपरिमंडलसंठाणणाम णपुंसगआणमणी णपुंसगपण्णवणी । णय णरदावणिया (?) णंगोली णंदावत्त णंदियावत्त णाग (नागकुमारदेव) णाग (द्वीप समुद्रनाम) णागफड णाण (ज्ञान) ४५५ १५७४ णिदा २७० णिद्दा ८६५ ण्दिाणिद्दा णिम्माणणाम १९५ णिरयगतिणाम १८६५ णिरयाणुपुव्विणाम ८६२ णिसढ ५७ णिहत्ताउ ८६२ णिहि १९५ __णीणिय ८१० णीयागोय ६८५ णेत्तावरण णेत्तिय १००३ णेरइय ९३ णोइंदियअत्थोग्गह १६९४ णोकसायवेयणिज ८३४ णोपज्जत्तयणोअपज्जत्तय ८३५ क १११३ तउसमिंजिय १०५ तणविंदिय ९५ तणुतणु ५८ तणुयतरी ५६ तणुवाय १७७ तप्पागारसंठिय १००३ तमतमप्पभा १७७ तमप्पभा ११० तयाविस १०४ . तसकाइय ११० तसणाम १७०२ तंतुवाय ५४ तंदुलमच्छ १५७ तामलित्ति ३१ तिजमलपय १०७ तित्थगर तित्थगरणाम १०१९ १६८२ १६८५ १४८ ८७ २११ ५४ २००८ ७७४ ७७४ णात १२८९ १६९३ १०६ ६३ णाम णारायसंघयणणाम णिओयजीव णिक्खुड णिग्घाय णिण्हइया १०२ ९२१ १४०६ १७०२ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४] तित्थसिद्ध तित्थगरसिद्ध तिरियगति तिरियगतिणाम तिरियलोय तुण्णाग तुरुक्क इंदिय इंदियजाइणाम तेदुरणमज्जिय तेयासमुग्धाय तो थणिय थणियकुमार थलयर थावरणाम थिग्गल थिरणाम थिरीकरण थी गिद्धी थेर दण्झपुप्फ दमिल दरिसणावणिज्ज वीर दंतार दामिली दिठ्ठिवाअ दिठ्ठिविस दिली दिवस हटा दिव्वाग दिसाकुमार दीव दीवकुमार . दुसमयसिद्ध १६ दुहणाम १६ दूभगणाम ५६१ देवकुरू १७०२ देवाणुपुव्विणाम २७६ दोणमुहनिवेस १०६ दोसापुरिया १७७ दोस्सिया ५८२ धणु १७०२ ५७ २०८६ ५८ १७७ १२०९ १५२४ १६९३ ९७२ १६९३ नदी ११० नपुंसगवेद ७९ ९८ १५८७ धमाससार धम्मत्थिकाय १६८० नागकुमार १११८ निक्कंखिय धम्मरुइ धरण धाय धायइसंड धूमप्पभा नक्खत्तदेवय नक्खत्तविमाण १८०६ ८० १४० १७७ १४० १७ ७८ निव्वत्त १०६ निव्वत्तंणा १०७ निव्वितिगिच्छा ११० निस्सग्गरुइ ७९ नीलपत्ता ६५ नीलमित्तिया नीललेस्सा पउम (द्वीपसमुद्रनाम) पउमुत्तरा पाउस पओगगति पच्चक्ख निरयावलिया निरयावास निरुवक्कमाउय [ प्रज्ञापनासूत्र ] १६८४ १७०२ १०९८ १७०९ ८२ १०७ १०५ ८३ १२२८ ५ ११० १८१ १९४ १००३ ७७४ १९५ ४०४ १००३ १३२९ १४० ११० १४८ १७२ ६७९ २११ १००९ ११० ११० ५८ २३ ११८० १९६ १२३८ ९८ २०८५ ५४ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [परिशिष्ट २-शब्दानुक्रम] [३०५ १२ २०५२ २०५२ १४७० ९८ १७७ १२२९ ६३ ८० ४७ १६९४ ७७४ १९८५ १०२ १७४६ १७०२ १५४८ २३ पच्चक्खवयण पच्चक्खाण पज्जत्त पज्जत्तगणाम पज्जत्ति पज्जव पट्टगार पडाग (मत्स्यविशेष) पडाग (सर्पविशेष) पडिरूव पडीणवाय पडुच्चसच्च पणगजीव पणगमत्तिया पण्णवणी पत्तविंटिया पत्ताहार पत्तेयजीव पत्तेयबुद्धसिद्ध पत्तेयसरीरणाम पदेसणामणिहत्ताउय पप्पडमोदअ पप्पडिआ पभंजण पम्हलेस्सा पयगदेव पयत पयलाउय पयलापयला परपतिट्ठिय परपुट्ठ परभवियाउय परमकण्हा परमत्थसंथव परस्पर पराघायणाम ८९६ परित्तजीव १४२० परिमंडलसंठाणपरिणय ३५३ परियारग १७०२ परियारणा १८६५ परिव्वायग ४३८ पल्हव १०६ पवण पवालंकुर पव्वय १९२ पसत्थविहायगतिणाम ३४ पंकप्पमा ८६२ पंचकिरिए पंचाला २३ पंचिंदिय ८३२ पंचेंदियजाइणाम ५७ पंडगवण ५७ पंडुमत्तिया ४० पाओ (दो) सिया १६ पायहंस १७०२ पारस ६८४ पारिग्गहिया १२३८ पारिप्पवा ५३ पारियावणिया १८७ पास (म्लेच्छजाति विशेष) १११६ पासणता १८८ पाहुया १९४ पिपीलिया पियंगाला १६८० 'पियाल ९६० पिसुय १२२६ पीबंधुजीव ५५९ पुक्खर (द्वीप-समुद्र) १६७ पुक्खरसारिया ११० पुच्छणी ७४ पुढवि (द्वीप-समुद्र) १७०२ . पुण्ण १६०८ १६२१ ८८ १५६७ ९८ १९४५ 33 १२३० १००३ १०७ ८८६ १००३ १८७ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६] [प्रज्ञापनासूत्र] पुण्णभद्द पुत्तंजीव पुष्फविंटिया पुप्फुत्तरा पुमआणमणी पुमपण्णवणी पुमवयण पुमवयू पुरिसलिगसिद्ध पुरिसवेय २४ १६९३ १३१९ १३१२ २४३ २४४ १०२ १२२९ १००३ पुलय पुलग पुलाकिमी पुलिंद पुव्वविदेह पुव्वेयाली पेहुण पोग्गलपरियट्ट पोत्थार पोलिंदी पोसहोववास फलविंटिय फासणाम फासिंदिय फुसमाणगति बउस बब्बर बलागा बलि बहस्सति बहुबीयग बंधणच्छेयणगति बंधणविमोयणगति बंधुजीवअ १९२ बादरकाय ४० बादरणाम ५७ बादरणिगोय १२३८ बादरतसकाइय ८३४ बादरतेउकाइय ८३५ . बादरनिगोद ८५७ बादरपुढविकाइय ८३३ बारवती १६ बालिंदगोव १६९१ बाहिरपुक्खरद्ध २४ बिडाल '६५ बुद्धबोहिय बुद्धबोहियसिद्ध बेइंदिय १०९८ बोंदि १११२ भडग १२३१ भत्ति १३२६ भयणिस्सिया १०६ भयसण्णा १०७ भरिली १४२० भवचरिम ५७ भवणवइ १६९३ भवधारणिज्ज भवपच्चइय ११०५ . भवसिद्ध ९८ भवियदव्वदेव ९८ भवोवग्गहकम्म ८ भवोववातगति भंडवेयालिय १९५ भंडार भारंडपक्खी १०८५ भाव ११०५ भावचरिम १२२६ भावसच्चा (भाषाप्रभेद) २०१ भाविंदिय EPEEEEEEEEEEEEE FREEEEEEEE. EFFE ९७३ ८१२ १०९७ १५२९ १९८२ १३९२ १४७० २१७० १०९९ १०५ १०६ ८७ ८२९ ८६२ १०६४ बंभलो Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [परिशिष्ट २-शब्दानुक्रम] [३०७ ८१४ १९२ १८९ भासाचरिम भासारिय भिसकंद भिसमुणाल भीम भुयअ १७४ १८७ ५१ १९२ भूय १९२ १७४ भूयवाइय भूयाणंद भोगवईया (लिपिभेद) भोग (कुलार्य) भोगविस मइअण्णाणी मउलि (सर्पभेद) मगमिगकीड १५३२ १९४ १०९८ १०२ ८४९ मग्गण - महाकाय १०१ महाकाल (व्यन्तरेन्द्र) १२३८ महाकाल (नरक) महाघोस १९३ महापुरिस १५१२ महापोंडरीय १००३ महाभीम १८८ महारोरूअ १८१ महाविदेह १०७ महावीर १०४ महासुक्क ७९ महासेत ४८८ महाहिमवंत ७८ महिल ५८ महिस १७९८ महेसर १९७ महोरग ४३२ मंकुणहत्थी ६२२ मंगूस १४६ मंडलियावाय १४६ मंढ . २१७३ मंदर १९०४ मंदरपव्वय ४५२ मंसकच्छभ १०८ माइमिच्छद्दिट्ठिउववण्णग २०५२ माईवाह १८६४ माउलिगी १५५१ माणसमुग्घाय १०२ माणिभद्द ८८ मायासमुग्घात मारणंतियसमुग्घाय २४ मालव २१२ मालवंतपरियाय १७७ मालिण ९४ मालुय १००३ १०९८ मघव मज्झिमउवरिमगेवेजग मज्झिमगेवेज्जग मज्झिममज्झिमगेवेज्जग मज्झिमहेट्ठिमगेवेजग मणजोग मणपजत्ति मणपज्जवणाण मणपज्जवणाणारिय मणपरियारग मणभक्खण मणुसखेत्त मत्तियावइ मदणसलागा मलय मसारगल्ल महदंडय महब्बला महाकंदिय ४ ४२ २०३३ १९२ २१३९ २०८६ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८] मासपुरी (नगरी) माहिंद माहेसरी ( लिपिविशेष) मिच्छत्त मिच्छत्तवेयणिज्ज मिच्छद्दिट्ठि . मिच्छादंसणवत्तिया मिच्छादंसणसल्ल मिलक्खू मुत्तालअ मुद्धया मुरुंड मुसं (सुं) ढि मुंज पाउयारा मूयलि मूस मेच्छ मेय मेरअ मेलिमिद मेसरा मेहमुह सणा मेढमुह मोग्गर मोत्तिय मोसणजोग मोसमणप्पओग मोसवइजोग मोहणिज्ज तणवडेंसय रतबंधुजीवअ रम्मगवास रयण रयणवडेंसय १०२ रोम १९६ रोसग १०७ रोहिणीय १६६७ रोहियमच्छ १६८२ लउस ९९८ लट्ठदंत ११२९ लद्धि १५८० लवणसमुद्द ९७ लंतअ २११ लंतगदेव ६५ लाढ ९८ लाभंतराअ १७७ लालाविस १०६ लावग ९८ लेप्पार ८५ लेसा २११ लेसागत ९८ १२३७ ७९ लोअ लेसापरिणाम लेस्साणुवायगति ८८ लोगणाली ९५ लोगनिखुड ७२५ लोभसमुग्घाय ९५ लोहियक्खमणि १८८ लोहियपत्त ५६ लोहियमत्तिया २१७४ लोहियवण्णणाम १०६८ लहसिय २१७४ वइउल १६८२ वइजोग १९८ वइजोगपरिणाम १२२९ वइराड ९६ वइरोयणराय वइरोस भणारायसंघयणणाम १००३ २०६ वइसुहया [ प्रज्ञापनासूत्र ] ९८ ९८ I ^ M E A ५७ ६३ ९८ ९५ १००६ १००३ २०२ २०२ १०२ . १६८६ ७९ ८८ . १०६ २ ११०५ ९२६ ११०५ १४९ २००७ १५७ २१३३ १२२९ ५८ २३ १७०२ ९८ ८० २१७३ ९३१ १०२ १८० १७०२ १६८१ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [परिशिष्ट २ - शब्दानुक्रम ] वक्खार वग वग्ग वग्गणा वग्घमुह वज्जकंदअ वज्झार वट्टग वडगर aणप्फइकाइय वणप्फइकाल वणयर वत्थ जोग वरण वराड वरुण वरेल्लग ववहारसच्च वसभवाहण वसिट्ठ वंकगति वंजणोवग्गह वंजुला वंसीपत्ता (योनिभेद) वसीमुह वारंगण वाउकाइय वाउकुमार वाउकलिया वाउब्भाम वाणामन्तर वाणारसी वामणसंठाणणाम वारुणोदअ १००३ ८४९ ९२१ १२४५ १२३३ १०६ ८८ ६३ ९५. वासुदेव ४४७ १२७२ १९७३ १००३ २१७४ १०६ ५६ वालुयप्पभा वास वासहरपव्वय वास (त्रीन्द्रिय जीव) ७७३ ५६ ४२ २३८ १४० विउप्फेस १००३ विततपक्खी ८८ वित्थाररुइ ८६२ विदेह १९८ विभंगणाण १८७ वियडजोणिया ३४ ३४ विगयमिस्सिया (भाषाभेद) विगलिंदिय विचित्तपक्ख विजय विजयवेजयंतीपडाग विजया विज्जाहरसेढि विज्जुकुमार विज्जुदंत विडिम ११०५ विडावति १००६ विलंब ८८ विसाल विहाणमग्गणा विहायगतिणाम वेडव्विय वेडव्वियसमुग्धाय वेजयंत वेढला वेणइया ( लिपि विशेष) वेणुदाि ६५० १०२ वेदग १६९४ वेदणासमुग्घाय २८ वेमाणिय [३०९ ७७४ १२८९ १४८ ५६ ८२. १७७ ८६५ ८९१ ५८ ६२२ १९५ १००३ १५५१ १४० ९५ १९६ ९० ११० १०३ ४४० ७७२ १०९८ १८७ १९४ १७९८ १६९३ ९०१ २०८६ ४२६ ६५ १०७ १८७ १०३ २१२६ ८०८ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१०] [प्रज्ञापनासूत्र] २१२ १७३७ ८६२ १७३२ १३४५ ९२ ११५ १५५१ ८५ वेसाणिय वोक्काण वोयड (भाषा भेद) सक्करप्पभा सक्कुलिकण्ण सक्क सग सच्चमणजोग सच्चवइजोग सजोगिकेवली सणंकुमार सणिच्छर सण्णा सण्णी सण्णिभूय सण्णिहिय सण्हबादर-पुढविकाइय सहमच्छ सतवच्छ सतवाइय सत्त सत्तविहबंध सत्तविहवेद १६९३ १९०५ १६९४ १६९४ १५०२ ९५ समुद्दवायस ९८ सम्मत्त ८६६ सम्मत्तवेदणिज्ज ७७४ सम्मतसच्च ९५ सम्मामिच्छत्त १९७ सम्मामिच्छद्दिट्ठि '९८ सम्मुच्छिममणुस्स २१७४ सयपुफिंदीवर २१७४ सयंबुद्ध ११८ सयंभुरमणसमुद्द १९६ सरड १९५ सरीरणाम २ सरीरपज्जत्ति-अपज्जत्तय २ सरीरसंघातणाम ९९६ सरीरंगोवंगणाम १९४ सरीरोगाहणा २२ सलिंगसिद्ध सल्ला सव्वट्ठगसिद्धदेव ५७ सवणिरुद्ध २११ सव्वद्धा १५८१ सहसम्मुइया १७८८ सहस्सक्ख १८८ सहस्सपत्त ११०८ संख २०५२ संखार १९३ संखावत्ता (योनिभेद) १९२ संखेजजीविय ९८ संघयणणाम १६९४ संठाण १७ संथारग १५५० संपराइयबंधग ५४ संभिन्न ८६ संवर २ संवुक्क ८५ ६७३ १७४४ १२६० ११० १९७ सत्ति ५१ सत्थवाह सद्दपरियारग सन्निहिय सप्पुरिस सबर समचउरंससंठाणणाम समय समयखेत्त समंस समुग्रपक्खी समुग्घाय समुद्दलिक्खा ७७३ ५४ १७०२ ८ २१७४ १६९९ २००७ ७२ ५६ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ परिशिष्ट २ - शब्दानुक्रम ] संवुडोणिय संसयकरिणी संसार अपरित्त संसारपरित्त साइयार सात सातावेदणिज्ज सामाइय सामाण सारंग सारा साहारण सिद्ध सिद्धत्थिय सिप्पारिय सिप्पिसंys सिरिकंदलग सिंगिरिड सिंधुसोवीर सिंहल सीता (योनिभेद) सीमागार सीहकण्ण सीहमुह सुक्क सुक्कलेसा सुविलपत्त सुक्किलवण्णणाम सुत (य) अण्णाण सुतणाण सागारपासणता सुत्तवेयालिय सुत्तीमई सुद्धदंत सुभगंधणा सुभअ सुभगणाम ७७३ सुयणाण ८८६ सुयविंट १३७९ सुरठ्ठ १३७६ १३५ २०५४ १६९० १३३ १९४ ५८ सुहुमणिओय ८५ सुहुमणिओय ५४ सुहुमतेउकाइय १५ सुहुमपज्जत्तय १२३८ सुहुमपुढविकाइय १०१ सुहुमवणप्फइकाइय सुहुमवाउकाइय ५६ ७१ सुंसुमार ५८ सूईमुह १०२ सूरसेण ९८ सूरा ७३८ सूलपाणि ६८ ९५ ९५ सुरभिगंधणाम सुरूव सुवच्छ सुवण्णकुमार सुहा (वेदनाभेद) सुहुम आउक्काइय २१० ११५६ ५८ १७०२ ४४८ १९४८ सेडि (रोमपक्षीविशेष) त सेयकणवीर सेयबंधुजीवय सेयविया (नगरी) सेयासोअ सेलेसि 'सेल्लगार सेवट्ठसंघयण १०५ सेह १०२ सोइंदिय ९५ सोइंदियवंजणोग्गह १७०२ १७०२ सोत्तिय ५१ सोमंगलग सोरिय [३११ १२१६ قاب १०३ १६९४ १९२ १९४ १४० २०६९ १३०१ १६९३ २३९ २३९ २५.१ ६५० १३०१ १५९ ६२ ५६ १०२ १४२ १९८ ८८ १९४ १२३१ १२३१ १०२ १२३१ २१७५ १०६ १७०२ ८८ ९७३ १०१८ ५६ ५६ १०२ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र] ९८ ३१२] सोक्क्कमाउयः सोवच्छिय सोहम्मकप्प हत्मिमह ६७९ हारोस ५७ हालाहला ५८९ हासरई ९५ हिरण्णवय हिल्लिय ...९५ हुंडसंठाणणाम १०३ हूण १०९८ हेट्ठिमउवरिमगेवेजग १८७ हेटिममज्झिमगेवेज्जग ५८ हेटिमहेट्ठिमगेवेज्जग ६३ हेमवय १६९४ ९५ ४२९ हरिया हरि ४२८ १८४२ १०९८ हलिमच्छ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-३ शब्द अइमुत्तय अइमुत्तयलता अक्क अक्कबोंदी अगघाडय अज्जए अज्जुण (बहु-बीजविशेष) अज्जुण (तृणविशेष) अट्टई. . अप्पा अप्फोया अलिसंद अवअ अस (स्स) कण्णी असाढअ अंकोल्ल अंजणई अंतरकंद आए आलूगा इक्कड इक्खुवाडिय उदअ उराल उव्वेहलिया उंवेभरिया एरंड एरावण वनस्पति- नामानुक्रम सूत्राङ्क ४५ ४४ ४२ मंद ४२ ४९ ४१ ४७ ४५ ४५ ४५ ५० ५४ ५४ ४७ ४० ४५ ५४ ५२ ५४ ५४ ५४ ४६ ४९ ५४ ४० ४७ ४२ शब्द वालुं कक्कोड कक्खड कच्छ कच्छा कच्छुरी कच्छुल कणय कणग कण्णिया कण्ह कण्हकडवु कण्हकंदअ कदुइया करंज करीर कलंबुया कल्लाण कसेरुय कंकावंस कंगू कंगूया कंठावेलू कंडुक्क कंडुरिया कंद कंदली कंदुक्क कंबू सूत्राङ्क ४५ ४५ ४७ ५५ ५.१ ४२ ४३ ४६ १८७ ५४ ४९ ५१ १२३३ ४५ ४० ४२ ५१ ४६ ५१ ४६ ५० ४५ ४६ ५३ ५४ १९४ ५४ ५४ ५४ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४] [प्रज्ञापनासूत्र] काउंबरी व काओली कागणी कायमाई कारियल्लई क्रिट्टि किट्टीया किण्हअ क्रिण्हे क्रिमिरासि कुच्चकारिया कुण्जय कंडअ कुत्युंभरि कुरअ कुवधा (या) जासुमण जासुवण जियंत जि (ज)यंति जूहिया णल णवणीइया णहिया णही ఓ ఓ ఓనననననన णंगलइ णागरूक्ख णागलया णालीया णिरूहा ఓ णिहु णिंब ५४ १२३३ १२२७ कोदूसा कोसंब खल्लूड खीरकाओली गयमारिणी णीलकणवीरअ णोमालिया तउस तक्कलि तलऊडा ताल तिमिर तिल तिंडुय तिंदु तिंदूय १८ गिरिकण्णइ गोत्तफुसिया घोसाडइ खविता १२३३ १२३४ तुलसी ४२ चोरग चोराण কিন্তু छीरविराली जवजवा जावइ जावति ११२२ ५४ ४५ तेयलि तेंदूस दव्वहलिया दव्वी दहफुल्लई दहिवन्न दंती ४२ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [परिशिष्ट ३-वनस्पति-नामानुक्रम] [३१५ ४२ दासि देवदारु देवदाली (वनस्पतिविशेष) देवदाली (वृक्ष विशेष) १२३३ धव ४८ ५० ४२ नालिएरी निप्फाव नीली पउम (कंद) पउमलता पउम पउमा पउल ४४ ८५३ ५४ ४२ पत्तउर परिली पलंडू (कन्द) पलुगा पाढा पारग पालक्का पाववल्लि पिलुक्खरुक्ख पीईय पीयासोग पील पुस्सफल बिंबफल भट्ठ भद्दमुत्था भमास (माष) भल्ली भंगी भंडी (डा) भाणी भुयरूक्ख भूयणय मगदंतिय मज्जार मणोज्ज मद्दग मरुयग मल्लिया मसमा महित्थ महुरतण महुररसा महुसिंगी मंडुक्की माढरी माल मालुय मासपण्णी मासावल्ली मियवलुंकी मिहु मुरगपण्णी मुसुंढी मूल ६६६६६६६६६gssssss १२३० पुयफली पोक्खलत्थिभ (भु)य पोडइला फणस फणिज्जय बउल बदर बाउच्चा बिल्ली (गुच्छवनस्पति) १२३३ मोगली मोग्गर मोयइ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६] बिल्ली (हरिवनस्पति) रत्तचंदण लउय लवंगरुक्ख लुणय लोद्ध लोयाणी लोहिणी वच्छाणी वत्थुल लई वागली. वाण वालुंक वासंती वासंतीलया विमअ विहंगु, वोडाण सण सतीण संत्तिवण्ण सप्पसुगंधा सप्फास समासइक्खु सयरी सरल सल्लइ बिंदु संघट्ट साम ४९ १७७ ४१ ४८ ४७ ४१ र्र चै नै र्र चो ते र्रर्र ४५ ४३ ५४ ४५ ४२ ५४ ४३ ४४ ४६ ५४ ४९ ४२ ५० ४१ ५४ ५२ ५४ ४१ ५३ ४० ४५ ४५ ४२ रत्तकणवीरअ सामलता सारकल्लाण सार सिउंढि सित्ताअ सिप्पिय सिलिंपुप्फ सिंगबेर सीयउरय सीवणि सीहणी सुगंधिय सुभगा सुमणसा सुयवेय संकलितण सुंठ सुंठि सुंब सूरणकंद सूरवल्ली सेडिय सेरियय सेलू सोत्थियसाअ हड हरडय हरतणुया हरितग हिंगुरुक्ख होत्तिय [ प्रज्ञापनासूत्र ] १२२९ ४४ ४८ ४८ ५४ ५२ ४७ ढे ते चे र्र व चे व चों ने ने र्र ले ने बे ने ने ले ले £ ँ १७८ ५४ ४२ ५४ ५१ ४५ ४५ ४७ ४७ ४६ ५४ ४५ ४७ ४९. ५४ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनध्यायकाल [ स्व० आचार्यप्रवर श्री आत्मारामजी म० द्वारा सम्पादित नन्दीसूत्र से उद्धृत ] स्वाध्याय के लिए आगमों में जो समय बताया गया हैं, उसी समय शास्त्रों का स्वाध्याय करना चाहिए । अनध्यायकाल में स्वाध्याय वर्जित है । मनुस्मृति आदि स्मृतियों में भी अनध्यायकाल का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। वैदिक लोग भी वेद के अनध्यायों का उल्लेख करते हैं। इसी प्रकार अन्य आर्ष ग्रन्थों का भी अनध्याय माना जाता है। जैनागम भी सर्वज्ञोक्त, देवाधिष्ठित तथा स्वरविद्या संयुक्त होने के कारण, इनका भी आगमों में अनध्यायकाल वर्णित किया गया है, जैसे कि -उक्ककावाते, दिसिदाघे, गज्जिते, विज्जुते, निग्घाते, जुवते, दसविधे अंतलिखिते असज्झाए पण्णत्ते, तं जहा - क्खालित्ते, धूमिता, महिता, उयउग्घाते । दसविहे ओरालिते असज्झातिते, तं जहा- अट्ठी, मंसं, सोणिते, असुतिसामंते, सुसाणसामंते, चंदोवराते, सूरोवराते, पडने, रायवुग्गहे, उवस्सयस्स अंतो ओरालिए सरीरगे । - स्थानाङ्ग सूत्र, स्थान १० नो कप्पति निग्गंथाण वा, निग्गंथीण वा चउहिं महापाडिवएहिं सज्झायं करित्तए, तं जहा - आसाढपाडिवए, इंदमहापाडिवर, कत्तअपाडिवए सुगिम्हपाडिवए । नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंधीण वा, चउहिं संझाहिं सज्झायं करेत्तए, तं जहा - पडिमाते, पच्छिमाते मज्झण्हे, अड्ढरत्ते । कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गंथीण वा, चाउक्कालं सज्झायं करेत्तए, तं जहा - पुव्वण्हे अवरण्हे, पओसे, पच्चूसे । - स्थानाङ्ग सूत्र, स्थान ४, उद्देशक २ उपर्युक्त सूत्रपाठ के 'अनुसार, इस आकाश से सम्बन्धित, दस औदारिक शरीर से सम्बन्धित, चार महाप्रतिपदा, की पूर्णिमा और चार सन्ध्या, इस प्रकार बत्तीस अनध्याय माने गए हैं, जिनका संक्षेप में निम्न प्रकार से वर्णन है, जैसे आकाश सम्बन्धी इस अनध्याय १. उल्कापात-तारापतन - यदि महत् तारापतन हुआ है तो एक प्रहर पर्यन्त शास्त्रस्वाध्याय नहीं करना चाहिए । २. दिग्दाह - जब तक दिशा रक्तवर्ण की हो अर्थात् ऐसा मालूम पड़े कि दिशा में आग सी लगी है तब भी स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। ३. गर्जित - बादलों के गर्जन पर दो प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय न करे । ४. विद्युत - बिजली चमकने पर एक प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय न करे । Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८] [ प्रज्ञापनासूत्र] किन्तु गर्जन और विद्युत् का अस्वाध्याय चातुर्मास में नहीं मानना चाहिए। क्योंकि वह गर्जन और विद्युत् प्रायः ऋतु-स्वभाव से ही होता है। अतः आर्द्रा से स्वाति नक्षत्र पर्यन्त अनध्याय नहीं माना जाता। ६. निर्घात-बिना बादल के आकाश में व्यन्तरादिकृत घोर गर्जना होने पर, या बादलों सहित आकाश में कडकने पर दो प्रहर तक अस्वाध्याय काल है। ७. यूपक-शुक्लपक्ष में प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया को सन्ध्या की प्रभा और चन्द्रप्रभा के मिलने को यूपक कहा जाता है। इन दिनों प्रहर रात्रि पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। ८. यक्षादीप्त-कभी किसी दिशा में बिजली चमकने जैसा, थोड़े-थोड़े समय पीछे जो प्रकाश होता है वह यक्षादीप्त कहलाता है। अतः आकाश में जब तक यक्षाकार दीखता रहे तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। ८. धूमिका-कृष्ण- कार्तिक से लेकर माघ तक का समय मेघों का गभमास होता है। इसमें धूम्र वर्ण की सूक्ष्म जलरूप धुंध पड़ती है। वह धूमिका-कृष्ण कहलाती है। जब तक यह धुंध पड़ती रहे, तब तक स्वध्याय नहीं करना चाहिए। ९. मिहिकाश्वेत-शीतकाल में श्वेत वर्ण की सूक्ष्म जलरुप धुध मिहिका कहलाती है। १०. रज-उद्घात- वायु के कारण आकाश में चारों ओर धूलि छा जाती है। जब तक यह धूलि फैली रहती है, स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। उपरोक्त दस कारण सम्बन्धी अस्वाध्याय के हैं। औदारिकशरीर सम्बन्धी दस अनध्याय ११-१२-१३. हड्डी, मांस और रुधिर - पंचेन्द्रिय तिर्यंच की हड्डी, मांस और रुधिर यदि सामने दिखाई दें, तो जब तक वहाँ से यह वस्तुएँ उठाई न जाएँ तब तक अस्वाध्याय है। वृत्तिकार आस-पास के ६० हाथ तक इन वस्तुओं के होने पर अस्वाध्याय मानते हैं। ___ इसी प्रकार मनुष्य सम्बन्धी अस्थि, मांस और रूधिर का भी अनध्याय माना जाता है। विशेषता इतनी है कि इनका अस्वाध्याय सौ हाथ तक तथा एक दिन-रात का होता है। स्त्री के मासिक धर्म का अस्वाध्यायः तीन दिन तक। बालक एवं बालिका के जन्म का अस्वाध्याय क्रमशः सात एवं आठ दिन पर्यन्त का माना जाता है। १४. अशुचि- माल-मूत्र सामने दिखाई देने तक अस्वाध्याय है। १५. श्मशान-श्मशानभूमि के चारों ओर सौ-सौ हाथ पर्यन्त अस्वाध्याय माना जाता है। १६. चन्द्रग्रहण-चनद्रग्रहण होने पर जघन्य आठ, मध्यम बारह और उत्कृष्ट सोलह प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। १७. सूर्यग्रहण-सूर्यग्रहण होने पर भी क्रमशः आठ, बारह और सोलह प्रहर पर्यन्त अस्वाध्यायकाल माना गया है। Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अनध्यायकाल ] [३१९ १८. पतन - किसी बड़े मान्य राजा अथवा राष्ट्रपुरूष का निधन होने पर जब तक उसका दाहसंस्कार न हो, तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। अथवा जब तक दूसरा अधिकारी सत्तारूढ न हो, तब तक शनैः शनैः स्वाध्याय करना चाहिए । १९. राजव्युद्ग्रह - समीपस्थ राजाओं में परस्पर युद्ध होने पर जब तक शान्ति न हो जाए, तब तक और उसके पश्चात् भी एक दिन-रात्रि स्वाध्याय नहीं करें। २०. औदारिक शरीर उपाश्रय के भीतर पंचेन्द्रिय जीव का वध हो जाने पर जब तक कलेवर पड़ा रहे, तब तक तथा १०० हाथ तक यदि निर्जीव कलेवर पड़ा हो तो स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। अस्वाध्याय के उपरोक्त १० कारण औदारिकशरीर सम्बन्धी कहे गये हैं । २१ - २८. चार महोत्सव और चार महाप्रतिपदा - आषाढ- 1 ड- पूर्णिमा, आश्विन पूर्णिमा, कार्तिक पूर्णिमा और चैत्र पूर्णिमा ये चार महोत्सव है। इन पूर्णिमाओं के पश्चा आने वाली प्रतिपदा को महाप्रतिपदा कहते हैं । इनमें स्वाध्याय करने का निषेध है। २९-३२. प्रातः, सायं, मध्यान्ह और अर्धरात्रि- प्रात: सूर्य उगने से एक घड़ी पहिले तथा एक घड़ी पीछे। सूर्यास्त होने से एक घड़ी पहले तथा एक घड़ी पीछे। मध्यान्ह अर्थात् दोपहर में एक घड़ी आगे और एक घड़ी पीछे एवं अर्धरात्रि में भी एक घड़ी आगे तथा एक घड़ी पीछे स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आगम प्रकाशन-समिति, ब्यावर अर्थसहयोगी सदस्यों की शुभ नामावली महास्तम्भ संरक्षक १. श्री सेठ मोहनमलजी चोरडिया, मद्रास १. श्री बिरदीचंदजी प्रकाशचंदजी तलेसरा, पाली २. श्री गुलाबचन्दजी मांगीलालजी सुराणा, सिकन्दराबाद २. श्री ज्ञानराजजी केवलचन्दजी मूथा, पाली ३. श्री पुखराजजी शिशोदिया, ब्यावर ३. श्री प्रेमराजजी जतनराजजी मेहता, मेड़ता सिटी ४. श्री सायरमलजी जेठमलजी चोरड़िया, बैंगलोर ४. श्री शा० जड़ावमलजी माणकचन्दजी बेताला, बागलकोट ५.श्री प्रेमराजजी भंवरलालजी श्रीश्रीमाल, दुर्ग ५. श्री हीरालालजी पन्नालालजी चौपड़ा, ब्यावर ६. श्री एस. किशनचन्दजी चोरड़िया, मद्रास ६. श्री मोहनलालजी नेमीचन्द ललवाणी, चांगाटोला ७. श्री कंवरलालजी बेताला, गोहाटी ७. श्री दीपचंदजी चन्दनमलजी चोरड़िया, मद्रास ८. श्री सेठ खींवराजजी चोरड़िया, मद्रास ८. श्री पन्नालालजी भागचन्दजी बोथरा, चांगाटोला ९. श्री गुमानमलजी चोरड़िया, मद्रास ९. श्रीमती सिरेकुँवर बाई धर्मपत्नी स्व. श्री सुगनचन्दजी १०. श्री एस. बादलचन्दजी चोरड़िया, मद्रास __झामड़, मदुरान्तकम् । ११. श्री जे.दुलीचन्दजी चोरडिया, मद्रास १०. श्री बस्तीमलजी मोहनलालजी बोहरा १२. श्री एस. रतनचन्दजी चोरड़िया, मद्रास ११. श्री थानचन्दजी मेहता, जोधपुर १३. श्री जे. अन्नाराजजी चोरडिया, मद्रास १२. श्री भैरूदानजी लाभचन्दजी सुराणा, नागौर १४. श्री एस. सायरचन्दजी चोरड़िया, मद्रास १३. श्री खूबचन्दजी गदिया, ब्यावर १५. श्री आर. शान्तिलालजी उत्तमचन्दजी चोरडिया, मद्रास १४. श्री मिश्रीलालजी धनराजजी विनायकिया, ब्यावर १६. श्री सिरेमलजी हीराचन्दजी चोरडिया, मद्रास १५. श्री इन्द्रचन्दजी बैद, राजनांदगांव १७. श्री जे.हुक्मीचन्दजी चोरडिया, मद्रास १६. श्री रावतमलजी भीकमचन्दजी पगारिया, बालाघाट १७. श्री गणेशमलजी धर्मीचन्दजी कांकरिया, टंगला स्तम्भ सदस्य १८. श्री सुगनचन्दजी बोकड़िया, इन्दौर १. श्री अगरचन्दजी फतेचन्जी पारख, जोधपुर १९. श्री हरकचन्दजी सागरमलजी बेताला, इन्दौर २. श्र जसराजजी गणेशमलजी संचेती, जोधपुर २०. श्री रघुनाथमलजी लिखमीचन्दजी लोढ़ा, चांगाटोला ३. श्री तिलोकचंदजी, सागरमलजी संचेती, मद्रास २१. श्री सिद्धकरणजी शिखरचन्दजी बैद, चांगाटोला ४. श्री पूसालालजी किस्तूरचंदजी सुराणा, कटंगी ५. श्री आर. प्रसन्नचन्दजी बोकड़िया, मद्रास ६. श्री दीपचन्दजी बोकड़िया, मद्रास ७. श्री मूलचन्दजी चोरड़िया, कटंगी ८. श्री वर्धमान इण्डस्ट्रीज, कानपुर ९. श्री मांगीलाल मिश्रीलाल चेसती, दुर्ग' Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सदस्य-नामावली] [३२१ २२. श्री सागरमलजी नोरतमलजी पींचा, मद्रास ८. श्री फूलचन्दजी गौतमचन्दजी कांठेड, पाली २३. श्री मोहनराजजी मुकनचन्दजी बालिया, अहमदाबाद ९. श्री के.पुखराजजी बाफणा, मद्रास २४. श्री केशरीमलजी जंवरीलालजी तलेसरा, पाली १०.श्री रूपराजजी जोधराजजी मूथा, दिल्ली २५. श्री रतनचन्दजी उत्तमचन्दजी मोदी, ब्यावर ११.श्री मोहनलालजी मंगलचंदजी पगारिया, रायपुर २६. श्री धर्मीचन्दजी भागचन्दजी बोहरा, झूठा १२.श्री नथमलजी मोहनलाल जी लूणिया, चण्डावल २७. श्री छोगमलजी हेमराजजी लोढ़ा, डोंडीलोहारा १३. श्री भंवरलालजी गौतमचन्दजी पगारिया, कुशलपुरा २८. श्री गुणचंदजी दलीलचंदजी कटारिया, बेल्लारी १४. श्री उत्तमचंदजी मांगीलालजी, जोधपुर २९. श्री मूलचन्दजी सुजानमलजी संचेती, जोधपुर १५. श्री मूलचन्दजी पारख, जोधपुर ३०. श्री सा० अमरचन्दजी बोथरा, मद्रास १६. श्री सुमेरमलजी मेड़तिया, जोधपुर ३१. श्री भंवरलालजी मूलचंदजी सुराणा, मद्रास १७. श्री गणेशमलजी नेमीचन्दजी टांटिया, जोधपुर ३२. श्री बादलचंदजी जुगराजजी मेहता, इन्दौर १८. श्री उदयराजजी पुखराजजी संचेती, जोधपुर ३३. श्री लालचंदजी मोहनलालजी कोठारी, गोठन १९. श्री बादरमलजी पुखराजजी बंट, कानपुर ३४. श्री हीरालालजी पन्नालालजी चौपड़ा, अजमेर २०. श्रीमती सुन्दरबाई गोठी W/o श्री ताराचन्दजी गोठी, जोधपुर ३५. श्री मोहनलालजी पारसमलजी पगारिया, बैंगलोर २१. श्री रायचन्दजी मोहनलालजी, जोधपुर ३६. श्री भंवरीमलजी चोरडिया, मद्रास २२. श्री घेवरचन्दजी रूपराजजी, जोधपुर ३७. श्री भंवरलालजी गोठी, मद्रास २३. श्री भंवरलालजी अमरचन्दजी सुराणा, मद्रास ३८. श्री जालमचंदजी रिखबचंदजी बाफना, आगरा २४. श्री जंवरीलाल अमरचन्दजी कोठारी, ब्यावर ३९. श्री घेवरचंदजी पुखराजजी भुरट, गोहाटी २५. श्री माणकचन्दजी किशनलालजी, मेड़तासिटी ४०. श्री जबरचन्दजी गेलड़ा, मद्रास २६. श्री मोहनलालजी गुलाबचन्दजी चतर, ब्यावर ४१. श्री जड़ावमलजी सुगनचन्दजी, मद्रास २७. श्री जसराजजी जंवरीलालजी धारीवाल, जोधपुर ४२. श्री पुखराजजी विजयराजजी, मद्रास २८. श्री मोहनलालजी चम्पालालजी गोठी, जोधपुर ४३. श्री चेनमलजी सुराणा ट्रस्ट, मद्रास २९. श्री नेमीचन्दजी डाकलिया मेहता, जोधपुर ४४. श्री लूणकरणजी रिखबचंदजी लोढ़ा, मद्रास ३०. श्री ताराचंदजी केवलचंदजी कर्णावट, जोधपुर ४५. श्री सूरजमलजी सज्जनराजजी मेहता, कोप्पल ३१. श्री आसूमल एण्ड कं., जोधपुर सहयोगी सदस्य ३२. श्री पुखराजजी लोढ़ा, जोधपुर . १. श्री देवकरणजी श्रीचन्दजी डोसी, मेड़तासिटी ३३. श्रीमती सुगनीबाई w/o श्री मिश्रीलालजी सांड, जोधपुर २. श्रीमती छगनीबाई विनायकिया, ब्यावर ३४. श्री बच्छराजजी सुराणा, जोधपुर ३. श्री पूनमचन्दजी नाहटा, जोधपुर ३५. श्री हरकचंदजी मेहता, जोधपुर ४. श्री भंवरलालजी विजयराजजी कांकरिया, विल्लीपुरम् ३६. श्री देवराजजी लाभचंदजी मेड़तिया, जोधपुर ५. श्री भंवरलालजी चौपड़ा, ब्यावर ३७. श्री कनकराजजी मदनराजजी गोलिया, जोधपुर ६. श्री विजयराजजी रतनलालजी चतर, ब्यावर ३८. श्री घेवरचंदजी पारसमलजी टांटिया, जोधपुर ७. श्री बी. गजराजजी बोकड़िया, सेलम ३९. श्री मांगीलालजी चोरड़िया, कुचेरा Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२] [प्रज्ञापनासूत्र] ४०. श्री सरदारमलजी सुराणा, भिलाई ६९. श्री हीरालालजी हस्तीमलजी देशलहरा, भिलाई ४१. श्री ओकचंदजी हेमराजजी सोनी, दुर्ग ७०. श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावकसंघ, दल्ली-राजहरा ४२. श्री सूरजकरणजी सुराणा, मद्रास ७१. श्री चम्पालालजी बुद्धराजजी बाफणा, ब्यावर ४३. श्री घीसूलालजी लालचंदजी पारख, दुर्ग ७२. श्री गंगारामजी इन्द्रचंदजी बोहरा, कुचेरा ४४. श्री पुखराजजी बोहरा, (जैन ट्रांसपोर्ट कं.), जोधपुर ७३. श्री फतेहराजजी नेमीचंद कर्णावट, कलकत्ता ४५. श्री चम्पालालजी सकलेचा, जालना ७४. श्री बालचंदजी थानचंदजी भुरट, कलकत्ता ४६. श्री प्रेमराजजी मीठालालजी कामदार, बैंगलोर ७५. श्री सम्पतराजजी कटारिया, जोधपुर ४७. श्री भंवरलालजी मूथा एण्ड संस, जयपुर ७६. श्री जंवरीलालजी शांतिलालजी सुराणा, बोलारम ४८. श्री लालचंदजी मोतीलालजी गांदिया, बैंगलोर ७७. श्री कानमलजी कोठारी, दादिया ४९. श्री भंवरलालजी नवरत्नमलजी सांखला, मेट्टपालियम ७८. श्री पन्नालालजी मोतीलालजी सुराणा, पाली ५०. श्री पुखराजजी छल्लाणी, करणगुल्ली ७९. श्री माणकचंदजी रतनलालजी मुणोत, टंगला ५१. श्री आसकरणजी जसराजजी पारख, दुर्ग ८०. श्री चिम्मनसिंहजी मोहनसिंहजी लोढ़ा, ब्यावर ५२. श्री गणेशमलजी हेमराजजी सोनी, भिलाई ८१. श्री रिद्धकरणजी रावतमलजी भुरट, गौहाटी ५३. श्री अमृतराजजी जसवन्तराजजी मेहता, ८२. श्री पारसमलजी महावीरचंदजी बाफना, गोठन ५४. श्री घेवरचंदजी किशोरमलजी पारख, जोधपुर ८३. श्री फकीरंचदजी कमलचंदजी श्रीश्रीमाल. कचेरा ५५. श्री मांगीलालजी रेखचंदजी पारख, जोधपुर ८४. श्री मांगीलालजी मदनलालजी चोरड़िया, भैरुंदा ५६. श्री मुन्नीलालजी मूलचंदजी गुलेच्छा, जोधपुर ८५. श्री सोहनलालजी लूणकरणजी सुराणा, कुचेरा ५७. श्री रतनलालजी लखपतराजजी, जोधपुर ८६. श्री घीसूलालजी, पारसमलजी, जंवरीलालजी कोठारी, गोठन ५८. श्री जीवराजजी पारसमलजी कोठारी, मेड़तासिटी ८७. श्री सरदारमलजी एण्ड कम्पनी, जोधपुर ५९. श्री भंवरलालजी रिखबचंदजी नाहटा, नागौर ८८. श्री चम्पालालजी हीरालालजी बागरेचा, जोधपुर ६०. श्री मांगीलालजी प्रकाशचंदजी रूणवाल, मैसूर ८९. श्री पुखराजजी कटारिया, जोधपुर ६१. श्री पुखराजजी बोहरा, पीपलिया कलां ९०. श्री इन्द्रचंदजी मुकन्दचन्दजी, इन्दौर ६२. श्री हरकचंदजी जुगराजजी बाफना, बैंगलोर ९१. श्री भंवरलालजी बाफणा, इन्दौर ६३. श्री चंदनमलजी प्रेमचंदजी मोदी, भिलाई ९२. श्री जेठमलजी मोदी, इन्दौर ६४. श्री भीवराजजी बाघमार, कुचेरा ९३. श्री बालचंदजी अमरचंदजी मोदी, ब्यावर ६५. श्री तिलोकचंदजी प्रेमप्रकाशजी, अजमेर ९४. श्री कुंदनमलजी पारसमलजी भंडारी, बैंगलोर ६६. श्री विजयलालजी प्रेमचंदजी गुलेच्छा, ९५. श्री श्रीमती कमलाकंवर ललवाणी धर्मपत्नी श्री ___ राजनांदगाँव ___स्व. पारसमलजी ललवाणी, गोठन ६७. श्री रावतमलजी छाजेड़, भिलाई ९६. श्री अखेचंदजी लूणकरणजी भण्डारी, कलकत्ता : ६८. श्री भंवरलालजी डूंगरमलजी कांकरिया, भिलाई ९७. श्री सुगचंदजी संचेती, राजनांदगाँव Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ सदस्य नामावली ] ९८. श्री प्रकाशचंदजी जैन, भरतपुर ९९. श्री कुशालचंदजी रिखबचंदजी, सुराणा, बोलारम १००. श्री लक्ष्मीचंदजी अशोककुमारजी श्रीश्रीमाल कुचेरा १०१. श्री गूदड़मलजी चम्पालालजी, गोठन १०२. श्री तेजराजजी कोठारी, मांगलियावास १०३. सम्पतराजजी चोरड़िया, मद्रास १०४. श्री अमरचंदजी छाजेड़, पादु बड़ी १०५. श्री जुगराजजी धनराजजी बरमेचा मद्रास १०६. श्री पुखराजजी नाहरमलजी ललवाणी, मद्रास १०७. श्रीमती कंचनदेवी व निर्मलादेवी, मद्रास १०८. श्री दुलेराजजी भंवरलालजी कोठारी, कुशालपुरा १०९. श्री भंवरलालजी मांगीलालजी बेताला, डेह ११०. श्री जीवराजजी भंवरलालजी चोरड़िया, भैरूंदा १११. श्री मांगीलालजी शांतिलालजी रूणवाल, हरसोलाव ११२. श्री चांदमलजी धनराजजी मोदी, अजमेर ११३. श्री रामप्रसन्न ज्ञानप्रसार केन्द्र, चन्द्रपुर ११४. श्री भूरमलजी दुलीचंदजी बोकड़िया, मेड़तासिटी ११५. श्री मोहनलालजी धारीवाल, पाली [ ३२३ ११६. श्रीमती रामकंवरबाई धर्मपत्नी श्री चांदमलजी लोढा, ब ११७. श्री मांगीलालजी उत्तमचंदजी बाफणा, बैंगलोर ११८. श्री सांचालालजी बाफणा, औरंगाबाद ११९. श्री भीकमचंदजी माणकचंदजी खाबिया, (कुडाकोर), मद्रास १२०. श्रीमती अनोपकुंवर धर्मपत्नी श्री चम्पालालजी संघवी, कुचेरा १२१. श्री सोहनलालजी सोजतिया, थांवला १२२. श्री चम्पालालजी भण्डारी, कलकत्ता १२३. श्री भीकमचंदजी गणेशमलजी चौधरी, धूलिया १२४. श्री पुखराजजी किशनलालजी तातेड़, सिकन्दराबाद १२५. श्री मिश्रीलालजी सज्जनलालजी कटारिया, सिकन्दराबाद १२६. श्री वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ, बगड़ीनगर १२७. श्री पुखराजजी पारसमलजी ललवाणी, बिलाड़ा १२८. श्री टी. पारसमलजी चोरडिया, मद्रास १२९. श्री मोतीलालजी आसूलालजी बोहरा एण्ड कं., बैंगलोर १३०. श्री सम्पतराजजी सुराणा, मनमाड़ Page #339 --------------------------------------------------------------------------  Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युवाचार्य श्री मिश्रीमलजी म.सा. 'मधुकर' मुनि का | जीवन परिचय जन्म तिथि वि.सं. 1970 मार्गशीर्ष शुक्ला चतुर्दशी जन्म-स्थान तिंवरी नगर, जिला-जोधपुर (राज.) माता श्रीमती तुलसीबाई पिता श्री जमनालालजी धाड़ीवाल दीक्षा तिथि वैशाख शुक्ला 10 वि.सं. 1980 दीक्षा-स्थान भिणाय ग्राम, जिला-अजमेर दीक्षागुरु श्री जोरावरमलजी म.सा. शिक्षागुरु (गुरुभ्राता) श्री हजारीमलजी म.सा. आचार्य परम्परा पूज्य आचार्य श्री जयमल्लजी म.सा. आचार्य पद जय गच्छ-वि.सं. 2004 श्रमण संघ की एकता हेतु आचार्य पद का त्याग वि.सं. 2009 उपाध्याय पद वि.सं. 2033 नागौर (वर्षावास) युवाचार्य पद की घोषणा श्रावण शुक्ला 1 वि.स. 2036 दिनांक 25 जुलाई 1979 (हैदराबाद) युवाचार्य पद-चादर महोत्सव वि.सं. 2037 चैत्र शुक्ला 10 दिनांक 23-3-80, जोधपुर स्वर्गवास वि.सं. 2040 मिगसर वद 7 दिनांक 26-11-1983, नासिक (महाराष्ट्र) आपका व्यक्तित्व एवं ज्ञान: 1. गौरवपूर्ण भव्य तेजस्वी ललाट, चमकदार बड़ी आँखें, मुख पर स्मित की खिलती आभा और स्नेह तथा सौजन्य वर्षाति कोमल वाणी, आध्यात्मिक तेज का निखार, गुरुजनों के प्रति अगाध श्रद्धा, विद्या के साथ विनय, अधिकार के साथ विवेक और अनुशासित श्रमण थे। 2. प्राकृत, संस्कृत, व्याकरण, प्राकृत व्याकरण, जैन आगम, न्याय दर्शन आदि का प्रौढ़ ज्ञान मुनिश्री को प्राप्त था। आप उच्चकोटि के प्रवचनकार, उपन्यासकार, कथाकार एवं व्याख्याकार थे। आपके प्रकाशित साहित्य की नामावली प्रवचन संग्रह : 1. अन्तर की ओर, भाग 1 व 2,2. साधना के सूत्र, 3. पर्युषण पर्व प्रवचन, 4. अनेकान्त दर्शन, 5. जैन-कर्मसिद्धान्त, 6. जैनतत्त्व-दर्शन, 7. जैन संस्कृत-एक विश्लेषण, 8. गृहस्थधर्म, 9. अपरिग्रह दर्शन, 10. अहिंसा दर्शन, 11. तप एक विश्लेषण, 12. आध्यात्म-विकास की भूमिका। कथा साहित्य : जैन कथा माला, भाग 1 से 51 तक / उपन्यास : 1. पिंजरे का पंछी, 2. अहिंसा की विजय, 3. तलाश, 4. छाया, 5. आन पर बलिदान। अन्य पुस्तकें :1. आगम परिचय, 2. जैनधर्म की हजार शिक्षाएँ, ३.जियो तो ऐसे जियो। विशेष : आगम बत्तीसी के संयोजक व प्रधान सम्पादक। शिष्य : आपके एक शिष्य हैं- 1. मुनि श्री विनयकुमारजी 'भीम'