________________
२४]
[ तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद]
की अभीष्टता सूचित की गई है। अथवा जिस ब्राह्मी औषधि अदि आहार के परिणमनरूप पुद्गल परिणाम का वेदन किया जाता है। जैसे – वर्षाकालीन मेघों की घटा देखकर युवतियाँ इष्टस्वर में गान करने में प्रवृत्त होती हैं । उसके प्रभाव से शुभनामकर्म का वेदन किया जाता है। अर्थात् शुभनामकर्म के फलस्वरूप इष्टस्वरता आदि का अनुभव होता है। यह परनिमित्तक शुभनामकर्म का उदय है। जब शुभनामकर्म के पुद्गलों के उदय से इष्ट शब्दादि शुभनामकर्म का वेदन होता है, तब स्वतः नामकर्म का उदय समझना चाहिए। __ अशुभनामकर्म का अनुभाव - जीव के द्वारा बद्ध, स्पृष्ट आदि विशेषणों से विशिष्ट दुख (अशुभ) नामकर्म का अनुभाव भी पूर्ववत् १४ प्रकार का है, किन्तु वह शुभ से विपरीत है। जैसे – अनिष्ट शब्द इत्यादि। ___गधा, ऊँट, कुत्ता अदि के शब्दादि अशुभ पुद्गल या पुद्गलों का वेदन किया जाता है, क्योंकि उनके सम्बन्ध से अनिष्ट शब्दादि उत्पन्न होते हैं। यह सब पूर्वोक्त शुभनामकर्म से विपरीतरूप में समझ लेना चाहिए। अथवा विष आदि आहार परिणामरूप जिस पुद्गल परिणाम का या स्वभावतः वज्रपात (बिजली गिरना) आदिरूप जिस पुद्गल परिणाम का वेदन किया जाता है तथा उसके प्रभाव से अशुभनामकर्म के फलस्वरूप अनिष्टस्वरता आदि का अनुभव होता है। यह परत: अशुभनामकर्मोदय का अनुभाव है। जहाँ नामकर्म के अशुभकर्मपुद्गलों से अनिष्ट शब्दादि का वेदन होता हो, वहाँ स्वतः अशुभनामकर्मोदय समझना चाहिए।' ___ गोत्रकर्म का अनुभाव : भेद, प्रकार, कारण - गोत्रकर्म के भी मुख्यतया दो भेद हैं - उच्चगोत्र और नीचगोत्र । उच्च जाति, कुल, बल, रूप, तप, श्रुत, लाभ और ऐश्वर्य की विशिष्टता का अनुभव (वेदन) उच्चगोत्रानुभाव है तथा नीच जाति आदि की विशिष्टता का अनुभव नीचगोत्रानुभाव है।
उच्चगोत्रनुभाव : कैसे और किन कारणों से ? - उस उस द्रव्य के संयोग से या राजा आदि विशिष्ट पुरुष के संयोग से नीच जाति में जन्मा हुआ पुरुष भी जातिसम्पन्न और कुलसम्पन्न के समान लोकप्रिय हो जाता है। यह जाति और कुल की विशिष्टता हुई। बलविशेषता भी मल्ल आदि किसी विशिष्ट पुरुष के संयोग से होती है। जैसे लकडी घुमाने से मल्लों में शारीरिक बल पैदा होता है, यह बल की विशेषता है। विशेष प्रकार के वस्त्रों और अलंकारों से रूप की विशेषता उत्पन्न होती है। पर्वत की चोटी पर खडे होकर आतापना आदि लेने वाले में तप की विशेषता उत्पन्न होती है। रमणीय भूभाग में स्वाध्याय करने वाले में श्रुत की विशेषता उत्पन्न होती हैं । बहुमूल्य उत्तम रत्न आदि के संयोग से लाभ की विशेषता उत्पन्न होती है। धन, स्वर्ण आदि के सम्बन्ध से ऐश्वर्य की विशेषता उत्पन्न होती है। इस प्रकार बाह्य द्रव्यरूप शुभ पुद्गल या पुद्गलों का जो वेदन किया जाता है, या दिव्य फल आदि के आहर-परिणामरूप जिस पुद्गल परिणाम का वेदन किया जाता है, अथवा स्वभाव से जिन पुद्गलों का परिणाम अकस्मात् जलधारा के आगमन आदि के रूप में वेदा जाता है, यही है उच्चगोत्र कर्मफल का वेदन। ये परतः उच्चगोत्रकर्मोदय के कारण हैं । स्वत: उच्चगोत्रकर्मोदय में तो उच्चगोत्र नामकर्म के पुद्गलों के उदय ही कारण है।
नीचगोत्रानुभाव : प्रकार और कारण - पूर्ववत् नीचगोत्रानुभव भी ८ प्रकार का है और उच्चगोत्र के फल से नीचगोत्र का फल एकदम विपरीत है, यथा- जातिविहीनता आदि। १. प्रज्ञापनासूत्र, प्रमेयबोधिनी टीका, भा. ५, पृ. २१३ से २१७ तक