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[ प्रज्ञापनासूत्र]
[२५ जाति-कुल-विहीनता - अधम कर्म या अधम पुरुष के संसर्गरूप-पुद्गलों का वेदन किया जाता है, जैसे कि अधर्मकर्मवशात् उत्तम कुल और जाति वाला व्यक्ति अधम आजीविका या चाण्डालकन्या का सेवन करता है, तब वह चाण्डाल के समान ही लोकनिन्दनीय होता है, यह जाति-कुल-विहीनता है। सुखशय्या आदि का योग न होने से बलहीनता होती है। दूषित अन्न, खराब वस्त्र आदि के योग से रूपहीनता होती है। दुष्ट जनों के सम्पर्क से तपोहीनता उत्पन्न होती है। सााध्वाभास आदि के सम्पर्क से श्रुतविहीनता होती है। देश-काल आदि के प्रतिकूल कुक्रय(गलत खरीद) अदि से लाभविहीनता होती है। खराब घर एवं कुल्टा स्त्री आदि के सम्पर्क से ऐश्वर्य हीनता होती है। अथवा बैंगन आदि आहारपरिणमनरूप पुद्गल परिणाम का वेदन किया जाता है, क्योंकि बैगन खाने से खुजली होती है, और उससे रूपविहीनता उत्पन्न होती है। अथवा स्वभाव से अशुभपुद्गल परिणाम का जो वेदन किया जाता है, जैसे जलधारा के आगमन सम्बन्धी विसंवाद, उसके प्रभाव से भी नीचगोत्रकर्म के फलस्वरूप जातिविहीनता आदि का वेदन होता है। यह परतः नीचगोत्रकर्मोदय का निरूपण हुआ। स्वतः नीचगोत्रोदय में नीचगोत्रकर्म के पुद्गलों का उदय कारण रूप होता है। उससे जातिविहीनता आदि का अनुभव किया जाता है।
अन्तरायकर्म का पंचविध अनुभाव : स्वरूप और कारण - दान देने में विघ्न आ जाना दानान्तराय है, लाभ में बाधाएँ आना लाभान्तराय है, इसी प्रकार भोग, उपभोग, और वीर्य में विघ्न होना भोगोन्तराय आदि है।
विशिष्ट प्रकार के रत्नादि पुद्गल या पुद्गलों का वेदन किया जाता है, यावत् विशिष्ट रत्नादि पुद्गलों के सम्बन्ध से उस विषय में ही दानान्तरायकर्म का उदय होता है । सेंध आदि लगाने के उपकरण आदि के सम्बन्ध से लाभान्तराय कर्मोदय होता है। विशेष प्रकार के आहार के या अभोज्य अर्थ के सम्बन्ध से लोभ के कारण भोगान्तरायकर्म का उदय होता है। इसी प्रकार उपभोगान्तराय कर्म का उदय भी समझ लेना चाहिए। लकडी, शस्त्र, आदि की चोट से वीर्यान्तराय का उदय होता है। अथवा जिस पुद्गलपरिणाम का - विशिष्ट आहार औषध का वेदन किया जाता है, उससे भी, यानि विशिष्ट प्रकार के आहार और औषध आदि के परिणाम से वीर्यान्तरायकर्म का उदय होता है। अथवा स्वभाव से विचित्र शीत आदि रूप पुद्गलों के परिणाम के वेदन से भी दानान्तरायादि कर्मो का उदय होता है। जैसे - कोई व्यक्ति वस्त्र आदि का दान देना चाहता है, मगर गर्मी, सर्दी आदि का आवागमन देखकर दान नहीं कर पाता – अदाता बन जाता है । यह हुआ परतः दानान्तरायादि कर्मोदय का प्रतिपादन । स्वतः दानान्तरायादि कर्मोदय में तो अन्तरायकर्म के पुद्गलों के उदय से दानान्तरायादि अन्तरायकर्म के फल का वेदन (अनुभव) होता है।
॥ तेईसवाँ कर्म-प्रकृतिपद : प्रथम उद्देशक समाप्त ॥
१. प्रज्ञापनासूत्र, प्रमेयबोधिनी टीका, भा. ५, पृ. २१८ से २२२ तक २. वही, भा. ५, पृ. २२३ से २२४