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________________ [ प्रज्ञापनासूत्र | [२३ बादलों आदि के विकार को देखकर मनुष्यों को ऐसा वेदन (विवेक) उत्पन्न होता है कि मनुष्यों की आयु शरदऋतु के मेघों के समान है, सम्पत्ति पुष्पित वृक्ष के सार के समान है और विषयोपभोग स्वप्न में दृष्ट वस्तुओं के उपभोग के समान है। वस्तुत: इस जगत में जो भी रमणीय प्रतीत होता है, वह केवल कल्पनामात्र ही है अथवा प्रशम आदि कारणभूत जिस पर किसी बाह्य पदार्थ के प्रभाव से सम्यक्त्वमोहनीय आदि मोहनीयकर्म का वेदन किया जाता है, यह परतः मोहनीयकर्मोदय का प्रतिपादन है। स्वतः मोहनीयकर्मोदय-प्रतिपादन जो सम्यक्त्ववेदनीय आदि कर्मपुद्गलों के उदय से मोहनीय कर्म का वेदन (प्रशमादिरूपफल का वेदन) किया जाता है, वह स्वतः मोहनीयकर्मोदय है । आयुकर्म का अनुभाव चार प्रकार से होता है - आयुकर्म का अनुभाव : प्रकार, स्वरूप, कारण नारकायु, तिर्यञ्चायु, मनुष्यायु और देवायु । परतः आयुकर्म का उदय आयु का अपवर्तन (ह्रास) करने में समर्थ जिस या जिन शस्त्र आदि पुद्गल या पुद्गलो का वेदन किया जाता है अथवा विष एवं अन्न आदि परिणामरूप पुद्गल परिणाम का वेदन किया जाता है अथवा स्वभाव से आयु का अपवर्तन करने वाले शीत उष्णादिरूप पुद्गल परिणाम का वेदन किया जाता है, उससे भुज्यमान आयु का अपवर्तन होता है। यह है आयुकर्म के परतः उदय का निरूपण । स्वतः आयु कर्म का उदय - नरकायुकर्म आदि के पुद्गलों के उदय से जो नरकायु आदि कर्म का वेदन किया जाता है; वह स्वतः आयुकर्म का उदय है। नामकर्म के अनुभावों का निरूपण - नामकर्म के मुख्यतया दो भेद हैं। शुभनाकमकर्म और अशुभनामकर्मशुभनामकर्म का इष्ट शब्द आदि १४ प्रकार का अनुभाव (विपाक) कहा है। उनका स्वरूप इस प्रकार है - इष्ट का अर्थ है – अभिलषित ( मनचाहा ) । नामकर्म का प्रकरण होने से यहाँ अपने ही शब्द आदि समझने चाहिए। इष्ट गति के दो अर्थ हैं – (१) देवगति या मनुष्यगति अथवा (२) हाथी आदि जैसी उत्तम चाल । इष्ट स्थिति का अर्थ है - इष्ट और सहज सिंहासन आदि पर आरोहण । इष्ट लावण्य अर्थात् - अभीष्ट कान्ति-विशेष अथवा शारीरिक सौन्दर्य । इष्ट यश कीर्ति - विशिष्ट पराक्रम प्रदर्शित करने से होने वाली ख्याति को कीर्ति कहते हैं । उत्थानादि छह का विशेषार्थ शरीर सम्बन्धी चेष्टा को उत्थान, भ्रमण आदि को कर्म, शारीरिक शक्ति को बल, आत्मा से उत्पन्न होने वाले सामर्थ्य को वीर्य, आत्मजन्य स्वाभिमान - विशेष को पुरुषकार और अपने कार्य में सफलता प्राप्त कर लेने वाले पुरुषार्थ को पराक्रम कहते हैं। इष्टस्वर • वीणा आदि के समान वल्लभ स्वर । कान्तस्वर कोकिला के स्वर के समान कमनीय स्वर । इष्ट सिद्धि आदि सम्बन्धी स्वर के समान जो स्वर बार-बार अभिलषणीय हो, वह प्रियस्वर : तथा मनोवांछित लाभ आदि के तुल्य जो स्वर स्वाश्रय में प्रीति उत्पन्न कराए, वह मनोज्ञस्वर कहलाता है। - · - - शुभनामकर्म के परतः एवं स्वतः उदय का निरूपण – वीणा, वेणु, वर्ण, गन्ध, ताम्बूल, पट्टाम्बर, पालखी, सिंहासन आदि शुभ पुद्गल या पुद्गलों का वेदन किया जाता है, इन वस्तुओं (पुद्गलों) के निमित्त से शब्द आदि १. प्रज्ञापनासूत्र प्रमेयबोधिनी टीका, भा. ५ पृ. २०८ से २१० २. वही, भा. ५, पृ. २११
SR No.003458
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size25 MB
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