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________________ २७८] पूर्वोक्त क्षेत्र को आपूर्ण एवं व्याप्त करते हैं । विवेचन – तैजससमुद्घात – तैजससमुद्घात चारों प्रकार के देवनिकायों, पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों और मनुष्यों में ही होता है। इसके अतिरिक्त नारक तथा एकेन्द्रिय, विकलेनिद्रय में नहीं होता । देवनिकाय आदि तीनों अतीव प्रयत्नशील होते हैं । अतः जब वे तैजसमुद्घात प्रारम्भ करते हैं, तब जघन्यत: लम्बाई में अंगुल का असंख्यातवाँ भाग क्षेत्र पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों को छोड़कर दिशा या विदिशा में आपूर्ण होता है। पंचेन्द्रियतिर्यञ्च द्वारा केवल एक दिशा में पूर्वोक्त क्षेत्र आपूर्ण एवं स्पृष्ट होता है। शेष सब कथन वैक्रियसमुद्घात के कथन के समान समझना चाहिए। आहारकसमुद्घात-समवहत जीवादि के क्षेत्र, काल एवं क्रिया की प्ररूपणा २१६६. [ १ ] जीवे णं भंते! आहारगसमुग्धाएणं समोहए समोहणित्ता जे पोग्गले णिच्छुभति तेहि णं भंते! पोग्गलेहिं केवतिए खेत्ते अफुण्णे केवतिए खेत्ते फुडे । [ प्रज्ञापनासूत्र ] गोमा ! सरीरपमाणमेत्ते विक्खंभ-बाहल्लेणं, आयामेणं, जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं उक्कोसेणं संखेज्जाई जोयणाई एगदिसिं एवइए खेत्ते ० । एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा विग्गहेणं एवतिकालस्स अफुण्णे एवतिकालस्स फुडे । [२१६६-१ प्र.] भगवन्! आहारकसमुद्घात से समवहत जीव समवहत होकर जिन (आहारकयोग्य) पुद्गलों को (अपने शरीर से) बाहर निकालता है, भगवन् ! उन पुद्गलों से कितना क्षेत्र आपूर्ण तथा कितना क्षेत्र स्पृष्ट (व्याप्त) होता है ? [२१६६-१ उ.] गौतम! विष्कम्भ और बाहल्य से शरीरप्रमाण मात्र (क्षेत्र) तथा लम्बाई में जघन्य अंगुल का असंख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट संख्यात योजन क्षेत्र एक दिशा में (उन पुद्गलों से) आपूर्ण और स्पृष्ट होता है। [२] ते णं भंते ! पोग्गला केवतिकालस्स णिच्छुभति ? गोयमा! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तस्स । [२१६६-२ प्र.] भगवन् ! (आहारकसमुद्घाती जीव) उन पुद्गलों को कितने समय में बाहर निकलता है ? [२१६६-२ उ.] गौतम! जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त में (वह उन पुद्गलों को) बाहर निकालता है। [ ३ ] ते णं भंते! पोग्गला णिच्छूढा समाणा जाई तत्थ पाणाई भूयाइं जीवाई सत्ताइं अभिहणंति जाव उद्दवेंति तओ णं भंते! जीवे कतिकिरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय पंचकिरिए । १. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ११००-११०१ (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि. रा. कोष, भा. ७, पृ. ४५६ २. पूरक पाठ - 'अफुण्णे एवइए खेत्ते फुडे । [प्र.] से णं भंते । केवइकालस्स अफुण्णे, केवइकालस्स फुडे ? [उ.] गोयमा !
SR No.003458
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size25 MB
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