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[छत्तीसवाँ समुद्घातपद]
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ते णं भंते! जीव तातो जीवाओ कतिकिरिया ? गोयमा! एवं चेव।
[२१६६-३ प्र.] भगवन् ! बाहर निकाले हुए वे पुद्गल वहाँ जिन प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों का अभिघात करते हैं, यावत् उन्हें प्राणरहित कर देते हैं, भगवन् ! उनसे (समुद्घातकर्ता) जीव को कितनी क्रियाएं लगती हैं ?
[२१६६-३ उ.] (ऐसी स्थिति में) वह कदाचित् तीन, कदाचित् चार और कदाचित् पांच क्रियाओं वाला होता है। ___ [प्र.] भगवन् ! वे आहारकसमुद्घात द्वारा बाहर निकाले हुए पुद्गलों से स्पृष्ट हुए जीव आहारकसमुद्घात करने वाले जीव के निमित्त से कितनी क्रियाओं वाले होते हैं ?
[उ.] गौतम! इसी प्रकार समझना चाहिए। [४] से णं भंते! जीवे ते य जीवा अण्णेसिं जीवाणं परंपराघाएणं कतिकिरिया? गोयमा! तिकिरिया वि चउकिरिया वि पंचकिरिया वि।
[२१६६-४ प्र.] (आहारकसमुद्घातकर्ता) वह जीव तथा (आहारकसमुद्घातगत पुद्गलों से स्पृष्ट) वे जीव, अन्य जीवों का परम्पर से घात करने के कारण कितनी क्रियाओं वाले होते हैं ?
[२१६६-४ उ.] गौतम! (पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार) वे तीन क्रिया वाले, चार क्रिया वाले अथवा पांच क्रिया वाले भी होते हैं।
२१६७. एवं मणूसे वि। [२१६७] इसी प्रकार मनुष्य के आहारकसमुद्घात की वक्तव्यता समझ लेनी चाहिए।
विवेचन-आहारकसमुद्घात सम्बन्धी वक्तव्यता-शरीर के विस्तार और स्थौल्य जितना क्षेत्र विष्कम्भ और बाहल्य की अपेक्षा आपूर्ण और स्पृष्ट होता है। लम्बाई में जघन्य अंगुल का असंख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट संख्यात योजन क्षेत्र उन पुद्गलों से एक दिशा में आपूर्ण स्पृष्ट होता है। वे पुद्गल विदिशा में क्षेत्र को आपूर्ण या व्याप्त नहीं करते।
विग्रह की अपेक्षा से पूर्वोक्त क्षेत्र एक समय, दो समय अथवा तीन समय की विग्रहगति से आपूर्ण एवं स्पृष्ट होता है।
___ आहारकसमुद्घात मनुष्यों में ही हो सकता हैं । मनुष्यों में भी उन्हीं को होता है, जो चौदहपूर्वो का अध्ययन कर चुके हों। चौदह पूर्वो के अध्येताओं में भी उन्हीं मुनियों को होता है, जो आहारकलब्धि के धारक हों। अतएव चौदह पूर्वो के पाठक और आहारकलब्धि के धारक मुनिवर जब आहारकसमुद्घात करते है, तब जघन्य और उत्कृष्ट रूप से पूर्वोक्त क्षेत्र को आत्मप्रदेशों से पृथक् किये पुद्गलों से एक दिशा में आपूर्ण और स्पृष्ट करते हैं, विदिशा में नहीं। विदिशा में जो आपूर्ण स्पृष्ट होता है, उसके लिए दूसरे प्रयत्न की आवश्यकता होती है, किन्तु १. (क) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि. रा. कोष, भा. ७, पृ. ४५६
(ख) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ११०२-११०३