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[प्रज्ञापनासूत्र] आहारकलब्धि के धारक तथा आहारकसमुद्घात करने वाले मुनि इतने गम्भीर होते हैं कि उन्हें वैसा कोई प्रयोजन नहीं होता। अत: वे दूसरा प्रयत्न नहीं करते।
- इसी प्रकार आहारकसमुद्घातगत कोई जीव मृत्यु को प्राप्त होता है और विग्रहगति से उत्पन्न होता है, और वह विग्रह अधिक से अधिक तीन समय का होता है।
अन्य सब आहारकसमुद्घातगत कथन वेदनासमुद्घात के समान जानना चाहिए।
दण्डकक्रम से आहरकसमुद्घात की वक्तव्यता क्यों?-यद्यपि आहारकसमुद्घात मनुष्यों को ही होता है, अतएव समुच्चय जीवपद में जो आहारकसमुद्घात की प्ररूपणा की गई है, उसमें मनुष्य का अन्तर्भाव हो ही जाता है. तथापि दण्डकक्रम से विशेषरूप से प्राप्त मनुष्य के आहारकसमदघात का भी उल्लेख किया गया है। इस कारण यहाँ पुनरुक्तिदोष की कल्पना नहीं करना चाहिए। केवलिसमुद्घात-समवहत अनगार के निर्जीर्ण अन्तिम पुद्गलों की लोकव्यापिता .
२१६८. अणगारस्स णं भंते! भावियप्पणो केवलिसमुग्घाएणं समोहयस्स जे चरिमा णिजरापोग्गला सुहुमा णं ते पोग्गला पण्णत्ता समणाउसो! सव्वलोगं पि य णं ते फुसित्ता णं चिट्ठति? ..
हंता गोयमा! अणगारस्स भावियप्पणो केवलिसमुग्घाएणं समोहयस्स जे चरिमा णिजरापोग्गला सुहुमा णं ते पोग्गला पण्णत्ता समणाउसो! सव्वलोगं पि य णं ते फुसित्ता णं चिट्ठति।
[२१६८ प्र.] भगवन् ! केवलिसमुद्घात से समवहत भावितात्मा अनगार के जो चरम (अन्तिम) निर्जरापुद्गल हैं, हे आयुष्मन् श्रमण ! क्या वे पुद्गल सूक्ष्म कहे गए है, क्या वे समस्त लोक को स्पर्श करके रहते हैं ?
[२१६८ उ.] हाँ, गौतम! केवलिसमुद्घात से समवहत भावितात्मा अनगार के जो चरम निर्जरा-पुद्गल होते हैं, हे आयुष्मन् श्रमण ! वे पुद्गल सूक्ष्म कहे गए हैं तथा वे समस्त लोक को स्पर्श करके रहते हैं।
२१६९. छउमत्थे णं भंते! मणूसे तेसिं णिजरापोग्गलाणं किंचि वण्णेणं वण्णं गंधेणं गंधं रसेणं रसं फासेण वा फासं जाणति पासति ?
गोयमा! णो इणढे समढे ।
से केणढेणं भंते! एवं वुच्चति छउमत्थे णं मणूसे तेसिं णिजरापोग्गलाणं णो किंचि वि वण्णेणं वण्णं गंधेणं गंधं रसेणं रसं फासेणं फासं जाणति पासति ?
गोयमा! अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीव-समुद्दाणं सव्वब्भंतराए सव्वखुड्डाए वट्टे तेल्लापूयसंठाणसंठिए एगं जोयणसयसहस्सं आयाम-विक्खंभेणं, तिण्णि य जोयणसयसहस्साइं सोलस य सहस्साई दोण्णि य सत्तावीसे जोयणसत्ते तिण्णि य कोसे अट्ठावीसं च धणुसतं तेरस य अंगुलाई अद्धं च किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते। देवे णं महिड्ढीए जाव महासोक्खे एगं महं सविलेवणं गंधसमुग्गयं गहाय तं अवदालेति, तं महं एगं सविलेवणं गंधसमुग्गयं अवदालेत्ता इणामेव कटु केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं १.(क) वही भा. ७, पृ. ११०७ (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अ.रा. कोष, भा. ७, पृ. ४५६