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________________ [ छत्तीसवाँ समुद्घातपद ] [ २८१ तिंहि अच्छराणिवातेहिं तिसत्तखुत्तो अणुपरियट्टित्ता णं हव्वमागच्छेजा से णूणं गोयमा ! से केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे तेहिं घाणपोग्गलेहिं फुडे ? हंता फुडे । छउमत्थे णं गोतमा ! मणूसे तेसिं घाणपोग्गलाणं किंचि वण्णेणं वण्णं गंधेणं गंधं रसेणं रसं फासेणं फासं जाणति पासति ? भगवं! णो इणट्ठे समट्ठे । ट्ठे गोयमा ! एवं वुच्चति छउमत्थे णं मणूसे तेसिं णिज्जरापोग्गलाणं णो किंचि वण्णेणं वण्णं गंधेणं गंधं रसेणं रसं फासेणं फासं जाणति पासति, एसुहुमा णं ते पोग्गला पण्णत्ता समणाउसो ! सव्वलोगं पि य णं फुसित्ता णं चिट्ठति । [२१६९ प्र.] भगवन्! क्या छद्मस्थ मनुष्य उन निर्जरा - पुद्गलों के चक्षु इन्द्रिय (वर्ण) से किंचित् वर्ण को, घ्राणेन्द्रिय (गन्ध) से किंचित् गंध को रसनेन्द्रिय (रस) से रस को, अथवा स्पर्शेन्द्रिय से स्पर्श को जानता - देखता है ? [२१६९ उ.] गौतम ! यह अर्थ ( बात) शक्य (समर्थ) नहीं है। [प्र.] भगवन्! किस कारण ऐसा कहते हैं कि छद्मस्थ मनुष्य उन निर्जरा - पुद्गलों के चक्षु-इन्द्रिय से वर्ण को, घ्राणेन्द्रिय से गन्ध को, रसनेन्द्रिय से रस को तथा स्पर्शेन्द्रिय से स्पर्श को किचित् भी नहीं जानता- देखता ? [उ.] गौतम! यह जम्बूदीप नामक द्वीप समस्त द्वीप-समुद्रों के बीच में है, सबसे छोटा है, वृत्ताकार (गोल) है, तेल के पूए के आकार का है, रथ के पहिये (चक्र) के आकार सा गोल है, कमल की कर्णिका के आकार-सा गोल है, परिपूर्ण चन्द्रमा के आकार सा गोल है। लम्बाई और चौडाई (आयाम एवं विष्कम्भ ) में एक लाख योजन है । तीन लाख, सोलह हजार दो सो सत्ताईस योजन, तीन कोस, एक सौ अट्ठाईस धनुष, साढ़े तेरह अंगुल से कुछ विशेषाधिक परिधि से युक्त कहा है। एक महर्द्धिक चावत् महासौख्यसम्पन्न देव विलेपन सहित सुगन्ध की एक बड़ी डिविया को (हाथ में लेकर) उसे खोलता है। फिर विलेपनयुक्त सुगन्ध की खुली हुई उस बडी डिबिया को, इस प्रकार हाथ में लेकर के सम्पूर्ण जम्बूदीप नामक द्वीप को तीन चुटकियों मे इक्कीस बार घूम कर वापस शीघ्र जाय, तो हे गौतम! (यह बताओ कि ) क्या वास्तव में उन गन्ध के पुद्गलों से सम्पूर्ण जम्बूद्वीप स्पृष्ट हो जाता है ? [उ.] हाँ, भंते! स्पृष्ट (व्याप्त) हो जाता है। [प्र.] भगवन्! क्या छद्मस्थ मनुष्य (समग्र जम्बूद्वीप में व्याप्त) उन घ्राणको नासिका से, रस को रसेन्द्रिय से और स्पर्श को स्पर्शेन्द्रिय से किचित् जान -पुदगलों के वर्ण को चक्षु से गन्ध देख पाता है ? [उ.] हे गौतम! यह अर्थ समर्थ (शक्य) नहीं है। (भगवान्) इसी कारण से हे गौतम! ऐसा कहा जाता है कि छद्मस्थ मनुष्य उन निर्जरा- पुद्गलों के वर्ण को नेत्र से, गन्ध को नाक से रस को जिह्वा से और स्पर्श को स्पर्शेन्द्रिय से किंचित् भी नहीं जान-देख पाता । हे आयुष्मन् श्रमण ! वे (निर्जरा-) पुद्गल सूक्ष्म कहे गए हैं तथा वे समग्र लोक को स्पर्श करके रहे हुए हैं। विवेचन - के वलिसमुद्घात - समवहत भावितात्मा अनगार के चरम - निर्जरा - पुद् गल - प्रस्तुत
SR No.003458
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size25 MB
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