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[ प्रज्ञापनासूत्र ]
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होता है। मनुष्य के सम्बन्ध में भी यही कथन समझना चाहिए। नारकादि कोई सात और कोई आठ के बन्धक होते हैं।
बहुत जीव (समुच्चय) पद में - सभी सात के या बहुत आठ के, बहुत से एक के, कोई एक छह का बंधक होता है। अथवा बहुत सात के, बहुत आठ के, बहुत एक के और बहुत छह के बन्धक होते हैं। शेष नारकों से वैमानिकों तक में ज्ञानावरणीयकर्मबंध के कथन के समान है। मनुष्यों के सम्बन्ध में ९ भंग मूल पाठ में उल्लिखित हैं।
मोहनीय का बन्धक समुच्चय जीव और एकेन्द्रिय मोहनीय कर्मबन्ध के समान ७ या ८ के बंधक होते हैं । मोहनीयकर्म का बन्धक छह प्रकृतियों का बंधक नहीं हो सकता, क्योंकि ६ प्रकृतियों का बंध सूक्ष्मसम्पराय नामक दसवें 'गुणस्थान में होता है, मोहनीय का बंधक नौवें गुणस्थान तक ही होता है।
आयुकर्मबन्ध के साथ अन्य कर्मों का बन्ध - आयुकर्मबंधक जीव नियम से ८ प्रकृतियों का बंध करता है। २४ दणडकवर्ती जीवों का भी इसी प्रकार कथन जानना ।
नाम, गोत्र व अन्तराय कर्म के साथ अन्य कर्मों का बन्ध ज्ञानावरणीयकर्म के साथ जिन प्रकृतियों का बंध बताया है, उन्हीं प्रकृतियों का बंध इन तीनों कर्मों के बंध के साथ होता है।
॥ प्रज्ञापना भगवती का चौबीसवाँ कर्मबन्ध पद समाप्त ॥
१. (क) पण्णवणासुतं (मू. पा. टि.) भाग १, पृ. ३८५ से ३८७ तक (ख) प्रज्ञापनासूत्र (प्रमेयबोधिनी टीका) भाग ५, पृ. ४६७ से ४८४ तक (ग) मलयगिरिवृत्ति, पद २४ पर
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